किसानों पर टिकी अर्थव्यवस्था, किसान ठेंगे पर

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farmarअनिल सिंदूर ,

आई एन वी सी ,

कानपुर,

 देश की कुल आबादी का 72 प्रतिशत जनमानस गावों में गुजर बसर करता है गावों में रहने वाले लोग खेती पर आधारित हैं। चौकाने वाले तथ्य यह हैं कि देश के 85 प्रतिशत किसान लघु एवं सीमान्त की श्रेणी में आते हैं वहीं उ.प्र. में यह आकड़ा 90 प्रतिशत है। खेती पर आधारित 65 प्रतिशत ऐसे युवा हैं जिनकी उम्र 35 वर्ष से कम हैं। जो बेरोजगार एवं कुपोषित हैं। हमें इस भयावह स्थिति से निजात पाने के लिए एकजुट होना होगा।

आज केन्द्र सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की वकालत कर अपनी पीठ थप-थपा रही है वहीं चुनावी संभावनाओं को देखते हुए खेती लायक जमीन अधिग्रहण के खेल में अपने और किसानों के बीच नफे-नुकसान का बटवारा कर किसान हितैषी होने का दम्भ भर रही है। लेकिन आम किसान बेखबर अपनी परम्परागत खेती किसानी में लिप्त है। जिसकी खुशहाली के लिए न तो केन्द्र और न ही राज्य सरकार के पास कोई कार्यक्रम है। हम बेहतर तरीके से जानते हैं कि खाद्य सुरक्षा मिशन तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक कि खाद्य पदार्थों के उत्पादक किसान बन्धुओं के संसाधनों की सुरक्षा नहीं की जाएगी। इस समय विकास के नाम पर उपजाऊ जमीन का दुरूप्योग, अमीरी के लिए कर्ज, महंगाई और मंदी नापने के लिए सेंसेक्स पैमाना बना हुआ है। इस खेल में कुछ लोग निश्चित रूप से अमीरी की पादान चढे़ हैं। लेकिन प्रतिदिन उजागर होते भ्रष्टाचार की जाचों ने इन अमीरों की असलियत खोल कर रख दी है।

कृषि उत्पादों की तेजी मंदी का खेल सरकार किस तरह खेलती है, इसका जानना आवश्यक हो गया है। मंदी से निपटने के लिए कारपोरेट सेक्टर को हजारों करोड़ की भरपाई व महंगाई में सरकारी कर्मचारियों को छठवां वेतन आयोग व महगाई भत्ता देकर व्यापारियों एवं कर्मचारियों दोनों को ही मालामाल कर संतुष्ट करती है। महंगाई के खिलाफ सारे आंदोलनों की अगुवाई व्यापारी ही करता है। जो काफी हद तक इस महंगाई के खेल का जिम्मेदार है। किसान इस खेल को मूक दर्शक बना देखता रहता है। महंगाई फैक्ट्री उत्पाद में आती है न कि किसानों के उत्पाद में आती है। चीनी, दाल व तेल महंगे हो जाते हैं जब कि सरसों, गन्ना एवं दलहन मामूली घटते बढ़ते हैं। किसानों की भलाई के लिए जरूरी है कि कृषि उत्पादन मूल्य न्यून किया जाय और कृषि दिवसों में लगे श्रम का भुगतान कर उनके जीवन यापन को सामान्य रखा जाय। प्राकृतिक आपदाओं के चलतें किसान की जब एक फसल मारी जाती है तो उसके साथ ही पिछलें वर्षों का बीज, खाद, निराई-गुड़ाई की मेहनत सब डूब जाती है।

एक फसल के डूबने से आने वाले वर्षों का खर्च की भयावहता किसानों आत्महत्या के लिए प्रेरित करने लगती है। दुनिया का कोई भी उद्योग बिना जोखिम नियंत्रण एवं भरपाई के खड़ा नहीं रह सकता है। इसलिए कृषि बीमा योजना को सफल एवं सशक्त बनाने की महती आवश्यकता है जिस पर सरकारों ने कतई ध्यान नहीं दिया और जो फसल बीमा सरकार की एजेंसियों द्वारा किया जाता है उनका लाभ कितने किसानों को मिलता है स्वयं सरकार बताने में अक्षम हैं।

किसान का जीवन कृषि भूमि है जिसे एक निश्चित सीमा तक बटवारों से रोकना होगा ताकि वह कृषि उपकरण व आधुनिक तकनीकि के संशाधन का उपयोग कर सके। अन्यथा बटवारे से जोत इतनी छोटी हो जायेगी कि कोई किसान बचेगा ही नहीे और काली कमाई के नौकरशाह, व्यापारी व नेता सारी जमीनों के मालिक होंगे तथा असली किसान इनके कृषि मजदूर होंगे। बटवारे के दूसरे हिस्सेदारों के लिए उपजाऊ जमीन तथा रोजगार की व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी बने। बटवारे में प्रत्येक किसान के पास न्यूनतम 2 हेक्टेयर जमीन बनी रहे इसके लिए कृषि भूमि का भू-प्रयोग न बदलने की शर्त पर ब्याज रहित दीर्घकालिक ऋण देना पड़ेगा ताकि वह परिवार का भरण पोषण के साथ ही सरकार का धन आसान किस्तों में अदा कर सके।

