कुमार कृष्‍ण शर्मा की कविताएं

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कुमार कृष्‍ण शर्मा  की कविताएं

पहाड़ों पर चालाक आदमी

हमारे पहाड़ों में
विरह झेल रहे
प्रेमी
मेघों को
बहुत कम
बनाते हैं
अपना दूत
शादियों में
उससे भी कम
गाए जाते हैं
बरसात के गाने
मेघों से
बरस जाने की गुजारिश
शायद ही
कभी कोई
करता होगा
पहाड़ों का दूर से देखना
उतना ही अलग है
जितना पहाड़ों पर बसना

पहाड़ों में जब भी गरजते हैं मेघ
बच्चे
चिपक जाते हैं मांओं की छातियों  से
घर का बोझ उठाने वाले युवाओं की जान
बिना खिड़की वाले तहखानों में बंद हो जाती है
बुजुर्ग
बार बार कमरों से बाहर निकल
तोलते हैं बादल
फिर घर की छत देख लगाते हैं अंदाज़ा
इस बार के यु़द्ध में
कौन बनेगा विजेता
प्रमिकाएं
नहीं गाती हैं गाने
ओ मेरे सजन बरसात में आ
वो जानती हैं
पहाड़ों की उफनती नदियों में
कच्चे घड़ों पर नहीं तैरा जा सकता

 

चालाक आदमी

चालाक आदमी
पहुंच चुका है पहाड़ों पर
वह रचता है षड्यंत्र
पहाड़ों को सपाट मैदानों में बदलने का
मैदानों पर
तैयार किया जाता है मंच
मंच पर खेला जाता है नाटक
नाटक का नायक
करता है एलान
हमने
गर्जना करने वाले बादलों के गलों को
सुरीला बना दिया है
कील दी गई हैं उफनती नदियों की जवानी
फैल चुका है हर और गुलाबी मौसम
बच्चे
उमड़ आए हैं हाथों में डोर-पतंग लेकर
किसान
खेतों में छोड़ कर हल फावड़ा
करने लगे हैं बादलों से गाने गाने की फरमाइश
युवा हाथों में उम्र भर की कमाई ले
नदियों के किनारों से घरों के नक्शे बनवा रहे हैं
प्रेमिकाओं ने
हाथों में पकड लिए हैं कच्चे घड़े
बुजुर्गों के माथे पर
गहरा गई हैं चिंता की झुर्रियां

बरसात

बरसात आ गई है
चालाक आदमी
उसकी मंडली
उतर चुकी है पहाड़ों से
बच्चे चिपक रहे हैं मांओं की छातियों  से
युवा हांफ गए हैं
तहखानों में से पानी निकालते निकालते
बुजुर्ग जान गए हैं
इस बार की युद्ध में
छत पर विजय पा लेंगे बादल
कुछ प्रेमिकाएं रह गईं हैं
दरिया के उस पार
बरसात जोरों पर है
पानी चढ़ रहा है
पहाड़ डूब रहे हैं
पहाड़ पानी पानी हैं
चालाक आदमी
मंडली के साथ
सुरक्षित मकानों में बैठ हंस रहा है

पहाड़ों से

उतरना शुरू हो गया है पानी
चालाक आदमी
निकल आया है घरों से
मंडली के साथ
नावों पर चढ़
वह
बांटना चाहता है
बेबस पहाड़ी लोगों के बीच
सपनों के पैकेट
टूटते घरों के बीच
अपनी जान बचाने वाले
बच्चों, युवाओं, बुजुर्गों और प्रेमिकाओं ने कर दिया है मना
सपनों के बंद पैकेट लेने से
पहाड़ों और देवदारों से
सीधे, मजबूत, स्वाभिमानी पहाड़ी लोगों को
धोखा तो दिया जा सकता है
उनको
खरीदा नहीं जा सकता

(कविता जम्मू कश्मीर के बाढ़ पीडि़तों को समर्पित )

