नई राजनीति में आम जनता का उदय

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{  सुरेश पाठक (सुभाष) }

लोक तंत्र की यह सबसे बडी खूबी यह है कि सब के वोट का महत्व बराबर है चाहे वह गरीब हो या अमीर । लेकिन  पिछले कुछ दिनों तक राजनीति का मतलब हम, सरकार बनाने के दावों, पार्टियों के गठबंधन आरोपों-प्रत्यारोपों और धन बल आदि तक सीमित मानते थे । पर राजनीति तो राजव्यवस्था से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण कर्म है। पिछले दो हफ्तो  में अचानक भारतीय राजनीति की परिभाषा में कुछ नई बातें जुड़ीं हैं। यह आने वाले तूफान की आहट है। जिसका मुख्य श्रेय पिछले कुछ आंदोलनो का दिया जाता है मुख्य रूप से अन्ना और उनके साथिओ  का आंदोलन है। पहला यह कि ‘आप’ के रूप में नए किस्म की राजनीति की उदय हो रहा है। यह राजनीति देश के शहरों और गाँवों तक जाएगी। दिल्ली के मैदान में इसका परीक्षण हुआ। अब बाकी देश में यह विकसित होगी और होना भी चाहिए। जनता नई राजनीति की धड़कनों को बड़े गौर से सुन रही है। नए समय की राजनीति के पीछे वोटर खड़ा है। इस अर्थ में ‘आप’ पार्टी की जीत वोटर की जीत है। ये लोग कितना सही साबित होंगे ये तो समय ही बतायेगा  अगर सरकार बनती है तो  कियोकि अभी बहुत कुछ होना है सरकार बनाने के लिए पर वोटर ने अपनी इच्छा जाहिर कि है जो कि अपने आप में एक अच्छी बात है कि वे क्या चाहते है  न कि खाली वादे , वोटर बहुत समझदार होता है बस उसको बिकल्प चाहिए जो मिला भी और वोटरो ने करके भी देखाया ।   अब आगे जनप्रतिनिधि का काम है कि वे कुछ करके दिखायेगे  या पांच साल का समय निकाल कर फिरवहि झूटे वादे लेकर वोटर के पास जायेगा।  जनप्रतिनिधि को नई राजनीति में आम जनता के उदय के बार में अच्छी तरह से समझाना आवश्यक है तभी सब का भला है चाहे जनता हो या जनप्रतिनिधि ।

यह समझना आवश्यक है कि, नई राजनीति क्या है?  देश आज़ाद हुआ था, तब भी हमारी राजनीति नई थी। जनता को उससे अपेक्षाएं थीं। काफी चेहरे नए थे। यानी जितने भी राजनीतिक दल थे उनमें से ज्यादातर दल आम आदमी पार्टी जैसे थे। पर  समय बीते- बीते वह राजनीति असहनीय हो गई और जनता ने कई राज्यो में सत्ता दल को अपदस्थ कर दिया, और तब फिर नई ताकतें नई उम्मीदें को लेकर सामने आईं। बडे-बडे वादे खासकर गरीबी हटाने का। अपेक्षाएं इतनी बड़ी थीं कि जनता ने उन्हें समर्थन देने में देर नहीं की। पर बदले में क्या मिला? पाँच साल के भीतर सरकार अलोकप्रियता के गड्ढे में जा गिरी। लेकिन  अभी के हिसाब से अच्छी बात यह है कि अब राजनीति की दुकान अब अंधेरे कोनों में चलाना संभव नहीं। कुछ दिनों तक तो दिखेगा ही आगे क्या हो भविष्य बतायेगा । पिछले साल देशभर में स्त्रियों की सुरक्षा का मसला एक राजनीतिक माँग के रूप में उभरा है। इसके इर्द-गिर्द स्त्रियों से जुड़े दूसरे

