दलबदलू, सिद्धांतविहीन व सत्तालोभी नेताओं से सावधान *

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rn rm{ निर्मल रानी ** }
2014 के लोकसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है। भारतीय लोकतंत्र के रखवाले बने बैठे राजनीतिज्ञ एक बार फिर अपने सिद्धांतों,विचारधाराओं तथा पार्टी के प्रति व$फादारी जैसी बातों को ठेंगा दिखाते हुए अपने राजनैतिक घाटे-मुना$फे के अनुसार दलबदल शुरु कर चुके हैं। सत्ता की लालच में कल तक तथाकथित गांधीवादी रहे किसी नेता को आज गोडसेवादी होने में कोई आपत्ति नहीं हो रही है। कल तक जिन्हें सांप्रदायिक व देश का विभाजक समझा जाता था आज उन्हीें पर विश्वास जताते हुए ऐसे ही दलों के साथ गठबंधन की राजनीति शुरु होते देखी जा रही है। सवाल यह है कि क्या हमारा देश इस प्रकार के स्वार्थी,सत्तालोभी तथा अपने राजनैतिक व व्यापारिक घाटे-मुना$फे को देखते हुए दल बदल जैसे $कदम उठाने वाले नेताओं के हाथों में सुरक्षित समझा जा सकता है? क्या देश की जनता को ऐसे नेताओं पर विश्वास करते हुए उन्हें अपना $कीमती वोट देकर उनके स्वार्थपूर्ण म$कसद को पूरा करने में उनका सहयोगी बनना चाहिए?
वैसे तो लोकसभा के सभी आम चुनावों से पूर्व दल बदलने व गठबंधन से पाला बदलने की $कवायद बड़े पैमाने पर होती देखी जाती है। परंतु 2014 के लोकसभा चुनावों में दलबदल के इस अभियान में एक नया रंग भी जुड़ गया है और वह है राजनीति में शुचिता लाने की आकांक्षा रखने वाले लोगों का आम आदमी पार्टी की ओर बढ़ता रुझान। ज़ाहिर है आम आदमी पार्टी (आप)के नेता अरविंद केजरीवाल के तेवर, उनके हौसले तथा उनकी बातों को सुनने से यह सा$फ प्रतीत होता है कि उनके साथ न तो भ्रष्ट नेताओं का गुज़ारा है,न ही आप में कमाने-खाने,पारिवारिक राजनीति को बढ़ावा देने, सत्ता को धन कमाने का साधन समझने व अपराधी व बाहुबली नेताओं की गुंजाईश है। इसलिए पेशेवर दलबदलू नेता इनकी ओर आकर्षित होने के बजाए देश की उन पारंपरिक राजनैतिक पार्टियों में दलबदल कर रहे हैं जहां से वे अपनी मरज़ी की राजनीति कर सकते हों तथा अपना मनचाहा लाभ उठा सकते हों।
उदाहरण के तौर पर पिछले दिनों बिहार के लोकजनशक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान द्वारा भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किए जाने का समाचार प्रकाश में आया। पासवान पहले भी अपना राजनैतिक ‘धर्म परिवर्तन’ करने के लिए का$फी बदनाम रह चुके हैं। इनकी गिनती देश के उन नेताओं में होती है जो सत्ता के बिना अपनी सांसे लेना भी दूभर महसूस करते हैं। जिस समय जनता युनाईटेड दल की ओर से नितीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया गया था उस समय पासवान ने स्वयं को राज्य का मुस्लिम हितैषी नेता दिखाने की कोशिश करते हुए यह ड्रामा रचा था कि ‘बिहार का मुख्यमंत्री कोई मुस्लिम व्यक्ति होना चाहिए’। अपनी इस बेतुकी व खोखली बयानबाज़ी मात्र से इन्होंने कुछ अनपढ़ सरीखे बिहारी मुस्लिमों के मध्य संभवत: कुछ लोकप्रियता भी अर्जित कर ली हो। परंतु पिछले दिनों जिस प्रकार स्वयं को मुस्लिम हितैषी जताने वाले पासवान ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थामते हुए उसके साथ गठबंधन किया उससे एक बार फिर यह सा$फ ज़ाहिर हो गया कि पासवान का कभी मुस्लिम हितैषी दिखाई देना तो कभी भाजपा व नरेंद्र मोदी का हमदर्द बन जाना दरअसल किसी सिद्धांत या विचारधारा पर आधारित राजनीति का हिस्सा नहीं बल्कि उनकी अति स्वार्थी एवं सत्तालोभी राजनीित का ही परिचायक है। $खबर यह भी है कि पासवान ने भाजपा के साथ 7 सीटों पर लोजपा के उम्मीवारों को खड़ा करने का जो समझौता किया है उनमें पासवान के भाई,पुत्र तथा रिश्तेदार भी शामिल होंगे। अब आप स्वयं इस निर्णय पर पहुंच सकते हैं कि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों’ तथा पासवान जैसे स्वार्थी एवं परिवारवाद की शुद्ध राजनीति करने वाले सत्तालोभी नेताओं के बीच का गठबंधन कितना मज़बूत,स्वस्थ,टिकाऊ तथा राष्ट्रहित में होगा?
