खूब लड़ी मर्दानी देखो कोयले वाली रानी*

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मुख्तार अब्बास नकवी**,,
जब हम पढ़ते है देश की पहली लोकसभा के उस इतिहास को जिसके सदस्य जवाहर लाल नेहरु, बल्लभ भाई पटेल, बी0आर0 अम्बेड़कर, मौलाना कलाम, सुचेता कृपलानी, अशोक मेहता, रफी अहमद किदवई, बाबू जगजीवनराम सरीखे लोग थे, और विपक्ष नाम मात्र का था, तो अपने संसदीय लोकतंत्र पर गर्व किए बिना नहीं रहा जाता। उस समय सडक की भावना और संसद के कानूनों, प्रवधानों के बीच सामन्जस्य और संवाद ही संसदीय लोकतंत्र का मूल मंत्र था। भारतीय संसद, साठ दशको से ज्यादा तक देश के सामने आई विभिन्न चुनौतियो पर चर्चा और समाधान की अपने जिम्मेदारी बखूबी निभाती रही।
पिछले तीन दशको का संसदीय इतिहास गठबन्धन और गठजोड़ से सरकारों के गठन का साक्षी है, किसी एक पार्टी को बहुमत ना मिलने पर कुछ क्षेत्रिय पार्टियों के साथ साझा कार्यक्रमों के आधार पर सरकारें बनी, कुछ पार्टियों ने अपने क्षेत्रीय और राजनैतिक हितों को ध्यान में रखकर ऐसी सरकारों को बाहर से भी समर्थन दिया। समय-समय पर कुछ बड़ी पार्टियों ने भी गठबन्धन सरकारों को बाहर से समर्थन दिया जैसे वामपंथी दलों द्वारा यू0पी0ए0-1 को दिया समर्थन या कांग्रेस द्वारा श्री चंद्रशेखर सरकार या भाजपा द्वारा वी0पी0 सिंह सरकार को बाहर से दिया समर्थन प्रमुख है। इनमे से अधिकांश बड़ी पार्टियों ने उक्त सरकारों से बीच में ही समर्थन वापस लिया। उसके पीछे अपने-अपने राजनैतिक तर्क और कारण थे।
आज संसद में घोटालों, भ्रष्टाचार पर सरकार, प्रधानमंत्री को नैतिक जिम्मेदारी लेने की मांग पर चर्चा और बहिर्गमन, हंगामा देश में बड़ा मुद्दा है, हांलाकि विपक्ष द्वारा संसद में अपनी बात पुरजोर तरीके से रखना और सत्ता के अहंकार और अनसुनी पर समय-समय पर हंगामा, बहिर्गमन संसदीय इतिहास-परम्परा का हिस्सा है। भारत तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, यह काम तो उन संसदीय लोकतंत्र वाले देशो  में भी होता है जहां मतदाताओं और चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या भारत के मुकाबले पांच प्रतिशत भी नहीं होती। अल्जीरिया, अंगोला, आस्ट्रेलिया बेिल्जयम, ब्राजील, कनाडा, कोरिया, इजराईल, इटली, न्यूजीलैण्ड, माल्टा, फिलीपीन्स, सौमालिया, जाम्बिया , वियतनाम, आदि ऐसे बहुत से देश हैं जहां संसदीय लोकतंत्र हैं। वहां भी बर्हिगमन, हंगामें के बीच विपक्ष अपनी बात रखता रहा है। कुछ ऐसे देश भी है जहां जनभावनाओं और विपक्ष की आवाज को दबाने की कोशिश  की जाती रही है जिसके नतीजे में वहां का लोकतंत्र, लंगडा-लूला हो चुका है, पड़ोस का पाकिस्तान इसका ज्वलन्त उदाहरण है। भारत ने भी आपातकाल में ऐसे काले युग को देखा है।
वर्तमान समय में भारतीय संसद का काम ठप्प है, कई सवाल सरकार और विपक्ष से पूछे जा रहे है, मुद्दा है 186 हजार करोड़ के कोयले घोटाले का, सी0ए0जी0 रिपोर्ट ने प्रधानमंत्री के आधीन रहे कोयला मंत्रालय में बड़े पैमाने पर गड़बडी-लूट की बात कही है। इसे लेकर विपक्ष वि’ो”ाकर भाजपा ने प्रधानमंत्री से नैतिक जिम्मेदारी लेने की मांग उठाई। सरकार ने इस मांग को तुरन्त खारिज ही नहीं किया बल्कि सी0ए0जी0 रिपोर्ट आने के एक घंटे के अन्दर उसे “बकवास,, भी करार दिया, कांग्रेस उसकी सरकार के मंत्रियों ने एक साथ संवैधानिक संस्था सी0ए0जी0, विपक्ष और विपक्ष की कई राज्य सरकारों पर हल्ला बोल दिया, और कहा घोटाला केन्द्र सरकार ने नहीं किया है बल्कि विपक्ष और उनकी राज्य सरकारों ने किया है।
