अफसोस कि पीएमओं वाजिब सवालों को गुजारिश के बाद भी पूछने का मौका नहीं देता
– संजय रोकड़े –
हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आफिस से एक से डेढ़ माह के अंतराल में दो खबरें सामने आई है। पहली ये कि पीएम मोदी की विदेश यात्राओं से देश को हासिल क्या हुआ और दूसरी यह कि उनकी सुरक्षा पर खर्च कितना हुआ है। ये दोनों बातें देश के अवाम के सामने तब आई जब पीएमओ ने इन सूचनाओं के संदर्भ में आरटीआई एक्टिविस्टों को सूचना देने से बचने का काम किया। इन सूचनाओं के बारे में प्रधानमंत्री कार्यालय ने केंद्रीय सूचना आयोग से कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं के लाभों की गणना नहीं की जा सकती है। इस तरह का कोई आंकड़ा आधिकारिक रिकॉर्ड का अंग नहीं होता है। पीएमओं ने इस तरह का जवाब देकर आरटीआई आवेदकों को हवा कर दिया। बता दे कि आरटीआई एक्टिविस्टों ने देश के पीएम से संबंधित जो जानकारी हासिल करना चाही थी वह बहुत अहम थी लेकिन जवाब में जो मिला वह इतना उत्साहजनक नही रहा। जवाब तो सीधा सपाट था& पीएम की विदेश यात्राओं पर जो जानकारी चाही गई है वह वेबसाइट पर उपलब्ध है। वहीें दूसरी सूचना के मामले में यह कहते हुए मना कर दिया कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा के मामले स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप दएसपीजी½ से संबंधित हैं] जो आरटीआई एक्ट की धारा 24 में आरटीआई से बाहर हैं। इस तरह की सूचनाओं को दबाने के साथ ही पीएमओं ने आरटीआई एक्टिविस्ट को सूचना देने से टरका दिया। बहरहाल यह बात सही है कि कुछ सूचनाएं ऐसी होती है जिनके उजागर होने से राष्ट्र की सुरक्षा पर सीधा&सीधा असर होता है लेकिन ये बात तो समझ से परे है कि आखिर किसी देश का प्रधानमंत्री विदेश यात्राएं करता है और उन यात्राओं से देश को क्या हासिल हुआ है इस बात के उजागर होने से राष्ट्र या उस राष्ट्र के प्रधानमंत्री को कौन सा जोखिम हो सकता है] यह मेरी समझ से थोड़ा परे है। ठीक इसी तरह से देश की जनता को इस बात से अनभिज्ञ रखना की उसके खून पसीने की कमाई का जो वह टेक्स के रूप में सरकार को चुका रहा है उसकी इस मेहनत की कमाई का कितना फीसदी वजीरे आजम की सुरक्षा में खर्च हो रहा है। यह जानना तो उसका स्वाभाविक अधिकार है। लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस सूचना के अधिकार से भी वंचित कर दिया। चाही गई सूचनाओं को आरटीआई एक्ट की धारा 24 में आरटीआई से बाहर बता कर सूचनाओं से महरूम रखना कितना उचित और अनुचित है यह तो एक संवाद या विवाद का विषय हो सकता है लेकिन मेरी समझ से तो देश की जनता को इस तरह की सूचनाओं से महरूम रखने के पीछे एक सोची समझी षडयंत्र की बू आती है।
बता दे कि जून 201च को कीर्तिवास मंडल ने पीएमओं में एक आरटीआई दायर कर यह जानना चाहा कि आखिर अभी तक पीएम मोदी ने कितनी विदेश यात्राएं की है और वहां कितने घंटे बिताए है साथ ही इन यात्राओं से देश को हासिल क्या हुआ है। इस संबंध में पीएमओ ने 10 अक्तूबर 2017 को सुनवाई में आवेदक को बताया कि प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा एवं उसमें हुए खर्च के बारे में जो जानकारी मांगी है वह वेबसाइट पर उपलब्ध है। इसके साथ ही मुख्य सूचना आयुक्त राधाकृष्ण माथुर ने कहा कि विदेश यात्राओं के लाभ की गणना नहीं हो सकती और यह उनके रिकॉर्ड में भी उपलब्ध नहीं है। विदेश यात्रा में लगे घंटे भी रिकॉर्ड में नहीं हैं। हालाकि आवेदक उनके इस कथन के बाद भी संतुष्ट नही हुआ] वह सीआईसी पहुंच गया। वहां उसने कहा कि उसे मिले उत्तर में कई सूचनाएं पूरी नहीं हैं] जैसे कि विदेश यात्रा में बिताए गए घंटे। वह कौन सा कोष था जिससे प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा में धन व्यय किया गया वगैराह&वगैराह। विदेश यात्राओं से जनता को होने वाले लाभ की जहां तक बात है] इस संबंध में सूचित किया कि यह जानकारी आधिकारिक रिकॉर्ड का अंग नहीं है। खैर। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा पर कितना खर्च होता है इस जानकारी को छूपाना से आखिर क्या हासिल किया जा सकता है। बता दे कि पीएमओं ने दूसरे आरटीआई एक्टिविस्ट डॉ- नूतन ठाकुर को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा पर होने वाले खर्च व उनकी सुरक्षा में लगे कार्मिकों और वाहनों की संख्या का ब्यौरा देने से मना कर दिया।
