गौ सेवा : कितनी हकीकत कितना फसाना ?

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–   निर्मल रानी –

cow,gau-rakshak-in-indiaगौसेवा को जहां भारतीय समाज  में खासतौर पर हिंदू धर्म के आस्थावान लोगों के लिए पूजनीय समझा जाता है वहीं यही गौवंश इन दिनों हमारे देश में धर्म व जाति आधारित सामाजिक विभाजन का कारण भी बना हुआ है। धार्मिक आस्था व राजनीति के कॉकटेल ने इस विषय को जानबूझ कर इतना गंभीर विषय बना दिया है मानो भारतीय नागरिकों के लिए सडक़-बिजली,पानी,भूख-मंहगाई शिक्षा एवं स्वास्थय आदि जैसी मानव जीवन की सबसे आवश्यक चीज़ों से भी अधिक महत्वपूर्ण गौवंश के नाम पर होने वाली राजनीति ही रह गई हो। यह विषय धार्मिकता का विषय कम और राजनैतिक लाभ-हानि का विषय ज़्यादा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि देश के हरियाणा राज्य में जहां धर्म आधारित जनसंख्या के अनुपात के मद्देनज़र गाय की रक्षा से संबंधित एक आयोग भी गठित कर दिया गया है, जहां पूरे राज्य में गौवंश लाने,ले जाने, इसकी हत्या करने अथवा इसके मांस को रखने व खाने पर प्रतिबंध लगाते हुए इसकी अवहेलना करने वालों को सख्त सज़ा का प्रावधान किया गया है वहीं भारतीय जनता पार्टी शासित देश के अन्य कई राज्य ऐसे भी हैं जहां इस संबंध में हरियाणा जैसा सख्त कानून बनाने व इसे लागू करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं की गई। यहां तक कि एक बार केंद्रीय गृहराज्यमंत्री  किरण रिजिजू जोकि देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं वे स्वयं गौमांस भक्षण के पक्ष में अपना वक्तव्य भी दे चुके हैं।

बहरहाल, धर्म और आस्था को यदि किनारे भी रख दिया जाए तो भी सभी धर्मों के निष्पक्ष सोच रखने वाले मानवतावादी लोग यदि अपने प्राचीन तथाकथित धार्मिक रीति-रिवाजों व उनके प्रति अपने पूर्वाग्रहों की बात न करें तो गौवंश की हत्या करना तो क्या किसी भी पशु-पक्षी की हत्या करना एक अमानवीय कृत्य ही प्रतीत होता है। परंतु मांसाहार का पक्षधर जो वर्ग यह विचार रखता हो कि ईश्वर ने संसार की सारी वस्तुएं इंसानरूपी सर्वश्रेष्ठ प्राणी की सुख-सुविधा तथा उसके भोग-विलास के लिए ही पैदा की हैं तो इस तर्क को भी अनदेखा तो नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर गाय को माता कहकर अपनी आस्था दर्शाने वाले हिंदू समाज के लोगों से जस्टिस मार्कंडेय काटजृ एक तर्क आधारित प्रश्र यह पूछते हैं कि आिखर एक जानवर किसी इंसान की मां कैसे हो सकती है। और यदि धार्मिक आस्था के आधार पर यह स्वीकार भी कर लिया जाए कि गाया हमारी माता है तो पूरे देश का हिंदू समाज एकमत होकर गाय को अपनी माता स्वीकार क्यों नहीं करता?् गौरक्षा व गौसंरक्षण की मुहिम पूर्वाेत्तर राज्यों में तथा देश के अन्य कई भागों में इसी प्रकार क्यों नहीं चलाई जाती जैसे हरियाणा में चलाई जा रही है?

