पुस्तक समीक्षा : सिसकियाँ लेता स्वर्ग

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निदा नवाज़ उन चुनिन्दा लेखको में से एक हैं जो ”  इंसान के रूहानी  दर्द ” को कागज़ पर उकेरना जानते हैं : अंतराष्ट्रीय समाचार एवम विचार निगम 

– समीक्षा – 

– डा. रजनी बाला –

Nida Nawaz,writer  Nida Nawaz, poet Nida Nawaz, dr  Nida Nawaz, story written by  Nida Nawaz,  Nida Nawaz from jammu and kashmir,invc news1991 से 2015 तक के इतिहास को समेटती डायरी सिसकियाँ लेता स्वर्ग में निदा नवाज़ ने 26 कडि़यों में कश्मीर के दर्द का सिलसिला पिरोया है। डायरी में सभी शीर्षक कशमीर के और एक आम कश्मीरी के दर्द को रूपायित करने वाले हैं। जब बात सिसकियाँ लेते स्वर्ग की हो तो ज़ाहिर है उसे किसी कश्मीरी हन्दु या कश्मीरी मुसलमान की नब्ज़ में ही नहीं टटोला जा रहा बलिक उसका ग़वाह चिनार भी है, सैलानियों से भरी डल भी, तुषारमणिडत हिम श्रृंखला भी है और असमान से होड़ लेते देवदार भी। धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले इस सतीसर प्रदेश और शारिका की सिसकियाँ न केवल निदा नवाज़ ने सुनी हैं बलिक वह स्वयं भी इनके साथ बदस्तूर सिसका है। सच कहने की हिमाक़त करता यह लेखक सिर पर कफ़न बांध और सिर हथेली पर लेकर चलता है। चले भी क्यों न – जिसने मौत का ताण्डव कर्इ बार देखा हो, महज़ दाढ़ी रखने के कारण जो दो बार फौजियों द्वारा पीटा गया हो, इस्लाम का दुश्मन समझे जाने और विद्रोही तेवर के कारण जिसका तीन बार आतंकियों ने अपहरण किया हो, जब हथगोले फटे तो उन्होंने नहीं देखा कि वह हिन्दू के लिए जानलेवा होगा या निदा के लिए नासूर बनने वाले पाँच घाव देगा, जिसकी हिम्मत देख यमराज भी भाग खड़ा हो, जो जीने की ललक में हर पल मौत के मुहाने तक पहुँच जाए उसे आखि़र सच कहने, समाज और राजनीति का वीभत्स आवरण उतारने से कौन रोक सकता है ? इसीलिए कबीर की तरह उसका रवैया आक्रामक और तेवर व्यंग्यात्मक है। उसका विरोध हर तरह के कटटरतावाद से है; हिन्दू या मुसलमान से नहीं इसीलिए कश्मीरी हिन्दुओं का पलायन शीर्षक के अन्तर्गत उसने कटटर मुसिलम को जी भर-भर कर कोसा है तो उसके प्रतिरोध में हिन्दू के कटटर होने पर उसकी भी अच्छी ख़बर ली है कि हड़प्पा, मोहनजोदड़ों सभ्यता के दफ़न होने के चिन्ता है लेकिन कश्मीरी सभ्यता के दफ़न होने की नहीं जबकि लेखक को काशीनाथ का घर ढ़हने से लगता कश्मीरी सभ्यता ढ़ह गर्इ।