लखनऊ की डॉ- नूतन ने मोदी की सुरक्षा में लगे कार्मिकों और वाहनों की संख्या के साथ ही इन कार्मिकों] वाहनों के ईंधन व रखरखाव पर आने वाले खर्च का ब्यौरा मांगा था। लेकिन इस संबंध में पीएमओ के अवर सचिव दआरटीआई½ प्रवीण कुमार ने पूरी सूचना देने से इनकार करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा तथा सरकारी वाहन के मामले स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप दएसपीजी½ से संबंधित होते हैं] जो आरटीआई एक्ट की धारा 24 में आरटीआई से बाहर हैं। कुछ&कुछ इसी तरह की सूचना डॉ- नूतन ने राष्ट्रपति सचिवालय से भी मांगी थी। हालाकि डीसीपी] राष्ट्रपति भवन] नई दिल्ली ने जीवन तथा शारीरिक सुरक्षा को खतरा होने के आधार पर राष्ट्रपति के साथ लगे सुरक्षाकर्मियों की कुल संख्या तथा उन सुरक्षाकर्मियों के मूवमेंट के लिए लगाई गई गाडिय़ों की संख्या देने से मना कर दिया लेकिन राष्ट्रपति सचिवालय ने यह जरूर बता दिया कि पिछले चार साल में राष्ट्रपति के साथ लगे सुरक्षाकर्मियों की सैलरी पर 155-4 करोड़ रुपये व सुरक्षाकर्मियों के मूवमेंट में लगी गाडिय़ों के रखरखाव पर च4-9 लाख रुपये खर्च किया है। इसके साथ ही यह भी बताया कि गाडिय़ों के लिए ईंधन सरकारी पेट्रोल पंप से दिया जाता है।
काबिलेगौर हो कि इस समय पीएमओं में सूचना के अधिकार के तहत पीएम मोदी के संबंध में प्रधानमंत्री कार्यालय से कई तरह की सूचनाएं मांगी जा रही है लेकिन दुखद और हास्यास्पद है कि *यादातर सूचनाओं के मामले में संतुष्टि भरा जवाब नही दिया जा रहा है। इस कारण भी देश की जनता *यादा सूचनाएं हासिल करना चाह रही है। जनता यह जानने को भी लालायित है कि आखिर क्यों प्रधानमंत्री से संबंधित जानकारियों को छुपाया जा रहा है। सवाल तो ये भी उठाएं जा रहे है कि ऐसा करने के लिए क्या स्वंय पीएम मोदी ने मना किया है या फिर अफसर सुरक्षा कारणों का हवाला देकर जनता को सूचनाओं से महरूम रख रहे है। सवाल तो ये भी खड़ा हो रहा है कि आखिर देश के प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएं राजनीतिक लाभ का प्रकल्प साबित हो सकती है तो सूचनाएं हानिकारक कैसे बन सकती है। बताते चले कि बीते समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने गोवा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विदेश यात्राओं के संबंध में बयान देकर उसे राजनीतिक लाभ लेने की भरसक कोशिश की थी। वे मोदी की विदेश यात्राओं के संबंध में बोले थे कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मुकाबले कम विदेश यात्राएं की हैं। इतना ही नही इस तरह की बयानबाजी करते हुए अमित ने हैरानी जाहिर की कि लोग पता नहीं क्यों ऐसा सोचते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने *यादा विदेश यात्राएं की हैं। हालाकि उस समय अमित ने ये नहीं बताया कि उनके ऐसा कहने का आधार क्या है\ बावजूद इसके जानते हैं कि शाह के इन दावों में कितनी सट्टचाई थी। बता दे कि विदेश मंत्रालय की आधिकारिक सूचना के मुताबिक] नरेंद्र मोदी ने मई 2014 में प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद से तीन साल के कार्यकाल में 45 देशों का 57 बार दौरा किया और 1झ्2 से *यादा दिन विदेश में गुजारे। अगर विश्व के बड़े नेताओं के बीच विदेश यात्राओं का कोई मुकाबला हो तो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे बड़ी आसानी से जीत लेंगे। खैर।
