कोपनहेगन में चुनौतियां

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सुरेश प्रकाश अवस्थी

          डेनमार्क की राजधानी कोपनहेगन में दिसम्बर के दूसरे सप्ताह में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से पूर्व विश्वभर में जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) को लेकर बहस तेज हो गयी है । सात से अठ्ठारह दिसम्बर तक होने वाले इस सम्मेलन में 170 देशों के करीब आठ हजार पर्यावरणविद् पर्यावरण-प्रेमी, राजनेता और अंतराष्ट्रीय एजेंसियों के प्रतिनिधि भाग लेंगे । सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य यह है कि वैश्विक तपन में कमी लाने के लिये ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन किस प्रकार कम किया जाये । इसी के साथ एक आनुषंगिक एजेंडा यह भी है कि आने वाले समय में क्योटो समझौते की शर्तों को विकसित और विकासशील देशों को लागू करने के लिये किस प्रकार राजी किया जाये । कोपनहेगन सम्मेलन पर सारी दुनिया की निगाहें टिकी हुई हैं । एक ओर निर्धन और विकासशील देश हैं जो जलवायु परिवर्तन के आसन्न खतरों से आशंकित समृध्द और औद्योगिक देशों की ओर मदद के लिये आशाभरी नजरों से देख रहे हैं तो दूसरी ओर अमेरिका, यूरोप और जापान जैसे धनी देश हैं जो कह रहे हैं कि अब इस खतरे की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसे नजर अंदाज करना मानव सभ्यता के लिये महंगा पड़ सकता है । पिछले पचाष वर्षों में वैश्विक तापमान में वृध्दि की दर दोगुनी हो गयी है । इस सदी में तापमान में तीन से पांच अंश (डिग्री) की वृध्दि होने का अनुमान है ।

          जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तपन के बारे में चिंतायें तो लंबे समय से व्यक्त की जा रही हैं, परन्तु अस्सी के दशक से इस बारे में सक्रियता कुछ अधिक ही बढी है । मौसम वैज्ञानिकों ने 1985 में यह बात एक स्वर से कही कि अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन की पर्त में छेद हो गया है । सितम्बर 1987 में मांट्रियल प्रोटोकॉल पर जब विभिन्न देशों ने हस्ताक्षर किये तो उनहोंने यह स्वीकार किया कि वातावरण में विषैली गैसों के फैलाव से ही ओजोन पर्त में क्षरण हुआ है । इस समझौते में एक निश्चित अवधि में इन गैसों के उत्सर्जन को कम करने का इरादा जाहिर किया गया था । तत्पश्चात् 1992 में विश्व पर्यावरण सम्मेलन ( रियो द जिनेरो तथा 1997 में क्योटो जापान में 140 से अधिक देशों के बीच ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिये संधि की गई थी । दिसम्बर 2004 में कार्बन व्यवसाय के बारे में डरबन सम्मेलन तथा फरवरी 2005 में पुन: क्योटो सम्मेलन में हुए समझौते को अंतिम रूप देते हुए 2012 तक कार्बन डाइ आक्साइड उत्सर्जन को 1990 के स्तर तक लाने के बारे में सहमति बनी । इसी संदर्भ में 2007 में बाली समझौता भी हुआ । परन्तु इन संधियों और समझौतों का दुखद पहलू यह रहा कि विकसित देश इन्हें अपनी अर्थव्यवस्थाओं पर बोझ मानते हुए इनको अमल में लाने से इंकार करते रहे । इन सभी सम्मेलनों में इस बात पर जोर दिया जाता रहा कि विकासशील देश विकास को प्राथमिकता तो दें पर धरती के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभाते रहें । अमीर देशों पर उनकी मदद की जिम्मेदारी डाली गयी, जिससे वे अब तक कतराते रहे हैं ।

