{ वसीम अकरम त्यागी * * }
नई दिल्ली के विष्णू दिगंबर मार्ग पर एक चाय वाला चाय बेचता है आप सोचेंगे कि इसमें नया क्या है चाय वाले तो न जाने कितने मार्गों पर हैं ? तो फिर इसमें एसी बात क्या खास बात है ? मगर उसमें खास बात है क्योंकि जो शख्स हिंदी भवन और उसी के बराबर में बने पंजाबी भवन के सामने चाय की दुकान लगाता है वह अपने ठिय्ये के बराबर में ही एक बुकस्टॉल भी लगाता है। उस बुक स्टॉल पर किसी दूसरे की लिखी नहीं बल्कि खुद उस हाड़ मांस के साहित्यकार जिसे चाय वाला साहित्यकार कहा जाता है कि किताबें हैं। चाय वाले इस साहित्यकार का नाम है लक्ष्मण राव। अगर ये कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ती न होगी कि ये साहित्यकार चाय बेच रहा है। क्योंकि लक्ष्मण राव हैंकड़ी के साथ कहते हैं कि वे साहित्यकार हैं लेकिन उनके घर का चूल्हा उनके स्टोव पर रखे चाय के पतीले से जलता है। उनकी रोजी रोटी का साधन उनका लिखा गया साहित्य नही बल्कि उनकी चाय की दुकान हैं जिस पर वो सुबह 11 बजे आ जाते हैं और देर रात तक चाय बेचते हैं।
चाय वाले साहित्यकार के नाम से मशहूर लक्ष्मण राव का जन्म 22 जुलाई 1952 को महाराष्ट्र के अमरावती जनपद के छोटे से गांव तड़ेगांव दशासर में हुआ था। राव कहते हैं कि हाईस्कूल करने के बाद वे रोजगार की तलाश में दिल्ली आये और फिर यहीं के होकर रह गये वे बताते हैं कि उन्होंने अपने जिंदगी के 40 साल इसी रोड पर गुजारे हैं जहां आज वे चाय की दुकान लगाते हैं। साहित्य के प्रति लक्ष्मण राव का रुझान शुरू से ही था. मराठीभाषी होते हुए भी उन्हें हिंदी भाषा के प्रति विशेष लगाव रहा. उन्होंने सामाजिक उपन्यास लिखने वाले गुलशन नंदा को अपना आदर्श माना. लेखक बनने की प्रेरणा कहां से मिली ? यह पूछने पर वह बताते हैं कि एक बार उनके गांव का रामदास नामक एक युवक अपने मामा के घर गया. जब वह लौटने लगा तो रास्ते में एक नदी पड़ी. शीशे की तरह चमकते हुए पानी में अचानक उसने छलांग लगा दी. बाद में गांव वालों ने उसकी लाश नदी से बाहर निकाली. रामदास की मौत ही उनके लिए लेखक बनने की प्रेरणा बन गई. उन्होंने उस घटना पर आधारित एक उपन्यास लिखा जिसका नाम रामदास है। रामदास के प्रकाशन के बाद इस चायवाले साहित्यकार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। राव बताते हैं कि उन्होंने इलाहाबाद से प्रकाशित चतुर्वेदी एवं प्रसाद शर्मा और व्याकरण वेदांताचार्य पंडित तारिणीश झा के संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ ग्रंथ का अध्ययन किया. जो हिंदी-संस्कृत शब्दकोष था. जब वे अध्ययन कर रहे थे तब उनकी उम्र मात्र 20 साल थी. इसके अध्ययन के बाद वे बताते हैं कि हिंदी भाषा पर उनकी पकड़ मजबूत हो गई और उन्होंने 1973 में पत्राचार माध्यम से मुंबई हिंदी विश्वविद्यापीठ से हिंदी की परीक्षाएं दीं. उसके बाद अपनी जीविका चलाने के लिये 1977 में दिल्ली के आईटीओ क्षेत्र में एक पेड़ के नीचे चाय का दुकान चलानी शुरु कर दी। वे बताते हैं कि दिल्ली नगर एंव पुलिस द्वारा उनकी इस दुकान को कई बार उजाड़ा जा चुका है मगर उन्होंने हार नहीं मानी और परिवार के पालन की ज़िम्मेदारी निभाने और लेखक बनने का अपना सपना पूरा करने के लिए वह सब कुछ सहते रहे और जीवन की पथरीली डगर पर नंगे पैर चलते रहे. वे बताते हैं कि रविवार को दरियागंज में लगने वाले पुस्तक बाजार से वे अध्ययन के लिये किताबें खरीद कर लाते थे उसी दौरान उन्होंने शेक्सपियर, यूनानी नाटककार सोफोक्लीज, मुंशी प्रेमचंद एवं शरत चंद्र चट्टोपाध्याय आदि की विभिन्न पुस्तकों का जमकर अध्ययन किया. उनका पहला उपन्यास दुनिया की नई कहानी वर्ष 1979 में प्रकाशित हुआ. जिसके प्रकाशन के बाद वे लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गये वे कहते हैं कि आज भी लोगो इन किताबों को देखकर और इस चाय वाले को देखकर आशचर्यचकित हो जाते हैं, और कुछ लोगों को तो आज भी विश्वास दिलाना पड़ता है कि यह चाय वाला लेखक भी है, पहले उपन्यास के प्रकाशन के बाद तो लोगों को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये उपन्यास किसी चाय बेचने वाले लिखा है। लेकिन फरवरी 1981 में टाईम्स ऑफ इंडिया के संडे रिव्यू अंक में एक आलेख प्रकाशित