केजरीवाल का धरना:तर्क नहीं, सत्य की कसौटी पर

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ak{ निर्मल रानी ** }
देश की राजनीति में नित नए आयाम जोडऩे में लगी आम आदमी पार्टी आए दिन कोई न कोई नए ‘कीर्तिमान’ स्थापित करती जा रही है। देश की राजनैतिक,शासनिक व प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन करने का हौसला रखने वाली ‘आप’ ने कुछ ही समय पूर्व जहां दिल्ली में तीसरी राजनैतिक शक्ति के रूप में न केवल अपना परिचय कराया बल्कि अल्पकाल में ही उसने दिल्ली की सत्ता पर $कब्ज़ा भी जमा लिया। निश्चित रूप से भारतीय राजनीति का यह एक नया अध्याय है। अपने संघर्षशील व्यक्तित्व, दृढ़ संकल्प तथा $फक्कड़पन के रूप में अपनी पहचान रखने वाले ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली पुलिस की ज़्यादतियों के विरोध में दिल्ली की सडक़ पर धरना देकर देश की राजनीति में एक और नया अध्याय जोड़ दिया है। इस पूरे राजनैतिक घटनाक्रम का विश£ेषण विभिन्न नज़रों व नज़रियों से किया जा रहा है। ‘आप’ से भयभीत राजनैतिक दल, उनसे जुड़े नेता तथा मीडिया महारथी अरविंद केजरीवाल व उनकी पार्टी से जुड़े सभी मंत्रियों व विधायकों के इस धरने की आलोचना करते दिखाई दिए। जबकि कुछ टीवी चैनल्स द्वारा इस विषय पर मांगी गई जनता की राय में केजरीवाल के धरने को उचित ठहराया गया। सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल व उनके सहयोगियों द्वारा सत्ता में होने के बावजूद दिल्ली पुलिस के विरुद्ध धरने पर बैठना न्यायसंगत व ज़रूरी था अथवा नहीं?
यदि हम राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में सभी राज्यों की पुलिस व उनकी जि़म्मेदारियों की बात करें तो निश्चित रूप से देश का पुलिस विभाग सबसे महत्वपूर्ण व जि़म्मेदार विभाग है। अराजकता फैलने से रोकना,यातायात नियंत्रण,अदालत के माध्यम से लोगों को न्याय दिलाने में अपनी महत्वपूर्ण $कानूनी भूमिका अदा करना,विशिष्ट हस्तियों से लेकर एक साधारण नागरिक तक की सुरक्षा सुनिश्चित करना,बड़े से बड़े अपराधियों को नियंत्रित करना व इसकी गुत्थी सुलझाना अथवा उनका मु$काबला करना जैसी तमाम बड़ी जि़म्मेदारियां देश के पुलिस विभाग के कंधों पर हैं। इस लिहाज़ से नि:संदेह देश का पुलिस विभाग संबसे गंभीर,जवाबदेह व चौकस विभाग कहा जा सकता है। परंतु इन सब विशेषताओं व जि़म्मेदारियों के बावजूद यही पुलिस विभाग देश के सबसे बदनाम,भ्रष्ट तथा $गैर जि़म्मेदार विभाग के रूप में भी चिन्हित किया जाता है। आ$िखर ऐसा क्यों है? हमारे देश की $खाkjr$की वर्दी इतनी दा$गदार क्यों हो गई है? और इससे जुड़ी एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि पुलिस के भ्रष्टाचार, उनके काले कारनामों, उनके ज़ुल्म व मनमानी के विरुद्ध शीघ्र उंगली उठाने का कोई साहस भी नहीं जुटा पाता। इसका कारण भी सा$फ है पुलिसिया वर्दी,डंडा,रौब तथा उसे प्राप्त $कानूनी अधिकार।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में हुई एक विदेशी महिला के सामूहिक बलात्कार की घटना तथा दिल्ली की एक कालोनी में अ$फ्रीकी मूल के लोगों द्वारा कथित रूप से चलाए जाने वाले सेक्स व ड्रग्स रैकेट के अड्डे को मुद्दा बनाते हुए दिल्ली पुलिस के विरुद्ध अपना झंडा बुलंद कर दिया। परंतु इन मामलों में जहां तक पुलिस पर ढील बरतने या अपराधिक नेटवर्क से सांठगांठ रखने अथवा इसमें ढिलाई बरतने जैसी बातों का प्रश्र है तो इसे एक ‘राष्ट्रीय विकार’ माना जा सकता है। देश के अधिकांश राज्यों में पुलिस को रक्षक के बजाए भक्षक की संज्ञा दी जाती है। यदि आप समाचार पत्रों के पन्नों को पलटें तो प्राय: यह नज़र आएगा कि पुलिसकर्मी कहीं सामूहिक बलात्कार में स्वयं शामिल हैं, कहीं चोरी-डकैती में शामिल पाए जा रहे हैं, कहीं अपराधिक गतिविधियों को संरक्षण दे रहे हैं, जुए व शराब के नाजायज़ अड्डे इनकी छत्रछाया में चल रहे हैं। ट्रकों तथा अन्य निजी वाहनों से पैसे वसूलना, स्क्ूटर व मोटरसाईकल सवारों से हेलमेट न पहनने अथवा तीन सवारी बिठाने के बदले में उनकी जेबें झाडऩा,ओवरलोड या ओवरस्पीड के नाम पर वाहन चालकों से पैसे वसूलना, पैसे लेकर अपराधी की सहायता करना, किसी अपराध के घटनास्थल पर अपनी मरज़ी के अनुसार आराम से पहुंचना,चलती ट्रेन में तलाशी के नाम पर यात्रियों की जेबें झाडऩा $खासतौर पर प्रवासी $गरीब मज़दूरों को लूटना जैसी और तमाम नकारात्मक बातें पुलिस विभाग से जुड़ चुकी हैं।
ऐसा भी नहीं कि इन विसंगतियों का शिकार केवल पुलिस विभाग ही है। परंतु चंूकि इस विभाग को अत्यंत जि़म्मेदार तथा जनता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध विभाग के रूप में देखा जाता है इसलिए आम नागरिक किसी भी पुलिस कर्मी से केवल सुरक्षा,न्याय,चौकसी तथा तत्परता की ही उम्मीद करता है। अन्यथा किसी न किसी ‘अरविंद केजरीवाल’ को  आम लोगों के दिलों में दशकों से पनप रहे जनआक्रोश का प्रतिनिधित्व करते हुए पुलिस के विरुद्ध अपना परचम बुलंद करना ही पड़ता है। अब चाहे केजरीवाल के आलोचक व विरोधी इस पूरे घटनाक्रम को 2014 के संसदीय चुनावों से जोडक़र देखें या अरविंद केजरीवाल द्वारा दिल्ली सरकार न चला पाने की नज़र से इसका विश£ेषण करें, चाहे अरविंद केजरीवाल के वर्तमान पद व संवैधानिक सीमाओं की दुहाई दें। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि केजरीवाल ने जो भी किया वह दिल्ली की आम जनता की इच्छा के अनुरूप था। दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश की आम जनता पुलिस कर्मियों से केवल न्याय,तत्परता, चौकसी तथा ईमानदारी के साथ अपनी जि़म्मेदारी निभाए जाने की उम्मीद करती है। परंतु जब यही पुलिस नागरिकों को लूटने लगे, लोगों की रक्षा करने के बजाए उनपर ज़ुल्म व अत्याचार करने लगे, अपराधियों को गिर$फ्तार करने के बजाए उनसे सांठगांठ कर ह$फ्ता वसूली करने लगे ऐसे में किसी न किसी ‘केजरीवाल’ का खड़ा होना तो स्वाभाविक ही है। और आ$िखरकार 20-21 जनवरी को दिल्ली में वही देखने को मिला। देश के इतिहास में निश्चित रूप से पहली बार ऐसा हुआ कि किसी राज्य का मुख्यमंत्री अपने ही राज्य की पुलिस के विरुद्ध अपने ही राज्य की सीमा में अपने सहयोगी मंत्रियों व विधायकों के साथ धरने पर बैठा हो।

