कांग्रेस सरकार का 20 माह का निराशाजनक कार्यकाल

0
27

देहरादून से चन्‍द्रशेखर जोशी द्वारा विशेष रूप से बनाया गया रिपोर्ट कार्ड  

chief minister bahuguna joshiकिसी उपलब्धि के लिए सुर्खियों में रहना सुखद होता है परन्तु उत्‍तराखण्‍ड के मुख्‍यमंत्री अपनी नाकामबियों के लिए लगातार चर्चा में रहे,  उत्‍तराखण्‍ड में कांग्रेस सरकार के विगत 20 माह के कार्यकाल को जनता ने बडा निराशाजनक माना है, उत्‍तराखण्‍ड के मुख्‍यमंत्री कांग्रेस के घोषणा पत्र पर एक कदम भी नहीं चल पाये,   विकास ही नहीं, मूलभूत सुविधाओं में भी राज्‍य सरकार कोई महत्‍वपूर्ण कदम नहीं उठा सकी, राज्‍य के युवा बेरोजगारी का दंश झेलने को विवश है तो  आम जनता कोरा आश्वासन  झेलती रही, वही मुख्‍यमत्री अधिकारियों को अनिवार्य जवाबदेही के दायरे में भी बांध नही बांध पायें, जिससे जनता के मुंह से बरबस यही निकल रहा है- लिखा तकदिर को खुदा को याद करना किया.जहाँ बेदर्द हाकिम हो वहाँ फरियाद क्‍या करना

उत्‍तराखण्‍ड में परिवर्तन की सुगबुगाहट के बीच परिवर्तन का संदेश गया परन्‍तु मुख्‍यमंत्री विजय बहुगुणा जी को भाजपा का धन्यवाद करना चाहिए कि पूरी भाजपा लोकसभा चुनाव तक विजय जी को ही मुख्यमंत्री के तौर पर चाहती है . ताकि … पांचों सीटो पर कमल खिल जाये

 व्यवस्था से निराश होकर लोग व्यंग्यपूर्वक अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि इस देश को भगवान ही चला रहे हैं।  ऐसा कटाक्ष व्‍यवस्‍था से निराश लोग करते हैं परन्‍तु उत्‍तराखण्‍ड में तो यह बात मुख्‍यमंत्री गाहे बेगाहे कहते रहे हैं; 11 नवम्‍बर 2013 को कर्मचारी शिक्षक संगठन के अधिवेशन में विजय बहुगुणा ने कहा कि उत्‍तराखण्‍ड देवभूमि है और यह देवताओं के भरोसे चल रहा है। ज्ञात हो कि 15 जून13 को केदारनाथ में आई प्रलय के बाद भी उनकी कुर्सी बची रहेगी, इस पर उनको स्‍वयं यकीन नहीं था ।

इस समय राज्‍य सरकार पर जनता के विश्‍वास का संकट मंडरा रहा है- मुख्‍यमंत्री की लोक लुभावन घोषणाओं का कितना असर हुआ, इसका प्रमाण इसी बात से लग जाता है कि राज्य में हर वर्ग हडताल पर आमादा है। दिशा हीनता, अराजकता, भ्रस्टाचार, बेरोजगारी, आपदा के दलदल में उत्तराखंड है। आपदा राहत और पुनर्वास के मामले में कांग्रेस सरकार आपदा प्रभावितो का विश्वास खो चुकी है अभी तक प्रभावित परिवारों को मुआवजा तक नही मिल पाया है। सीमन्त के शिक्षा, स्वास्थय सेवाओं का बुरा हाल है। गोरी नदी में फल्याटी, बसन्तकोट, मनकोट, घरुडी में ग्रामीणो ने श्रमदान द्वारा कच्ची पुलियाओं का निमार्ण किया, लोकसभा और पंचायत चुनाव को नजदीक आते देख मदकोट-बसन्तकोट मोटर मार्ग के निमार्ण के लिए दो दिन जेसीबी चलाई गई उसके बाद सडक निमार्ण का कार्य बन्द्र पडा हुआ है। प्रदेश में दैवीय आपदा प्रभावितों के लिए कोई नीति ही नही बन पायी,

सूखे दरख़्त को देखकर मुझे याद आया, किसी घने पेड़ का था मुझ पे भी साया …….

