चीख! कि लब आज़ाद हैं तेरे…

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निर्मल रानी**,,
ग्लोबल वार्मिंग अथवा पृथ्वी के बढ़ते तापमान को कम करने हेतु कार्बन उत्सर्जन नियंत्रित करने के लिए वैश्विक स्तर के प्रयासों से लेकर स्थानीय स्तर तक जागरूकता अभियान चलाए जाने की बातें कभी-कभी सुनने में आती रहती हैं। भले ही कार्बन उत्सर्जन में लगे लोगों पर इस जागरूकता का कोई प्रभाव पड़े या न पड़े। परंतु ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रण में रखने हेतु जनता को जागरुक करने संबंधी कोई अभियान कभी कहीं चलते हुए नहीं देखा गया। शायद यही वजह है कि धड़ल्ले से ध्वनि प्रदूषण फैलाए जाने का सिलसिला बेरोक-टोक न केवल जारी है बल्कि दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। बड़े दु:ख की बात है कि इस नित्य बढ़ते ध्वनि प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान धार्मिक प्रतिष्ठानों का है।
देश के विभिन्न मंदिरों-मस्जिदों, गुरुद्वारों तथा अन्य तमाम धार्मिक डेरों पर ब्रह्म मुहुर्त के बाद से धार्मिक भजनों, शब्दों या अज़ान के नाम पर शोर-शराबे का जो दौर शुरु होता है वह लगभग 24 घंटे तक किसी न किसी बहाने चलता ही रहता है। धर्मस्थलों पर लगे लाऊडस्पीकर या ध्वनि विस्तारक यंत्र अनचाहे तौर पर तेज़ आवाज़ में अपने प्रसारण जारी रखते हैं। इन कथित धर्म प्रचारकों को तथा लोगों की धार्मिक भावनाओं को उकसा कर उनसे धन संग्रह करने वालों को अपने निजी स्वार्थ के अतिरिक्त न तो किसी बुज़ुर्ग व्यक्ति की बीमारी से कोई वास्ता होता है, न ही किसी बच्चे की पढ़ाई-लिखाई या उसके भविष्य के अंधकारमय होने की कोई परवाह। न ही इन्हें इस बात का ज्ञान होता है कि बेवजह और असमय फैलाया जाने वाला ध्वनि प्रदूषण आम लोगों के स्वास्थय विशेषकर उनकी श्रवण क्षमता के लिए कितना नुकसानदेह होता है। धर्मस्थलों द्वारा प्रात: 4-5 बजे सवेरे से शुरु किया गया शोर-शराबे का सिलसिला अभी खत्म नहीं हो पाता कि प्रात:काल से ही और विभिन्न रूपों में चीखने-चिल्लाने व शोर-शराबा फैलाने वाले विभिन्न तत्व गलियों व कालोनियों में, मोहल्लों आदि में घूमने लग जाते हैं। कहीं तो स्थानीय गौशाला के प्रबंधक अपनी कई रिक्शा व रेहडिय़ां एक साथ शहर में चारों ओर गऊ के नाम पर पैसे इक_ा करने हेतु रवाना कर देते हैं। ऐसी गाडिय़ों पर बाकायदा गऊमाता का चित्र बना होता है तथा गऊ के लिए दान किए जाने के पुण्य लिखे होते हैं। सोने पे सुहागा यह कि ऐसी गौशाला वाली रिक्शा व रेहडिय़ों पर एक लाऊडस्पीकर सेट भी रखा होता है। रिक्शा चालक इसके द्वारा पूरी वाल्यूम के साथ विभिन्न धार्मिक भजन बजाता रहता है। इस शोर-शराबे का मकसद यही होता है कि वह जिस समय किसी गली-मोहल्ले से गुज़रे तो बुलाए बिना ही दानदाता लोग विशेषकर गऊभक्त महिलाएं अपने-अपने घरों से निकलने लगें तथा गौशाला के लिए