न्यायपालिका सहित पूरी व्यवस्था से अंग्रेजी की गुलामी के कलंक को मिटा कर भारतीय भाषा को शीघ्र लागू करे सरकार : भारतीय भाषा आंदोलन

0
28
edd6a9ad-6cfb-4651-b0a8-6ff764249685आई एन वी सी न्यूज़
नई दिल्ली,
भारतीय भाषा आंदोलन ने अंग्रेजों  के भारत से जाने के 68 साल बाद भी सर्वोच्च न्यायालय में देश की भाषा में काम काज न हो कर केवल अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी में ही कामकाज होना देश का दुर्भाग्य ही नहीं शर्मकी बात बताया ।  इसी पखवाडे सर्वोच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने सर्वोच्च न्यायालय का कामकाज अंग्रेजी की जगह हिंदी में करने की मांग करने वाली याचिका की सुनवायी करते हुए दो टूक शब्दों में कहा कि  सर्वोच्च न्यायालय की कामकाज की भाषा अंग्रेजी ही है और इसकी जगह हिन्दी को लाने के लिए वह केंद्र सरकार या संसद को कानून बनाने के लिए नहीं कह सकता क्योंकि ऐसा करना विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारक्षेत्र में दखल देना होगा।
देश की न्यायपालिका के इस दृष्टिकोण की भारतीय भाषा आंदोलन ने कड़ी भत्र्सना की। भारतीय भाषा आंदोलन में 21दिसम्बर 2015 को आयोजित धरने में इस पर तीब्र प्रतिक्रिया करते हुए भारतीय भाषा आंदोलन के महासचिव देवसिंह रावत ने कहा कि किसी भी व्यक्ति, समाज, संस्था व सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह देश की लोकशाही, अखण्डता, सम्मान व संस्कृति को रौंदे। किसी देश का शासन, प्रशासन, न्याय, शिक्षा, रोजगार व सम्मान देश की भाषा के बजाय विदेशी भाषा में बलात देना, उस देश की लोकशाही, सम्मान व संस्कृति की निर्मम हत्या करने जैसा सबसे निकृष्ठ कृत्य है। यह कृत्य करने वाले व्यक्ति, संस्थान व सरकार देश की हितैषी नहीं अपितु देश की दुश्मन ही होती है। क्योंकि किसी  भी देश, समाज व व्यक्ति को उसकी मातृ भाषा से वंचित करके विदेशी भाषा थोपना उस देश की हत्या करना है। उस देश को उसकी भाषा से वंचित करके बलात विदेशी भाषा थोपना, उस देश की संस्कृति, सम्मान व लोकशाही रौंद कर गुलाम बनाना वाला अनैतिक व अमानवीय जघन्य देशद्रोह है।
ऐसा कृत्य के खिलाफ बिना समय गंवाये इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना चाहिए। देश के हुक्मरानों ने 15 अगस्त 1947 से अब तक अंग्रेजों के जाने के बाद देश की पूरी व्यवस्था को अंग्रेजी का गुलाम बनाने का शर्मनाक कृत्य करके देश की आजादी को अंग्रेजों के बाद अंग्रेजी की गुलाम बना दी। श्री रावत ने आश्चर्य प्रकट किया कि इस देश में सर्वोच्च न्यायालय में ही नहीं उच्च न्यायालयों में भी चार प्रदेशों को छोड़ कर अन्य उच्च न्यायालयों में विधिवत भारतीय भाषाओं को कामकाज की भाषा नहीं बनाया गया। वहीं इस देश में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी से लेकर कुत्ते की भर्ती के लिए अंग्रेजी अनिवार्यता थोपा जाना देश की लोकशाही व सम्मान का घोर अपमान है। श्री रावत ने कहा कि संसार के किसी भी स्वाभिमानी देश में शिक्षा, न्याय, रोजगार व राजकाज विदेशी भाषा में नहीं प्रदान की जाती है। केवल भारत जैसे देश में ही यह शर्मनाक कलंक को सरमाथे पर लगाया जा रहा है। श्री रावत ने आश्चर्य प्रकट किया कि कांग्रेस पार्टी पर तो वर्तमान सत्तासीन भाजपा, देश की संस्कृति से खिलवाड ़ करने का आरोप लगाती रहती। परन्तु अब सत्तासीन होने पर संघ पोषित, राष्ट्रवाद की बात करने वाली मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार क्यों देश के माथे पर अंग्रेजी की अनिवार्यता का कलंक लगाये हुए है। हालत यह है कि भाजपा शासित गुजरात में भी प्रथम कक्षा से अंग्रेजी की शिक्षा बच्चों को पढ़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है। मोदी द्वारा भारत के बजाय इंडिया नाम को अधिक प्रयोग में लाने से मोदी के राष्ट्रवाद खुद बेनकाब हो जाता है।