          क्योटो प्रोटोकॉल (1997) के अंतर्गत 40 औद्योगिक देशों के लिये ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन के वास्ते 1990 के आधार पर मानक तय किये गये थे । भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर यह शर्त बाध्यकारी नहीं है । इस प्रोटोकॉल को लागू करने का पहला चरण 2008 से 2012 रखा गया । सबसे पहले इसे रूस ने मान्यता दी। फरवरी 2009 तक 183 देश इस पर अपनी सहमति जता चुके हैं । ये वे देश हैं जो कुल ग्रीन हाऊस गैसों का 85 प्रतिशत या उससे अधिक का उत्सर्जन करते हैं । अमेरिका ने इसे अभी मान्यता नहीं दी है । आस्ट्रेलिया ने भी अभी हाल ही में इसे स्वीकार किया है । अमेरिका ने 9 अक्तूबर, 2009 को बैंकाक में संपन्न जलवायु परिवर्तन संबंधी वार्ता में क्योटो प्रोटोकॉल को अस्वीकार करते हुए एक नए समझौते की मांग की । यूरोपीय संघ सहित अनेक औद्योगिक देशों ने भी अमेरिकी रूख का समर्थन किया है । उनका कहना है कि अमेरिका को शामिल किये बिना इस तरह का कोई भी समझौता सफलतापूर्वक लागू नहीं किया जा सकता । साथ ही इन देशों का तर्क है कि विकाशील देशों के लिये भी लक्ष्य निर्धारित किये जाने चाहिये । विकासशील देश इसके विरूध्द हैं ।

          द्वितीय विश्वयुध्द के बाद आई औद्योगिक क्रांति के अग्रणी देशों ने ही वायुमंडल में सर्वाधिक कार्बनिक गैसें उत्सर्जित की हैं । प्रमुख औद्योगिक देशों की संख्या मात्र 20 प्रतिशत है परन्तु ये 80 प्रतिशत कार्बनिक (ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं । अमेरिका प्रतिवर्ष 20 टन से भी अधिक प्रतिव्यक्ति ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन करता है । दूसरी ओर रुस 11.71 टन जापान 9.87 टन, यूरोपीय संघ 9.40 , चीन 3.60 टन और भारत मात्र 1.2 टन प्रतिव्यक्ति ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन करते हैं । ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन पर विकासित देशों द्वारा विकासशील देशों को दोष देना, अपने ही दोषों को छिपाने का बहाना है । सारा संसार जलवायु परिवर्तन और उससे उत्पन्न होने वाले खतरों से आतंकित है ।

          वैश्विक तपन अथवा जलवायु परिवर्तन को लेकर जो भविष्यवाणियां की जा रही हैं, वे वास्तव में विश्व के भूगोल और जलवायु का वर्तमान स्वरूप बदल सकती हैं । समुद्र का जल स्तर बढना, जलचक्र में दोष, सूखा, बाढ, तूफान , तापमान में वृध्दि , वनों में आग लगना तथा मरूस्थलीकरण के साथ-साथ विभिन्न रोगों का फैलाव, जलवायु परिवर्तन के वे कुछ दुष्परिणाम होंगे, जो आने वाले समय में संसार के अनेक लोगों को भोगने होंगे । अंतर शासकीय जलवायु परिवर्तन समूह (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज-आईपीसीसी) के अनुसार वैश्विक तपन के कारण जो हिमनद पिघलने शुरू हो गए हैं, उससे समुद्री जल स्तर में 23 सेंटीमीटर की वृध्दि हो सकती है। यदि ऐसा हुआ तो भारत के प्रमुख समुद्रतटीय क्षेत्रों में बसे शहरों एवं गांवों में बसे दस करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित हो जाएंगे । तटीय इलाके में समुद्र का जल भूजल से मिलकर खारा हो कर मानव उपयोग के अयोग्य हो जाएगा । भारत के मैदानी इलाकों में शीत त्रऽतु की अवधि कम हो जाएगी तथा पानी की भी कमी हो जाएगी । इसी संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र के एक पैनल ने चेतावदी दी है कि यदि समुद्र के जलस्तर में 18 से लेकर 60 सेंटीमीटर तक की वृध्दि हुई तो वर्ष 2100 तक मालदीव का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा । इसी खतरे की ओर से विश्व का ध्यान आकर्षित करने के लिये मालदीव के मंत्रिमंडल ने हाल ही में समुद्र के नीचे बैठक की ओर कोपनेहेगन सम्मेलन के लिये एक घोषणा पत्र तैयार किया ।

