गोपाल दास “नीरज” के पाँच गीत

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पाँच गीत

1-

हार न अपनी मानूँगा मैं!
चाहे पथ में शूल बिछाओ,
चाहे ज्वालामुखी बसाओ,
किन्तु मुझे अब जाना ही है-
तलवारों की धारों पर भी हँस कर पैर बढ़ा लूँगा मैं।
हार न अपनी मानूँगा मैं!
मन में मरु-सी प्यास जगाओ,
रस की बूंद नहीं बरसाओ,
किन्तु मुझे जब जीना ही है-
मसल-मसल कर उर के छाले, अपनी प्यास बुझा लूँगा मैं।
हार न अपनी मानूँगा मैं!
चाहे चिर गायन सो जाए,
और हृदय मुर्दा हो जाए,
किन्तु मुझे जब गाना ही है-
बैठ चिता की छाती पर भी, मादक गीत सुना लूँगा मैं।
हार न अपनी मानूँगा मैं!

2-

मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
सर्वस देकर मौन रुदन का क्यों व्यापार किया करता हूँ?
भूल सकूँ जग की दुर्घातें उसकी स्मृति में खोकर ही
जीवन का कल्मष धो डालूँ अपने नयनों से रोकर ही
इसीलिए तो उर-अरमानों को मैं छार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
कहता जग पागल मुझसे, पर पागलपन मेरा मधुप्याला
अश्रु-धार है मेरी मदिरा, उर-ज्वाला मेरी मधुशाला
इससे जग की मधुशाला का मैं परिहार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
कर ले जग मुझसे मन की पर, मैं अपनेपन में दीवाना
चिन्ता करता नहीं दु:खों की, मैं जलने वाला परवाना
अरे! इसी से सारपूर्ण-जीवन निस्सार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?
उसके बन्धन में बँध कर ही दो क्षण जीवन का सुख पा लूँ
और न उच्छृंखल हो पाऊँ, मानस-सागर को मथ डालूँ
इसीलिए तो प्रणय-बन्धनों का सत्कार किया करता हूँ।
मैं क्यों प्यार किया करता हूँ?

3-

प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।
है बहुत आसान ठुकराना किसी को,
है न मुश्किल भूल भी जाना किसी को,
प्राण-दीपक बीच साँसों को हवा में
याद की बाती जलाना ही कठिन है
प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।
स्वप्न बन क्षण भर किसी स्वप्निल नयन के,
ध्यान-मंदिर में किसी मीरा गगन के
देवता बनना नहीं मुश्किल, मगर सब-
भार पूजा का उठाना ही कठिन है।
प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।
चीख-चिल्लाते सुनाते विश्व भर को,
पार कर लेते सभी बीहड़ डगर को,
विष-बुझे पर पंथ के कटु कंटकों की
हर चुभन पर मुस्कुराना ही कठिन है।
प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।
छोड़ नैया वायु-धारा के सहारे,
है सभी ही सहज लग जाते किनारे,
धार के विपरीत लेकिन नाव खेकर
हर लहर को तट बनाना ही कठिन है।
प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।
दूसरों के मग सुगम का अनुसरण कर
है बहुत आसान बढ़ना ध्येय पथ पर
पाँव के नीचे मगर मंजिल बसाकर
विश्व को पीछे चलाना ही कठिन है।
प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।
वक्त के संग-संग बदल निज कंठ-लय-स्वर
क्या कठिन गाना सुनाना गीत नश्वर
पर विरोधों के भयानक शोर-गुल में
एक स्वर से गीत गाना ही कठिन है।
प्यार तो करना बहुत आसान प्रेयसि!
अन्त तक उसका निभाना ही कठिन है।

4-

अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है,
अभी बरुनियों के कुञ्जों मैं छितरी छाया,
पलक-पात पर थिरक रही रजनी की माया,
श्यामल यमुना सी पुतली के कालीदह में,
अभी रहा फुफकार नाग बौखल बौराया,
अभी प्राण-बंसीबट में बज रही बंसुरिया,
अधरों के तट पर चुम्बन का रास शेष है।
अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है।
प्यास शेष है।
अभी स्पर्श से सेज सिहर उठती है, क्षण-क्षण,
गल-माला के फूल-फूल में पुलकित कम्पन,
खिसक-खिसक जाता उरोज से अभी लाज-पट,
अंग-अंग में अभी अनंग-तरंगित-कर्षण,
केलि-भवन के तरुण दीप की रूप-शिखा पर,
अभी शलभ के जलने का उल्लास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है।
अगरु-गंध में मत्त कक्ष का कोना-कोना,
सजग द्वार पर निशि-प्रहरी सुकुमार सलोना,
अभी खोलने से कुनमुन करते गृह के पट
देखो साबित अभी विरह का चन्द्र -खिलौना,
रजत चांदनी के खुमार में अंकित अंजित-
आँगन की आँखों में नीलाकाश शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है।
अभी लहर तट के आलिंगन में है सोई,
अलिनी नील कमल के गन्ध गर्भ में खोई,
पवन पेड़ की बाँहों पर मूर्छित सा गुमसुम,
अभी तारकों से मदिरा ढुलकाता कोई,
एक नशा-सा व्याप्त सकल भू के कण-कण पर,
अभी सृष्टि में एक अतृप्ति-विलास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है।
अभी मृत्यु-सी शांति पड़े सूने पथ सारे,
अभी न उषा ने खोले प्राची के द्वारे,
अभी मौन तरु-नीड़, सुप्त पनघट, नौकातट,
अभी चांदनी के न जगे सपने निंदियारे,
अभी दूर है प्रात, रात के प्रणय-पत्र में-
बहुत सुनाने सुनने को इतिहास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है॥

