डा. अनिल मिश्रा की रचना बाबा नागार्जुन

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डॉ अनिल  मिश्रा  की एक लम्बी रचना

पाँय लागूँ बाबा !

पाँय लागूँ बाबा !

सही कहा तुमने
जो साँचे में सध गया
वह साहित्यकार कहाँ ?

प्रश्न किया तुमने-
क्या शोषित नहीं हैं
गरीब सवर्ण और
बहिष्कृत विधवा ?

स्पष्ट किया तुमने-
प्रतिक्रियावाद और
प्रगतिशीलता का
साथ नहीं हो सकता |

खूब गुना तुमने
अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद का
राष्ट्रीय स्वरुप ही
राष्ट्रीय मार्क्सवाद है|

और
बासठ में चीन के विरूद्ध
लिख कर दिखा दिया तुमने
देश से निर्लिप्त होकर
नहीं रहा जा सकता
मार्क्स वादी |
यह भी कि
जो कहते हो वह करते भी हो
बिना किसी दबाव के |
तुम्हारे सिवा
कौन कह सकता था ?
“मुखर मनीषी भी
गूंगा हो जाएगा
यदि रहेगा वह
अधिक समय तक
अंधों और बहरों के बीच”

यह तुम ही थे
जो काशी में
एक लावारिश मृत बुढ़िया की
सड़ती देह का दाह कर
म्लेच्छ कहलाना पसंद किया |

नहीं किया तुमने
एक की समाधि पर
दूसरे का सृजन |
साँस लेने दिया सब को
अपनी रचनाओं में
छंद युक्त को भी
छंद मुक्त को भी
कथा को भी
कविता को भी |
संतुलन रक्खा तुमने
परम्परा और प्रयोग में |
आँखों के सामने है मेरे
सन् चालीस की सरस्वती
और ‘यात्री’ के रूप में तुम्हारी दृष्टि-
“मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभचुम्बी कैलाश शीर्ष पर
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है”
और बयालीस की
‘प्रत्यावर्तन’ की ये पंक्तियाँ भी –
‘धन्य अनुशासन तुम्हारा तर्जनी का
हो गया मालूम जीने का तरीका”

जब कोई कहता है
बाबा कौन सी भाषा बोलता है
तब याद आती है
तुम्हारी ‘मैथिली’ की ये पंक्तियाँ –
“जाहि भाखा में बजइ छी
सत्त थिक से बोल
आन बाणी ठीक दूकर ढोल”

फूटी कौड़ी के बिना
सर्वहारा की संताने
कैसे पढ़े
सताती थी यह चिंता तुमको
तभी तो कहा कवि से
चुनौती देने को-
“अन ने छै, कैंचा ने छै कौड़ी छै
गरीबक नेना कोना पढ़ तैक रे ?
उठह कवि, तों दहक ललकारा कने
गिरि-शिखर पर पथिक-दल चढ़ तैक रे”
जानता हूँ बाबा !
मूल्यों के मूल्य पर
न तो तुमने कुछ लिया
न ही किसी को माफ़ किया
एकला चले पर
अवसरवादिता के गले नहीं मिले
बेशर्मी भले ही न बिंधी हो
पर चूके नहीं तुम
तीखे व्यंग्य बाण चलाने से-
“ओफ्फोह ! जाने कैसे आज
आपस में वे एक प्राण एक दिल हो गए”
………
चलो, अच्छा है
मैं अलग ही खड़ा रहूँगा… ”

गोड़ लागूँ ‘ढक्कन मिसिर’ !
साष्टांग दण्डवत् ‘बाबा वैद्यनाथ’ !
अप्प दीपो भव- ‘भिक्षु नागार्जुन’ !
लाल सलाम ‘कामरेड’ !
वंदन ‘विदेह’ !
चरैवेति ‘यात्री’ !

जानता हूँ मैं
आसान नहीं है, ये सब बनना
इतने नामों को जीवंत करना
प्रणाम दरभंगा वाले बाबा !

पैदा भी तो हुए थे तुम
पाँच के मरने पर
ननिहाल में
कारागार में न सही
कच्ची कोठरी में |
सात को मार के होते तो
क्या पता
हो जाते पंद्रह-सोलह कला वाले?