नगद,आटा या अपनी मनचाही सामग्री उसे दान देने लगें। प्राय: यह रिक्शा प्रात:काल सात बजे से ही घूमना शुरु कर देता है। और सारा दिन विभिन्न नगरों के विभिन्न क्षेत्रों में घूम-घूम कर गौसेवा के नाम पर आम लोगों को ‘इमोशनल’ ब्लैकमेल करता हुआ शोर-शराबा फैलाता रहता है। आज़ाद देश के इस आज़ाद नागरिक को इस बात से कोई वास्ता नहीं कि किसी को उसका इस प्रकार लाऊडस्पीकर के माध्यम से चीखना-चिल्लाना व शोर मचाना कतई अच्छा नहीं लग रहा है। न ही उसे किसी की पढ़ाई में विघ्न पडऩे या किसी बीमार के दु:खी व परेशान होने का कोई एहसास होता है।
अभी यह गौशाला वाली रेहड़ी या रिक्शा आगे बढ़ते ही हैं कि कुछ ही मिनटों बाद कुष्ट समाज का एक झुंड अपने ढेर सारे शोर मचाने वाले साज़ो-सामान से लैस होकर उसी कालोनी पर धावा बोल देता है। इनके हाथों में लोगों को आकर्षित करने वाला जो ‘साज़’ होता है उसमें से भी कान फाडऩे वाली बहुत तेज़ आवाज़ निकलती है। इनका भी यही मकसद होता है कि कालोनीवासियों को इनकी उपस्थिति का एहसास हो जाए और लोग स्वयं बाहर निकलकर इन्हें दान-दक्षिणा देने लग जाएं। अपना कानफाड़ साज़ बजाने के अलावा घर में शांति से बैठे लोगों को आकर्षित करने हेतु यह लोग तरह-तरह की आवाज़ भी चीख-चीख कर लगाते हैं। और बिना किसी हिचक, रुकावट और संकोच के यह सिलसिला तब तक जारी रहता है जब तक उस गली विशेष के सभी घरों से इनका लेन-देन पूरा न हो जाए। उस समय तक जब तक कि यह झुंड किसी गली या कालोनी में शोर-शराबा करता रहता है तब तक वहां का कोई बच्चा पढ़ नहीं सकता। न ही किसी बीमार व्यक्ति को शांति मिल सकती है। कुछ लोग तो दरवाज़े पर आकर बिना बात के ज़ोर-ज़ोर से ढोल पीटने लगते हैं और पैसा मांगने लगते हैं जिससे परेशान होकर पूरा मोहल्ला बाहर निकल आता है। इसी प्रकार और भी तमाम भीख मांगने वाले लोग विभिन्न रूपों में आकर बेधडक़ चीखने-चिल्लाने लगते हैं। कोई किसी दरगाह पर चादर चढ़ाने जा रहा है तो वह गली में एक चादर चारों कोनों से पकड़े हुए तथा उनके बीच में कुछ रुपये-पैसे डाले हुए गली-गली घूमते रहते हैं तथा यह कहकर धन उगाही करते हैं कि वे फलां पीर की दरगाह पर जा रहे हैं। लिहाज़ा उन्हें दान दो उनका पीर पर जाना और उनका दान मांगना दोनों ही बातें स्वीकार की जा सकती हैं। परंतु इसके नाम पर लाऊडस्पीकर पर शोर-शराबा मचाने तथा इस बेतहाशा शोर से आम लोगों को विचलित करने का आखिऱ क्या औचित्य है? ऐसे ही कथित रूप से अन्य तमाम धर्मस्थलों पर जाने की बात करने वाले लोग घरों पर आकर द्वार पीटने लगते हैं।