अजीब लोग हैं क्या-क्या पते छिपाते हैं।
कहीं पे लूट हुई है कहीं बताते है।।
सरकार के इस व्यवहार ने संसद में कोयला घोटाले के तेवर और  क्लेवर का एहसास सदन में चर्चा से पहले ही साफ करा दिया था, और विपक्ष और देश को यह भी महसूस करा दिया था कि सरकार राज्य की विधान सभाओं में होने वाली बहस को संसद में कराना चाहती है, यह वह राज्य सरकारें और विधान सभाएं है जहां कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है, कभी भी इन घोटालों और राज्य सरकारों के उनमें शामिल  होने की बात कांग्रेस ने उन विधान सभाओं में नहीं उठाई और अब दूसरों के सिर ठीकरा फोड़कर अपने को पाक-साफ साबित करने की कोशिश  हो रही है। प्रधानमंत्री जी ने पिछले एक हफ्ते से अपनी मंत्रियों, प्रवक्ताओं द्वारा दिए जा रहे बयान का संकलन को रस्मी तौर पर संसद के पटल पर और बाहर मीडिया के सामने पढ कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड लिया। इस बयान में “घोटालों के गुरु घंटालों,, के खिलाफ ना तो कार्यवाही का जिक्र, ना ही नैतिक जिम्मेदारी का एहसास, यदि संसद में बहस होती-चर्चा होती तो यही कुर्तक दिए जाते। और इन्ही बैतुके, बेसुरे, बयानों के आधार पर सरकार चर्चा और बहस की बात कर रही है, सरकार क्या चर्चा में कोई नये तर्क, तथ्य लाने वाली है, या वही ढाक के तीन पात, “हमने कुछ नहीं किया, सब विपक्ष ने किया है´´ वाला पुराना राग।
आज देश संसदीय इतिहास एक बडे राजनैतिक संकट से दो चार हो रहा है, जब सरकार और विपक्ष आपसी संवाद के बजाय मीडिया के माध्यम से बात कर रहे हों। ऐसी स्थिति देश में कभी नहीं आई, सदन का पटल प्रबन्धन एवं विपक्ष से संवाद सरकार की जिम्मेदारी होती है, पर सरकार के मंत्री सदन के भीतर विपक्ष की तरह शोर  शराबा  करते दिख रहे हैं, यू0पी0ए0 के मुखिया सत्तापक्ष को हंगामा करने के लिए उकसा और प्रोत्साहित करती दिखती हैं। मुख्य विपक्षी पार्टी को ब्लैक मेलर कह रही है।
हमारी संसद ने अपने छ: दशको से ज्यादा के इतिहास में बहुत से ऐसे घोटाले, मुद्दे देखे हैं, बहस देखी है, कार्यवाही देखी है, 1948-49 के बीच फौज में जीप खरीद घोटाला, जिसमें तत्कालीन रक्षा मंत्री को इसी संसद ने दोषी करार दिया, 1955 में पूंजी पति सिराजउद्धीन एण्ड कम्पनी का डायरी बम जिसमें कई बडे नेताओं की दलाली की बात उजागर हुई, 1957 में उद्योगपति हरिश्चंद  मुन्द्रा शेयर  घोटाला जिसमें तत्कालीन वित्तमंत्री टी.टी. कृष्णमचारी   को पद से हटाया गया, 1971 में नागरवाला काण्ड, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री और पी0एन0 हक्सर पर बैंक से फर्जी लेन देन का आरोप था। बाद में नागरवाला की संदिग्ध हालात में मौत हो गई, 1980 में तेल कुआं काण्ड, जिसमें तेल एवं डीजल के ठेकों में बड़े पैमाने पर घोटाले की बात आई थी, 1982 में अन्तुले सीमेन्ट घोटाला, चुरहट घोटाला, 1986 में बोफोर्स घोटाला जिसकी आंच स्व. राजीव गांधी तक पंहुची, हर्षद  मेहता शेयर  घोटाला जिसमें संसद ने दो केन्द्रीय मंत्रियों वी0 शंकरानंद  और राजेश्वर  ठाकुर को दोषी पाया, इस्तीफा लिया।