5 –

आज पिला दो जी भर कर मधु कल का करो न ध्यान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
संभव है कल तक मिट जाए, मधु के प्रति आकर्षण मन का
मधु पीने के लिए न हो, कल संभव है संकेत गगन का
पीने और पिलाने को हम ही न रहें कल संभव यह भी
पल-पल पर झकझोर रहा है, काल प्रबल दामन जीवन का
कौन जानता है कब किस पल तार-तार क्षण में हो जाए
जीवन क्या- साँसों के कच्चे धागों का परिधान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
क्या मालूम घिरी न घिरी कल यह मनभावन घटा गगन में
क्या मालूम चली न चली कल यह मृदु मन्द पवन मधुवन में
स्वर्ग नर्क को भूल आज जो गीत गा रही लाल परी के
क्या मालूम रही न रही कल मस्ती वह दीवानी मन में
अनमाँगे वरदान सदृश जो छलक उठा मधु जीवन-घट में
क्या मालूम वही कल विष बन, बने स्वप्न-अवसान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
मस्त कनखियों से साकी की जहाँ सुरा हरदम झरती थी
पायल की रुनझुन धुन में, आवाज मौत की भी मरती थी
मदिरा की रंगीन ओढ़नी ओढ़ महल में मदिरालय के
कलियों की मुस्कानों से कामना सिंगार जहाँ करती थी
आज किन्तु उस तृषा-तीर्थ के शेष चिन्ह केवल दो ही थे-
मरघट-सा सूना भयावना और भूँकते श्वान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
और इधर इस पथ पर तो कल घिरा मौत का था अँधियारा
टूक-टूक हो पड़ा धूल में सिसक रहा था मणिक प्याला
मधु तो दूर, गरल की भी दो बूंदें थीं न नयन के सम्मुख
लेता था उच्छवास तिमिर में पड़ा विसुध मन पीने वाला
आज अचानक ही पर जो तुम हो, मैं हूँ, मधु है, बदली है
इसका अर्थ यही है कि चाहता विधि भी हो मदुपान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
जीवन में ऐसा शुभ अवसर कभी-कभी ही तो आता है
प्यासे के समीप ही जब खुद मदिरालय दौड़ा जाता है
वह अज्ञानी है इस जग के मिथ्या तर्कों में पड़कर जो
खो ऐसा वरदान अन्त तक कर मल-मल कर पछताता है
व्यर्थ न मुझे बताओ इससे पाप, पुण्य की परिभाषाएँ
किन्तु डूब मधु में सब कुछ बनने दो एक समान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
पीकर भी यदि ध्यान रहा कल का तो व्यर्थ पिपासा मन की
व्यर्थ सुराही की गहराई, व्यर्थ सुरा सुरभित चितवन की
मदिरा नहीं, किन्तु मदिरा के प्याले में मृगजल केवल वह
पीकर जिसे न भूल सके मन, चिन्ता जीवन और मरण की
मस्ती भी वह मस्ती क्या, जो देख काल की भृकुटि-भंगिमा
भूल जाए गाना जीवन की मृदिर तृषा का गान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!
खेल ‘आज-कल’ का यह प्रेयसि! युग-युग से चलता आता है
किन्तु कभी क्या कोई जग में सीमा कल की छू पाता है?
जीवन के दो ही दिन जिनमें आज जन्म है और मरण कल
कल की आस लिए सारा जग ओर चिता की ही जाता है
प्रिय! इससे अरमानों की इस लाज भरी क्वाँरी सी निशि को
बन जाने भी दो सुहाग की रात, छोड़ हठ, मान सुनयने।
कल का करो न ध्यान!

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gopaldas-neeraj-300x265परिचय – :

गोपाल दास “नीरज

कवि व् गीतकार

4 जनवरी सन् 1924 को उत्तर प्रदेश के इटावा में जन्मे गोपालदास ‘नीरज’ हिन्दी कविता की वो थाती हैं जिनके नाम से इस युग को जाना जाएगा। महाविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में कार्यरत रहते हुए भी नीरज जी देश के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतकारों में शुमार होते थे। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें हिन्दी की वीणा का नाम दिया था। प्रेम किस सलीक़े से नीरज जी की रचनाओं को स्पर्श कर आध्यात्म और दर्शन के भव्य भवन में प्रविष्ट हो जाता है, ये उनकी रचनाएँ पढ़कर समझ आता है।

सर्वविदित है कि जब नीरज जी मंच पर झूम कर काव्यपाठ करते हैं तो श्रोताओं को नशा चढ़ने लगता है। उल्लास, आनंद और ऊर्जा की पवित्र पयस्विनी उनके गीतों में अपने पूरे वेग से बहती दिखाई देती है। आपके गीतों ने सदैव हिन्दी पाठक के दिल पर राज़ किया है। भारत सरकार के पद्म श्री और पद्म भूषण जैसे अलंकरणों से अलंकृत गोपालदास ‘नीरज’ हिन्दी काव्य जगत् का अभिमान हैं। आपने हिन्दी सिनेमा में भी अनेक फिल्मों के गीत लिखे। नीरज जी के गीत, गीतिका और दोहे से सजे अनेक संग्रह इस समय बाज़ार में उपलब्ध हैं।

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