उक्‍त पंक्‍तियां उत्‍तराखण्‍ड के पूर्व मुख्‍यमंत्री एनडी तिवारी का स्‍मरण कराती है, जबकि आज उत्‍तराखण्‍ड की स्‍थितियां इतनी खराब हो चुकी है कि भाजपा मुख्‍यमंत्री विजय बहुगुणा को मुख्‍यमंत्री पद से बदले जाने की मांग ही नही कर रही है क्‍योंकि वह समझ रही है कि विजय बहुगुणा की नीतियां त्रिस्‍तरीय पंचायत चुनाव तथा लोकसभा चुनाव में भाजपा के कमल को खिलाने में भारी सहायक सिद्व होने जा रही है, तो क्या है वह कारण जिसके कारण उत्‍तराखण्‍ड में भाजपा को भारी बहुमत मिलने की आशा जागी है और कांग्रेस का राज्‍य में सूपडा साफ होने वाली स्‍थितियां लगातार बनती जा रही है,

चन्‍द्रशेखर जोशी सम्‍पादक देहरादून द्वारा तैयार उत्‍तराखण्‍ड के मुख्‍यमंत्री विजय बहुगुणा सरकार का रिपोर्ट कार्ड यह साबित कर रहा है कि उत्‍तराखण्‍ड में कांग्रेस सरकार के कारण जहां सूबे में कांग्रेस को भारी नुकसान होना तय है वही इसका प्रभाव समीपवर्ती राज्‍यों में भी पडने की आशंका है-  पेश है एक विस्‍त़त रिपोर्ट-

 उत्‍तराखण्‍ड में निम्‍न बिन्‍दु विजय बहुगुणा सरकार के लिए उनकी असफलता की कहानी बयां कर रहे हैं-

–उत्‍तराखण्‍ड में औद्योगिक विकास क्‍यों बाधित ;; लड़खड़ाती राशन वितरण प्रणाली  ; बजट खासकर प्लान मद के बजट को खर्च करने में उदासीनता ;; प्रदेश में उच्च शिक्षा क्षेत्र में उदासीनता  ; शासन-प्रशासन की आम अवाम तक सीधी पहुंच बनाने में असफल रहे सीएम ‘—स्वस्थ समाज और नारी सशक्तीकरण के दावे करने में सरकार की उदासीनता – हर वर्ग सरकार से रुष्ट होकर बजा रहा है बगावत का बिगुल – महंगाई से त्रस्त लोगों की स्थिति कितनी खराब है, इस ओर उत्‍तराखण्‍ड सरकार का ध्‍यान नही है।   लोग महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। वही राजय सरकार द्वारा खेती की जमीनों को सिडकुल के हवाले कर उन्‍हें बिल्‍डरों को बेचा जा रहा है। सब्जियों के आसमान छूते दामों पर कोई भी नियंत्रण कर पाने में राज्‍य सरकार असफल –

मुख्‍यमंत्री रहे या जाये, उन पर अब परस्पर विश्वास का संकट है, उत्‍तराखण्‍ड के हर वर्ग का वह विश्‍वास खो चुके हैं, स्‍थिति इतनी विकट है कि कांग्रेस हाईकमान जि‍तने घण्‍टे उनको सीएम पद पर बैठाकर रखेगी, उतना बडा नुकसान कांग्रेस को होगा, – भाजपा की चुनावी शंखनाद रैली से ऐन पहले उत्तराखंड मुख्‍यमंत्री ने राज्‍य के कई स्‍थानों में जाकर लोकलुभावन घोषणाएं कर जनता की तालियां बटोरी पर उन घोषणाओं का हश्र निरर्थक साबित हुआ, स्‍वयं मुख्‍यमंत्री भूल गये कि क्‍या घोषणा कहां पर की थी