अब आईए आस्थावान लोगों की गौवंश के प्रति उनकी ‘आस्था’ पर भी नज़र डालें। गौरक्षा अथवा गौप्रेम के पक्ष में लंबे-चौड़े भाषण देना या लोगों का उकसाना अथवा गौप्रेमी बनकर अपने धार्मिक होने का दिखावा करना अथवा इसके नाम पर संगठन बनाकर हुड़दंग मचाना, सांप्रदायिक व जातिवाद आधारित दुर्भावना फैलाना अथवा गौरक्षा के नाम पर चंद उपद्रवी लोगों को इक_ा कर अल्पसंख्यकों अथवा दलितों की पिटाई करना यह सब बहुत आसान काम है। और देश के किसी न किसी हिस्से से इस प्रकार के समाचार आते ही रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं यह कह चुके हैं कि गौरक्षा के नाम पर अस्सी प्रतिशत लोग पाखंड कर रहे हैं। परंतु इससे अलग हटकर वे लोग जो अपने घरों में गाय पालते हैं उनकी ज़मीनी हकीकत से आगाह होना भी ज़रूरी है। हमारे देश के गांवों में तो पशुधन को चारा खिलाने के लिए पैसे खर्च करने की ज़रूरत नहीं होती। खेत-खलिहान,बग़ीचे,घास के मैदान तथा तालाब व जोहड़ आदि इन पशुओं के गुज़र-बसर के लिए काफी होते हैं। परंतु शहरों में ऐसा नहीं है। यहां भूसे से लेकर हरा चारा तक खरीद कर ही पशुओं को खिलाना पड़ता है। और निश्चित रूप से बढ़ती हुई मंहगाई के साथ-साथ आजकल चारे और भूसे के मूल्य भी आसमान तक जा पहुंचे हैं।

परंतु यदि कोई व्यक्ति स्वयं को हिंदू धर्म का सच्चा अनुयायी समझता है और गाय को अपनी माता के रूप में स्वीकार करता है तो उसके लिए गौपालन जितना महत्वपूण्र्पा है उतना ही महत्वपूर्ण उस गौवंश के खान-पान व सेहत का ध्यान रखना भी है। इसमें कोई शक नहीं कि कुछ लोग ऐसे होंगे भी जो अपनी पाली-पोसी गायों को दूध देने या  न देने की परवाह किए बिना उसे निश्चित समय पर उसकी प्रत्येक प्रिय सामग्री ज़रूर देते होंगे। परंतु आमतौर पर ऐसा नहीं है। हमारे अपने धर्म और समाज में ही ऐसे अनेक लोग देखे जा सकते हैं जो गाय का दूध निकालने के बाद फौरन उसे घर के बाहर का रास्ता दिखा देते हें। और वह गाय गली-मोहल्लों में दिनभर भटकती रहती है। एक ओर तो गाय का मालिक उसे अपने घर से केवल इसलिए भगाता है ताकि उसे चारा न खिलाना पड़े तो दूसरी ओर धार्मिक प्रवृति के पुण्य अर्जित करने की आकांक्षा रखने वाले लोग उसी गाय को बासी रोटी खिलाकर उसके आगे नतमस्तक होते दिखाई देते हैं। परंतु विशालकाय शरीर के हिसाब से ज़ाहिर है चंद रोटियों में गाय का पेट नहीं भर पाता और वही गाय गली-मोहल्लों में पड़े कूड़े के ढेर का रुख करती है और उन कूड़े के ढेरों पर पड़े गंदे और ज़हरीले पदार्थ यहां तक कि पॉलिथिन की थैलियां भी खा जाती हैं।

हद तो यह है कि इस घटिया व स्वार्थी मानसिकता के गौपालक गाय के अपने बच्चे को भी उसकी मां का दूध पेट भरकर नहीं पिलाते। हां यदि आप ऐसे व्यवसायिक गौपालकों के घर या रसोई में झांककर देखें तो वहां भगवान कृष्ण या गौमाता की फोटो ज़रूर लगी मिल जाएगी। ऐसी मानसिकता रखने वाले लोग धार्मिकता का दिखावा और पाखंड अधिक करते हैं। कई बार तो यदि इनकी गाय दूध न दे रही हो तो उसे सारी-सारी रात अपने घरों के बाहर भटकने के लिए छोड़ देते हें। परंतु यदि ऐसी घटिया मानसिकता रखने वाले पाखंडी धर्मभीरूओं के घर आप देखें तो ऐसे कई लोगों के घरों में आपको कुत्ते ज़रूर बंधे दिखाई दे जाएंगे। और यह कुत्ते अगर उनकी अपनी गोद में उनके बेड या सोफे पर अथवा उनके ड्राईंग रूम में बैठें या मलमूत्र करें तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी। परंतु जिस गाय के दूध को बेचकर लोग अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं, जो गाय उनके धर्म के अनुसार गौमाता का दर्जा रखती हो, जो गाय कुत्ते की तुलना में अधिक शरीफ,सुंदर,आकर्षक,जीवनोपयोग व लाभदायक हो उसे यही गौपालक अपने घरों से बाहर निकाल देते हैं। क्या ऐसे गौपालकों को हम गौवंश का सच्चा हमदर्द कह सकते हैं?

