डॉ शेफालिका वर्मा की कविताएँ

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शिव कुमार झा टिल्लू की टिप्पणी : शेफालिका जी की कवितायों में नारी संवेदना और समस्याओं को कल्पना के नवलअनुप्रास से इस तरह ओतप्रोत किया जाता रहा है की ये यथार्थवादी ही लगते है.  सामाजिक विषमताओं के संशय में इन्होने नारी के जीवन को एक अलग दृष्टि  से पारिभाषित किया है  . आशुत्व से लबालब इन पद्यों में  एक अलग संत्रास है  .सिनेह की अविरल व्याख्या है , भावना का अनुपम प्रवाह है इन्होने वैराग्य से श्रृंगार का सृजन किया है . ये समस्या नहीं समाधान की कवयित्री है !
मैथिली साहित्य की ” महादेवी वर्मा” कही जाने वाली   शेफालिका जी  की कवितायें आरसी प्रसाद सिंह की निर्झरणी के संवाहक हैं .जहाँ की छाया समाज को बढ़ने की दिशा देती है, ,आलोचना और प्रत्यालोचना के आवरण में पीछे नहीं खींचतीं . भाव की गहराई से परिपूर्ण इनके काव्य मंच पर भी जनप्रिय रहे हैं  ( शिव कुमार झा टिल्लू –  हिन्दी और मैथिली साहित्यकार )

डॉ शेफालिका वर्मा की कविताएँ  

1. देर बहुत कर आये

तुम आये
किन्तु देर बहुत कर आये
प्रियेतम !
सब साधों को सुला चुकी अब
और करूँ क्या तुमको अर्पण ?
मेरी आँखें सन्यासिन सी
सारे सपने रीते रीते
प्राणों का दीपक रीता
स्नेह रिक्त दीपक से क्या वह
प्रणय.शिखा निकलेगी ??
धरा आकाश भी मिलते हैं क्षितिज में
एक काल्पनिक विन्दु पर
प्रीती की कामायिनी किन्तु ,
खो गयी
अधरों के प्यासे तीरों पर …
तेरे पैर पखारे पाहुन
नयनों के ये नीर पावन
सब कुछ तो लुटा चुकी
ले लो इन आँखों का सावन ….

2. नारी

मै नारी हूँ, ये अपराध मेरा तो नहीं
हाँ मै नारी हूँ !
तुम्हारी लेखनी ने संस्कृति के उत्कर्ष तक
मुझे पहुंचा दिया
धरती का प्राणी ही नहीं
देवी भी मुझे बना दिया
किन्तु,
तुमने मुझे बना दिया
पातळ की छाती को विदीर्ण करनेवाली
एक चीत्कार
प्रकृति-पटी पर उमड़ती कोसी का
हाहाकार
अधरों पर आता है कभी शरद-प्रात
कभी पूस की सर्द रात
दर्पण में जब भी अपना चेहरा देखती हूँ
सीता की व्यथित परछाही
पलकों की कोर पर थरथरा  जाती है..
मेरा आँचल चाँद तारों से नहीं
राहू केतु  से भर जाता है
किन्तु नहीं अब नहीं….
हवा छू देने से नारी मैली नहीं होगी
नारी समझ गयी हाड मांस से बने इस
देह में कुछ भी नहीं जिससे
तुम बने ,वह बनी
प्रकृति कुसुमार बनी है..
फिर दोषी मै ही क्यों ?
यहाँ कुम्हड़ बतिया नहीं कोई
तर्जनी देख मुरझाने वाली अब हम नहीं
अब जमाना बदल गया
देश की आज़ादी नारी के अंतर में उतर गयी
एक तीव्र धूप नारी के अंतर में फ़ैल गयी
घर बाहर को जगमगाती
आकाश छूने की परिकल्पना से
नव निर्माण के विस्तार में
नवल सूर्योदय भरती
परम्परा-अपरम्परा को ध्वस्त करती  नारी
आज आगे बढ़ रही  है……..
फिर भी उसका समर्पण देखो
सब कुछ सहती
जन्म तुम्ही को देती है
सृजन मै करती हूँ ……
विधाता तुम बन जाते हो
पुरुष विमर्श छोड़ , नारी विमर्श की बात करते हो……

3. सत्य की खोज

जब  जब मैंने सत्य को खोजना चाहा
असत्य मेरे समने आ
मुस्कुराने लगा
मन मेरा हारने लगा
रेत की दीवार पर
लहरों के तट पर
चांदनी खोजती रही
प्रत्येक चेहरे से पेड़ों की छाल की तरह
नकाब उतारती  रही
कितना  विरूप है ये असत्य ,
कितना कठोर
तपते मरुथल में मै भागती रही
जिन्दगी से समझौता करती रही
संस्कार को बनाने के लिए
व्यवस्था के प्रपंच को कुचलने के लिए
पता नही कब कैसे
इस व्यवस्था का अंग बन गयी
मै स्वयम असत्य बन गयी …….
औरों के आंसू पोंछते
आँचल खुद का भिंगो गयी ……………..