उत्‍तराखण्‍ड के मुख्‍यमंत्री जनता की नब्ज पहचानने में विफल  रहे, साल 2013 भी असहनीय वेदना व जनता द्वांरा मुख्‍यमंत्री को कोसते हुए बीता, सड़कों का हाल यह रहा कि राजधानी तक की सभी सडके बदहाल हैं। मुख्‍यमंत्री द्वारा लगातार की गयी घोषणा भी हताश-निराश करने वाली साबित हुई, प्रदेश सरकार किसी भी मामले में गंभीरता नही दिखा पायी। राज्‍य की सामाजिक खुशहाली के लिए वह एक कदम भी नही चल पाये, एक से बढ़ कर एक घोषणाएं  कर चैनलों में विज्ञापन करोडों के बांटते रहे, जबकि धरातल पर कुछ नही था,  वह अपनी कार्यशैली तथा नौकरशाहों को जनहितकारी कार्यशैली की ओर उन्‍मुख ही नही कर पाये, जिससे उत्‍तराखण्‍ड हडताल प्रदेश जरूर बना दिया गया, मुख्‍यमंत्री जनता की बेहद गंभीर स्थिति को हमेशा नजरअंदाज करते रहे-  अलग माइनिंग फोर्स गठित करने फिर 24 घंटे के भीतर ही इसमें बदलाव किये जाने, और कुछ समय बाद सब कुछ टांय टांय फिस्‍स, यह तमाम बातें- सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए विजय बहुगुणा की साख पर सवाल खडे कर गये

उद्यमी पंचायत की ओर राज्‍य सरकार की कोई सोच नही, जिससे उद्यमी निवेश के लिए आगे आते तथा उनको लगता कि सरकार उनकी हर संभव मदद को तैयार है। यह संदेश दिया जाता कि पूंजी लगाने वालों को कम से कम जोखिम उठाना पड़ेगा। जबकि बिहार जैसे राज्‍य में उद्यमी पंचायत को एक संस्थागत स्वरूप दिया जा रहा है,  निजी निवेश के जरिए रोजगार के अवसर बढ़ाने की नीति के प्रति गंभीरता नही दिखा पायी राज्‍य सरकार।  राज्‍य सरकार को चाहिए था कि एक क्लैरिफिकेशन कमेटी बनाए, ताकि सरकारी नीतियों, संकल्प व अधिसूचना के संबंध में तमाम किस्म की शंकाओं का समाधान वह कमेटी कर सके परन्‍तु जिस ओर कोई ध्‍यान नही दिया गया। निवेश को प्रोत्साहित करने और देश के बड़े निवेशकों को आकर्षित करने के लिए प्रदेश सरकार के प्रयास असफल साबित हुए हैं। राज्‍य सरकार इसके लिए उचित माहौल भी तैयार नही कर पायी।

कांग्रेस नेतृत्व यह समझ रहा है कि कुछ बदलाव कर देने से स्थितियां बदल जाएंगी तो ऐसा होने वाला नहीं है। विजय बहुगुणा ने अपने मुख्‍यमंत्री पद पर रहते हुए वरिष्‍ठ नौकरशाह राकेश शर्मा के साथ भ्रष्‍टाचार की वह फसल बो चुके है जो कांग्रेस को त्रिस्‍तरीय पंचायत चुनाव तथा लोकसभा चुनाव में बहुत कुछ गंवाकर काटनी है।

उत्‍तराखण्‍ड में अब चिड़िया खेत चुग चुकी- सूबे के सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार की विष बेल बडी तेजी से अपनी जड़ें जमा चुकी है। अब सरकार में बदलाव से कुछ हासिल नहीं होने वाला। अब चिड़िया खेत चुग चुकी है। जब बदलाव करना चाहिए था तब तो कांग्रेस नेतृत्व ने किसी की सुनी नहीं और बहुगुणा को राज्‍य में भ्रष्‍टाचार को पोसने के लिए खुली संरक्षण दे दिया। अब सरकार में बदलाव लाकर माहौल बदलने का समय बीत चुका है। उत्‍तराखण्‍ड में कांग्रेस के हाथ से बाजी निकल चुकी है, त्रिस्‍तरीय पंचायत चुनाव तथा लोकसभा में कांग्रेस का सूपडा साफ होना तय माना जा रहा है-  मुख्‍यमंत्री की हाल की लोक लुभावन घोषणाओं का कितना असर हुआ, इसका प्रमाण इसी बात से लग जाता है कि राज्य में हर वर्ग हडताल पर आमादा है,