आमतौर पर डायरी का कोर्इ निशिचत भूगोल, घटना, परिवेश, पात्र नहीं होता। हालांकि यह कोर्इ अकाटय नियम नहीं है। हरिवंशराय बच्चन की ‘प्रवास की डायरी में आक्सफोर्ड और कैमिब्रज स्थान विशेष और उससे जुड़ी मानसिकता के हवाले है। सिसकियाँ लेता स्वर्ग का पूरा कैनवास आतंक के साये में स्तब्ध कश्मीर घाटी की छवि को उकेरता है। कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी आतंक की जो कटी-फटी, आधी-अधूरी तस्वीर राष्ट्रीय-अन्तर्राट्रीय धरातल पर दिखार्इ जाती रही है उसकी हकीक़त, रग-रेशे से निदा नवाज़ की पुरानी और स्वानुभूत पहचान है। इसी कारण आज के अंधेरे दौर की एक-एक कड़वी स्मृति और नग्न यथार्थ को सहेजने की कोशिश में कश्मीर की अभिव्यकित सिसकियाँ लेते स्वर्ग के रूप में हुर्इ है। डायरीकार ने बड़े-बड़े नामचीनों की कलर्इ उतारी है। किसी को नहीं बख़्शा। बख़्शे भी क्यों – जब कोर्इ उसके या उस जैसों के लिए कुछ नहीं कर रहा। हरेक उसे गकऱ् करने पर तुला है।

मीडिया कश्मीरी हालात को ‘राष्ट्रीय हित की छलनी में छानता है। आतंकियों द्वारा मानवीय उल्लंघन को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाता है जबकि फर्जी झड़पों, आतंक विरोधी एजेंसियों और फौजियों की ड्रामेबाजी, पुलिस की ज़्यादतियों को नज़रअंदाज करता है। निदा नवाज़ ने इसी पहलू पर अधिक नज़र रखी है। मीडिया ने अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए ‘ब्रेकिंग-न्यूज के तौर पर कश्मीर पर लिखी पुस्तकों की मार्केटिंग बढ़ाने के लिए आम कश्मीरी की भावनाओं का शोषण किया है। कश्मीर में लिखे जा रहे साहित्य और लेखन के नाम पर डल झील के किनारे कार्यक्रम, लेखकीय सरोकारों को नज़रअंदाज करती पर्यटक वाली मानसिकता, साहित्य के नाम पर धन और यश बटोरने वाले ग़ैर सरकारी संगठनों द्वारा सब कुछ प्रायोजित, राजनेताओं के बीच उठा-पटक करती चालें, धर्म की दहलीज़ पर बैठे मौलवियों की तुच्छ करतूतें, हिन्दू कटटरवादी फौजियों की साजिशों की चाश्नी में पगी फर्जी झड़पों की कड़वाहट को निदा नवाज़ की आँखों, दिलों-दिमाग ने झेला है। इसीलिए वह बेबाक ढ़ंग से कह सके कि हिन्दू कटटरवादी संगठन कश्मीरी मुसिलम समुदाय को कश्मीरी पंडितों के विस्थापन का कारण मानते हैं जबकि मुसिलम भी आतंक और फौजियों के ज़ुल्मों से नहीं बचे हैं। उन्हें स्वयं मुसिलम होने और दाढ़ी रखने के कारण फौजियों ने पीटकर शर्मसार किया।

इस डायरी में आतंकवाद के प्रेरणा-स्रोतों की बड़ी बारीकी से पड़ताल की गर्इ है। लेखक ने साहस और दु:साहस की सीमाएं लांघते हुए बयान दिया है कि आतंकवादी आसमान से नहीं उतरते, किसी पेड़ पर नहीं उगते बलिक तीन तरह के खलनायक आतंकवादी बनाते हैं। एक नेता, जो कुर्सी न मिलने पर असफल होकर खींसें निपोरते हुए कश्मीर का बेसुरा राग अलाप धर्म का राजनीतिकरण और राजनीति धार्मिकीकरण करते हुए उसमें आम आदमी की भावनाओं का तड़का लगाते हैं। दूसरे, धार्मिक कटटरवादी जिसमें एक वर्ग हिन्दू-मुसिलम धार्मिक प्रपंचों के दुराग्रही पंडित-मौलवियों का है और दूसरा हिन्दू-मुसिलम कटटरवादी फौजियों का जो सिफऱ् धार्मिक मतभेद के कारण दूसरे वर्ग पर हमला करते हैं। तीसरे खलनायकों का आम लोगों के बीच बड़ा सम्मान है लेकिन वे तरक्की और तमगे के मोह में फर्जी मुठभेड़ों में मेमनों का शिकार भेडि़ये बताकर करने वाले सेना और पुलिस के जवान हैं। कश्मीर समस्या का हल आज तक इसीलिए नहीं हुआ कि कोर्इ सांप्रदायिक-सांस्कृतिक जड़ों को खोखला करने वाले खलनायकों पर निशाना नहीं साधता, सभी पत्तों (आतंकियों) को तोड़ने और आतंकवाद को उखाड़ने में लगे हुए हैं।