          हाल के समय में जलवायु परिवर्तन के बारे में भारत की कूटनीति में बदलाव के कुछ संकेत दिखाई दे रहे हैं । प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह 30 अगस्त 2008 को जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट) की घोषणा की जिसके अंतर्गत उत्सर्जन में कमी लाने के लिये आठ मिशनों की रूपरेखा पेश की गई । इस मिशन के तहत जीवाश्म ऊर्जा स्रोतों के स्थान पर सौर ऊर्जा के संवर्धन को प्रोत्साहित करने पर विशेष जोर दिया जाएगा । लक्ष्य है 1000 मेगावाट का सौर तापीय विद्युत उत्पादन का । विस्तारित ऊर्जा कुशलता मिशन (एनहान्सड एनर्जी एफिशियेन्सी मिशन ) के माध्यम से 10 हजार मेगावाट विद्युत की बचत की जाएगी । इसके अलावा, बिगड़े वनों के 60 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में वृक्षारोपण और वनाच्छादित क्षेत्र का क्षेत्रफल मौजूदा 23 प्रतिशत से बढाक़र 33 प्रतिशत किया जाना है । जलवायु विज्ञान अनुसंधान कोष की स्थापना , किफायती जल उपयोग, जैव विविधता सुधार और संपोषणीय कृषि के जरिये जलवायु परिवर्तन में आ रही तेजी का कुछ हद तक विराम दिया जा सकेगा । महत्त्व की बात यह है कि भारत ने संकल्प व्यक्त किया है कि विकास के अपेन लक्ष्य को हासिल करने के प्रयास में हमारा किसी भी समय ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन विकसित देशों से अधिक नहीं होगा । स्वच्छ प्रौद्योगिकी के विकास को प्राथमिकता देने के उद्देश्य से भारत परमाणु ऊर्जा के उत्पादन पर विशेष जोर दे रहा है । इस संदर्भ में पिछले वर्ष अमेरिका के साथ हुआ असैन्य परमाणु ऊर्जा समझौता और परमाणु आपूर्ति कर्ता देशों (एनएसजी) के समूह का भारत के साथ परमाणु व्यापार के बारे में हुआ समझौता विशेष महत्त्व रखते हैं । भारत का लक्ष्य 2050 तक परमाणु ऊर्जा से 4,70,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन करना है । नवीकरणीय ऊर्जा के संसाधनों का उपयोग भी मौजूदा 7.7 प्रतिशत से बढाक़र 20 प्रतिशत तक ले जानेका लक्ष्य है । इन इरादों के प्रति संकल्पशक्ति की बानगी के तौर पर देश के सभी नये बनने वाले सरकारी भवनों में सौर ऊर्जा का उपयोग अनिवार्य करने पर विचार किया जा रहा है । भारत के आटोमोबाइल निर्माताओं की संस्था ने भी  किफायती ईंधन की खपत वाले वाहनों के विकास के बारे में रजामंदी दे दी है । सरकार का इरादा, 2011 तक ईंधन की किफायती खपत के मानकों को अनिवार्य रूप से लागू करने का है ।

          सरकार ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि भारत सरकार किसी भी अंतर राष्ट्रीय समझौते के तौर पर वैधानिक रूप से उत्सर्जन कटौती पर लगायी गई पाबंदी को स्वीकार नहीं करेगा । पर्यावरण एवं वन मंत्री श्री जयराम रमेश ने 24 नवम्बर 2009 को राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि यह बात पत्थर में लिखी इबादत की तरह पक्की है । उन्होंने यह भी कहा कि यह जिम्मेदारी वास्तव में विकासशील देशों की है । श्री रमेश ने कहा कि कोपनहेगन में भारत का रवैया रक्षात्मक नहीं होगा । साथ ही भारत चाहता है कि यदि सम्मेलन में किसी समझौते पर सहमति नहीं बन पाए तो भारत को दोष नहीं दिया जाए।