उल्लेखनीय है कि भारतीय भाषा आंदोलन ने देश की आजादी को अंग्रेजी की अनिवार्यता की दासता से मुक्त कराने के लिए भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान व महासचिव देवसिंह रावत  के नेतृत्व में  21 अप्रैल 2013 ं से संसद की चैखट पर धरना दे कर आजादी की जंग छेड़ रखी है। भारतीय भाषा आंदोलन के जांबाज विगत 32 महीनों से भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, लू वर्षा व पुलिस के दमन के साथ साथ समाचार जगत की उपेक्षा का दंश झेलते हुए भी देश की न्यायपालिका(सर्वोच्च व उच्च न्यायालय सहित पूरी न्यायपालिका ),  कार्यपालिका (संघ लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग सहित पूरी व्यवस्था) व सभी शिक्षण संस्थानों में बलात थोपी गयी अंग्रेजी की अनिवार्यता को हटा कर भारतीय भाषा लागू करने की पुरजोर मांग के समर्थन में प्रधानमंत्री को कई बार ज्ञापन दे चूके है। इसके साथ भारतीय भाषा आंदोलन 1988 से पुष्पेन्द्र चैहान व स्व. राजकरण सिंह ंके नेतृत्व पर संघ लोक सेवा आयोग के द्वार पर 2002 तक अखण्ड धरना देने का काम किया। इसमें पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी व विश्वनाथ प्रताप सिंह , के अलावा वर्तमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह सहित चार दर्जन से अधिक सभी दलों के प्रमुख राजनेताओं ने भी भाग लिया था। यही नहीं संसद में भी 1991 को भाषा को लागू करने का एक संसदीय संकल्प भी पारित किया था जो आज तक भी लागू नहीं किया गया।
19 दिसम्बर 2015 को भी संसद की चैखट पर चले धरने में भारतीय भाषा आंदोलन के महासचिव देवसिंह रावत, प्रखर आंदोलनकारी अनंतकांत मिश्र, प्रोफेसर सच्चेन्द्र पाण्डे, सुनील कुमार सिंह, स्वामी श्रीओम, यूनीवार्ता के पूर्व समाचार सम्पादक बनारसी सिंह, महेन्द्र रावत, मन्नु कुमार, रामजी शुक्ला, प्रभात मिश्र, रियाजूद्दीन, महावीर सिंह आदि उपस्थित थे। इन समर्पित आंदोलनकारियों के अलावा भारतीय भाषा आंदोलन के अन्य प्रमुख ध्वजवाहकों में भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान, डा बलदेव वंशी,  श्यामरूद्र पाठक, चंद्रवीर सिंह, अभिराज शर्मा, देवेन्द्र भगत, हरपाल राणा, ओम प्रकाश, प्रो. अमरनाथ झा, रवीन्द्र धामी, हरीश मेहता, वरिष्ट राहुल देव व हबीब अख्तर, रोशन लाल अग्रवाल, दास गुरूविन्दर, सरदार जोगा विर्क जी,  अश्वनी कुमार , संजीव सिन्हा,  पत्रकार कमल किशोर नौटियाल, हरि राम तिवारी, मोहम्मद आजाद, मोहम्मद सैफी, श्यामजी भट्ट, वेदानंद, अरविन्द मिश्रा, सुभाष चैहान, आशा शुक्ला, गोपाल प्रसाद, अंकुर जैन, लक्ष्मण कुमार, मनमोहन शाह, राकेश बसवाला, हरिबाबू कौशिक, आत्म प्रकाश खुराना, अधिवक्ता सुरेन्द्र अत्री , अंग्रेज सिंह, संजीव कुमार झा, महेशकांत पाठक, वीरेन्द्र नाथ बाजपेयी, सहदेव पुनिया, सम्पादक जाकिर हुसैन, मोहन जोशी,  सुशील कुमार खुराना, श्याम जी भट्ट, नवीन सोलंकी, सत्तीस मुखिया,  गोपाल परिहार, अर्जुन, भीम, ओझा, अखिलेश गौड़ व विनोद गौतम आदि प्रमुख हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here