डायरी में आतंकवाद की प्रेरणा के कुछ स्थूल और प्रत्यक्ष कारणों के भी हवाले हैं। मसलन, जेहाद का नाम देकर इस्लाम का अपमान करने वाली इस्लामिक क्रानित, इस्लामिक शासन और सीमा पार के अपने आक़ाओं की शाबाशी बटोरने का मोह। कहीं डर तो कहीं अव्यवस्था से जन्मी उकताहट और मोहभंग के कारण युवा वर्ग आतंकवादियों को नायक मानने लगा है। ग़रीबी से निजात पाने की फि़राक में मुफलिसी के शिकार युवाओं को सीमा पार आतंकी ट्रेनिंग के लिए भेजा जा रहा है। ‘चील और चीते की दोस्ती शीर्षक कड़ी में निदा ने अली बाबा को एक रूपक के तौर पर लेते हुए उग्रवाद के विकास की प्रक्रिया समझार्इ है। अली बाबा जैसे लोग उस शोषण का नतीज़ा थे जिसने हज़ारों नौजवानों को मिलिटेंट बनाया और इस तरह नौजवान एक और बड़े शोषण का शिकार हुए। राजनीतिक-सामाजिक शोषण के शिकार अली बाबा उफऱ् अली मुहम्मद ने जाना कि उग्रवाद, उग्रवादी, नेता, फौज, पुलिस सब दलाल हैं, सब क़ातिल हैं, मसीहा कोर्इ नहीं। ऐसे में एक प्रकार की अद्र्धविक्षिप्तता के चलते सच बोलने वाले को शराबी और पागल कहा जाता है। आतंकवादी कैसे बनाये जाते हैं इसकी पूरी ‘स्क्रीनिंग निदा नवाज़ ने डायरी में की है। बेरोजगार, मानसिक रूप से विÑत, मक्कार राजनीति और बेर्इमान अफसरशाही के शिकार युवाओं को रर्इस धर्मगुरु आतंकवाद की ट्रेनिंग देकर उन्हें जेल और कब्र सौंपते हैं और जेहाद के नाम पर दूसरे देशों की दौलत से अपनी तिजोरी भरते हैं। इस तरह धार्मिक शिष्टाचार के पाबंद, ज़ुबान में दुनिया भर की चिकनार्इ लपेटे इन शातिर दिमागों में भरी बारूद की भेंट हज़ारों जवान चढ़ते हैं।