हुआ जो उन्हीं पर केन्द्रति था, वे आगे कहते हैं कि इसके प्रकाशन के बाद तो उनके बारे में रेडियो, दूरदर्शन, अखबारों में अक्सर कुछ न कुछ प्रकाशित होने लगा। राव बताते हैं कि 27 मई 1984 को उनकी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रगांधी से तीनमूर्ती भवन में मुलाकात हुई थी उन्होंने उन्होंने श्रीमती गांधी से उनके जीवन पर पुस्तक लिखने की इच्छा व्यक्त की. इस पर इंदिरा जी ने उन्हें अपने प्रधानमंत्रित्व काल के संबंध में पुस्तक लिखने का सुझाव दिया. तब लक्ष्मण राव ने प्रधानमंत्री नामक एक नाटक लिखा। परिवार के बारे में पूछे जाने पर राव ने इस खबरनवीश को बताया कि उनके घर में दो पुत्र हैं जो प्राईवेट नौकरी करते हैं और साथ ही चार्टेड अकाऊंटेंट ( सीए ) की पढ़ाई भी कर रहे हैं, राव अपनी पत्नी रेखा के बारे में बात करते हुऐ कहते हैं कि शुरु शुरु में उन्हें मेरा लिखना पसंद नहीं था लेकिन अब वे लेखन कार्य में उनका सहयोग करती है। अपनी शुरुआती रचना के प्रकाशन के बारे में राव कहते हैं उसके प्रकाशन के लिये मुझे अपना सब कुछ दांव पर लगाना पड़ा. रचना प्रकाशित होने के बाद सुबह साइकिल लेकर उसे बाजार में बेचने के लिए निकलता तो लोग मेरा मज़ाक तक उड़ाते, लेकिन ईश्वर की कृपा और एक लंबे वर्षों के परिश्रम ने मुझे बतौर लेखक पहचान दिला दी. चाय वाले साहित्यकार सरकार के व्यवहार से नाराज दिखते हैं और कहते हैं कि मेरे पास ही हिंदी भवन है जिसमें हिंदी भाषा के उत्थान के लिये तरह – तरह की योजनाऐं बनती हैं मगर उसी के सामने एक हिंदी के सिपाही साहित्यकार का साहित्य फुटपाथ पर बिखरा पड़ा है जिसे उसकी लाईब्रेरी में भी स्थान नहीं दिया गया है। वे कहते हैं इसी व्यवहार की वजह से हिंदी से लेखकों का मोहभंग होता है और वे लिखना बंद कर देते हैं। राव आगे कहते हैं कि मैं 20 साल की उम्र से हिंदी भाषा की सेवा कर रहा हूं जिसके लिये सरकार से मुझे किसी भी तरह की सहायता नहीं मिल पाई है।
प्रमुख रचनाएं
नई दुनिया की नई कहानी, प्रधानमंत्री, रामदास, नर्मदा, परंपरा से जुड़ी भारतीय राजनीति, रेणु, पत्तियों की सरसराहट, सर्पदंश, साहिल, प्रात:काल, शिव अरुणा, प्रशासन, राष्ट्रपति (नाटक), संयम ( राजीव गांधी की जीवनी ), साहित्य व्यासपीठ आत्म कथा , दृष्टिकोण, समकालीन संविधान, अहंकार, अभिव्यक्ति, मौलिक पत्रकारिता. दा बैरिस्टर गांधी , प्रधानमंत्री इंद्रा गांधी, रामदास ( नाटक ), पतझड़।
पुरस्कार-सम्मान
भारतीय अनुवाद परिषद, कोच लीडरशिप सेंटर, इंद्रप्रस्थ साहित्य भारती, निष्काम सेवा सोसायटी, अग्निपथ, अखिल भारतीय स्वतंत्र लेखक मंच, शिव रजनी कला कुंज, प्रागैतिक सहजीवन संस्थान, यशपाल जैन स्मृति, चिल्ड्रेन वैली स्कूल, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद. समेत उन्हें विभिन्न गैर सरकारी संगठनों द्वारा 28 बार सम्मानित किया जा चुका है। लेकिन अफसोस हमारी सरकार ने हमारे उच्चश्रेणी के कार में चलने वाले साहित्यकारों ने हिंदी भाषा के इस सिपाही को नजर अंदाज कर रखा है। सेमिनारों के नाम लाखों करोड़ों रुपये तो खर्च किये जा रहे हैं मगर जो इस भाषा के लिये निस्वार्थ लड़ाई लड़ रहा है जो इसका प्रचार साईकिलों पर चाय की दुकान चलाकर कर रहा है उस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. वे भी उसी तरह का व्यवहार लक्ष्मण राव चाय वाले साहित्यकार के साथ कर रहे हैं जो कबीर के साथ हुआ साथ हुआ था। मुनव्वर राना ने भी क्या खूब कहा है
यहां पर इज्जतें मरने के बाद मिलती हैं
मैं सीढ़ियों पर पड़ा हूं कबीर होते हुऐ ।
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**वसीम अकरम त्यागी
उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव में जन्म
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एंव संचार विश्विद्यलय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर. समसामायिक मुद्दों और दलित मुस्लिम मुद्दों पर जमकर लेखन।
यूपी में हुऐ जिया उल हक की हत्या के बाद राजा भैय्या के लोगों से मिली जान से मारने की धमकियों के बाद चर्चा में आये . फिलहाल मुस्लिम टूडे में बतौर दिल्ली एनसीआर संवाददता काम कर रहें हैं
9716428646. 9927972718
Thank you very much Wasim ji