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मेरे नाम

लिखो
कश्मीरी हूं मैं
फारूक है मेरा नाम
घूरो मत
देखो मुझे
सिर से पांव तक
मेरी तीन आंखें
चार हाथ
पांच टांगें नहीं हैं
नहीं करना है विश्वास मुझपर
मत करो
बिठा दो मेरे ड्राइंग रूम में
रौबदार फौजियों को
तोड़ दो मेरे दांत
होंठ फाड़ दो
फिर भी
मैं
निकल पडूंगा
सुबह पहली किरण के साथ
बाहर गली में
दूंगा वही नारा
जो सीधा
मेरे दिल से निकलेगा
मेरा
मेरी मिट्टी से प्रेम
तुम्हारी रहमत का
मोहताज नहीं
क्या
मेरा नाम और शहर
तकलीफ देता है तुमको
तो लिखे
गारू डोगरा है मेरा नाम
मैं सीख गया हूं
तुम से छीन कर अपना हक लेना
मैंने सीख ली है वह विद्या
जो तुम्हारे घर से शुरू होती है
मेरी
कितनी भी करो अनदेखी
फिर भी
मैं उखाड़ फैंकूंगा
पखड्डे, ब्रैंकड*
उगा दूंगा
नीले फूलों वाला केसर
वैसे तुमको केसर
कश्मीर की क्यारियों में ही अच्छा लगता है
मेरा
नया नाम भी
तुमको तकलीफ दे रहा है
तो लिखे
अशोक राजदान है मेरा नाम
मैं उस वोट बैंक का हिस्सा नहीं
जो तुम्हारे लिए
सत्ता की कुर्सी का एक पाया बना सके
मैं चौबीस सालों से बेघर हूं
तुम चाहे एक भी कोशिश न करो
मैं एक दिन मैं जरूर घर जाउंगा
अपने घर
जिधर सर्दियों में बर्फ को तोड़
नर्गिस के फूल उग आते हैं
डल के नीले पानी को
सुनाउंगा वह तमाम गीत
जो मैंने उसके विरह में लिखे हैं
एक ही सांस में चढ़ जाउंगा
शंकराचार्य की सीढि़यां
एक घूट में पी जाउंगा
वितस्ता का सारा रूका पानी
क्या
मेरे नाम से
फिर से तकलीफ हो रही है
होने दो तकलीफ
मैं चाहता हूं
तुमको तकलीफ हो
मेरे नामों से
मेरे नाम
विद्रोह का
बिगुल हैं
उनके खिलाफ
जो केंद्र में हैं
जिन्होंने आंखों पर पट्टी बांध
कानों में सीसा घोल रखा है
अब लिखो क्या लिखोगे
मेरे नाम के आगे
फारूक, गारू या अशोक राजदान

{*पखड़े ब्रैंकड-जंगली पौधे हैं जो जम्मू के कंडी (पहाड़ी और बिना सिंचाई
सुविधा के) क्षेत्र में उगते हैं}

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हंसी में मत टालिए

क्या
आपको नहीं लगता
यही सबसे उपयुक्त समय है
जब सीमा पर दुश्मनों से
दो-दो हाथ करने की बजाए
अपने के ही द्वारा रचे गए
चक्रव्यहू में लड़ रहा सैनिक
यह जान जाए
शहीद होने के जज्बे से
कहीं अच्छा होता है
यह जान लेना
किसके लिए और क्यों
शहीद हुआ जाए
क्या
समय नहीं आ गया है
जब व्यवस्था से बौखलाया
बलदेख खटिक पागल नहीं
समझदार हो जाए
हवा में गोलियां चला
कौवों को मारने की बजाए
अपना निशाना सही जगह पर साध
गोलियां बरसाए