4. फिर वही घर —

लौट आयी हूँ जैसे अपने आप में
फिर वही खाली कमरा
टेप रेकर्डर की तरह चलती कलम
घन्न घन्न करती पंखे की बेसुरी आवाज तो
कभी हीटर की  सन्न करती गिड़गिड़ाहट
घोड़े की टापों की तरह सीधे दिल पे मारती
मोबाइल से एसएमएस
खिडकियों से दस्तक देती दोपहर की जवान धूप
कुहासे से भरी सर्दीली रात
अंदर आने या मुझे बुलाने को बेताब !
बिस्तर पर बिखरे कागजों के पन्ने
फर्र फर्र उड़ते
कुछ तडपती यादें कुछ अधूरे सपने
लगातार मुझे घूरे जा रहे हैं …..
कब तक छलती रहोगी अपने आप को ?
लो ये सब अब तुम्हारे लिए ही हैं
करती रहो खेती इन सब की
सींचती रहो अपने आंसुओं से
खोजती रहो खुद को.
साल कोई आये या जाये
तुम यूँही समय की  रफ़्तार को देखती रहो ……….
और मै घबड़ाकर नेट पर बैठी खामोश
पढ़ती रह जाती हूँ लोगों को
बेआवाज बेदम कभी ख़ुशी कभी गम,
कभी प्यार
कभी प्रहार …..…

5. आती रहूँगी

एक दिन ऐसा भी  आएगा
जब तेरे पास मै  ना रहूंगी
हरसिंगार सी मै तो
बिखरी मिलूंगी
सुगंध बन के मन प्राणों में तेरी
मै बसती रहूंगी…………….
मेरी कमी
तुम ना महसूस करना
तेरे दिल में  यूँही मुस्कुराती रहूंगी
जन्मो में मै ना मिलूंगी तुम से
साल में एक बार तो
आती रहूंगी
आँख  नम ना करना कभी तुम
तेरे होठो पे बन के हंसी मै
खिलखिलाती  रहूंगी…
देख लो मौसम
आने -जाने का आ ही गया फिर
शेफालिका सी यूँही  बिखरी मिलूंगी…..

6. जन्म दिन

मेरा जन्मदिन होना न होना
क्या फर्क मुझे पड़ता है
कहा एक युवा दोस्त ने ऐसा क्यों कहते हो
मैंने कहा अब ७१ की होने जा रही
बड़ी मासूमियत से उसने कहा —
वेरी सिंपल- आप इसे उलटा कर दो
१७ की आप हो जाएँगी—–
हँस पड़ी मै
समय यदि उलटा चलता कितनी बार
पलट देती उसको —
मेरी कविताओं में मेरा मन है
नन्ही शेफाली का अल्हड़ सा अपना जीवन है
पर
तन का अपना ही कम्पन है-
वो बोला
मै तो मन पर तेरे जाता हूँ
तन का क्या आना और जाना है
वो बोला
मै तो मन पर तेरे जाता हूँ
तन का क्या आना और जाना है
मिटटी के हैं हम ,मिटटी में मिल जाना है
नम हो उठी ऑंखें मेरी
बस इतना ही कह दो ——
चल न सकूँ मै कभी तो
थोडा सहारा तुम दे देना। .
कुछ बोलूँ ,कुछ बहकूँ
बात पकड़ने के बदले , मेरी बांह पकड़ लेना
मेरी ताक़त बन जाना
जी रही हूँ प्यार तुम्हारा लेकर
तुम बस
विश्वास अपना दे देना……….

