पुण्यतिथि पर विशेष- शलभ श्रीराम सिंह-एक क्रांतिकारी कवि

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                                      -घनश्याम भारतीय-

Shalabh Shriram Singh‘’नफस-नफस, कदम-कदम………बस एक फिक्र दम-ब-दम……घिरे हैं हम सवाल से, हमें जबाब चाहिए……..जबाब दर सवाल है कि इन्कलाब चाहिए।’’

प्रधानमंत्री बनने से पूर्व चन्दशेखर द्वारा सन् 1985-86 में निकाली गयी पद यात्रा के दौरान रची गयी यह कविता लोगों के मन में क्रान्ति का ज्वाला भड़काने की क्षमता रखती है। इसकी चर्चा होते ही शलभ श्रीराम सिंह का अक्श जेहन में बरबस ही उभर आता है। उनकी इस अद्वितीय रचना से कमोवेश वही ध्वन्यात्मक ऊर्जा निकलती है जो महापंडित रावण द्वारा रचित शिव ताण्डव स्त्रोत से। 22-23 अप्रैल 2000 की रात साहित्यानुरागियों से सदा के लिए जुदा हुए युयुत्षावादी जहाज के पहले और अंतिम कप्तान शलभ श्रीराम सिंह का जन्म 5 अक्टूबर सन् 1938 को उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर जिले की जलालपुर तहसील के मसोढ़ा गांव में हुआ था। साहित्य का यह अमर सपूत समझौतों के सदा खिलाफ रहा। साहित्य पुरोधा बाबा नागार्जुन नें उन्हें समकालीन कविता के नये गोत्र का सर्जक बताया। वे शारीरिक रूप से हमारे बीच बेशक नहीं हैं परन्तु वैचारिक रूप से अनन्तकाल तक यश काया में जीवित रहेंगें। तात्कालिक सामाजिक अनुभवांे और संघर्षों की लम्बी श्रंखला से गुजरते हुए मानवता की जमीनी पीड़ा झेलकर समय से पहले परिपक्व हुए शलभ श्रीराम सिंह वैचारिक क्रांति के जरिये साहित्य के विकास में हुए महत्वपूर्ण परिवर्तनों के साक्षी बने। यह गौरव उनके विचारों और लेखन शक्ति ने प्रदान किया। बिना शक कहा जा सकता है कि शलभ श्रीराम सिंह व्यक्ति या व्यक्तित्व नहीं अपितु विचारों के एक पुन्ज का नाम है।
जीवनकाल में इस अप्रतिम और अद्वितीय साहित्य साधक का व्यक्तित्तव बहु प्रशंशित, बहु चर्चित और बहु आलोचित रहा है। प्रशंशकों ने जहां संस्कृति रक्षक, सन्यासी, निर्भीक इन्सान और विद्वता का सागर बताया वहीं आलोचकों ने उन्हें जिद्दी, अक्खड़ और बिगड़ैल इन्सान भी कहा। कुछ भी हो उनकी साहित्यिक भूख आज तमाम युवा रचनाकारों की कलम से शब्द बनकर फूट रही है। उन्होंने युयुत्षावाद का जो बीज रोपा था वह आज विशाल वट वृक्ष हो गया है। जीवन भर जिद्दी स्वभाव के लिए जाने गये शलभ श्रीराम सिंह के अन्दर की सनक ने उन्हें जीवन पर्यन्त आम आदमी के मसायल और दुःख दर्द से जज्बाती तौर पर जोड़े रखा। विडम्बना इतनी थी कि जिस सामन्तवाद से लड़ने के लिए शलभ जी ने ठाठ फकीरी चुना उसके कतिपय अवशेष अपने व्यक्तित्व से झटक न सके। उसका थोड़ा सा हिस्सा उनके जीवन के साथ जुड़ा रहा।