लोअर प्राइमरी के बाद
जिसे ‘अमरकोष’ पकड़ाते हुए
रोक दिया हो पिता ने
आगे की पढाई से
यह कहते हुए कि
प्रसिद्द समौलकुलोत्पन्न
वत्सगोत्री ब्राह्मण
म्लेच्छ बनेगा, अंग्रेजी पढ़ेगा ?
आसान नहीं था
उसके लिए
शास्त्री बनना काशी विद्यापीठ से |

पूत के पाँव पालने में
प्रतिबंधों को परास्त करना
प्रारम्भ कर दिया था तुमने
बहुत पहले ही|
काशी में बालवर्धिनी सभा की
समस्यापूर्ति का
चौथा पुरस्कार भी लिया
नियमों को तोड़ कर रानी से |
फिर काशी से प्रयाग
पैदल प्रस्थान
और रास्ते में
मोची के हाथों का गुड़ खाकर
उसके लोटे में मुंह लगाकर
गटागट पीनी पी गए थे तुम
उसके मना करने पर भी
यह भी तो विद्रोह था तुम्हारा
रूढ़ियों के विरुद्ध
किशोरवय में ही |

और फिर
विख्यात संस्कृत कालेज, कलकत्ता के
बाघा प्रिंसिपल को बकरी बनाना
अपने संस्कृत में रचे आठ श्लोकों को
चपरासी द्वारा पहुँचवाकर
उनके पास
चार आना घूस के सहारे
पढ़ने के लिए प्राकृत |
आसान नहीं था
संस्कृत कालेज में ही
प्रिंसिपल की कृपा से
बेल्जियम के पादरी को
पचास रुपये माहवार पर
संस्कृत पढ़ाना छोड़
संन्यास लेना
केलानिया मठ श्रीलंका में
बन जाना वैद्यनाथ से
भिक्षु नागार्जुन |

और सन्यासी का फिर
स्वदेश आकर संग्राम करना
किसानो के लिए
मुंडित सर पर लाठी खा
बिताना दस माह जेल में|
बाहर आते ही
द्वितीय विश्व युद्ध के समय
कहना ब्रितानी शासन से
‘न एक पाई, न एक भाई’
आठ महीने फिर जेल |

अहो भाग्य !
बनना तुम्हारा फिर
सन्यासी से गृहस्थ
महीने भर
मिथिला की पहुनाई
ससुराल हरिपुर में |
और फिर पैसों के लिए
लिखकर मैथिली
‘बुढ़वर विलाप’ किताब
उसे बेचना मुसाफिरों को
रेल और बस स्टेशनों पर
आसान नहीं सबके लिए |

कवि, कथाकार, उपन्यासकार
अनुवादक, सम्पादक, अध्यापक
फक्कड़, घुमक्कड़
गृहस्थ, सधुक्कड़
क्रांतिकारी, हाकर
और क्या-क्या थे तुम
बाबा बताओ न
धीरे से ही सही !

बताओ तो
कैसे बनाए रक्खा
विद्रोह और ब्यंग्य को
अपने व्यक्तित्व का
अभिन्न अंग अंत तक ?
मैं क्या कहूँ
तुम तो खुद ही कहते थे-
“यह बनमानुस
यह सत्तर साला उजबक
उमंग में भर कर सिर के बाल
नोचने लग जाता है यह व्यक्ति
अपने ही सर के बाल
अकेले में बजाने लग जाता है सीटियाँ
आये दिन”
और ‘आईने के सामने’
खुद से क्या बोले, सभी जानते हैं-
“नुची मूँछो का ठूँठ आलम
तुम्हारे मुखमंडल को
प्राकृत और अपभ्रंश के
संयुक्त व्याकरण जैसा सजा रहा है
कपड़ों का यह हाल कि
भद्देपन और कंजूसी का
इश्तहार बने घूमते हो”
और सोच में ही सही पर
इस लबादे को भी हटाने की तमन्ना
नागा बाबा क्या कहना ?
“अरे हाँ !
तुम तो प्रगतिशील हो न
बड़बोला प्रगतिवादी
ज़रा देर के लिए अपनी ‘प्रगति’ के
रंगीन और गुनगुने झागों को हटा दो न
नागा बाबा, प्लीज”
जो खुद की भी चुटकी ले सकता है
उसे दूसरे की लेने में क्या सोचना
कैसे जुगाड़ से
बढ़ाई जा रही लम्बाई को
छोटी कर देते थे तुम चुटकी से –
“दिल्ली से लौटे हैं कल, टिकट मार के
खिले हैं दांत ज्यों, दाने अनार के”
प्रोटोकाल जो भी हो पर
कैसे देख सकते थे तुम
ब्रिटेन की रानी का बंदनवार ?
रोक तो नहीं पाए
पर व्यंग्य की तर्जनी तान दिए –
“आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी
यही हुई है राय जवाहरलाल की”
लोग सकते में आये या नहीं
यह वही जानें
पर तुमने तो
शब्दों का झंडा
बुलंद कर ही दिया –
“गांधी जी का नाम बेच कर बोलो कब तक खाओगे,
यम को भी दुर्गन्ध लगेगी, नरक भला कैसे जाओगे!”
और तुम्हारी
चुटकी की गहराई
अथाह हो जाती है
जब तुम कहते हो-