7. हवा हूँ

हवा हूँ मै हवा हूं
कभी पछवा बन कभी पुरवाई के झोंके में
चली आती तुम्हारे पास
चुपके चुपके ,हौले हौले ……….
और
बिखेर देती तुम्हारे बालों को
कभी खुशबू बन तेरी
साँसों में समा जाती
कभी पसीने से नहा देती
कभी उनके ताप हर लेती
कभी बारिश की बूंदों में सिहक जाती
कभी तुम परेशां होते
कभी सुकून पा जाते
कहीं भी रहो
मेरे बिन तुझे चैन नही
क्यों कि
हवा हूँ मै ………
तो फिर इन्तेज़ार करो– मेरे बिन तुम जी न पाओगे
हवा हूं- हवा मै
विदा ——————————————–

8. करवा चौथ

बूढ़ी माँ
करवा चौथ के दिन निहार रही थी
बालकोनी से चुपचाप
सामने पार्क की चहल पहल
हंसी की फुलझड़ियाँ ठहाकों का
गर्म बाजार
मेहँदी रचाती अल्हड बहुएँ बेटियां
बूढी माँ अपनी सूनी हथेलियों को देखती रही
एक उसाँस उसकी छाती चीर निकलती रही
कभी हम भी नारी आंदोलन में रहते थे
पर माता पिता को पहले पूजते थे
बबुआ के पिता भी न जाने कहाँ चले जाते हैं
अवकाश प्राप्त का जीवन वह जी नही पाते हैं
वह कभी अपनी झुर्राती हथेलियों तो कभी
अपनी श्लथ अँगुलियों को निहारती है
एक इंतज़ार खत्म होता है
पति की आँखों में एक खालीपन
पत्नी की मेहँदी विहीन हथेलियों को देख
उसके सूने नयनो में बादल आ जाते हैं
उसकी हथेलियों को प्यार से चूमते —
लो तेरे हाथों में मैंने प्यार की मेहँदी रच दी
वे तो बच्चे हैं हमारे
जो कभी हम थे आज बच्चे हैं हमारे
पत्नी का सर पति के सीने पे लुढ़क जाता है
करवा चौथ का व्रत पूरा हो जाता है———–

9. तुम्ही ने कहा था——

तुम्ही ने तो कहा था
‘ तुम मेरे भावों में नही अनुभावों में हो ‘
आँखों के आकाश में
सपनो के इन्द्रधनुष उग आये
और
चाँद ने साँझ को सुहागन बनाया
सिंदूरी साँझ के अधर
अमलतासी हो उठे
तुम्हारे कहे सारे शब्द मेरी ज़िन्दगी बन गए
पर ये सावन का महीना ,
बादलों की उड़ान
सुहागिनों का श्रृंगार
छवि तुम्हारी निखार-निखार जाती है—

10.  सभ्यता

कभी अट्टालिकाएं महलों के लिए
हुआ करती थी
आज भी
अट्टालिकाओं से सारा शहर घिरा है
कबूतर के दड़बे की तरह
मनुष्य भी उन्ही दड़बों में रहा करता है
स्वयं को राजकुमार समझ
मनुष्यता रही कहाँ
दीवारों में कैद
शाम होते ही सभी
अपने अपने दड़बों में घुस जाते हैं
सुबह होते ही मैदानों में ,पार्कों में
सड़कों पर
कबूतर की तरह बेतहाशा
उड़ते दीखते हैं।————

11. यादों के रक्त फूल

साज़ के तार की तरह मेरा तन
तुम्हारे आगमन का राग लिए
कांप कांप उठता है
शांत आँखें
अशांत मन लिए
बाट जोहती उस पाहून की
जिसके आने की समस्त तारीखों पर
वक़्त की सियाही फ़ैल गयी है
एकांत के कैक्टस से छटपटाता
लहुलहुआन मेरा अंतर
तुम्हारे अनलिखे अक्षरों को
टटोल रहा है
और मेरे सारे बदन पर
तुम्हारी यादों के रक्तफूल
खिलखिल आये हैं——–

12. मुक्ति

तुम मुक्ति किस से चाहती हो नारी ?
कभी अपने दिल से पूछा तुमने ,
पिता से पति से पुत्र से ???
नही कभी नही
फिर मुक्ति किस से —
तुम स्वयं शक्ति हो
मुक्त करने का अधिकार तुम्हे है
सृष्टि के सृजन का आधार तुम में है
अपनी शक्ति को पहचानो
दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती खुद को जानो ….

13 . ख्वाब न देखो

मुझे सवारने की  प्रक्रिया में
मुझे तलाशने की प्रक्रिया में
कहीं तुम न टूट जाओ
बंधी हुई हवाएं
फिर न फ़िज़ा में रंग घोल दे
खामोश गीत फिर न
अधरों के तारों पर झनझना उठे
आँखों में अक्स उभर  आते
तेरी खामोश मुहब्ब्त के
दरिया की  मौज़े रवानी
मेरी ढीली पड़ती नसों में
तूफान उठा देगी
तुम्हारी कसी  शिराएँ
सिहर सिहर कितनी नग़माओं को बिखरा देगी
ज़माने की  बदशक्ल नज़रें इन पर
स्याह रंग उड़ेल देगी
तो फिर ख्वाब न देखो इन नामुराद चीजों का
न तुझे जीने देगी न मुझे