हलांकि उनकी शिक्षा जलालपुर के नरेन्द्रदेव इण्टर कालेज से इण्टर तक ही हुई मगर कठिन स्वाध्याय ने उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और बंगला का विद्वान बनाया। चारों भाषाओं पर समान अधिकार था।  सामाजिक विकृतियों और झंझावातों ने जब उन्हें झकझोरना शुरू किया तो उन्होंने पढ़ाई घर-परिवार और गांव को अलविदा कहकर भारत भ्रमण की ठान लिया, और साठ के दशक में चुपके से निकल पड़े। हिन्दी साहित्य की प्रत्येक विधा में मुस्तैदी से मौजूद उर्दू, बंगला और अग्रेंजी साहित्य में स्थान प्राप्त इस विद्रोही कवि को तरासने का काम बंगाल की खाडी की ओर से उठने वाली हवाओं ने किया। जिसका सारा श्रेय कोलकाता को जाता है। जंहा कुशल कवि और लेखक मित्रों के बीच रहकर उनके लेखन में निखार आया। बाद में पत्नी बनी कल्याणी सिंह के साथ-साथ अवध नारायण सिंह, अलख नारायण, छबिनाथ मिश्र जैसे रचनाकार मित्र उन्हंे कोलकाता में मिले। ‘अनागता’ ‘रूपाम्बरा’ और ’युयुत्सा’ आदि साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन का मौका मिला तो  उनकी साहित्यिक क्षमता और भी निखर गयी। पहला कविता संग्रह ‘कल सुबह होने के पहले’ सन् 1966 में यहीं से सामने आया।
पश्चिम बंगाल की आबो हवा में सांस लेते हुए यहीं की आग में तपकर वे श्रीराम से शलभ बने। उनके व्यक्तित्व के विकास में कोलकाता की बहुत बड़ी भूमिका रही। यद्यपि उनका अधिकांश सार्थक समय मध्य प्रदेश के भोपाल और विदिशा में बीता। जहां उन्होंने ’मलायिका’ और ’मजाज’ की नज्में जैसी रचनाओं की सर्जना की। यहीं उन्होंने रामकृष्ण प्रकाशन खडा किया और उसे विशिष्ट पहचान दिलायी। इस दौरान वे मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा माखनलाल दृचतुर्वेदी पुरस्कार से सम्मानित किये गये। उनके करीबी जानते हैं कि जिद्दी प्रवृति के बावजूद भी उनके अन्दर दोस्ती का जज्बा भी खूब था, उन्होंने जिसे अपना माना उसे अन्तिम क्षण तक दिल में बिठाये रखा और जिसे नफरत की उसकी तरफ मरते दम तक नहीं देखा। गहरे भावानात्मक क्षणों में लोगों ने उन्हें पिघलते भी देखा है। बाहर रहते हुए जब उन्हें गांव की माटी की याद आयी तो ’बिहंगदूत’ प्रस्फुटित हुई। जर्जर काया की बेबसी भी उनके अन्तर मन के जुनून को रोक नहीं पाई। समाज व देश के हालात उन्हें झिझोड़ते रहे। शायद यही वजह थी कि जीवन के अन्तिम क्षण तक लेखन में जुटे रहे।
सातवें दशक के मध्यकाल में शलभ दद्दा ने ’युयुत्सावादी’ कविता का आन्दोलन खड़ा कर उसकी विचार पीठिका विकसित की और उसे अपने व्यक्त्तिव के साथ ढोते भी रहे। जीवन काल में उन्होंने ’कल सुबह होने के पहले’, ’अतिरिक्त पुरूष’, ’नागरिक नामा’, ’राह-ए हयात’, ’निगाह दर निगाह’, ’अपराधी स्वयं’, ’प्यार की तरफ जाते हुए’, ’ध्वंस का स्वर्ग’, ’जीवन बचा है अभी’, ’उन हाथो से परिचित हूँ मैं’, ’अंगुली में बधी हुई नदियां’ आदि कालजयी कृतियां दी। इसी के साथ ’राह-ए-हयात’ उर्दू में और ’इन द फाइनल फेज’ अंग्रेजी में तथा ’घूमन्त दरा जाय कड़ा नाड़ार शब्द’ नामक पुस्तक बंगला में प्रकाशित है। विजयबहादुर सिंह व नरेन्द्र जैन के साथ सहयोगी कवि के रूप में ’पृथ्वी का प्रेमगीत’ में उनकी उपस्थिति दर्ज है। डा0 राम कृपाल पाण्डेय के सम्पादन में उनकी लम्बी कविताओं का संकलन ’कविता की पुकार’ प्रकाशित है। शलभ दादा की कई रचनाऐं देश के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम की आवश्यक अंग हैं।