अब तो चिड़िया खेत चुग गई है

वरिष्‍ठ पत्रकार मनोज इष्‍टवाल ने लिखा है कि पहाड़ों से पलायन के सबसे बड़े दोषी दो पांच विभाग..
शिक्षा, पेयजल, विद्युत, बन और स्वास्थ्य..इन पाँचों के कारण प्रदेश के पहाड़ी गॉव खंडहर हो रहे हैं ..यहाँ की जवानी और पानी टिक नहीं पा रहा है. शिक्षा ने कमर तोड़ दी है..आज मजदूरी करने वाला व्यक्ति भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल की जगह प्राइवेट में पढ़वाना है..उसका कहना है कि आठवीं तक बिना कुछ पढ़े ही बच्चे को पास कर दिया जाता है जो उसके भविष्य के लिए प्रश्नचिन्ह है. पेयजल पाइपलाइन तो बिछी है लेकिन उसमें पानी नहीं है..प्राकृतिक स्रोत जायदातर सूख गए हैं…विद्युत मीटर २०० किमी० प्रति घंटे की रफ़्तार से भागते हैं..जैसे गॉव गॉव न होकर कारखाने हों. स्वास्थ्य अस्पताल हैं लेकिन स्टाफ नहीं है..

सबसे बड़ी चोट बन विभाग पहुंचा रहा है..खेती चौपट हो रही है. जंगली सूअर, भालू और बंदर घर के अन्दर पका खाना तक खा जा रहे हैं खेत बहुत दूर की बात है..मजाल क्या है कि कोई उन्हें मारने के लिए पत्थर भी उठा ले.

सबसे ज्यादा दूभर जिंदगी आदमखोर बाघ कर रहे हैं..गलती से कोई बाघ मर गया तो गॉव क्या पूरे इलाके पर केश दर्ज हो जाते हैं..ऐसे में प्रदेश सरकार पलायन रोकने पर चिंता व्यक्त करती है..सोचनीय मुद्दा है.

भाजपा की चुनावी शंखनाद रैली से ऐन पहले उत्तराखंड सरकार ने लोकलुभावन फैसलों की झड़ी से भले ही विभिन्न तबकों को साथ जोड़ने की कोशिश की हो, लेकिन इसके मूल में छिपा संदेश भी जग जाहिर हुआ है। ऐसा नहीं कि ये सब संयोग रहा, कांग्रेस सरकार ने बाकायदा होमवर्क करने के बाद ही ऐसा किया। जिन मुद्दों का समाधान कैबिनेट की इस बैठक में तलाशने की कोशिश की गई, वह ताजातरीन नहीं, बल्कि अर्सें से लंबित थे। इनसे जुड़े वर्ग अपने इस हक के लिए समय-समय पर आवाज भी बुलंद कर चुके थे। लेकिन, सरकार ने खास दिचलस्पी नहीं दिखाई।  नरेंद्र मोदी की उत्तराखंड में चुनावी शंखनाद रैली की विशालता देखकर भयभीत कांग्रेस ने भी अपने सियासी तरकस के तीर जमा करने शुरू कर दिए थे। चार राज्यों के  विधानसभा चुनावों के परिणाम भी उत्‍तराखण्‍ड कांग्रेस सरकार में कोई परिवर्तन लाने में नाकामयाब रहे। उत्तराखंड में आपदा के बाद के हालात पर राज्य सरकार ने खुद को जनता की नजर में संजीदा दिखाने की कोशिशें की पर इसमें सियासी लाभ ज्‍यादा तलाशा गया।  भाजपा की शंखनाद रैली से बारह घंटे पहले उत्तराखंड सरकार के तकरीबन चार दर्जन लोकलुभावन फैसलों को सियासी गलियारों में राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है।  बहुगुणा सरकार के फैसलों से यह संदेश गया कि जनता की पीड़ा कम और सियासी स्वार्थ ज्यादा रहते हैं।

