नागरिकता जी लपेटे में

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– अरुण तिवारी –

किसी ने दुरुस्त कहा है कि आजकल के राजनेताओं की राजनीति, मुद्दे का समाधान करने में नहीं, उसे जिंदा रखने से चमकती है। यदि समाधान करना होता, तो नागरिकता संशोधन पर जनाकांक्षा का एहसास होते ही त्रिदेशीय मजहबी आधार को तुरन्त हटाया जाता; नहीं तो सर्वदलीय बैठक या संसद का विशेष सत्र बुलाया जाता; नेता नहीं, तो कम से कम जनता को तो संतुष्ट किया जाता। किंतु वह एक इंच पीछे हटने को तैयार नहीं है; सुन नहीं, सिर्फ सुना रहे हैं; मानो भारत लोकतंत्र नहीं, एक मंत्री संचालित तंत्र हो। विपक्ष भी ‘लगे रहो केजरीवाल’ की तर्ज में, ‘लिए रहो नागरिकता के लपेटे में’ जारी रखे हुए हैं।

अब, जब पार्टी नागरिकता जी लपेटे में आ ही गई हैं, तो मुद्दा नंबर दो यह है कि यदि हालिया नागरिकता संशोधन को संविधान की मूल भावना के विपरीत नहीं मानते, तो यह तो आप मानते ही आए हो कि भारतीय संविधान की किताब, ब्रितानी संविधान की नकल है। नकल है तो भारत को गु़लाम बनाने वालों का संविधान, भारतीयता की असल भावना के अनुरूप कैसे हो सकता है ?…तो भाई, लगे हाथ भारतीय संविधान की किताब भी बदल डालो। यूं भी कहा ही जाता है कि संविधान – नागरिकों के लिए है, न कि नागरिक – संविधान के लिए। इसलिए नागरिकों को संविधान के हिसाब से गढ़ने का काम भी बट्टे-खाते में ही डाले रहो, तो बेहतर।  

नागरिकता मुद्दा नंबर तीन यह है कि भारत, एक संवैधानिक गणतंत्र है। आधे-अधूरे सही हम लोकतांत्रिक गणतंत्र भी हैं। लोकतांत्रिक का मतलब होता है, लोक द्वारा संचालित तंत्र। तो भैये पते की बात यह है कि नागरिक कौन हो, कौन नहीं हो; यह तय करने का अधिकार, तंत्र के हाथ में कैसे आ गया ? इस पर जांच बैठाओ, सर्वे करो, मिस्ड काॅल मंगवाओ। कुछ भी करो; बस, यह सुनिश्चित करो कि नागरिकता की शर्तें तय करने का अधिकार तो नागरिकों को ही मिले; वरना् हम काहे के लोकतंत्र ! हम तो तंत्रतांत्रिक तंत्र !!

यदि इस पर भी बात न बने तो, मुद्दा नंबर चार उठा देना चाहिए कि नगर पहले बसे या नागरिकता पहले दी गई ? ज्यादातर नगर तो नदियों के किनारे ही बसे हैं। यदि नदियां न होती, तो नगर कहां से बसते और नागरिकता किसे दी जाती ? अतः हम मांग करें कि नागरिकता देने, न देने का एकाधिकार नदियों को सौंप दिया जाए। यूं भी हम नदियों को जिस तरह प्रताड़ित कर रहे हैं; एक दिन वे यह अधिकार अपने हाथ में ले ही लेंगी। तब वे ही तय करेंगी कि कौन सा नगर रहेगा; किसकी नागरिकता रहेगी, किसकी जायेगी ?…तो क्यूं न यह अधिकार अभी से नदी के हाथ में सौंप दिया जाए।

यदि नागरिकता को लपेटे में लेने में फिर भी कोई कोर-कसर रह जाए, तो मुद्दा नंबर पांच नोट करें: नदी की नागरिकता का मुद्दा। भले ही फैसला पलट दिया गया, लेकिन नैनीताल हाईकोर्ट ने गंगा-यमुना को इंसानी दर्जा तो दिया ही था। इंसान है, तो नागरिकता अधिकार तो बनता है न भाई। इससे नदी और हम… दोनो की नागरिकता की सुरक्षा, नदी के हाथ  में आ जायेगी।
 