14.  बूढा बरगद

बरगद बूढा हो गया था
पर अपने जटा जूट से जन्मे नन्हे नन्हे
पौधों को हवा में उछालते कूदते देख
खुश हो जाता था
कुछ पौधे बड़े हो गए थे ,उनके पत्ते
मुरझाये से थे
हवा की सरसरी में बरगद ने सुना
‘ बड़े पेड़ के नीचे
सच ही छोटे पौधे नही पनपते ‘
हम कभी नही पनप पाएंगे
बरगद सिहर उठा
अपनी किस्मत पर अन्दर ही अन्दर रो उठा
कैसे पनप  पाएंगे ये बच्चे ?
कहनेवाले ने तो ठीक ही कहा होगा
उसके हाथ में तो कुछ भी नही था
नन्हे नन्हे बच्चों की ख़ुशी देख उसे भय
होने लगा
बड़े होकर ये भी मुरझा जायेंगे …..
फिर एक दिन लकडहारे ने उस बूढ़े बरगद को
मुक्ति दे दी
कितनी जगह हो गयी ..सभी खुश थे
पर कटे  वृक्ष की शिराओं से अभी भी
वात्सल्य की बूंदे रिस रिस कर
आशीर्वाद  देती रही ……..

————————————–

dr shefalika varma INVC NEWS,INVCपरिचय – :

डॉ. शेफालिका वर्मा
साहित्यं अकादेमी पुरस्कार से पुरस्कृत

जन्म:९ अगस्त, १९४३,जन्म स्थान : बंगाली टोला, भागलपुर ।

शिक्षा:एम.,पी-एच.डी. (पटना विश्वविद्यालय), ए. एन. कालेज, पटना मे हिन्दीकी प्राध्यापिका पद से  सेवानिवृत्त ।
नारी मन की  ग्रंथियों को खोलकर  करुण रससे  भरी  अधिकतर रचना। प्रकाशित रचना:झहरैत नोर, बिजुकैत ठोर;विप्रलब्धा (कविता संग्रह), स्मृति रेखा (संस्मरण संग्रह), एकटा आकाश (कथा संग्रह), यायावरी (यात्रा-वृत्तान्त), भावाञ्जलि (काव्य-प्रगीत) ,किस्त-किस्त जीवन (आत्मकथा)। ठहरे हुए पल (हिन्दी) ।

पुरस्कार :
साहित्यं अकादेमी पुरस्कार : क़िस्त क़िस्त जीवन के लिए
यात्री चेतना पुरस्कार , मुरलीधर श्रीवास्तव शिखर सम्मान ,
काव्य विनोदिनी सम्मान ( इलाहाबाद में डॉ राम कुमार वर्मा के हाथो ..सौजन्य इलाहाबाद विश्वविद्यालय )

सम्प्रति : नयी दिल्ली निवास – संपर्क : 09311661847

25 COMMENTS

  1. मैम ,आपकी हर कविता शानदार हैं ! आपकी किस कविता को अव्वल कहूँ मेरी समझ से बाहर हो चला हैं ! सभी की सभी बहुत उम्दा कविता हैं !

  2. kya kahu in khubsurat rachnay ke liy ! isme pure jivan darshan v nari chitran jo kiya gya hai vo n keval kabil-a – tarif hai valki kabil-a-gaur bhi hai. jivan ke har pahalu ko sametati ye rachnay. ” bahut der kar aaye ” se shuru karke “budha bargad” par khatm . kah hi sakta ki kitna dil ko chhua.

    Mahan “Nari” “Satya ke khoj me ” “Fir vahi ghar me” “Aati rahengi” jaha bahut hi prem se “Janmdin” v “Karwa Chouth” “Sabhyata” ke anuroop manaya jata hai. Fir koi nhi kahega ki aap “Bahut der kar aaye”. “Tumhi ne kaha tha” ki mai “Hawa hu” “Yado ke rakt phool” ke sahare “Budhe Bargad” ko “Mukti” dena chahti hu.

  3. Very efficiently written poety. It will be valuable to anyone who employess it, including me. Keep doing what you are doing – looking forward to more posts.

  4. रविवार की छुट्टी और आपकी कविताएँ …दिन शानदार हो गया ! आपकी सभी कविताएँ शानदार है ! पढ़ने के बाद मन बार बार पढ़ने का हो रहा हैं !