          प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह ने भी स्पष्ट किया है कि विकसित देशों को विकासशील देशों को उचित तकनीक मुहैया कराने के साथ-साथ वित्तीय मदद भी देनी होगी । क्योटो प्रोटोकॉल के तहत स्वीकार्य स्वच्छ विकास तंत्र के जरिए ही विकासशील देशों में स्थायी आर्थिक विकास को बढावा दिया जा सकता है । 22 अक्तूबर को नई दिल्ली में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय विचारगोष्ठी में प्रधानमंत्री ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में विकसित नई तकनीक को व्यापक सार्वजनिक हित में बौध्दिक संपदा के अधिकार को सीमित किया जाना चाहिए । उन्होंने जोर देते हुए कहा कि स्वच्छ और उन्नत तकनीक एचआईवीएडस की तकनीक और औषधि की तर्ज पर निर्धन और विकासशील देशों को दी जानी चाहिए । कमोबेश ऐसे ही प्रावधान क्योटो प्रोटोकॉल में भी हैं । अत: यह स्पष्ट है कि दुनिया को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाना है तो विकसित देशों को अपनी जिम्मेदारी समझकर विकासशील देशों को वित्तीय सहायता के साथ स्चछ और उन्नत तकनीक मुहैया कराने का प्रबंध करना होगा। पर्यावरण के अनुकूल तकनीक तक दुनिया के सभी देशों की पहुंच होनी चाहिए ।

          सम्मेलन शुरू होने से पहले 4 दिसम्बर, 2009 को पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने लोक सभा में घोषणा की कि भारत कार्बन उत्सर्जन को 2020 तक 2005 के स्तर से 20 से 25 प्रतिशत तक घटा देगा। यह नीतिगत उपायों से हासिल किया जाएगा, जिनमें सभी मोटर वाहनों में अनिवार्य ईंधन दक्षता मानक, आदर्श हरित भवन संहिता और ऊर्जा संरक्षण अधिनियम में संशोधन करके उद्योगों के लिए ऊर्जा दक्षता प्रमाण पत्र की  आवश्यकता अनिवार्य करना  शामिल है। ये उपाय दिसम्बर, 2011 तक करने होंगे। उन्होंने कहा कि  भारत को पर्यावरण शिखर सम्मेलन में नेतृत्व प्रदर्शित करने की आवश्यकता है और राष्ट्रीय हितों के  साथ समझौता किए बिना, लचीला रवैया अपनाना चाहिए।  पर्यावरण परिवर्तन के मुद्दे पर आए हाल के परिवर्तनों को सही ठहराते हुए पर्यावरण मंत्री ने कहा कि योजना आयोग ने ही 20 से 25 प्रतिशत उत्सर्जन कटौती का निर्धारण किया है। 

          भारत उत्सर्जन कटौती के बारे में  अन्तर्राष्ट्रीय समीक्षा के लिए भी तैयार है, बशर्ते  यह विदेशी प्रौद्योगिकी और वित्त पोषण द्वारा समर्थित हो।  भारत वैधानिक रूप में अनिवार्य उत्सर्जन कटौती स्वीकार न करने  के अपने रवैये पर दृढ रहेगा।

          इस बीच डेनमार्क की राजधानी में धनी और गरीब राष्ट्रों के बीच उत्सर्जन में कौन कितनी कटौती करेगा और इसके लिए कौन धन मुहैया कराएगा, इस पर नोक-झोक के चलते वैधानिक रूप से अनिवार्य  कटौती समझौता  करने के लिए समय निकलता जा रहा है।

 

 

6 COMMENTS

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