शलभ दद्दा की बीड़ी कभी बुझती नही थी और मदिरा से गहरी मित्रता थी। इसके बावजूद भी उनका व्यक्तित्व समाज से ऊपर उठ कर आदरणीय है। उनके विचारों और शब्दों को अमरत्व हासिल है जो सदियों तक भटके समाज को राह दिखाते रहेंगे। सूर्य की रश्मि प्रभा की तरह शलभ दद्दा के विचारों की रोशनी हमारे मन की दहलीज पर ज्वाज्वल्यमान सितारे की तरह सदा झिलमिलाती रहेगी। पूरी दुनियां को अपना घर और सम्पूर्ण मानव समाज को अपना परिवार मानने वाले शलभ अपनी जिदों के लिए भी जाने जाते थे। वे महज कवि न होकर छल अन्नाय अत्याचार व शोषण के विरूद्ध क्रांति के पक्षधर भी थे। गैरों के लिए भी उनका दिल विराट था। पहली मुलाकात में ही गैरों को अपना बना लेने और गैर के भाई बन जाने की कला उनके अंदर कूट कूट कर भरी थी। उनका व्यक्तित्व समझने से ज्यादा महसूस करने का था। वह आम हो कर भी खास थे और विशिष्ट लोगो में अति विशिष्ट। उनका व्यक्तित्व आसान होकर एक पेचीदा किताब था।
शलभ जी ने लिखा है कि ’‘भाव, भाषा, शिल्प और शैली का अशेष भण्डार निःशेष कहां हुआ है भला? हमारी संवेदना के दरवाजों पर विरूचि और विरूपता के कवच पहने खुरदुरे और बेडौल यथार्थ की चट्टान यदि खड़ी है तो उन्हें इच्छित आकार देने और सही ठिकानों पर स्थापित करने वाली बुद्धि और विवेक से हमारी कला चेतना वंचित कहां है। भावनाओं के तरल गतिमान श्रोत पूरे वेग के साथ टकराने के लिए छटपटा रहे है, उन्हें उनकी दिशा में कोई मोड़ कर तो देखे। चट्टानों की सुनिश्चित परिणति इस कार्य व्यापार की प्रतीक्षा कर रही है।’’ उनके विचार से ’’अपने मुहाने पर सर्व स्तरीय विभीषिकाओं को साथ लेकर खड़ी इस शताब्दी की विसंगतियों, विरोधाभाषों, निर्मूल्यताओं, अन्याय और मानवता विरोधी पक्षों पर प्रहार करना होगा। निश्चित रूप से रास्ता मिलेंगा। शर्त यह है कि हमारी चिंता नये सृजन की संभावनाओं को टटोलने और नये उन्मेष के सपनों को पहचाने की होनी चाहिये।’’
शलभ श्रीराम सिंह के बारे में ज्यादा कुछ कहना सूर्य की चिराग दिखाने जैसा ही होगा फिर भी यह सत्य है कि आकाश गंगा में लाखों सितारे हैं लेकिन चांद और सूरज अपने आलोक के एक लम्बे विस्तार से हमारे मन को प्रमुदित कर देते हैं। ठीक उसी तरह हिन्दी साहित्याकाश मंे उभरने वाला यह नक्षत्र युयुत्षावाद के जनक के रूप मंे उभरा, भाष्मान हुआ, और यश से विकशित हो गया।

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Ghanshyam-Bhartiपरिचय :-
घनश्याम भारतीय
स्वतंत्र पत्रकार/स्तम्भकार

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