    • Ani , kya kahun bs apka prem hi to hai aaj apne mere sath samay bitaya ..
      vo kavitayen nhi mai khud hi to hoti hun

      THANX ALOT ….

  5. Main Naari hun, Hawa hun, Janmadin ho ya Karwa chauth, ya Phir wahi ghar Main aati rahungi Yadon ke rakt phul ki tarah. Log kahte hain der bahut kar aaye. Tumhi ne kaha tha Satya ki khoj athwa Sabhyata ka marg durgam hai, Mukti ka khwab na dekho, bus Budha bargad ne mukti paa liya — vatsalya ras ka ashirwad dekar. The abome mentioned sentences reflect the life and philosophy of our great mother Dr. Shefalika Verma. With Best Wishes. Your eldest son Dr. Rajiv Kumar Verma, Delhi University, Delhi.

  6. शिवकुमार झा से आज तक मेरी भेंट नही हुई है . रात के करीब 1.३० बज रहे थे , अचानक मोबाइल की घंटी बज उठी .. वैसे भी नींद ने मेरे फ्रेंड रिक्वेस्ट को आज तक एक्सेप्ट नही किया …मै घबडा गयी ..इतनी रात ……’मै शिवकुमार वर्मा जमशेदपुर से बोल रहा हूँ.. …मै उन्हें विदेह पत्रिका के माध्यम से जानती थी . बहुत अच्छा लिखते हैं …पर अचानक….इतनी रात ..’ अभी तुरत मैंने आपकी डोरोथी कहानी खत्म की . रात ज्यादा हो गयी है फिर भी मुझसे बात किये बिना रहा नही गया…..’ और बहुत देर तक वे आंसुओं की भाषा में मुझसे बात करते रहें ..मै अपने दामाद डॉ के पी कर्ण से सुनी थी ये घटना और इंग्लैंड की कैंसर से लड़ती बहादुर लेडी को डोरोथी के रूप में मैंने आकार दे दिया . मै नही जानती थी डोरोथी इतनी अमर हो जाएगी शिव भाई के शब्दों में . फिर तो शिव मेरे धर्म भाई बन गए ..खून का रिश्ता, जात पात का रिश्ता —इन रिश्तों से कहीं ऊपर ये दर्द का रिश्ता बन गया . प्रेम प्रगल्भ नही होता …कुछ नही कहूँगी भाई …आज तुम्हारे इस स्नेह को दूर्वा दल की तरह तुम्हारी ये बड़ी बहन सर झुका कर धारण कर रही है …….. pyare pyare dost ke pyar se bhing bhing gyi hun……..ABHAR SABON KA

    PYARI SI Sonali Bahan ka bahut abhar ..

  7. आपकी कविताएँ सभी शानदार हैं ! जितनी तारीफ़ की जाएं कम हैं ! पर सातवी कविता मुझे बहुत पसंद आई ! टिप्पणी बहुत सही में शानदार हैं !साभार

  8. ख्वाब न देखो ,,,,बहुत सरे सवाल खड़े करके …दिल की बात कह ही जाती हैं ! शानदार सभी कविताएँ बहुत उम्दा ! शिव कुमार झा टिल्लू जी आपकी टिप्पणी सच में टिप्पणी लिखना सिखाती हैं !

  9. शानदार एक से बढकर एक कविता आपने लिखी हैं ! आपको पहले भी पढ़ा हैं पर इस अंदाज़ में नहीं !मैम …पहली कविता इतना कुछ कह जाती हैं की बयान करना मुश्किल हैं !

  10. बहुत बहुत शानदार ,उम्दा ,बार बार …बार पढ़ने योग्य कविताएँ ! मैम …किसी एक कविता की तारीफ़ मुश्किल हैं ! मैं Dr.Ratan Prakash जी की राय और सम्पादक मोहदय की सोच से सहमत हूँ ! आपने सही किया जो सभी कविताएँ प्रकाशित कर दी !

  11. सच में आपकी हर कविता बहुत ही शानदार हैं ! अभी अभी सम्पादक मोहदय का फेसबुक पर स्टेट्स पढ़ा ! सच में सम्पादक मोहदय ने बिलकुल सही किया जो आपकी सभी कविताएँ प्रकाशित कर दी !

  12. बूढा बरगद…सबसे बढिया हैं ,आपकी हर कविता बार बार पढ़ने का मन हो रहा हैं ! आपके नए पते का अब हमें भी पता चल गया हैं !

  13. मैम ..आपकी हर कविता शानदार हैं ! आपकी काविताओं का नया पता मिल गया हैं ! अब जब भी आपको पढ़ने का मन होगा अब एक क्लिक पर पढ़ लेंगे !

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