हमारे देश में गौ सरंक्षण के नाम पर हज़ारों गौशलाएं भी संचालित की जा रही हैं। ज़ाहिर है इनमें कुछ गौशालाएं ऐसी भी होंगी जो गौशाला के संचालकों की साफ-सुथरी व पारदर्शी नीति व नीयत के तहत चलाई जा रही होंगी जहां गौवंश को समुचित भोजन दिया जाता होगा, उन्हें आराम से रखे जाने की व्यवस्था होगी, साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता होग तथा ऐसी गौशालाओं में होने वाला गाय का दूध गरीबों,जरूरतमंदों अथवा मरीज़ों के बीच नि:शुल्क या नाममात्र की कीमत पर बांटा जाता होगा। परंतु आमतौर पर ऐसा नहीं है। विभिन्न समाचार पत्र कभी न कभी किसी न किसी शहर की गौशाला व उसके संचालकों की पोल-पट्टी खोलते ही रहते हैं। समाचार पत्रों में कुछ ऐसी गौशालाओं की पोल भी खुल चुकी है जो बांझ हो चुकी गायों को स्वयं उन्हें कटने हेतु व्यापारियों के हवाले कर दिया करते थे। अभी भी देश में कई ऐसे मान्यता प्राप्त कत्लखाने चल रहे हैं जहां गौवंश की हत्याएं की जाती हैं। अभी कुछ दिन पूर्व ही राजस्थान से गौवंश संबंधी इतना भयानक सच समाने आया कि गत् दो वर्षों के दौरान सरकारी अनुदान प्राप्त करने वाली विभिन्न गौशालाओं में लगभग 22 हज़ार गाय भूख,बीमारी तथा दुवर््वयवस्था का शिकार होकर मर गईं। ऐसी खबरें दूसरे कई राज्यों से भी आती रहती हैं जहां गौशाला के नाम पर चंदा तो इक_ा किया जाता है सरकारी अनुदान भी लिया जाता है,गली-मोहल्लों में गौमाता की आराधना संबंधी भजन बजाते हुए रिक्शे व रेहडिय़ां चंदा वसूलने हेतु छोड़ दी जाती हैं। परंतु जिन गायों के नाम पर धनवसूली की जाती है उन्हीं गायों को भरपेट चारा उपलब्ध नहीं कराया जाता। बीमार पडऩे पर उनका दवा-इलाज नहीं कराया जाता। गौशाला के लोग भी उन गायों से निकलने वाले दूध-घी पर कुंडली मारकर बैठे रहते हैं। दूसरों को बाज़ार भाव कीमत पर दूध बेचते हैं, ऐसे लोग कितने गौभक्त या गौसेवक होंगे इसके बारे में स्वयं अंदाज़ा लगाया जा सकता है। परंतु जब गौ तस्करी या गौ हत्या की बात सामने आती है तो यही लोग गौमाता के सबसे बड़े भक्त व शुभचिंतक बनकर लंबी-चौड़ी बातें करते सुनाई देते हैं। अत: इस विषय पर भारतीय समाज का चिंतन करना बेहद ज़रूरी है वास्तव में गौसेवा का दिखावा करने वालों की हकीकत है क्या?

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निर्मल रानी

लेखिका व्  सामाजिक चिन्तिका

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !

संपर्क -:
Nirmal Rani  : 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City13 4002 Haryana ,
Email : nirmalrani@gmail.com –  phone : 09729229728

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