भारत सरकार के उन्मुक्त पूंजीवाद के दौर में सामन्तवाद भी खड़ा हो जायेगा। पंुजीवाद ने लोकतन्त्र को लंगड़ा तो कर ही दिया है, सामन्तवादी तो मार ही डालेगा। जोतभूमि रखने का सीलिंग एक्ट बना है लेकिन फर्जी या असली कम्पनी बनाकर हजारें एकड़ जमीन शहरी /ग्रामीण हथियाई जा सकती है। इसकी कोई सीमा व कानून नहीं है। अतः समस्त भूमि पर सीलिंग एक्ट लागू किया जाना चाहिए।

देश में तीन प्रकार के किसान हैं। एक तो वो किसान हैं जो लघु व मध्यम किसान हैं जो अपने हाथ से स्वंय खेती करते हैं। दूसरे वो जो वह भू-स्वामी जो शहरों में नौकरी व रोजगार करते हैं। तथा अपनी भूमि बटाई/पट्टे पर करवाते हैं। तीसरे वो हैं जो बड़े व्यापारी/अधिकारी जो अपने काले धन को सफेद करने के लिए बड़ी-बड़ी जमीनें खरीदकर फार्म हाउस तो बनाते हैं। पर न तो स्वंय उत्पादन करते हैं और न ही किसी को करने देते हैं। उनके बही खाते खेती करते हैं और शासन से जारी समस्त कृषि योजनाओं का लाभ उठाते हैं।

इस तरह दो तिहाई जनसंख्या अपने कल के खाने के बारे में निश्चिन्त नहीं हो पाती उससे राष्ट्र के विकास की उम्मीद कैसे की जा सकती है। अपनी संतानों को रोटी न दे पाने की लाचारी, आदमी को इंसान नहीं रहने देती है। अतः यदि हम इन सभी को भर पेट भोजन सुनिश्चित करने की कल्पना करें तो समस्त कृषि भूमि पर निश्चित उत्पादन गारंटी योजना लागू करनी पड़ेगी। खेती लायक जमीन की प्रत्येक इंच पर उत्पादन हो, इसके लिए किसान, वैज्ञानिक तथा सरकार तीनों को अपने संसाधनों का प्रयोग ईमानदारी से करना पड़ेगा। सरकार के नौकरशाह व वैज्ञानिक अपने वेतन व भत्तों से लैस होते हैं। लेकिन वो किसान जो इस योजना का महत्वपूर्ण अंग है, कमजोर व लाचार है। अतः कृषि कार्य में लगने वाले श्रम दिवसों का भुगतान वैज्ञानिकों द्वारा बताये दिनों का नगद भुगतान कृषि उत्पादन गारंटी योजना के तहत किया जाना चाहिए।

आबादी के बढ़ते दबाव के चलते कृषि जोत का संरक्षण अति आवश्यक है अतः शहरों का विकास ऊर्ध्वाकार (बहुमंिजंला) करके सड़कों व बिजली के खंभो के बचत के साथ ही बड़े पेमाने पर कृषि भूमि बचाई जा सकती है। सरकारी योजनाओं में अति आवश्यक क्षेत्रफल ही किया जाये। शहरों के किनारे विकास के नाम पर अधिग्रहण के खेल में जमीन को बाजार का बड़ा उत्पाद बना दिया है जो बार-बार बिक कर पूंजी निर्माण का जरिया बन जाती है। जमीन प्राकृतिक उत्पाद है यह जीवन संरक्षण के लिए है कारोबार के नहीं है। प्राकृतिक उतपादों का दुरुपयोग पर्यावरण एवं जीवन के लिए खतरा ही बनेगा।

कृषि उपज मूल्य किसानों की बड़ी समस्या बनी है। औद्योगिक उत्पाद व कृषि उत्पाद की कीमतों में एकरूपता लाने के लिए जरूरी है कि देश में एक मूल्य नियन्त्रक आयोग बने जो श्रम व लागत के आधार पर सभी वस्तु की कीमतों को तय करें तथा तय मूल्य से कम ज्यादा बेंचने वालों पर कानूनी कार्यवाही करे। सरकार जनकल्याण के लिए गरीबों को कम दाम पर बेचनें के एवज में उत्पादक की भरपाई करें, ताकि सभी को श्रम का उचित मूल्य मिल सके।

सरकार को किसानों को बचाने के लिए उठाने होंगे प्रमुख कदम –

1.   लघु एवं सीमान्त किसानों को पंजीकृत किया जाना चाहिए। जिससे राष्ट्रीय योजनाओं का लाभ कोई और न ले सके।

2.   लघु एवं सीमान्त किसानों की बात रखने के लिए एक राज्यसभा में प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए।

3.   कृषि को उद्योंगों की सुबिधायें प्रदान होना चाहिए। प्रति फसल के हिसाब से फसलों का बीमा होना चाहिए।

4.   राष्ट्र जमीन से बनता है जनसंख्या से नहीं बनता इसलिए किसान को बचाए रखने को एक राष्ट्रीय नीति बनायी जानी चाहिए।

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