दिव्या शुक्ला की कविता

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पर अब मै मुड के नहीं देखती
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बरगद के पेड पर लिपटते
मौली के कच्चे लाल धागे के
हर चक्कर के साथ ही —
प्रेम का बंधन मजबूत होता है
ऐसा सुना है –क्या सच है  ?
सोलह श्रृंगार में सजी हर उम्र की
सुहागनें दमकता मुख मंडल
आँखों में चमक ये श्रृंगार की नहीं
प्रेम की है विश्वास की है —
जो बांधती है वो बरगद के तने पे
हर चक्कर के साथ —
बिहंस देती है मन में हुलास लिए
पीछे चलते हुए प्रिय को देख
मुझे पता है तुम्हे नहीं विश्वास
इन पर रस्मो पर न उपवास पर
उपहास था तुम्हारे लिए —
मेरा करवाचौथ का चाँद पूजना
तभी तो छोड़ दिया मैने सब
चाँद तो अब भी मेरे साथ है पर
अब मै उसकी प्रतीक्षा
सोलह श्रृंगार में नहीं करती
बरगद का तना बस छू कर
अपनी दोनों बाहों में भर कर
वापस आ जाती हूँ -बस
इन छोटी छोटी रस्मो में
कितना कुछ छुपा होता है
अपने सुहाग की लंबी उम्र
की कामना —–
ढेर सारा प्यार और जन्म जन्म
तक साथ निभाने का विश्वास —-
ख़ैर जाने दो अब क्या फायदा
अब तो बस —मै देखती हूँ
आँखे मूंद कर कल्पना तो करती हूँ
लाल कच्चा सूत बरगद का पेड
सोलह श्रृंगार में मै –पर
धागे का दूसरा सिरा कोई थामे है
या नहीं — —
अब मै पलट कर नहीं देखती —
—————-दिव्या ——————
Divya Sukla.  दिव्या शुक्ला
सचिव – सामाजिक संगठन स्वंय सिद्धा
निवास – लखनऊ

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