‘मिलिटेंसी से उपजा एक नया वर्ग में निदा ने स्पष्ट किया है कि उस जैसे विद्रोही लेखक बुद्धिजीवी होने के कारण आतंकी न बने वरना आतंकवादी बनने में कसर कोर्इ बाकी न थी। ऐसे लोग मिलिटेंसी से उपजे एक नये वर्ग जिसे ‘भारत बोली और ‘पाक बोली एक साथ बोलने का गुण आता है, का शिकार हुए थे। लोगों की चमड़ी को अपने जूते के साइज में फिट करने का गुण रखने वाले बौद्धिक रूप से जड़, बारूद से गर्जना किन्तु तर्क-दलील से कोसों दूर रहने वाले वर्ग के बर्क इंकलाबी साहब ने लेखक के खिलाफ़ पोस्टर निकाल पुलवामा की बड़ी मसिजद में फिर से इस्लाम क़बूल करने का आदेश दिया। जबकि जनाब कलमुद्दीन के सामने उसे इसलिए पेश किया गया कि हिन्दी लेखक होने के बावजूद वह मुसलमान कैसे हो सकता है ? लेखक ने हिन्दू-मुसिलम कटटरवादियों पर तीखे प्रहार किए हैं। उसका मानना है कि बाबरी मसिजद विध्वंस ने हिन्दू-मुसिलम एकता में न भूलने वाली दरार बना दी है। हिन्दू कटटरवादी राज्य गुजरात-महाराष्ट्र और संगठन शिवसेना को निदा ने साँप बताया है। शिवसेना का नारा कि ‘मुसलमानों या इस्लाम छोड़ो या हिन्दुस्तान और ”इन राज्यों की साम्प्रदायिक सोच रखने वाली पुलिस जिसका इतिहास सदैव अक़लियत से दुश्मनाना रहा हो उन्हें शाबाशी दे रही हो तो भला भारत के बड़े अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बनिधत युवाओं में साम्प्रदायिक सोच पैदा होना क्या लाजिमी नहीं है ? (पृ.85) इस प्रकार धार्मिक कठमुल्लापन किसी भी समुदाय या मज़हब से जुड़ा हो आतंकी और आतंकवाद को जन्म देता है क्योंकि मनुष्य को सबसे मानसिक और भावनात्मक तौर पर कमज़ोर धर्म के नाम पर ही बनाया जा सकता है।

डायरी में अनेक ऐसे हवाले हैं जो साफ करते हैं कि आतंकवाद प्रत्यक्ष आतंकियों के रूप में भी है और ख़ाकी वर्दी वालों के तमगे और राजनेताओं की कुर्सी चाहने वाली षडयन्त्रकारी बुद्धि के नकाब में भी है। 12 मर्इ 1994 की नोटिंग में लेखक को फौजियों की ज़्यादती का महज़ इसलिए शिकार होना पड़ता है कि वह दाढ़ी से अपरग्राउण्ड का लगता है। ये लोग ‘भेडि़ये के बदले भेड़ को केवल इसलिए आतंकी घोषित कर देते हैं ताकि तरक्की मिल सके। सैनिक ड्रामेबाजियों में हर रोज़ इतने बेगुनाहों के गले में एके 47 क्लेंशिकोफ़ डाल सच के नाम पर झूठ उगलवाने की कोशिश में लात, घूसों गालियों, लाठियों यहाँ तक कि एनकाउण्टर की आज़माइश होती है कि मिलिटेंट और मिलिटरी में कोर्इ अन्तर नहीं रहता। डायरी में ऐसे सन्दर्भों से सवाल उठाया गया है कि क्या यह दृश्य लोकतानित्रक देश का लगता है जहाँ फौजी मिलिटेंट का और मिलिटेंट मुखबिर का ठप्पा लगाकर मारते हैं क्योंकि पहले को तरक्की और तमगा दूसरे को आतंक का फैलाव चाहिए। कोशिशों की छोटी चादर के बाहर आतंकवाद के जो पैर फैलते जा रहे हैं उसका एक मनोवैज्ञानिक कारण डायरीकार ने इस स्थल पर स्पष्ट किया है, ”क्या इस तरह से नौजवानों के वर्ग को भावनात्मक और मानसिक तौर पर उŸोजित नहीं किया जा रहा है ? जिसका लाभ कुछ कटटरवादी और देशद्रोही तत्व उठा रहे हैं। (पृ.47) अपने ही बागों की फोटो खींचने की सज़ा जहाँ पूछताछ से लेकर जेल और जमानत तक मुकर्रर हो जाए, जहाँ 23 फरवरी 1991 की रात भर आठ से अस्सी साल तक के लगभग सौ औरतों का बलात्कार 68 बि्रगेडियर राजपूताना राइफल्स की टुकड़ी द्वारा किया गया हो; वहाँ ऐसे अपमानजनक हादसे क्या आतंकी बनाने के लिए काफी नहीं है ? आलम यह है कि सैकड़ों फौजी कैम्पों के साथ सैकड़ों कबि्रस्तान हैं जिसकी एक-एक कब्र में दर्जनों लापता लोगों के कंकाल हैं। इन्सानों को कंकालों में तब्दील करने का काम इन फौजियों ने ही किया है।