वहीं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दस साल के अपने पूरे कार्यकाल में छ0 विदेश यात्राएं की और कुल झ्05 दिन विदेश में गुजारे। इस हिसाब से मनमोहन सिंह ने हर साल औसतन आठ विदेशी दौरे किए] जबकि नरेंद्र मोदी ने तीन साल में 5च विदेश यात्राएं की यानी कम&से&कम सालाना 1छ विदेश यात्राएं। औसतन सालाना छ विदेश यात्राओं को 1छ से अधिक कैसे बताया जा सकता है। अमित शायद प्रधानमंत्री मोदी की तीन साल की विदेश यात्राओं की तुलना मनमोहन सिंह के दस साल से कर रहे थे। लेकिन मोदी इसी रफ्तार से विदेश यात्राएं करते रहें और मनमोहन सिंह की तरह अगर वे दस वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे तो वे 1छ0 विदेश यात्राएं कर चुके होंगे। आपके समक्ष जो ये आंकड़ें रखे गए है वह अप्रैल 2017 तक के हैं। मतलब साफ है कि विदेश यात्राओं से भी राजनीतिक लाभ कमाने के चक्कर में झुटे&सट्टचे कुछ भी दावे किए जाते है। लेकिन इस झुट सच के चक्कर में असल मुद्दे से ध्यान भटकाना कितना लाजिमी है। आज भी देश की जनता मोदी सरकार के तीन साल के कामकाज में सबसे अधिक रूचि और जानकारी विदेश नीति के संबंध में हासिल करना चाहती है। इसमें भी ये कि मोदी के तीन साल के विदेश दौरें तो बहुत हुए पर देश को मिला क्या\
काबिलेगौर हो कि विदेश नीति के मामले में पिछले तीन सालों में जो मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है वही सरकार की नाकामी की ओर भी इशारा करती है। चीन और पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्ते] विदेशी नीति के स्तर पर सफल रहे या विफल यह एक अहम सवाल है। इसी साल मई के महीने में इसका नजारा दो अलग&अलग मौकों पर देखने को मिला। एक ओर जहां हेग में भारत ने पाकिस्तान को चारों खाने चित कर दिया] दूसरी ओर बीजिंग में जहां चीन के नेतृत्व में वन बेल्ट] वन रोड विशाल प्रोजेक्ट पर हुई दो दिन की बैठक। इसका भारत ने बहिष्कार किया और इसे बड़ी चुक के रूप में देखा जा रहा है। बीजिंग की इस कांफ्रेंस में बहुत सारे देश शरीक हुए और चछ समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। नेपाल] श्रीलंका और पाकिस्तान समेत दर्जनों देशों ने बीजिंग की वन बेल्ट वन रोड सभा में शिरकत की लेकिन हमारे बहिष्कार के चलते अलग&थलग हो गए। चीन सारी दुनिया को समेट कर ले आया था। इसे हम सफल कैसे कह सकते हैं\
जान ले कि चीन की अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुना बड़ी है। भारत ने इसका विरोध कर कुटनीतिक सफलता हासिल करने की बजाय कुछ गमाया ही है। भारत और चीन के रिश्तों पर गहरी नजर रखने वाले राजनयिकों की माने तो बीजिंग बैठक में अलग&थलग होने के चलते भी चीन से हमारे रिश्ते बिगड़े हैं। इसे प्रधानमंत्री की उपलब्धियों की श्रेणी में रखना सही नहीं होगा। आप देखें] तो हमारे रिश्ते चीन और पाकिस्तान के साथ पिछले कुछ दिनों से रोलर&कोस्टर राइड की तरह से चल रहे हैं। कभी तो एक दूसरे से गले मिलते हैं] तो कभी नाराज हो जाते हैं। पिछले डेढ़&दो साल से तो चीन से रिश्ते काफी उलझे हुए हैं। भारत के लिए सबसे बड़ा मुद्दा उसकी न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप की सदस्यता का भी है। चीन&पाकिस्तान इकनोमिक कॉरिडोर के पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर से होकर गुजरने पर भारत का ऐतराज भी एक अहम मुद्दा है] क्योंकि भारत उसे अपना एक अटूट हिस्सा मानता है। इस मामले में देश के बड़े&बड़े राजनयिक मोदी की इस नीति से ना इत्तेफाक ही रखते है। इतना ही अनेक जानकार तो मोदी की पाकिस्तान और चीन की पॉलिसी को बेकार ही करार देते है। मोदी अमेरिका और जापान के साथ जो रिश्ते बने उनको भी परवान नही चढ़ा सके। जिस तेजी से अमरीका और जापान से दोस्ती को मजबूती देने का प्रयास किया गया वह भी अपेक्षित सफलता अर्जित नही कर सका। बेशक इस समय हमारे संबंध अमरीका और