इसके अतिरिक्त एक-एक शहर में कई-कई जगहों पर एक साथ जागरण का आयोजन होता देखा जा सकता है। इस आयोजन के जि़म्मेदार लोग सारी रात केवल कान फाड़ शोर-शराबा फैलाने के ही जि़म्मेदार नहीं होते बल्कि आमतौर पर ऐसे आयोजक सार्वजनिक सडक़ों व गलियों पर भी कब्ज़ा जमा लेते हैं। गोया इस कार्यक्रम के आयोजक केवल ध्वनि प्रदूषण फैलाने के ही नहीं बल्कि यातायात व्यवस्था को बाधित करने के भी दोषी होते हैं। परंतु ऐसे गैर जि़म्मेदार लोगों की ऐसी हरकतों से प्रभावित होने वाली जनता तो क्या प्रशासन भी इन सभी आयोजनों की अनदेखी इसलिए कर देते हैं क्योंकि इनमें धर्म का नाम साथ जुड़ा होता है। यदि कोई स्पष्टवादी या समाज का भला सोचने वाला व्यक्ति ऐसे गैर जि़म्मेदार आयोजकों को कुछ सलाह-मशविरा देने की कोशिश करता है तथा ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने या यातायात को सुचारू बनाए रखने संबंधी कोई सलाह देने का प्रयास करता है तो इन कथित ‘धर्मभीरूओं’ द्वारा आनन-फानन में उसे नास्तिक की उपाधि दे दी जाती है। और यही वजह है कि प्रभावित व पीडि़त व्यक्ति समाज के ऐसे मु_ीभर गैर जि़म्मेदार लोगों की प्रत्येक समाज विरोधी हरकतों को सहन करता रहता है।
लाऊडस्पीकर लगाकर शोर-शराबा करते हुए पैसा मांगने वालों की सूची बहुत लंबी है। कभी-कभी कुछ लोग बाकायदा एक मिनी ट्रक लेकर लाऊडस्पीकर लगाकर यह बताते फिरते हैं कि वे अमुक अनाथालय या पिंगलवाड़ा से आए हैं तथा उन्हें अपने स्थान के लिए गर्म कपड़े, कंबल,स्वेटर, शाल व चादरें आदि चाहिए। और जब तक उनकी गाड़ी ऐसे कपड़ों से भर नहीं जाती तब तक वे गली में चक्कर काटते रहते हैं तथा शोर मचाते रहते हैं। इसी प्रकार कभी किसी धर्मस्थान के निर्माण का बहाना लेकर तो कभी कोई सामान बेचने वाले या तांत्रिक ज्योतिषी आदि किसी न किसी चीज़ का प्रचार करने या बेचने गली-गली चीखते-चिल्लाते फिरते हैं। परंतु इनकी इस चीखने-चिल्लाने की आज़ादी पर कोई नियंत्रण रखने का प्रावधान कहीं नहीं है। न समाज की ओर से, न कानून की तरफ से, न ही स्वयं इन तत्वों को भगवान ने यह बुद्धि दी है कि यह लोग बेवजह, बेमकसद तथा बिना किसी ज़रूरत के असमय शोर-शराबा न किया करें। वैज्ञानिकों व चिकित्सकों के अनुसार नगरों व महानगरों में फैलने वाला ध्वनि प्रदूषण किसी भी मनुष्य की प्रकृति की ओर से निर्धारित श्रवण क्षमता से कहीं ऊपर जा चुका है। और यही वजह है कि लोगों के कानों व मस्तिष्क पर प्रभाव पडऩे के साथ-साथ उनकी नींद पर भी बुरा असर पड़ रहा है। जिससे आम लोगों का पूरा स्वास्थय प्रभावित हो रहा है। परंतु शोर-शराबा करने वालों व चीखने-चिल्लाने वालों को अपने निजी स्वार्थ साधने के अतिरिक्त किसी दूसरे की दु:ख-तकलीफ या परेशानी से आिखर क्या लेना-देना? लगता है कि हमारे आज़ाद देश के ऐसे आज़ाद लोगों का तो बस यह एक ही नारा रह गया है- चीख कि लब आज़ाद हैं तेरे।
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*निर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer)
1622/11 Mahavir Nagar
Ambala City 134002
Haryana
phone-09729229728

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC

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