ऐसी ही $खबरें देश के कई राज्यों से भी प्राप्त हो रही हैं। इस बार के लोकसभा चुनाव नतीजे आने से पूर्व ही एक आम धारणा बन चुकी है कि कांग्रेस पार्टी इन चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने नहीं जा रही। दो बार लगातार सत्ता में रहने वाली यूपीए की गठबंधन सरकार को आगामी चुनावों में मंहगाई व भ्रष्टाचर का भुगतान करना पड़ सकता है। इस का सबसे अधिक नु$कसान यूपीए के सबसे बड़े घटक दल कांग्रेस पार्टी को ही होने की संभावना जताई जा रही है। इस राजनैतिक वातावरण को भांपते हुए कांग्रेस पार्टी के भी कई सत्तालोलुप व व्यवसायिक प्रवृति रखने वाले नेता दलबदल कर उन पार्टियों का रु$ख करते दिखाई दे रहे हैं जहां उन्हें सत्ता में वापसी की उम्मीद है। दूसरी ओर अपना कुनबा बढ़ाने की लालच में ऐसे दलबदलुओं के लिए लाल क़ालीन बिछा दी गई है। यदि आप राष्ट्रीय $फलक पर $गौर से देखें तो ऐसे अवसरवादी व स्वार्थी नेता(आप) की ओर जाते नहीं दिखाई देंगे। उनको मालूम है कि जहां राजमोहन गांधी,मेधा पाटकर,अरविंद केजरीवाल तथा योगेंद्र यादव जैसे फक्कड़,वास्तविक देश भक्तों का कारवां चल रहा हो वहां ऐसे स्वार्थी सत्तालोभियों तथा व्यवसायिक लाभ उठाने की प्रवृति रखने वाले नेताओं का गुज़र होने वाला नहीं । लिहाज़ा ऐसे लोग वहीं जा रहे हैं और उन्हें वहीं बुलाया भी जा रहा है जहां वे अपनी आदत व प्रवृति के अनुसार अपनी लूट-खसोट तथा व्यवसायिक गतिविधियां जारी रख सकें।
यूपीए सरकार की नाकामियों के बदले में देश को कांग्रेसमुक्त कराने का नारा दिया जा रहा है। जबकि कांग्रेस पार्टी अपने-आप में देश का अकेला वह राजनैतिक संगठन है जिसने महात्मा गांधी के नेतृतव में देश को पराधीनता व अंग्रेज़ों से मुक्त कराया था। आज उसी कांग्रेस को उखाड़ फेंकने की बात उन लोगों द्वारा की जा रही है जिनका कांग्रेस पार्टी की तुलना में देश की स्वतंत्रता में न तो कोई योगदान  रहा और न ही स्वतंत्रता संग्राम में उनके स्वयंभू संगठनों की कोई भूमिका इतिहास में पाई जाती है। हां स्वतंत्रता के नायक महात्मा गांधी की हत्या जिसे देश की पहली व सबसे बड़ी राजनैतिक हत्या माना जाता है उसका आरोप ज़रूर इस विचारधारा के हिस्से में है जोकि आज देश को कांग्रेसमुक्त कराने की बात कर रही है। बड़े ही आश्चर्य का विषय है कि देश में सांप्रदायिक धु्रवीकरण कराने तथा धर्म व सांप्रदायिकता के आधार पर पूरे देश में न$फरत के बीज बोने के प्रयास में निरंतर लगे रहने वाले राजनैतिक दल की ओर सत्तालोभी नेता केवल अपने निजी स्वार्थ के लिए आकर्षित हो रहे हैं। ज़ाहिर है ऐसे सिद्धांतविहान व अपने निजी राजनैतिक हितों का ध्यान रखने वाले लोगों से जनता व देश को क्या उम्मीदें हो सकती हैं?
