**प्रधानमंत्री पद के लिए बिछती शतरंजी बिसातें

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**निर्मल रानी

अगले लोकसभा चुनावों को मद्देनज़र रख़ते हुए सभी राजनैतिक दल मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के तरह-तरह के फार्मूले तलाश करने लगेे हैं। कहीं लोकहितकारी उपाय अपनाए जा रहे हैं तो कहीं केवल लोकलुभावन उपायों से ही काम चलाने की कोशिश की जा रही है। कहीं विकास कार्य कराए जा रहे हैं तो कहीं अपने छोटे-मोटे कामों को ही विज्ञापनों के माध्यम से बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। और तमाम जगहों पर तो क्वपारंपारिक भारतीय राजनीतिं की शैली का अनुसरण करते हुए आश्वासनों और वादों से ही काम चलाने की कोशिश की जा रही है। इन सब के बीच हालांकि अन्ना हज़ारे जैसे समाजसेवी द्वारा राजनैतिक दलों के नेताओं को आईना दिखाने का काम ज़रूर किया जा रहा है। परंतु अन्ना की तमाम कोशिशों के बावजूद देश भविष्य में फिर भी लोकसभा व विधानसभा चुनावों से रूबरू होगा और हो न हो इन्हीं शरी$फ,ईमानदार, भ्रष्ट,महाभ्रष्ट, अपराधी,गैंगस्टर, कातिल,रेपिस्ट,चोर,बेईमान लुटेरे आदि प्रत्याशियों में से किसी न किसी एक प्रत्याशी को चुनने के लिए देश का मतदाता संभवतज् फिर मजबूर होगा। एक ओर जहां अन्ना हज़ारे जनलोकपाल की मांग को लेकर देश की जनता को लामबंद कर चुके हैं वहीं उन्होंने अब चुनाव सुधार प्रक्रिया को लेकर बड़े ही तार्किक व बुनियादी प्रश्र्न खड़े किए हैं। परंतु जब तक देश की जनता शत-प्रतिशत चुनाव सुधार $कानून से रूबरू नहीं होती उस समय तक तो आç$खरकार जनता को इसी वर्तमान चुनावी व्यवस्था को ही ढोते रहना पड़ेगा।

यही वजह है कि क्रांति अन्ना को कोई अहमियत न देते हुए देश के लगभग सभी राजनैतिक दल तथा उन राजनैतिक दलों में तमाम कथित क्वसामथ्र्यवानं नेतागण इस बात की जुगत बिठाने में लग गए हैं कि किस प्रकार प्रधानमंत्री पद पर अपना कब्ज़ा जमाया जाए। और सत्ता के इस सर्वोच्च पद को हासिल करने के लिए अब party व गठबंधन स्तर पर भी घमासान मचने लगा है। उदाहरण के तौर पर भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने अपनी प्रस्तावित भ्रष्टाचार विरोधी यात्रा के बहाने क्रांति अन्ना से जुड़े लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते हुए एक बार फिर जनता को यह एहसास कराने की कोशिश की है कि 84 वर्ष की आयु में अभी भी वे पूरी तरह कुशल,सक्षम व ज़रूरत पड़ने पर देश का नेतृत्व करने की स्थिति में हैं। यह और बात है कि अडवणी की इस चाहत को न केवल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा पलीता लगा दिया गया है बल्कि गुजरात के मु यमंत्री नरेंद्र मोदी भी स्वयं को प्रधानमंत्री पद के मज़बूत दावेदार समझने लगे हैं। गुजरात में विकास व भारी पूंजीनिवेश की बातें कर वे इस समय स्वयं को भाजपा का सबसे शक्तिशाली नेता मान रहे हैं। पिछले दिनों सद्भावना उपवास के नाम से मोदी ने जो क्वशों आयोजित किया तथा उस क्वशों के बाद एक महारैली आयोजित की और अब राज्य के प्रत्येक çज़ले में एक दिन का उपवास रखकर वहां के विकास की बातें करने की योजना पर काम कर रहे हैं, यह सारी $कवायद गुजरात विधानसभा चुनावों के अतिरिक्त राष्ट्रीय राजनीति से भी जुड़ी हुई हंै।

