जम्मू- कष्मीर घाटी आधारित नीति से घाटा

0
36
डॉ०  दिलीप अग्निहोत्री**,,
भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाली किसी भी स्तर की वर्ता में जम्मू -कष्मीर अवष्य षामिल रहता है। वस्तुतः यह भारत की कूटनीतिक कमजोरी का परिणाम है। पाकिस्तान इसका फायदा उठाता है। अन्य मसलों से ध्यान हटाने तथा भारत पर दबाव बनाने के लिए वह ‘कष्मीर-राग’ अलापता रहा है। जबकि जम्मू- कष्मीर विवादित क्षेत्र नहीं है। यह निर्विवाद रूप से भारत का अभिन्न अंग है। गौरतलब है कि जम्मू-कष्मीर के अस्सी प्रतिषत क्षेत्र में कभी कोई अलागाववादी आन्दोलन नहीं हुआ। इसके विपरीत इस क्षेत्र में पाकिस्तान विरोधी प्रदर्षन होते रहे है। इसमें यहां रहने वाली षिया मुस्लिम आबादी भी शमिल है। जो पाकिस्तान में षिया समुदाय पर होने वाले हिंसक हमलों का विरोध करती रही है। इसी प्रकार गुर्जर मुसलमानों का लगाव भी भारत से है। अलगाववादी आन्दोलन कष्मीर घाटी के पांच जिलों तक सीमित है। अलगाववादी तथा पाकिस्तान एजेन्ट के रूप में काम करने वाले नेता केवल दो जिलों तक सीमित है। इनकी हरकतों से समूचे जम्मू-कष्मीर को विवादित क्षेत्र मान लेने का कोई औचित्य नहीं है। 1972 में भारत पाकिस्तान के बीच हुए षिमला समझौते से सयंुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अधिकार क्षेत्र व जनमत संग्रह प्रस्ताव निरर्थक हो गया है। इसका अब कानूनी महत्व नहीं रहा गया है। ऐसे में इसकी चर्चा अनावष्यक है। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि पाक -अधिकृत कष्मीर के अधिसंख्य लोगों की सहानुभूति पाकिस्तान के साथ नहीं है। पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय भी उस पर पाकिस्तान का अधिकार नहीं माना। ऐसे में नई रणनीति बनाने की आवश्यकता है। कष्मीर घाटी पर केन्द्रित नीति के चलते पूरा प्रदेष विवादित दिखायी देता है। इस नीति का दोहरा नुकसान हुआ। एक तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देष की छवि प्रभावित होती है। भारत विरोधी तत्वों का मनोबल बढ़ा। दूसरे जम्मू व लद्दाख क्षेत्र का घोर उपेक्षा हुई। जबकि जम्मू लद्दाख का क्षेत्रफल कष्मीर घाटी के मुकाबले छः गुना तथा आबादी तीन गुना अधिक है। केन्द्र व प्रदेष की सरकारे कष्मीर घाटी को ही सर्वाधिक महत्व देती रही है। दषको तक चले आंतकी आन्दोलन का सर्वाधिक दुष्प्रभाव जम्मू के लोगों पर पड़ा। इस दौरान वहां स्कूल -कालेज बन्द रहे। लोग पलायन को बाध्य हुए। व्यापार, कृषि व पषुपालन सभी पर आंतकी खौफ का असर था। विकास योजनाएं ठप थी। जाहिर है कि इस माहौल में यहां के लोग आर्थिक रूप से बदहाल हुए। एक पूरी पीढ़ी को षिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला। ऐसे में अच्छे रोजगार के अवसर भी उनके लिए बन्द हो गए। साढ़े तीन लाख से अधिक लोग अपने ही देष में शरणार्थी की तरह जीवन व्यतीत करने को बाध्य है। यह विडम्बना है कि समर्पण करने वाले खूखांर आंतकवादियों के पुर्नवास उन्हें आर्थिक सहायता, रोजगार आदि की व्यवस्था के संबंध में सरकार की पूर्वनिर्धारित योजनाएं है। लेकिन आंतकी गतिविधियों से प्रभावित लोगों के लिए कोई कारगार योजना नहीं है। इनके लिए सिर्फ सरकारी वादें है। इनकी वापसी व पुर्नवास की कोई प्रभावी योजना नहीं है। इतना ही नहीं चैसठ वर्ष पूर्व पाकिस्तान से भागकर जम्मू-कष्मीर आने वाले लाखों परिवार आज भी शरणार्थी षिविरों में रहते है। ये नागरिक अधिकारों से भी वंचित है। कष्मीर घाटी के पांच जिलों को ही सब कुछ मान लेना ही सबसे बड़ी समस्या है। इसी के प्रभाव में अनुच्छेद 370 लागू किया गया। भारतीय सविंधान  के 136 अनुच्छेद जम्मू-कष्मीर पर लागू नहीं होते। इस कारण अनेक केन्द्रीय योजनाओं से भी जम्मू-कष्मीर को वंचित होना पड़ता है। जो लागू होती है, वह भी घाटी तक सीमित रहती है। इसके चलते इस प्रान्त में अन्यायपूर्ण प्रषासनिक व राजनीतिक व्यवस्था कायम है। इस बात को कैसे न्याय संगत कहा जा सकता है कि अधिक आबादी व क्षेत्रफल के बावजूद घाटी के मुकाबले जम्मू में विधानसभा सीटें कम है। 