पुस्तक समीक्षा : वक्रतुण्ड

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हरिनारायण व्यास

कविवर उद्भ्रांत का नया खंडकाव्य उनकी बहुचर्चित छंद कविता ‘रुद्रावतार’ के बाद ‘वक्रतुण्ड’ शीर्षक से आया है। यह काव्य भी उतना ही नवीन, प्रेरक और समकालीन जीवन के विरोधाभासों से जूझने का एक नया प्रयोग है। ‘वक्रतुण्ड’ श्रीगणेश का एक नाम है। इस काव्य में वक्रतुण्ड के शौर्य का वर्णन तो संक्षेप में ‘असुरान्त’ सर्ग में ही आया है, किन्तु गणपति के जन्म की बहुप्रचलित कथा को आधार बनाकर भगवान शिव और माता पार्वती के आपसी प्रेम तथा अपनी सन्तान के प्रति वात्सल्य का बड़ा मोहक चित्रण कवि ने नितान्त पवित्रता के साथ किया है।

श्रीगणेश ने विभिन्न अवतार लेकर आठ राक्षसों का वध किया था। ये आठ असुर यथा मायासुर, मोहासुर, मत्सरासुर, मदासुर, क्रोधासुर, लोभासुर, कामासुर तथा अभिमानसुर थे जो वस्तुत: मनुष्य-स्वभाव की दुष्प्रवृत्तियाँ हैं। आज इनका विस्तार व्यक्ति से उठकर पूरे विश्व में फैल गया है। आज की अराजकता के लिए ये आसुरी दुष्प्रवृत्तियाँ ही ज़िम्मेदार हैं। ये असुर आज स्वयं गणपति बन गए हैं और समूचे विश्व का नाश करने को उतारू हैं। जब तक कोई सच्चा गणनायक संसार में पैदा नहीं होता, ये असुर जनसाधारण की जीवनयात्रा को कण्टकाकीर्ण बनाते रहेंगे और भय है कि जगज्जननी माँ धरित्री इनके क्रियाकलापों से त्रस्त होती रहेंगी। अस्तु।

महाराष्ट्र में गणपति की उपासना प्राचीनकाल से चली आ रही है और लोकमान्य तिलक ने इसे सार्वजनिक बनाकर जनजीवन में जाग्रति का मंच बना दिया। इस मंच से उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ जनता को जाग्रत किया। महाराष्ट्र में अष्टविनायक नाम आठ तीर्थस्थान हैं। इन स्थानों पर स्थापित श्रीगणेश की मूर्तियों की अलग-अलग भंगिमाएँ हैं और प्रत्येक स्थान की अलग-अलग आख्यायिकाएँ। महाराष्ट्र में गणपति उत्सव भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी तक मनाया जाता है। प्रतिवर्ष पूरा महाराष्ट्र गणेशोत्सव की धूम से भर जाता है। पुणे-मुम्बई के गणेशोत्सव को देखने के लिए समूचे देश से जनता उमड़ पड़ती है। आज भी हमारी सामाजिक कुरीतियों को लक्ष्य बनाकर गणपति द्वारा उनको नष्ट करने की प्रेरक प्रतिमाएँ प्रस्थापित की जाती हैं। राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनाचार और व्यभिचाररूपी राक्षसों की ओर जनता का ध्यान जाए, इसका ध्यान रखा जाता है।

प्रत्येक शुभकार्य के आरम्भ में गणपति की पूजा की जाती है। कृति में इस तथ्य को अपने मंगलाचरण के माध्यम से कविवर उद्भ्रांत ने बड़ी कुशलता से पिरो दिया है। शेष सम्पूर्ण काव्य में कवि ने मुक्तछंद का प्रयोग किया है किन्तु इसे गाया भी जा सकता है। इस कृति की भाषा का आभिजात्य कवि की अभिव्यक्ति की सामर्थ्य को दर्शाता है। ‘स्वप्नार्थात्यथार्थ’ नामक अन्तिम सर्ग में कवि ने देवी पार्वती के स्वप्न की चामत्कारिक कल्पना द्वारा आज के मनुष्य की वीभत्स अवस्था को उजागर किया है। कवि की यह अपनी मौलिक उद्भावना है जिसके द्वारा एक मिथक को समकालीन बना दिया गया है। वैसे हमारे लोक-जीवन में आराधना का प्राचीनकाल से स्थान है। प्राचीन ग्रन्थों में ‘गणपति अथर्वशीर्ष’ का महत्तवपूर्ण दस्तावेज़ है। उसमें गणपति को ओंकार रूप माना गया है। उसे कर्ता, धर्ता  और हर्ता कहा गया है जो प्रकारान्तर से ब्रह्म, विष्णु और शिव के ही रूप हैं। तीनों का समग्र रूप एक मंगलमूर्ति अर्थात् श्रीगणेश में समाहित है। कवि उद्भ्रांत ने इस प्राचीन मिथक को अपनी कल्पना के संयोग से समकालीन बना दिया है, जिसके लिए उन्हें हार्दिक साधुवाद।

समीक्षित पुस्तक : वक्रतुण्ड, कवि : उद्भ्रांत,
प्रकाशक : पंचशील प्रकाशन, फ़िल्म कॉलोनी, चौड़ा मार्ग, जयपुर,
मूल्य : 200/- रु.

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