निर्मला पुतुल की कविता

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तुम्हें आपत्ति है,
तुम कहते हो
मेरी सोच ग़लत है
चीज़ों और मुद्दों को
देखने का नज़रिया ठीक नहीं है मेरा
आपत्ति है तुम्हें
मेरे विरोध जताने के तरीके पर
तुम्हारा मानना है कि
इतनी ऊँची आवाज़ में बोलना
हम स्त्रियों को शोभा नहीं देता
धारणा है तुम्हारी कि
स्त्री होने की अपनी एक मर्यादा होती है
अपनी एक सीमा होती है स्त्रियों की
सहन शक्ति होनी चाहिए उसमें
मीठा बोलना चाहिए
लाख कडुवाहट के बावजूद
पर यह कैसे संभव है कि
हम तुम्हारे बने बनाए फ्रेम में जड़ जाएँ
ढल जाएँ मन माफिक तुम्हारे सांचे में
कैसे संभव है कि
तुम्हारी तरह ही सोचें सब कुछ
देखेंतुम्हारीहीनज़रसेदुनिया
और उसके कारोबार को
तुम्हारी तरह ही बोलें
तुम्हारे बीच रहते।
कैसे संभव है घ्
मैंने तो चाहा था साथ चलना
मिल बैठकर साथ तुम्हारे
सोचना चाहती थी कुछ
करना चाहती थी कुछ नया
गढ़ना चाहती थीबस्ती का नया मानचित्र
एक योजना बनाना चाहती थी
जो योजना की तरह नहीं होती
पर अफ़सोस !
तुम मेरे साथ बैठकर
बस्ती के बारे में कम
और मेरे बारे में ज़्यादा सोचते रहे
बस्ती का मानचित्र गढ़ने की बजाय
गढ़ते रहे अपने भीतर मेरी तस्वीर
और बनाते रहे मुझ तक पहुँचने की योजनाएँ
हँसने की बात पर
जब हँसते खुलकर साथ तुम्हारे
तुम उस का ग़लत मतलब निकालते
बुनते रहे रात.रात भर सपने
और अपने आस पास के मुद्दे पर
लिखने की बजाय लिखते रहे मुझे रिझाने बाज़ारू शायरी
हम जब भी तुम से देश.दुनिया पर
शिद्दत से बतियाना चाहे
तुम जल्दी से जल्दी नितांत निजी बातों की तरफ़
मोड़ देते रहे बातों का रुख
मुझे याद है !
मुझे याद है.
जब मैं तल्लीन होती किसी
योजना का प्रारूप बनाने में
याफिरतैयारकरनेमेंबस्तीकानक्शा
तुम्हारे भी तर बैठा आदमी
मेरे तन के भूगोल का अध्ययन करने लग जाता।
अब तुम्हीं बताओ !
ऐसे में भला कैसे तुम्हारे संग.साथ बैठकर हँसू.बोलूँ घ्
कैसे मिल.जुलकर
कुछ करने के बारे में सोचूँघ्
भलाए कैसे तुम्हारे बारे में अच्छा सोचकर
मीठा बतियाऊँ तुमसेघ्
करूँकैसेनहींविरोध
विरोधकीपूरीगुंजाईशकेबावजूदघ्
कैसे धीरे से रखूँ वह बात
जो धीरे रखने की मांग नहीं करती !
क्यू माँ के गर्भ से ही ऐसा पैदा हुई मैं घ्
_______________________
निर्मला पुतुल
Nirmala Putul

 

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