केन्‍द्रीय मदद को इस्तेमाल करने में असफल रही राज्‍य सरकार

उत्तराखंड को आपदा से उबरने को केंद्र ने तकरीबन 7500 करोड़ की सहायता मंजूर की परन्‍तु  राज्य सरकार  केंद्र से मिलने वाली मदद को इस्तेमाल करने में असफल साबित हो रही है, इसका खामियाजा विजय बहुगुणा को नही कांग्रेस को भुगतना है। आपदा से प्रदेश को मिले गहरे जख्म  मरहम लगाने के लिए आपदा प्रभावित क्षेत्रों में पुनर्निर्माण कार्यो को तेजी से अंजाम दिया जाना जरूरी था परन्‍तु  आपदा आए छह माह गुजरने को है, लेकिन प्रभावित क्षेत्रों में जनजीवन पटरी पर नहीं लौट सका है।  आपदा पीड़ितों को राहत मुहैया का राज्‍य सरकार का वादा झूठा साबित हुआ तो पुनर्निर्माण कार्य रफ्तार नहीं पकड़ पाए।  पुनर्निर्माण कार्य होते तो उतनी ही तेजी से जनजीवन सामान्य होता परन्‍तु पुनर्निर्माण कार्यो को लेकर राज्य सरकार केंद्र की ओर टकटकी लगाए रही  विभिन्न केंद्रीय योजनाओं, बाह्य सहायतित योजनाओं और विशेष आयोजनागत सहायता के रूप में राज्य सरकार को यह सहायता राशि सेक्टरवाइज खर्च दी गयी। यह कार्य भी राज्य सरकार के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। विभिन्न मदों में दी गई इस सहायता का फायदा तब ही उठाया जा सकेगा, जब राज्य सरकार नियोजित और समयबद्ध ढंग से पुनर्निर्माण कार्यो को अंजाम दे। सरकार भले ही पुनर्निर्माण कार्यो को तेजी से करने का वायदा या दावा करे, आम जनता के लिए इस पर मुश्किल करना आसान नहीं है। सालाना बजट खर्च करने में ही सरकार नाकाम साबित हो रही हैं। ऐसी स्थिति में आपदा प्रभावित क्षेत्रों में पुनर्निर्माण के लिए मिलने वाली सहायता का सदुपयोग  ही राज्‍य सरकार का कर पाना मुश्‍किल है। प्लान मद में बजट खर्च की स्थिति खराब है। इस वर्ष भी बजट का बड़ा हिस्सा आखिरी महीनों में ही ठिकाने लगाया जाएगा। आपदा के लिए मिली अतिरिक्त मदद भले ही तीन वर्षो में इस्तेमाल की जानी है।  प्रभावित क्षेत्रों में ध्वस्त और बुरी तरह क्षतिग्रस्त सड़कों, पेयजल योजनाओं और बिजली आपूर्ति व्यवस्था दुरुस्त करने के अलावा  संपर्क मार्गो को बहाल करने में राज्‍य सरकार 6 माह बाद भी असफल साबित हुई है। आपदा के बाद से अब तक इस दिशा में बेहद धीमी गति से काम हुआ है। वही गौरतलब है कि राज्य सरकार अब धन की कमी का हवाला देकर जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती।  केंद्र ने भी उत्तराखंड के लिए 7346 करोड़ रुपये के आपदा राहत पैकेज को मंजूरी दे दी है परन्‍तु राज्य सरकार के सामने  उत्तराखंड के पुनर्निर्माण की मुहिम को तेजी से आगे बढ़ाने की चुनौती है। जिससे लम्‍बे समय तक आपदा प्रभावित क्षेत्रों में जिंदगी फिर से पटरी पर नही लौट पायी।