26 हजार वर्ग किमी क्षेत्रफल व तीस लाख से अधिक मतदाता होने के बावजूद जम्मू कश्मीर क्षेत्र में सैंतिस विधानसभा व दो लोकसभा क्षेत्र है। जबकि करीब पन्द्रह हजार वर्गमील क्षेत्रफल और उन्नतीस लाख मतदाता होने पर घाटी में 46 विधानसभा व तीन लोकसभा सीटें है। घाटी में पर्यटन पर कुल धनरषि का पच्चासी प्रतिषत खर्च होता है। लेकिन जम्मू- कष्मीर क्षेत्र में आने वाले पर्यटको की संख्या घाटी के मुकाबले दस गुना अधिक राजस्व देने वाले जम्मू पर सरकार केवल दस प्रतिषत धनराषि खर्च करती है। अन्य क्षेत्रों को जोड़े तो सत्तर प्रतिषत राजस्व जम्मू से एक़त्र होता है। लेकिन उस पर कुल राजस्व का केवल तीस प्रतिषत खर्च किया जाता है। 15,953 वर्ग किमी वाला घाटी क्षेत्र सबसे छोटा है। जम्मू का क्षेत्रफल 26,293 वर्ग किमी तथा लदद्ाख का क्षेत्रफल 28,110 वर्ग किमी है। लदद्ाख की 1600 किमी सीमा रेखा विदेषों से जुड़ी है। जबकि घाटी की सीमा इससे आठ गुना कम है। जाहिर है कि सामरिक रूप से लदद्ाख अधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन उस पर कम ध्यान दिया गया। गिलगिट की सिमाएं तो छः देषों से मिलती है। सामरिक रूप से इसका महत्व समझा जा सकता है। लेकिन इसकी अवहेलना की गई। आज चीन की इस क्षेत्र पर नजर है। उसकी सामरिक तैयारी चल रही है।
जिस घाटी आधारित नीति के कारण कठिनाई उत्पन्न हुई, उसी के द्वारा सरकार समाधान तलाष करने का प्रयास करती है। इसलिए समस्या बढ़ रही है। 2010 में कष्मीर समस्या के समाधान पर सुझाव देने के लिए सरकार द्वारा नियुक्ति तीन वार्ताकार भी घाटी की सीमा से ऊपर नहीं उठ सके। दिलीप पडंगावकर एम. एम. अंसारी और राधाकुमार ने 52 करोड़ रूपये खर्च करके एक वर्ष में रिर्पोट दी। लेकिन इसमें जम्मू व लदद्ाख को नजरअन्दाज किया गया। अनुच्छेद 370 ने समस्याएं बढ़ाई। वार्ताकारों की रिर्पोट संविधान में उल्लिखित इस अनुच्छेद के अस्थाई उपबन्ध को हटाकर विषेषदर्जा देने की बात करती है। एक समय था जब संसद में समाजवादी राममनोहर लोहिया सहित वामपंथी सदस्य भी अस्थायी अनुच्छेद 370 को हटाने के पक्ष में आवाज बुंलद कर रहे थे। इसे विभेदकारी माना जाता था। लेकिन अब इसे हटाने की मांग को साम्प्रदायिक समझा जाता हैं। जब जम्मू-कष्मीर की अस्सी प्रतिषत से अधिक आबादी अलगाववादी मुहिम की विरोधी है, तब जनमत संग्रह, पाकिस्तान की भूमिका, अलगाववादी नेताओं को महत्व, स्वायत्ता, सुरक्षाबलों के विषेषाधिकार की समाप्ति आदि के आधार पर समस्या का समाधान ढूंढना अनुचित है। लेकिन सरकार यही कर रही है। इससे जहां समस्या का समाधान मुश्किल हो रहा है, वहीं जम्मू-कष्मीर को विवादित बताने वालों की मुराद भी पूरी  हो रही है।
जाहिर है कि जम्मू-कष्मीर समस्या के समाधान हेतु प्राथमिकताएं बदलनी होंगी। अस्सी प्रतिषत लोागें की भवनाओं का सम्मान करना होगा। उनके साथ न्याय करना होगा। तभी अलगाववादियों के मंसूबे कमजोर होंगे।
*******

*डॉ०  दिलीप अग्निहोत्री

*लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार व प्रसिद्द बुद्धिजीवी है |

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here