गणेश चतुर्थी:महत्व,कथा और व्रत विधी

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sonali bose{ सोनाली बोस } गणेश चतुर्थी का पावन पर्व मंगलमूर्ति विघ्नहर्ता भगवान गणेश के अवतरण दिवस के रूप में देश ही नहीं, अपितु विश्व भर के हिन्दू धर्मावलम्बियों द्वारा बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. हिन्दू दर्शन के अनुसार गणपति आदि देव हैं जिन्हें प्रथम पूज्य की गरिमामय पदवी हासिल है. शुभत्व के प्रतीक विघ्नहर्ता गणेश का पूजन यूं तो हर परिस्थिति में शुभ फलदायक होता है किन्तु भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि को विधिविधान से किया गया भगवान गणेश का व्रत-पूजन कई गुना अधिक शुभ फल देता है. श्रद्धालुओं की मान्यता है कि इस विशिष्ट मुहूर्त में की गयी छोटी भावपूर्ण प्रार्थना चमत्कारी परिणाम देती है. हिन्दू धर्म में हर मंगल आयोजन का शुभारंभ भगवान गणेश की पूजा-अर्चना के साथ किया जाता है. माना जाता है कि जिस शुभ आयोजन की शुरुआत गणेश पूजन के बिना होती है, उसका कोई शुभफल नहीं मिलता.

‘शिव पुराण’ के अंतर्गत रुद्र संहिता के चतुर्थ खंड (कुमार) में गणेश की उत्पत्ति की एक कथा वर्णित है. एक बार माता पार्वती ने स्नान से पूर्व एक बालक का पुतला बनाकर उसमें प्राण फूंककर उसे दुलारपूर्वक निर्देश देकर कहा, हे पुत्र, तू यह मुगदल पकड़ और इस गुफा के द्वार की निगरानी कर, मैं भीतर स्नान करने जा रही हूं. ध्यान रखना, मेरी अनुमति के बिना कोई भी भीतर प्रवेश न करने पाये. कुछ देर बाद भगवान शिव वहां पहुंचे और गुफा के भीतर प्रवेश करने लगे तो द्वार पर तैनात बालक ने उन्हें रोक दिया. इस पर शिव क्रोधित हो उठे. नन्दी समेत अन्य गणों से उस बालक का भयानक युद्ध हुआ किन्तु वह बालक किसी के काबू में न आया. स्थिति बेकाबू होते देख शिव का क्रोध बढ़ गया और उन्होंने अपने त्रिशूल से बालक का मस्तक काट दिया. बालक के मरने का समाचार मिलते ही माता पार्वती क्रोध से आगबबूला हो उठीं. उन्होंने प्रलय करने की ठान ली. इस पर सभी देवगण भयभीत हो उठे. उन्होंने स्तुति-विनय कर किसी तरह माता का क्रोध शांत किया. फिर ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र आदि देवों से विचारिवमर्श के उपरान्त विष्णु जी वन में गये और उत्तर दिशा में मिले पहले जीव (हाथी) का मस्तक काट कर ले आये. शिव ने उस मस्तक को बालक के धड़ पर स्थापित कर बालक को पुनर्जीवित कर दिया. विपदा टलने पर सभी ने हर्षनाद कर उस बालक को बुद्धि, आयु और समृद्धि के स्वामी होने के साथ प्रथम पूज्य होने का वरदान दिया. शिव ने उन्हें अपने गणों का अध्यक्ष नियुक्त किया. यही बालक गजानन गणेश नाम से लोक विख्यात हुआ.

विशिष्ट शारीरिक संरचना के कारण विघ्नहर्ता गौरी पुत्र गणेश की मनोहारी शरीराकृति भी अपने में गहरे और विशिष्ट अर्थ संजोये हुए है. लंबा उदर इनकी असीमित सहन शक्ति का परिचायक है. चार भुजाएं चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक हैं, बड़े-बड़े कान अधिक ग्राह्य शक्ति, छोटी-छोटी पैनी आंखें तीक्ष्ण दृष्टि और लम्बी सूंड महाबुद्धित्व का प्रतीक है.

गणेश जी के कई प्रमुख नाम लोकप्रिय हैं, गणपति के 12 नाम जो लोकविख्यात हैं, इस प्रकार हैं- सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्णक, लम्बोदर, विकट, विघ्नविनाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन गणेश.

 दस दिनों तक मनाया जाने वाला गणेशोत्सव यूं तो पिछले कुछ वर्षों से पूरे देश में मनाया जाने लगा है किन्तु महाराष्ट्र में आयोजित होने वाली शोभा यात्राएं और झांकियां देखते ही बनती हैं. यहां गणेशोत्सव को लोकोत्सव का दर्जा हासिल है. सातवाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजवंशों ने यहां गणेश उत्सव की परंपरा शुरू की थी. पेशवाओं ने भी गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया. छत्रपति शिवाजी महाराज भी खूब धूमधाम से गणेश उत्सव मनाते थे. कहते हैं कि पुणे में कस्बा गणपति नाम से सुप्रसिद्ध गणपति की स्थापना शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने ही की थी. मगर आजादी के आंदोलन के दौरान लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेशोत्सव को जो बृहद स्वरूप प्रदान किया, उससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये.

भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि को विधिविधान से किया गया भगवान गणेश का व्रत-पूजन कई गुना अधिक शुभ फल देता है.

कैसे मनाएँ

§  इस दिन प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर सोने, तांबे, मिट्टी अथवा गोबर की गणेशजी की प्रतिमा बनाई जाती है। गणेशजी की इस प्रतिमा को कोरे कलश में जल भरकर, मुंह पर कोरा कपड़ा बांधकर उस पर स्थापित किया जाता है। फिर मूर्ति पर (गणेशजी की) सिन्दूर चढ़ाकर षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए।

§  गणेशजी को दक्षिणा अर्पित करके 21 लड्डूओं का भोग लगाने का विधान है। इनमें से 5 लड्डू गणेशजी की प्रतिमा के पास रखकर शेष ब्राह्मणों में बांट देने चाहिए। गणेश जी की आरती और पूजा किसी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले की जाती है और प्रार्थना करते हैं कि कार्य निर्विघ्न पूरा हो।

§  गणेशजी का पूजन सायंकाल के समय करना चाहिए। पूजनोपरांत दृष्टि नीची रखते हुए चंद्रमा को अर्घ्य देकर, ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा भी देनी चाहिए।

§  इस प्रकार चंद्रमा को अर्घ्य देने का तात्पर्य है कि जहां तक संभव हो आज के दिन चंद्रमा के दर्शन नहीं करने चाहिए। क्योंकि इस दिन चंद्रमा के दर्शन करने से कलंक का भागी बनना पड़ता है। फिर वस्त्र से ढका हुआ कलश, दक्षिणा तथा गणेशजी की प्रतिमा आचार्य को समर्पित करके गणेशजी के विसर्जन का विधान उत्तम माना गया है।

§  गणेशजी का यह पूजन करने से विद्या, बुद्धि की तथा ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही विघ्न-बाधाओं का भी समूल नाश हो जाता है।

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