6 माह बाद भी ठोस निर्णय नही

-उत्तराखंड में दैवीय आपदा से बुरी तरह तबाह हो चुकी सड़कों, पुलों व संपर्क मार्गो के पुनर्निर्माण के लिए राज्य सरकार 6 माह बाद भी ठोस निर्णय नही ले पायी है। जिससे पहाड़ की ध्वस्त लाइफ लाइन को फिर से दुरुस्त करने की दिशा में राज्‍य सरकार की असफलता से चौतरफा असंतोष व्‍याप्‍त है। लोक निर्माण विभाग के 76 डिवीजन तथा  प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के क्रियान्वयन में भी विभाग के 19 डिवीजन 13 जनपदों वाले एक छोटे से सूबे के हालात को 6 माह बाद भी सुधार नहीं सके।  आपदा के बाद प्रभावित क्षेत्रों के पुनर्निर्माण की योजनाएं तैयार करने में सरकारी मशीनरी को  छह महीने से भी ज्‍यादा का लंबा वक्त लग गया, उसे देखते हुए विजय बहुगुणा के नेत़त्‍व में पुनर्निर्माण की मुहिम  पर उम्मीद करना ही जनता ने छोड दिया।  आपदा से तबाह हो चुके उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में क्षतिग्रस्त सड़कों का पुनर्निर्माण पहला व बुनियादी कदम था। आपदा से सर्वाधिक प्रभावित पांच पर्वतीय जिलों रुद्रप्रयाग, चमोली, टिहरी, उत्तरकाशी व पिथौरागढ़ में सड़कें तबाह होने की वजह से सैकड़ों गांव अब भी बाकी दुनिया से कटे हुए हैं। इन गांवों में  सड़कों को युद्व स्‍तर पर दुरुस्त किया जाना बेहद जरूरी है वही  चारधाम यात्रा व पर्यटन व्यवसाय पर समूचे प्रदेश की अर्थव्यवस्था टिकी हुई है, आपदा के बाद से ठप चल रही उस यात्रा व पर्यटन को सड़कों के पुनर्निर्माण के बगैर पुनर्जीवित किया जाना भी संभव नहीं है। आपदा प्रभावित क्षेत्रों में बेघर हुए परिवारों को छत मुहैया करानी हो या फिर खाद्यान्न, स्वास्थ्य, शिक्षा व पेयजल जैसी अन्य बुनियादी सुविधाएं देनी हों, तबाही के बाद दीर्घकालिक राहत की तमाम मुहिम सड़कों के रास्ते ही अंजाम तक पहुंच सकती हैं। ऐसे में पहाड़ की ध्वस्त लाइफ लाइन को दुरुस्त कराया जाना सर्वोच्च प्राथमिकता होना चाहिए था जिस ओर राज्‍य सरकार ने उदासीनता बरती है।

उत्‍तराखण्‍ड की आपदा हर बार भूला देते हैं राजनीतिज्ञ;

उत्तराखंड में बीते जून माह में आई केदारनाथ त्रासदी की गूंज सारे संसार में हुई। बड़ी संख्या में लोग इसमें हताहत हुए।  कई का आज तक भी पता नहीं। लेकिन, मारुति सुजुकी के पूर्व सीएमडी और कार्नेशन आटो के सीईओ जगदीश खट्टर की मानें तो 1970 में चमोली ने इससे भी बड़ी आपदा झेली थी। यह बात अलग है कि उस वक्त मीडिया का कोई बड़ा नेटवर्क नहीं था, लिहाजा वह गुम होकर रह गई।  खट्टर उस वक्त उत्तराखंड के चमोली में बतौर डीएम तैनात थे। संचार नेटवर्क के अभाव की वजह से उस वक्त रेस्क्यू आपरेशन में आई दिक्कतों के सवाल पर अलबत्ता बोले कि उस वक्त अधिकारी बेहतर तरीके से रेस्क्यू कर पाए थे, क्योंकि उनका पूरा फोकस प्रभावितों को राहत पहुंचाने पर था। मीडिया का बहुत फैलाव न होने से वह अपना काम सहजता से कर पाए।