‘मैं, दाढ़ी और डर शीर्षक के अन्तर्गत लेखक ने बड़ी विडम्बनापूर्ण सिथति का हवाला दिया है कि उसकी दाढ़ी आतंक का पर्याय हो गर्इ। कृष्णा सोबती की कहानी ‘मेरी माँ कहाँ की तरह जब वेशभूषा मज़हब से और मज़हब आतंक से जोड़कर देखे जाने लगते हैं तब बाहरी रूपरेखा ही संदेह, भय, दहशत पैदा करने के लिए काफी होती है लेकिन यह प्रवृत्ति कितनी सही है इस पर विचार करने की ज़रूरत है। डायरी में एक स्थल पर बीएसएफ जवान बदज़ुबानी करता है, ”हरामी कहीं का, तुम सभी कश्मीरी साले आतंकवादी हो। तुम्हारी दाढ़ी से तो लगता है कि तुम पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादी होगे। (पृ.27) ज़ाहिर है इस घटना से निदा को कश्मीरी और अफ्रीकी ग़ुलाम होने में कोर्इ फर्क नहीं लगा। यहाँ सवाल उठता है कि लेखक शायद बुद्धिजीवी होने के कारण उग्रवादी न हुआ लेकिन क्या आम आदमी इस प्रकार से शर्मसार हो आतंकी न बन जाता ? इस प्रकार ‘दम तोड़ता देश-प्रेम शीर्षक बेहद मार्मिक और चिन्तनपरक है। अगर बीएसएफ जवान की टिप्पणी ठीक होती तो 18 दिसम्बर 2014 को पाकिस्तानी स्कूल में हुए आतंकी हमले की जड़ें लेखक ने 1989 में घाटी में बर्बर लोगों के कदम और उनका स्वागत करने वालों में न देखी होती।
ऐसे दौर में लेखक को लगता है, ”स्वच्छ भारत अभियान के अन्तर्गत क्या मोदी जी को देश के इस कटटरवाद की गन्दगी साफ करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती ? (पृ.98) यहीं पर यह भी ध्यान देने की बात है कि निदा नवाज़ को इस मामले में कोर्इ खुशफ़हमी नहीं है कि राजनीतिक सरमायेदार कुछ सुधार के मूड में हैं। जब सुषमा स्वराज ‘गीता को राष्ट्र-ग्रन्थ घोषित करने का प्रस्ताव रखे, उŸार प्रदेश के बीजेपी अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी जब ताजमहल के लिए फ़तवा दें कि असल में यह एक मनिदर रहा है, जब बीजेपी सांसद साक्षी महाराज नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त घोषित करें – ऐसे में राजनीति से स्वच्छ अभियान की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? कश्मीरी मुसलमान होने के बावजूद निदा नवाज़ धारा 370 के खिलाफ़ हैं। ज़ाहिर है उनका सरोकार मज़हब या प्रान्त की हदबन्दी से नहीं है। ऐसी धारा से ”आखिर हम कब तक इस जम्मू-कश्मीर के समाज को वाटर टार्इट-कम्पार्टमेंट में रख सकते हैं ? (पृ.104) इस सिलसिले में उनके तर्क मार्क करने योग्य हैं। जब वे कहते हैं कि अगर इस्लाम के आधार पर पाकिस्तान बना तो इरान, अरब अलग क्यों हैं एक ही देश हो जाए। उन्होंने साफ किया है कि आतंकवाद से ज़्यादा कश्मीर समस्या के लिए दूसरे लोग जि़म्मेदार हैं, ”यह बात ज़रूर है कि राजनेता पैंतरेबाजियों को, धार्मिक संगठन नफ़रत भरे नारों को और चंद लोग पाकिस्तान के हरे झण्डे को अवश्य सुरक्षित रखेंगे, क्या मालूम हमारी प्रयोगशाला बनी घाटी में कब और किस समय इन सब चीज़ों की जरूरत पड़े। (पृ.63) इसी के साथ राज्य में अस्थायी रूप से कठपुतली सरकारों की स्थापना करके केन्द्र सरकार एक तरह से राजनीतिक कैंसर को विकसित कर रही है।