नरेंद्र मोदी के इस बढ़ते $कद तथा party स्तर पर राज्य में स्वयं किसी प्रकार के आयोजन का निर्णय लेने की उनकी शैली ने भाजपा के सभी शीर्ष नेताओं को सकते में डाल दिया है। लिहाज़ा यह सोचना कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व सामूहिक रूप से नरेंद्र मोदी या लाल कृष्ण अडवाणी में से किसी एक के नेतृत्व पर एकमत होगा तथा इनमें से किसी एक को party के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री के रूप में घोषित करेगा ऐसी उ मीद नज़र नहीं आती। और यदि यह मान भी लिया जाए कि नरेंद्र मोदी के नाम पर party में सहमति बन भी जाती है तो दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि एनडीए के शेष घटक दल क्या नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने को लेकर एकमत होंगे? शायद कभी नहीं। वह इसलिए कि एनडीए के घटक दलों में शिवसेना व अकाली दल जैसे छोटे घटकों को छोड़कर शेष घटक दल इस बात पर पूरी नज़र रख़ते हैं कि भारतीय जनता party से एक हद तक ही रिश्ते बेहतर बनाए जाएं। अर्थात् केवल उस स्तर तक जहां कि एनडीए कांग्रेस से सत्ता छीन पाने में सफल हो जाए। परंतु यही घटक दल इस बात का भी पूरा ध्यान रख़ते हैं कि अडवाणी व मोदी जैसे कट्टर हिंदुत्व की छवि रखने वाले नेताओं से दूरी बनाकर रखी जाए। एनडीए के अधिकांश घटक दलों की यही विचारधारा न केवल अडवाणी को प्रधानमंत्री पद पर बैठने से रोक रही है बल्कि भविष्य में नरेंद्र मोदी के लिए भी यही समस्या निश्चित रूप से खड़ी हो सकती है। गोया अडवाणी या नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने के लिए अपने अकेले दम पर कम से कम 2भ्0 सीटें जीतनी होंगी तभी कहीं जाकर अडवाणी या नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा हो सकेगा। और भाजपा के नेता यह भलीभांति जानते हैं कि ढाई सौ के आंकड़े तक पहुंचना उनकी party व party के नेताओं के बस की बात कम से कम निकट भविष्य में तो हरगिज़ नहीं है।

उपरोक्त राजनैतिक समीकरणों से साफ है कि भाजपा के अतिरिक्त एनडीए के घटक दलों में से ही कोई और क्वसामथ्र्यवानं चेहरा प्रधानमंत्री के रूप में देश को अपनी सेवाए देने की कोशिश कर सकता है। और यदि एनडीए के अन्य घटक दलों में सबसे मज़बूत संभावित दावेदार के रूप में बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार का नाम लिया जाए तो इसमें कोई आpर्य की बात नहीं है। अडवाणी और मोदी द्वारा चली जाने वाली शतरंजी चालों की ही तरह नीतीश कुमार की पिछली कुछ राजनैतिक चालों पर गौर फरमाइए। उदाहरण के तौर पर नीतीश कुमार ने बड़ी ही प्रसन्नचित मुद्रा में स्वयं को सुशासन बाबू और विकास बाबू के नाम से परिचित कराया। वे दावा कर रहे हैं कि बिहार का विकास आज़ादी से लेकर अब तक उतना नहीं हो सका जितना कि उन्होंने अपने संक्षिप्त शासनकाल में कराया है। नितीश का नरेंद्र मोदी को भाजपा द्वारा बिहार में चुनावों में न बुलाए जाने के लिए दबाव बनाना,यह कोई नितीश व मोदी की व्यक्तिगत रंजिश का मामला नहीं था। यदि ऐसा होता तो वे एनडीए की लुधियाना रैली में नरेंद्र मोदी के साथ मंच भी सांझा नहीं करते। परंतु जहां उन्होंने लुधियाना में मोदी के साथ हाथ से हाथ मिलाकर एनडीए की एकता का प्रदर्शन किया वहीं बिहार में चुनावों के दौरान उनके प्रवेश पर आपçत्त कर तथा बिहार में आयोजित भाजपा के राष्ट्रीय स मेलन में नरेंद्र मोदी के आने पर उस स मेलन में न जाकर नितीश ने मोदी विरोधी अल्पसं यक मतों को $खुश करने की चाल चली। इतना ही नहीं नितीश कुमार ने गुजरात के मु यमंत्री द्वारा कोसी नदी के बाढ़ पीçड़तों को दी गई सहायता राशि को भी वापस कर उनसे अपना फ़ासला बनाए रखने का खुला संदेश दिया।