क्या
अब वक्त नहीं आ पहुंचा है
जब सड़क पर पत्थर तोड़ता
पसीने से तरबरत मजदूर
खेतों में हल चलाता अधनंगा किसान
फटे बस्ते में फटी किताबों को संभालता बच्चा
हथौड़ा, हल और बस्ता छोड़
खेतों से बाजार को जाती पगडंडियों
ठेकेदारों की चमचमाती कारों के बॉनटों
विश्वविद्यालय पर कुंडली मारे नागों के फना
हा हा हा
ही ही ही
आप हंस तो नहीं रहे हैं
मैं कैसी हवा हवाई बातें कर रहा हूं
मैं कहीं अपना
मानसिक संतुलन तो नहीं खो बैठा
आपके माथे पर चमक आई
पसीने की बूंदे
खोल रही हैं राज
आप भी कहीं-न-कहीं
यह जानते हैं
वह वक्त आने ही वाला है
यकीन मानो
जब वह समय आएगा
आपको पसीना पोंछने का
समय भी नहीं मिल पाएगा

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 कहानी पूरी फिल्मी है

काला  पत्थर
कोयला
लुटेरे
अली  बाबा चालीस चोर
चोर  मचाए  शोर
राजनीती
दलाल
हम  साथ  साथ  है
खामोशी।



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 ——– प्रस्तुति – नित्यानन्द गायेन
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krishan kumar invc newsपरिचय

कुमार कृष्‍ण शर्मा

सन 2008 से ‌हिंदी में कविताएं लिखना शुरू किया। मौजूदा समय में पत्रकार
के तौर पर काम कर रहे।  ‘पहली बार’ और ‘अनुनाद ब्लॉग’ के अलावा विभिन्न
पत्रिकाओं में छपने के अलावा और रेडियो, दूरदर्शन और जम्‍मू कश्मीर कला,
संस्कृति और भाषा अकादमी की ओर से आयोजित कवि सम्मेलनों में शिरकत।

 

अन्य

लोक मंच जम्मू और कश्मीर के संयोजक, साहित्य, कला और संस्कृति के
सरोकारों के साथ साथ उनसे जुड़े मुद्दों के विकास और प्रचार के लिए जम्मू
कश्मीर के पहले हिंदी ब्लॉग ‘खुलते किवाड़’ (छोटे भाई और मित्र कमल जीत
चौधरी के साथ शुरू करने का श्रेय

14 COMMENTS

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  6. सशक्त स्वर है सभी कविताओं का.. कवि को बधाई..शुभकामनायें.. इन कविताओं तक पहुँचाने के लिए नित्यानंद भाई का आभार

  7. कविताओं को पसंद करने और प्रोत्साहन के लिए आप सभी का धन्यवाद, नवाजिश
    …नित्यानन्द गायेन जी का खासतौर पर आभार

  8. J&K par tathakathit visheshgyaon Va Buddhijivion ko ek baar Inki kavitain avashya padhni chahiye… Yah avaaz door tk jayegi dost! Haardik badhai! Dhanyavaad Nityanand bhai!

  9. पहाड़ों से इस तरह की कविताएँ कम ही आई हैं। पत्रकार अगर कवि हो तो बातें सही तरह से से आती हैं। संवेदना में लेखन की तुलना में लेखन में संवेदना अधिक आ रही हैं.. पर कृष्ण कुमार शर्मा जी की कविताओं (लेखन) में संवेदनाओं के साथ सूक्ष्म दृष्टि और सवाल को सही दिशा में सही तरीके से प्रस्तुत करने का हुनर दिखता है।
    इनकी कविताओं में गंभीर चेतावनियाँ ‘अ’व्यवस्था के लिए, बुनियाद से उठी हुई मानसिकता के लिए वाजिब हैं। ‘एक वक्त ऐसा आएगा/जब आपको पसीना पोंछने का/समय भी नहीं मिल पाएगा’ में यह साफ़ दिखाई देती हैं।
    कृष्ण कुमार शर्मा जी को बधाई… और नित्या भाई को धन्यवाद…

  10. हँसी मत तालिये ….क्या कह गये शायद ,,,किसी आलोचक को पढ़ना चाहिए ! शायद नित्यानन्द गायेन जी को पता हो , शानदार

  11. सोने से पहले सोने जैसी कविताएं पढ़ने के बाद नीद बढिया आयेगी !

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