आतंक का सिलसिला क्यों थमने का नाम नहीं ले रहा इस की कड़ी लेखक ने विधान सभा की बेंच में ढूँढी है, ”यहाँ जो दल सरकार में होता है वह भारत का गुणगान करता है और जो दल विपक्ष में होते हैं उनको पाकिस्तानी लहजा इखि़तयार करने में देर नहीं लगती। (पृ.13) जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन ने दसवीं तक पढ़े मदरसों के अध्यापकों को इस्लामी वफ़ादारी के कारण विधालयों में स्थायी नियुकित दे दी। इस संदर्भ में डायरी में बड़ी सख्त टिप्पणी हुर्इ है, ”इस तरह जगमोहन ने अप्रत्यक्ष रूप से इन अध्यापकनुमा शिकारियों के निशाने पर इन मासूम मेमनों जैसे बच्चों को रखा है। नर्इ पीढ़ी के साथ जगमोहन जैसे तानाशाह के हाथों इससे बड़ा खिलवाड़ भला क्या हो सकता है। (पृ.56) स्वर्ग और जन्नत का सामान जुटाने की फिराक़ में लगे लोग हैं, कुर्सी के लिए दोस्त की मिज़ाजपुर्सी पूछने वाले हैं, धर्म के आधार पर अध्यापक की जुगाड़ लगाने वाले हैं किन्तु अधखुली कब्र में ‘कपड़े में लिपटी सच्चार्इ के तौर पर नवजात बच्ची से किसी का कोर्इ मतलब नहीं। सवाल यह है कि ऐसी सच्चार्इ को धर्म और सियासत से जुड़े लोग कब स्वीकार करेंगे ?

डायरी के बारे में आम धारणा है कि है निज अभिव्यकित का माध्यम है। बचपन से हम सभी सीखते आ रहे हैं कि किसी की डायरी नहीं पढ़नी चाहिए। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर डायरी छपती क्यों है ? अगर बेहद निजी है तो किसी की रामगाथा में पाठक को क्योंकर रुचि हो सकती है ? ज़ाहिर है डायरी के बारे में जो धारणाएं हैं उनकी हदें अब बेमानी हो गर्इ हैं। डायरी मात्र निज की अभिव्यकित नहीं होती बलिक ज़रूरी यह देखना है कि सिथति, परिवेश, घटना के प्रति व्यकित-विशेष की निजी प्रतिक्रिया क्या है ? यह प्रतिक्रिया ही शेष समाज से डायरी को जोड़ती है क्योंकि कहीं न कहीं वे प्रतिक्रियाएं बाहरी व्यकित के अंत:स्थल में भी कभी न कभी विचरण करती हैं इसीलिए डायरी छपवार्इ जाती है। यहीं पर यह भी स्पष्ट कर दें कि डायरी में वैयकितक हवाले होते हैं किन्तु वे इस प्रकार के होते हैं कि आमतौर पर भी के बन सकें। डायरी का मतलब बेहद निजी, प्राइवेट क्षणों वाली, केवल व्यस्कों के लिए टैग वाले चित्रों और चरित्रों की प्रदर्शनी कतर्इ नहीं है। इस के बावजूद वह एक तरह का ‘कन्फेस बाक्स है जहाँ लेखक स्वयं को खंगालते हुए शुद्ध रूप में आत्मस्वीकार करता है। ज़ाहिर है ऐसा करने में किसी का भी बड़प्पन उजागर है। ‘क्रेकडाउन में सहमा प्यार शीर्षक के अन्तर्गत लेखक की आत्मस्वीकृति है कि वह बारूदी माहौल को भूल किसी की दिल्लगी और प्यार में खो जाना चाहता है। बस में इन्द्रधनुषी यौवन वाली लड़की जब उसके साथ सीट पर बैठ जाती है तो लेखक उसकी ओर सरकता गया और उसने महसूस किया ”उसका स्पर्श अंगारे भरा हुआ था। कुछ दूर चलने पर मैं पूरी तरह पुरुषों वाली प्रवृŸाि पर आ ही गया। (पृ.22) ज़ाहिर है यहाँ हवाला निजी है लेकिन प्रवृत्ति सामान्य है। इसी प्रकार आतंक के काले साये में जीने वाले लेखक के अनुभव बेहद निजी हैं किन्तु वह स्वयं एक रूपक बन गया है – उन कश्मीरी आम लोगों का जो बिना जुर्म के सजा भोग रहे हैं। जैसे 19 अक्टूबर 1990 की नोटिंग में तीन आतंकियों द्वारा निदा का अपहरण और उन्हें भारतीय एजेंट, मुलिहद (नासितक), कम्युनिस्ट कहकर प्रताडि़त करना। हिज़बुल मुजाहिददीन के आतंकियों को अपने कमांडर से निदा को गोली मारने के आदेश के कारण बड़ी बहन की शादी में उनके शरीक न होने की बेबसी, डर की हद यह कि सोच और शरीर के बीच का सम्बन्ध टूट जाए, घाटी से बाहर अपने ही देश में कश्मीरी मुसलमान होने के कारण जि़न्दा बम समझे जाने का अपमान – क्या ऐसे हवालों को इस काले दौर में केवल लेखक तक सीमित करके ही देखा जा सकता है ? इनकी तपिश का सम्बन्ध हमारी रगों से नहीं है ?