यदि इस पर भी सहमति न बने तो एक ही चारा बचता है कि नागरिकता शब्द पर ही सवाल उछाल दिया जाए। कहा जाए कि संवैधानिक प्रावधान चाहे जो हो, शाब्दिक अर्थ तो यही है कि जो नगर में रहे, वही नागरिक; बाकी नहीं। सिटी में रहने वाले जन – सिटीजन। इस हिसाब से गांव वाले तो सिटीजन हुए नहीं।…तो क्या करें ? गांव-नगर के आधार पर भेद करें ? ग्रामजन क़ानून लाने की मांग करें या फिर नागरिकता शब्द को ही संविधान की पुस्तक से निकाल फेंकने की मांग करें ? मांग करें कि भारतीय मूल के प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक ही संवैधानिक दर्जा तय हो – भारतीय। इसी के साथ प्रत्येक भारतीय के भारत में रहने का अधिकार भी मांग ही लिया जाए। बाकी जो भारत में रहना चाहे, वह ‘अतिथि देवो भवः’। अब इससे लाख मुश्किलात आयें तो क्या; हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की सांस्कृतिक अवधारणा वाला देश जो हैं। तेन त्येक्तन भुज्जीथाः – त्यागकर पाना तो वैदिक संस्कृति का परमा्ेपदेश है। अतः इतना त्याग तो बनता है, भारतीयता की खातिर; वरना् क्या नागरिकता सिर्फ राजनीति चमकाने का विषय है ? नहीं, यह जन-जन के तय करने का विषय है। आइये, करें।

 
 
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परिचय -:

अरुण तिवारी

लेखक ,वरिष्ट पत्रकार व् सामजिक कार्यकर्ता

1989 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार दिल्ली प्रेस प्रकाशन में नौकरी के बाद चौथी दुनिया साप्ताहिक, दैनिक जागरण- दिल्ली, समय सूत्रधार पाक्षिक में क्रमशः उपसंपादक, वरिष्ठ उपसंपादक कार्य। जनसत्ता, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, अमर उजाला, नई दुनिया, सहारा समय, चौथी दुनिया, समय सूत्रधार, कुरुक्षेत्र और माया के अतिरिक्त कई सामाजिक पत्रिकाओं में रिपोर्ट लेख, फीचर आदि प्रकाशित।

1986 से आकाशवाणी, दिल्ली के युववाणी कार्यक्रम से स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता की शुरुआत। नाटक कलाकार के रूप में मान्य। 1988 से 1995 तक आकाशवाणी के विदेश प्रसारण प्रभाग, विविध भारती एवं राष्ट्रीय प्रसारण सेवा से बतौर हिंदी उद्घोषक एवं प्रस्तोता जुड़ाव। इस दौरान मनभावन, महफिल, इधर-उधर, विविधा, इस सप्ताह, भारतवाणी, भारत दर्शन तथा कई अन्य महत्वपूर्ण ओ बी व फीचर कार्यक्रमों की प्रस्तुति। श्रोता अनुसंधान एकांश हेतु रिकार्डिंग पर आधारित सर्वेक्षण। कालांतर में राष्ट्रीय वार्ता, सामयिकी, उद्योग पत्रिका के अलावा निजी निर्माता द्वारा निर्मित अग्निलहरी जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के जरिए समय-समय पर आकाशवाणी से जुड़ाव।
1991 से 1992 दूरदर्शन, दिल्ली के समाचार प्रसारण प्रभाग में अस्थायी तौर संपादकीय सहायक कार्य। कई महत्वपूर्ण वृतचित्रों हेतु शोध एवं आलेख। 1993 से निजी निर्माताओं व चैनलों हेतु 500 से अधिक कार्यक्रमों में निर्माण/ निर्देशन/ शोध/ आलेख/ संवाद/ रिपोर्टिंग अथवा स्वर। परशेप्शन, यूथ पल्स, एचिवर्स, एक दुनी दो, जन गण मन, यह हुई न बात, स्वयंसिद्धा, परिवर्तन, एक कहानी पत्ता बोले तथा झूठा सच जैसे कई श्रृंखलाबद्ध कार्यक्रम।

साक्षरता, महिला सबलता, ग्रामीण विकास, पानी, पर्यावरण, बागवानी, आदिवासी संस्कृति एवं विकास विषय आधारित फिल्मों के अलावा कई राजनैतिक अभियानों हेतु सघन लेखन। 1998 से मीडियामैन सर्विसेज नामक निजी प्रोडक्शन हाउस की स्थापना कर विविध कार्य।

संपर्क -: ग्राम- पूरे सीताराम तिवारी, पो. महमदपुर, अमेठी,  जिला- सी एस एम नगर, उत्तर प्रदेश ,  डाक पताः 146, सुंदर ब्लॉक, शकरपुर, दिल्ली- 92 Email:- amethiarun@gmail.com . फोन संपर्क: 09868793799/7376199844

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