जापान के साथ कुछ बेहतर हुए हैं लेकिन यह संवेदनात्मक कम और व्यापारिक अधिक है। विदेश नीति के जानकरों का तो ये भी मानना है कि मोदी की विदेश नीति का सबसे बड़ा और कमजोर कारण सरकार की स्पष्ट नीति का अभाव भी है। विदेशी भी मानते है कि मोदी सरकार की नीति स्पष्ट नही है। यहां कभी गाय के नाम पर मुस्लिमों को मारा जा रहा है तो कभी जाति के नाम पर उग्र हिंदू दलितों को निशाना बना रहे है। इसके साथ ही विशेषज्ञों की माने तो मोदी की विदेश नीति की नाकामी नेपाल से बिगड़ते रिश्ते भी रहे हैं। बीजिंग में वन बैल्ट वन रोड मुहिम को आगे बढ़ाने के चीन ने जो दो दिन की बैठक बुलाई थी उसमें नेपाल भी शामिल हुआ। नेपाल अब चीन की इस मुहिम में पूरी तरह से शामिल है। अब ऐसा लगने लगा है कि नेपाल का झुकाव चीन की तरफ अधिक है जो भारत के लिए एक बड़ा झटका है। मोदी सरकार ने नेपाल और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों के साथ चीन के बढ़ते संबंध को केवल एक व्यापारिक संबंध के रूप में देखा। प्रधानमंत्री मोदी ने श्रीलंका के अपने दौरे में इस बात को उजागर भी किया कि श्रीलंका के साथ भारत के रिश्ते को व्यापारिक रिश्तों से नहीं तोलना चाहिए। नेपाल के संदर्भ में भी वे ऐसे ही विचार प्रकट कर चुके है। इस मामले में नरेंद्र मोदी के समर्थक और विरोधी सभी इस बात पर सहमत हैं कि उनकी विदेश नीति में सबसे बड़ी नाकामी पाकिस्तान और चीन से रिश्ते में सुधार लाना है। आम चुनाव में जीत के बाद शपथ ग्रहण समारोह में मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ समेत पड़ोसी देश के सभी नेताओं को बुलाकर एक नया संदेश दिया था लेकिन कालांतर में सब गुड़ गोबर हो गया। वक्त गुजरने के साथ सब भ्रम ही साबित हुआ। जानकार तो ये मान कर चल रहे है कि मोदी के विदेश दौरों के फायदे कम नुकसान अधिक नजर आने वाले हैं। इसमें कोई दो राय नही है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हाइपर एक्शन आया था। भारत की विजिबिलिटी बढ़ी लेकिन इस जोश और रफ्तार के बावजूद भारत अपने दो सबसे अहम पड़ोसी चीन और पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने में नाकाम रहा है। बेशक] प्रधानमंत्री मोदी की काम करने की जो रफ्तार है वो पहले के सभी प्रधानमंत्रियों से अलग है। फ्रांस के रफाएल डील और जैतापुर न्यूक्लियर पावर प्लांट की बात हो या जर्मनी में मेक इन इंडिया के नारे के साथ हनोवर व्यापार मेले का सहयोगी बनना हो या चाहे कनाडा से परमाणु ईंधन पर हुआ करार। आज तीन साल बाद ये सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या इन दौरों ने प्रधानमंत्री के साथ सरकार की छवि पर भी असर डाला है\
इसमें कोई शक नही है कि उनकी विदेश यात्राओं का जो सिलसिला और फ्रीक्वेंसी है] लोगों से मिलने की कोशिश है] उनसे सीधे बात करने का जो तरीका है वह रफ्तार को बढ़ाता है लेकिन क्या ये सोच को भी बदलता है\ क्या रफ्तार बढऩे से भारत की विदेश नीति बदली है। शक्तिशाली हुई है\ क्या इसने भारत के प्रोफाइल को दुनिया भर में बढ़ाया है\ क्या देश की छवि बेहतर हुई है\ क्या विदेशी निवेश बढ़ा है\
तीन साल बाद इन सवालों को मोदी सरकार के सामने रखना बहुत वाजिब है लेकिन अफसोस कि पीएमओं हमें इन सवालों को कई बार गुजारिश के बाद भी पूछने का मौका नहीं देता है। बहरहाल जो भी हो लेकिन मोदी की विदेश नीति उस समय तक सफल नहीं कहलाएगी जब तक कि पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के रिश्ते बेहतर न हों।
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संजय रोकड़े
पत्रकार ,लेखक व् सामाजिक चिन्तक
संपर्क – :
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लेखक पत्रकारिता जगत से सरोकार रखने वाली पत्रिका मीडिय़ा रिलेशन का संपादन करते है और सम-सामयिक मुद्दों पर कलम भी चलाते है।
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