डायरी की सच्चार्इ उसमें दर्ज़ नाम, तिथि, स्थान, तथ्य, आँकड़ों से साफ होती है। निदा नवाज़ ने यह सच्चार्इ बेहद निर्भीक प्रवृत्ति के कारण बयाँ की है। गीलानी हो या आडवानी, महबूबा मुफ्ती हो या सोनिया गाँधी, नरेन्द्र मोदी हो या गुलाम नवी आज़ाद, मुफ्ती मौहम्मद सैयद हो या फारूक अब्दुल्ला, केन्द्र सरकार का कोर्इ मन्त्री हो या विधानसभा का एमएलए डायरी में सबकी कलर्इ उतरी है क्योंकि निदा का कोर्इ ‘गाडफादर’ नहीं। फौजियों की फर्जी मुठभेड़ों, आतंकी संगठनों के नाम और उनके सिरमौर, पुलिस महकमे के आला अधिकारी और उनकी करतूतों को अंजाम देने वाले दिन, समय, स्थान सभी डायरी में रोज़नामचे की तरह दजऱ् हंै क्योंकि डर की जब हदें खत्म हो जाती हैं तो हिम्मत भी बेहद हो जाती है। आमआदमी दोहरे आतंक का शिकार हुआ है। एक तरफ आतंकी के रूप में उसकी नसों में बारूद भरा जा रहा है। दूसरी तरफ वे उग्रवादियों, प्रशासन, फौजियों की खानापूर्ति के काम आते हैं। इस डायरी में ‘एक आम कश्मीरी का दर्द शीर्षक को निष्कर्ष के तौर देखा गया है जिसे डायरी का उपसंहार कहा जा सकता है। हालांकि डायरी में उपसंहार होता नहीं है लेकिन इसकी स्थापनाएं पूरी डायरी का निचोड़ हंै। कश्मीर की धरती पर जो कुछ हो रहा है और आम कश्मीरी को जो कुछ झेलना पड़ता है उससे ”उसके यहाँ बस एक क्रोध पलता है और धीरे-धीरे वह क्रोध एक आम शानितप्रिय कश्मीरी घर में आतंकवाद में लिपटे विरोध को जन्म देता है। जिस पर दो देशों और एक राज्य से सम्बनिधत धार्मिक कटटरवादी, आतंकवादी, राजनेता, अफ़सरशाह, पुलिस, सैनिक और एजेंसियाँ लगातार पल रही हैं। (पृ.90) और जिस पर पला जाए उस कारण को भला कैसे खत्म किया जा सकता है!