मसले भी उठेंगे। इस चुनाव में स्त्री मतदाताओं के उत्साह से उनकी बढ़ती भूमिका निभाई। सारे समाधान राजनीति के बस की बात नहीं हैं, पर सांस्कृतिक-सामाजिक बदलाव राजनीति को प्रभावित करते हैं। यह चुनाव इस संदेश को भी लेकर आया है कि ऐसे अनेक संदेश इस चुनाव के साथ जुड़े हैं। उनका बेहतर मतलब लोकसभा चुनाव में नजर आएगा और होना भी अति आवश्यक है।  छत्तीसगढ़ के नक्सली ‘नोटा’ का सहारा लेकर अपनी पैठ बढ़ाएंगे। यह लोकतांत्रिक रास्ता है। यदि नक्सली इस चुनाव प्रक्रिया को निरर्थक साबित करना चाहते हैं, तो इसमें कुछ गलत नहीं। पर यह बात उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से कहनी होगी। बंदूक की गोली से नहीं कियोकि बंदूक, गोली कोई समाधान नहीं। ‘नोटा’ बटन इस लोकतंत्र की विसंगति को रेखांकित करने के लिए ही बनाया गया है। सच यह है कि कुल मतदाताओं में से दस फीसदी वोट पाने वाले भी अपने पक्ष में जनादेश साबित करते हैं। अब यह बात रिकॉर्ड में रहेगी कि कितने वोटर उन्हें खारिज करते हैं। हमारे लोकतंत्र को किसी नए रूप में परिभाषित करने में इस ‘नोटा’ बटन की भी कल कोई भूमिका होगी।

ऐसा नहीं कि राजनीति बदलना नहीं चाहती। या वह बदली नहीं जा सकती। उसे बदलने के लिए वोटर की समझदारी जरूरत है। अभी तक हम मानते रहे हैं कि वोट देने के बाद जनता की भूमिका खत्म। लेकिन जैसे-जैसे वोटर की भूमिका बदल रही है, राजनीति बदल रही है और यह होना भी चाहिए, नहीं तो वोट का क्या मतलब। सारा बदलाव भीतर से ही नहीं है। बाहर से भी है। चुनाव सुधार का ज्यादातर काम चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के दबाव से हुआ, कई चुनाव सुधार आदि।

लोकपाल विधेयक भी पास हो गया कितना असरदार होगा ये तो भविष्य ही बतायेगा पर यह भी जनता की जीत है । इसे मुख्य धारा के लगभग सभी राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है, लोकसभा से पास हुए विधेयक में राज्यसभा में इतने संशोधन आए कि उसे प्रवर समिति को सौंपना पड़ा था. सभी दलो की सहमति से कई सुधार किये गए जरा सोचिये जो लोग अपना बिल सही बता रहे थे वह अचानक कैसे बदल गए यह इतना आसान नहीं था ये तो हम उन लोगो का दिल से स्वागत करना चाहिए जिन्होंने बहुत मेह्नत करके यह सम्भव कराया पर बिना आम जनता के सहयोग के बिना सम्भव नहीं था।

कई प्रकार से सामाजिक दृष्टि का विस्तार हुआ है। सोशल मीडिया में ऑनलाइन राष्ट्रीय बहस निरंतर चल रही है। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में नागरिक के मुद्दे संप्रदाय और जाति के ऊपर चढ़कर बोले। यह एक सुखद बदलाव है। प्रशासनिक और संस्थागत, वोटर की भागीदारी और पारदर्शिता महत्वपूर्ण मसले बनकर उभरे हैं। अब बडे राजनैतिक दल भी कह रहे हैं कि घोषणापत्र तैयार करते वक्त नागरिकों की राय ली जाएगी। एक बात मजबूती से रेखांकित हो रही है कि लोकतंत्र निचले से निचले स्तर तक जाए। और यह बात व्यावहारिक हो, केवल नारों के स्तर पर ही नहीं। यानी राजनीति में नागरिक की भागीदारी बढ़े। यकीन है कि लोकसभा चुनाव में यह और मजबूत होगी।

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11  सुरेश पाठक (सुभाष)

विशेष सवंदाता –  अंतराष्ट्रीय समाचार एवम विचार निगम

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