“पांच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार
गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार।
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीण,
देश निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन।
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया एक उधर, अब बाक़ी बच गए दो
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया एक गद्दी से, बाक़ी बच गया एक।
एक पूत भारतमाता का, कंधे पर है झण्डा,
पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाक़ी बच गया अण्डा।“

करते भी क्यों न
जन कवि की जिम्मेदारी जो थी
तुम्हारे  कन्धों  पर

“जनता मुझसे पूछ रही है
क्या बतलाऊँ?
जन कवि हूँ मैं साफ कहूँगा
क्यों हकलाऊँ।”

और बिना हकलाये
कहा भी तो तुमने

“मरो भूख से फौरन आ धमकेगा थानेदार
लिखवा लेगा घरवालों से- वह तो था बीमार
—–
मरी भूख को मारेंगे फिर सर्जन के औजार
जो चाहेगी लिखवा लेगी डॉक्टर से सरकार”

व्यंग्य के बादशाह
कक्का कबीर भी
तुम्हारे व्यंग्यकार को
सूत की माला
पहनाये होंगे
आसमानी मुलाक़ात में
जब उसने उन्हें सुनाया होगा,

“बापू के भी ताऊ निकले
तीनो बंदर बापू के
सरल सूत्र उलझाऊ निकले
तीनो बंदर बापू के

करे रात-दिन टूर हवाई
तीनो बंदर बापू के
बदल-बदल कर चखे मलाई
तीनो बंदर बापू के”

और संवेदनशीलता-
आँखों से बहते आँसुओं
की तरह बहाया है
तुमने शब्दों को

“दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद”

यह सब तो ठीक था पर
अकेले का ‘आतिथ्य सत्कार’
क्यों बता दिया सबको ?
सूक्ष्म रूप में भी
अब तिब्बत मत जाना बाबा
ठंडक में मर जाओगे
मरने के बाद
एक बार फिर ।
क्योंकि
‘नम्-ग्यल’ की नज़र में
भले ही वह दयालु से
निर्दयी हो जाय
पर ‘शे-रब्’
तुम्हारी परछाई से भी
दूर रहेगी अब |

तुम मेरे दिल में ही नहीं
गाँव की चौपाल से लेकर
विश्वस्तरीय व्याखान में
अपनी रचनाओं के माध्यम से
उपस्थित रहते हो
तुम सिर्फ़ तुम हो बाबा
वाह ! वाह-वाह !!

इन सबसे अलग
तुम्हारी एक वो बात भी
जानता हूँ मैं
धीरे से कहूँ कान में ?

कमाल के थे तुम भी
याद करो लुधियाना के दिन
साथ ले अपराजिता दादी को
पहुच जाते थे छत पर
और रेलिंग पकडे
बीबी के सामने
दादागीरी के साथ दीदार करते थे
हाई स्कूल के गेट के
अन्दर और बाहर आती जाती
षोडशियों का |
और हिन्दी वालों की नज़र बचा
साठ पार में
बंगला में यह बोलना
कोई तुमसे सीखे-
“को थाई छिलि हुई आमार तिलोतमे
भूलि नि तो करवनी तोमाके सुमध्यमे!”
इसी को कहते है न बाबा
साठा तब पाठा ?
अरे अरे! लजा रहे हो?
अच्छा!
नहीं कहूँगा कुछ अब।
पाँय लागूँ ।।

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dr-anil-mishra,लेखक का परिचय

डॉ अनिल  मिश्रा

बहुभाषीय कवि, लेखक व् वक्ता

उत्कृष्टता के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय के स्वर्ण पदकों तथा साहित्यिक विशिष्टता के लिए अनेक सम्मानों से अलंकृत डॉ अनिल मिश्र, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित प्रसारित एवं सम्मानित बहुभाषीय कवि, लेखक और वक्ता हैं ।

 लखनऊ  विश्वविद्यालय में ‘डॉ अनिल मिश्र की साहित्य-साधना’ विषय पर शोध भी हो चुका है। यह कहानी डॉ मिश्र की बाबू श्याम सुन्दर दास पुरस्कार (इक्यावन हज़ार रुपये) से नवाजी गयी गद्य की विभिन्न विधाओं की प्रतिनिधि रचनाओं की पुस्तक ‘यत्र-तत्र’ में संकलित है।

संपर्क- 510/133 न्यू हैदराबाद, लखनऊ-२२६००७, email- dranilkmishra@gmail.com

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