बड़े आश्चर्य की बात है कि अरविंद केजरीवाल के आलोचक व उनसे भयभीत राजनैतिक ता$कतें केजरीवाल के धरने में कमियां निकालने तथा उसकी आलोचना किए जाने के नए-नए बिंदु तलाश करने में लगी हैं। कितना अच्छा होता यदि केजरीवाल के यही निंदक व आलोचक इस ज़मीनी ह$की$कत तक पहुंचने की कोशिश करते कि आ$िखर बिजली व पानी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों से जूझती हुई दिल्ली की केजरीवाल सरकार को अचानक पुलिस के विरुद्ध अपना मोर्चा क्यों खोलना पड़ा? मज़े की बात तो यह है कि जिन राजनैतिक दलों के नेता अपने एक-एक $कदम व एक-एक बयान जनता को लुभाने, वोट बैंक अपने पक्ष में करने तथा भविष्य के चुनावों को अपने पक्ष में करने के मद्देनज़र अपने सभी राजनैतिक $फैसले लिया करते हैं उन्हीं के द्वारा अरविंद केजरीवाल पर यह आरोप मढ़ा गया कि केजरीवाल का यह $कदम 2014 के आम चुनावों के दृष्टिगत् उठाया गया था। देश के पारंपरिक राजनैतिक दल तो सुबह से शाम तक तमाम ऐसे वक्तव्य देते हैं व ऐसे $कदम उठाते हैं जो जनता को लुभाने मात्र के लिए होते हैं।

इस पूरे ऐतिहासिक घटनाक्रम से पूरे देश की पुलिस को सब$क लेने की ज़रूरत है। अन्यथा अरविंद केजरीवाल द्वारा पुलिस के विरुद्ध बुलंद किया गया विरोध का झंडा अब देश के किसी भी राज्य में कभी भी बुलंद हो सकता है। और जनाक्रोश के आगे पुलिसिया डंडे भी बेअसर साबित हो सकते हैं। केंद्र सरकार को भी दिल्ली पुलिस पर नियंत्रण संबंधी मामले को लेकर कोई रास्ता निकालना चाहिए। यदि लंदन व वाशिंगटन की तरह केंद्र सरकार दिल्ली पुलिस को अपने ही अधीन रखना चाहती है तथा इसके लिए वह वीआईपी लोगों, वी आई पी प्रतिष्ठानों, संसद, राष्ट्रपति भवन व दूतावास,सचिवालय व केंद्रीय मंत्रालायों की सुरक्षा की आड़ लेती है तो दिल्ली के लुटियन ज़ोन के लिए अलग पुलिस विभाग का गठन भी केंद्र सरकार अपनी देख-रेख में कर सकती है। परंतु यदि दिल्ली को राज्य का दर्जा दिया गया है तो दिल्ली पुलिस भी राज्य सरकार के अधीन ही होनी चाहिए। और अरविंद केजरीवाल के इस पुलिस विरोधी धरने को तर्कों पर नहीं बल्कि सत्य की कसौटी पर रखा जाना चाहिए।

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Nirmal Rani**निर्मल रानी कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer )
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*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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