लोकसभा 2014 के चुनाव देश के मतदाताओं के लिए एक बड़ा अवसर है जबकि वे ऐसे नेताओं की पहचान कर उन्हें अपने मताधिकारों की शक्ति के माध्यम से ऐसा सब$क सिखाएं कि वे दल बदल करना तो क्या ऐसे ढर्रे की राजनीति करना ही छोड़ दें। आज देश की राजनैतिक स्थिति देश के स्वाधीन होने के बावजूद ऐसी भयावह हो चुकी है कि तमाम बुद्धिजीवी व ईमानदार देशवासी यह कहते नहीं हिचकिचाते कि 1947 के पहले का अंग्रेज़ी राज भी आज के आज़ाद देश से कहीं बेहतर था। आज भी जब कहीं भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन होता है तो देश के जि़म्मेदार आंदोलनकारी यह कहते सुने जाते हैं कि गोरे अंग्रेज़ तो चले गए पर काले अंग्रेज़ों ने देश पर $कब्ज़ा जमा लिया और व्यवस्था को अपना $गुलाम बना लिया है। यह स्थिति दलबदलू,सिद्धांतविहीन,स्वार्थी तथा व्यवसायिक मानसिकता रखने वाले नेताओं को जनता द्वारा बार-बार दिए जाने वाले समर्थन व सहयोग के कारण ही पैदा हुई है। प्राय: वाद-विवाद तथा आलेखों के माध्यम से भी यह सुनने व पढऩे को मिलता है कि देश की बिगड़ती हुई वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था का जितना जि़म्मेदार भ्रष्ट व सत्तालोभी नेता है, देश की जनता व मतदाता भी उससे कम जि़म्मेदार नहीं है। क्योंकि मतदाता ही ऐसे अवसरवादी नेताओं को जिताकर उनके नापाक इरादों को पूरा करने में सहायक होता है। कोई भी निर्वाचित विधायक या सांसद जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है वह व्यक्ति उस क्षेत्र के मतदाताओं की पहली पसंद समझा जाता है। अब यदि विजयी नेता चरित्रवान,शिष्टाचारी, समाजसेवी तथा अपने क्षेत्र व देश के लिए कुछ करने का हौसला रखने वाला व्यक्ति होता है तो उस क्षेत्र के मतदाता प्रशंसा के पात्र समझे जाते हैं तथा उस क्षेत्र के साथ-साथ देश के विकास की संभावनाएं भी बनी रहती हैं। और वही निर्वाचित व्यक्ति यदि भ्रष्ट,अपराधी,बाहुबली,लुटेरा या देश को बेचकर खाने की प्रवृति रखता है तो निश्चित रूप से उस क्षेत्र की जनता के लिए भी वह किसी कलंक से कम नहीं होता।
लिहाज़ा ऐसे राजनैतिक वातावरण में जबकि हमारा देश राजनैतिक दलों के प्रतिस्थापन (सब्सटिच्यूट)के बजाए व्यवस्था में विकल्प(अल्टरनेट) की तलाश कर रहा हो तो यह ज़रूरी है कि मतदाता इस बात का ज़रूर ध्यान रखें कि वे जिसे निर्वाचित करने जा रहे हैं उसका राजनैतिक तथा व्यक्तिगत चरित्र कैसा है? उसका राजनीति करने का ध्येय व म$कसद क्या है? इन चुनावों में मतदाताओं की पूरी कोशिश होनी चाहिए कि वे देशहित में राजनीति को दलबदलुओं,सिद्धांतविहीन व सत्तालोभी नेताओं तथ अपराधियों व बाहुबलियों के चंगुल से मुक्त कराएं। देश के लिए ऐसे स्वार्थी नेता निश्चित रूप से एक बहुत बड़ा $खतरा हैं। इनसे देश को बचाना सि$र्फ मतदाताओं के हाथों में है। और लोकसभा 2014 के चुनाव देश के मतदाताओं के लिए इस पुनाीत कार्य को करने के लिए एक बड़ा शुभअवसर है।
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Nirmal Rani**निर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों,
पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer )
1622/11 Mahavir Nagar
Ambala City 134002 Haryana
phone-09729229728

*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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