आç$खर क्या है इस प्रकार की अवसरवादी राजनैतिक पैंतरेबाज़ी के अर्थ? कहीं सद्भावना उपवास तो साथ-साथ टोपी न स्वीकार करने का भी प्रदर्शन? और कहीं समुदाय विशेष के मतों को आकर्षित करने के लिए किसी नेता विशेष से न$फरत करने का ढोंग? दरअसल यह सब शतरंजी चालें देश के भावी प्रधानमंत्री के पद को मद्देनज़र रख़ते हुए चली जा रही हैं। कभी देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की कोशिश में राजनैतिक मंथन चलने लगता है तो कभी इन प्रयासों को असफल होते देख क्वसद्भावनारूपीं प्रयास शुरु कर दिए जाते हैं। और कभी इन दोनों ही $फार्मूलों के मंथन से क्वअमृतं न निकलता देखकर भ्रष्टाचार विरोधी क्वयलग़ारं की कोशिशें की जाने लगती हैं। परंतु जब इन भ्रष्टाचार विरोधी क्वराजनैतिक नायकोंं के समक्ष अन्ना हज़ारे का आईना आता है उस समय इनकी çस्थति ऐसी हो जाती है जैसे कि जंगल में नाचते हुए मोर ने अपने पांव देख लिए हों। और ऐसे में जनता को दिखाने के लिए कर्नाटक व उत्तरांचल के मु यमंत्रियों को भी बदलने के प्रयोग किए जाते हैं। परंतु कर्नाटक के रेaी बंधुओं की गिर$ तारी इन राजनैतिक प्रयोगों को गहरी ठेस पहुंचाती है।

उपरोक्त समस्त राजनैतिक परिस्थितियां उन्हीं हालात में सामने आ सकती हैं जबकि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन आगामी लोकसभा चुनावों में सत्ता तक पहुंचने के जादूई आंकड़ों को न छू सके। अन्यथा कांग्रेस party की ओर से तो देश को युवा प्रधानमंत्री पेश करने के रूप में राहुल गांधी की ताजपोशी की तैयारी की जा रही है। अब देखना यह होगा कि अगला लोकसभा का आम चुनाव राहुल गांधी बनाम लालकृष्ण अडवाणी होगा या राहुल बनाम नरेंद्र मोदी या फिर राहुल बनाम सुशासन बाबू अर्थात् राहुल बनाम नीतीश कुमार? और यदि उपरोक्त समीकरणों के अतिरिक्त चुनाव का समय आने तक कोई नए राजनैतिक समीकरण बने या इनमें से किसी भी नेता पर सहमति न बनी तो इस बात की भी संभावना है कि एच डी देवगौड़ा व इंद्रकुमार गुजराल की ही तरह किसी ऐसे नेता की भी लॉटरी खुल जाए जिसके नाम की अभी जनता कल्पना भी नहीं कर पा रही है। बहरहाल, यह कहना $गलत नहीं होगा कि राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य पर जो कुछ भी घटित होता दिखाई दे रहा है उसकी पृष्ठभूमि में केवल प्रधानमंत्री पद की दावेदारी ही मु य है जिसके लिए शतरंजी बिसातें बिछनी शुरु हो चुकी हैं।

**निर्मल रानी
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer)
1622/11 Mahavir Nagar
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Haryana
phone-09729229728

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC

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