1993 में बन्दरगाह घोटाला, जिसमें भूतल परिवहन मंत्री जगदीश  टाइटलर बुरी तरह फंसे थे, 1994 में चीनी घोटाला जिसमें तत्कालीन मंत्री कल्पनाथ राय, वाणिज्य सचिव तेजेन्दर खन्ना, केबिनेट सचिव जफर सैफुल्ला पर गम्भीर आरोप लगे थे, इसी बीच 133 करोड़ का यूरिया घोटाले की भी संसद में चर्चा हुई। ऐसे तमाम मुद्दों पर संसद ने चर्चा भी की और जबाबदेही भी तय की, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि सरकार ने चर्चा से पहले ही मुद्दे को खारिज कर दिया हो।
आज का कोयला घोटाला, सी0ए0जी0 के रिपोर्ट के बाद सामने आया है जिसमें 1 लाख 86 हजार करोड़ के घोटाले, की बात कही गई है, सवाल यह है कि 1993 से 2004 तक जहां देश भर में मात्र दो सौ पन्द्रह कोयला खदाने आवंटित होती है, वहीं कांग्रेस नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार ने 2004 से 2009 के बीच देढ़ सौ बडी कोयला खदानों का आवंटन कर डालती है, यानी बारह वर्षो  में मात्र दो सौ छोटी-बड़ी कोयला खदानों का आवंटन और चार वर्षो  में 150 से ज्यादा बडी कोयला खदानों का सभी नियमों, कानूनों को ताक पर रख कर किया गया आवटंन। जिसकी वजह से 1 लाख 86 हजार करोड़़ के घोटाले की बात कही जा रही है। सरकार से सम्बन्धित मंत्रीयों, औद्योगिक घरानों को कोयले की खदानों का जमीदार बनाया गया।
सरकार तर्क यह दे रही है कि खदानों से खनन हुआ ही नही तो घेटाला या घाटा कैसे, यह तर्क वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति सस्ते दामों मेंं कोई जमीन का टुकड़ा खरीद ले और 10 साल बाद तर्क दे कि हमने इस जमीन पर मकान नहीं बनवाया तो इसकी कीमत कैसे बढ़ सकती है, या कोई व्यक्ति यह कहे कि उसने बीस साल पहले जिस दाम में सोना खरीदा था, उसका दाम कैसे बढ़ सकता है, जब उसने उसका गहना नहीं बनवाया। सिर्फ यही नहीं इस सरकार के तर्क से एक सवाल और खड़ा होता है कि यदि कोल माफियाओं ने कोयेले खदानों से कोयला नहीं निकाला जिसके चलते कोयले की जरुरतों को पूरा करने के लिए 20 गुने दामों में सरकार को विदेशो  से कोयले का आयात करना पड़ा, यानि दोहरी मार, जमाखोरी और काला बाजारी का अपराध भी इस Þकोयला घोटालÞ से जुड़ा रहा है। कोयले का अपार भण्डार होने के बावजूद बीस गुने दामों पर विदेशो  से कोयला खरीद हुई।
इसी घोटाले-घपले का नतीजा है कि हमारे सम्पूर्ण अर्थ व्यवस्था चरमरा गई है, देश आर्थिक उदारवाद की जगह उधारवाद के रास्ते पर खड़ हो गया है। मंहगाई सिर चढ़कर बोल रही है बेरोजगारी चरम पर है। आज वह कहावत पूरी तरह से चरित्रार्थ हो रही है कि कोयले के घोटाले में हाथ भी काला-मुंह भी काला-कांग्रेस का हाथ काला हो गया  और सरकार का मुंह। इन सबके बावजूद सरकार किसी तरह की गलती का एहसास नहीं कर रही है और चोरी और सीना जोरी के सिद्धान्त पर चल रही है। मजे की बात यह है कि सरकार की मुखिया विपक्ष से पूरी ताकत से लडने का आवहान कर रही है, अच्छा होता कि वह ऐसा आवहान मंहगाई, भ्र”टाचार-घोटालों, आतंकवाद से लड़ने के लिए अपनी सरकार और कांग्रेस से करती तो सरकार के चेहरे पर पुती कोयले की कालिख कुछ कम होती।
**लेखक :  मुख्तार अब्बास नकवी भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) के  राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है |
*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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