इस डायरी की हर कड़ी एक सवाल के साथ खत्म होती है। हर अन्तराल सोच और चिन्तन छोड़ता है – क्या हम आज़ाद हैं या उस आज़ाद देश के गुलाम हैं जिसके शासक आतंकी, धार्मिक कठमुल्ला और रक्षक की शक्ल में भक्षक सेना के अधिकारी हैं। निदा ने कश्मीरी परिसिथतियों की एक र्इमानदार प्रस्तुति की है। कश्मीरी भाग्य-चक्र इन्हीं के हाथों में है। स्वर्ग की सिसकियों के कारणों की पहचान करते हुए डायरी-लेखक ने इनके चेहरों से नक़ाब उतार उनके पीछे छिपे आतंकवादियों और आतंकी संगठनों को उजागर करते हुए कश्मीर में आतंक और उग्रवाद के न थमने वाले सिलसिले के पीछे क्रियाशील मंशा की भी डि्रलिंग की है। आज के दौर में ऐसा करना किसी दुस्साहस से कम नहीं। निदा नवाज़ के इस दुस्साहस को आतंकवाद के खिलाफ ज़रूरी कार्यवाही के तौर पर देखा जा सकता है।

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Nida Nawaz,writer  Nida Nawaz, poet Nida Nawaz, dr  Nida Nawaz, story written by  Nida Nawaz,  Nida Nawaz from jammu and kashmirलेखक के बारे में – :  

निदा नवाज़

लेखक व् शिक्षक

शिक्षा :- एम.ए.मनोविज्ञान ,हिंदी ,उर्दू ,पत्रकारिता,एम.एड.पीएचडी.

प्रकाशन :-
अक्षर अक्षर रक्त भरा”-1997, “बर्फ़ और आग”-2015 -हिंदी कविता संग्रह. “सिसकियाँ लेता स्वर्ग”-2015-हिंदी डायरी.साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित“उजला राजमार्ग” में शामिल कश्मीरी कविताओं का हिंदी अनुवाद-स्वास्थ्य मंत्रालय,भारत सरकार की 35 पुस्तिकाओं का अंग्रेजी से हिंदी,उर्दू और कश्मीरी में अनुवाद.विज्ञान प्रसार, विज्ञान मंत्रालय की रेडियो विज्ञान डाक्यूमेंट्रीज़ का निरंतर पिछले पांच वर्षों से कश्मीरी अनुवाद.आकाशवाणी श्रीनगर केंद्र के सम्पादकीय कार्यक्रम”आज की बात” का पिछले २७ वर्षों से लेखन .

पुरस्कार :-
केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ,भारत सरकार द्वारा हिंदीतर भाषी हिंदी लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार ,*हिंदी साहत्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा साहित्य प्रभाकर ,*मैथलीशरण गुप्त सम्मान ,*भाषा संगम,इलाहबाद(उ०प्र०)एवं हिंदी कश्मीरी संगम (कश्मीर)द्वारा युग कवि दीनानाथ नादिम साहित्य सम्मान और ल्लद्यद साहित्य सम्मान .*शिक्षा मंत्रालय जे.के.सरकार का राज्यपाल की ओर से राज्य पुरस्कार .

संपर्क :-
निदा नवाज़ ,निकट नूरानी नर्सिंग कालेज ,एक्सचेंज कोलोनी ,पुलवामा -१९२३०१ , फोन :- 09797831595, E.mail :- nidanawazbhat@gmail.com ,  nidanawaz27@yahoo.com

डा. रजनी बालासमीक्षिका बारे में -:

 डा.रजनी बाल

शिक्षिका  व्  आलोचिका 

 डा.रजनी बाल-सीनियर एसिस्टेंट प्रोफेसर,हिंदी विभाग,जम्मू यूनिवर्सिटी,(जे & के)

प्रकाशक – :
अंतिका प्रकाशन,09871856053- दिल्ली, संस्करण 2015

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