पहाड़ की  त्रासदी बढती गयी

विजय बहुगुणा द्वारा उत्‍तराखण्‍ड के मुख्‍यमंत्री पद पर आसीन होने के बाद भी सूबे में बढ़ता पलायन, खाली होते गांव और बंजर जमीन- पहाड़ की यह त्रासदी बढती गयी।  पहाड़ में उद्योग धंधे लगाने में कांग्रेस सरकार सफल नहीं हो पायी।  पर्वतीय क्षेत्र में रोजगार के साधन विकसित नहीं किये जा सके वही आधारभूत सुविधाओं की ओर बिल्‍कुल भी ध्‍यान नही दिया गया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में तकरीबन चार लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खेती की जाती है, जबकि साढ़े तीन लाख हेक्टेयर जमीन या तो परती है अथवा कृषि योग्य बंजर जमीन है। शेष जमीन पूर्णतया बंजर है। यदि इस जमीन का सदुपयोग किया जाता तो खेती रोजगार का अच्छा जरिया साबित होता लेकिन इस दिशा में राज्‍य के मुखिया ने कोई गंभीर प्रयास की जरूरत महसूस नही की।  वैकल्पिक उपज को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार के स्तर पर कोई प्रयास नही किये गये वहीं नकदी फसलों को लेकर भी राज्‍य सरकार किसानों में अपेक्षित उत्साह नहीं जगा पायी। सगंध पादपों की खेती  में भारी मुनाफा है, इसके बावजूद इसको बढ़ावा नहीं दिया गया। राज्‍य सरकार पर्वतीय क्षेत्र के किसानों में भरोसा जगाने में और  पहाड़ में कृषि के पुनरोत्थान की ओर गंभीर ही नही रही है।

वरिष्‍ठ पत्रकार राजेन्द्र जोशी लिखते हैं कि  उत्तराखण्ड के पर्वतीय इलाकों में बर्फवारी शुरू हो चुकी है। इस बर्फवारी की सबसे ज्यादा मार आपदा प्रभावित क्षेत्रों में सबसे ज्यादा पड़ रही है। इन क्षेत्रों में ऐसे मौसम में जहां कुछ लोग आज भी तम्बूओं में रात गुजारने को मजबूर हैं, वहीं कुछ लोग गौशालाओं में रात गुजार रहे हैं। सरकार की ओर से आपदा प्रभावित क्षेत्रों के लोगों के पुर्नवास और पुर्ननिर्माण की बात खोखली साबित हुई है। वो तो भला हो प्रकृति का कि इस कड़ाके के सर्द मौसम के बाद भी इन क्षेत्रों में न्यूमोनिया भी कम होता है, अन्यथा मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान प्रभावितों को रखे गए शिविरों में अधिकांश लोग न्यूमोनिया के शिकार हो गए हैं।

आपदा प्रभावित क्षेत्रों में प्री-फैब्रिकेटेड भवनों की तो वहां काम कर रही एक कोआपरेटिव सोसायटी ने हवा निकाल दी है, क्योंकि जिस प्री-फैब्रिकेटेड भवन की लागत प्रदेश सरकार जहां पांच लाख रूपये बता रही थी, वह इस सोसायटी ने एक लाख 60 हजार रूपये में बनाकर दिखा दिया है। इससे यह अंदाजा लग सकता है कि प्रदेश सरकार एक प्री-फैब्रिकेटेड भवन में कितना घोटाला कर रही थी। यही कारण है कि अब प्रदेश सरकार ने पोल खुलने की डर से इन प्री-फैब्रिकेटेड भवनों की जगह आपदा प्रभावितों को नकद पांच लाख रूपये देने की घोषणा की है, लेकिन सरकार के सामने अब सबसे बड़ी समस्या यह आ खड़ी हुई है कि वह विश्व बैंक को क्या जवाब देगी।

बर्फबारी में कहा जाये आपदा प्रभावित

बर्फवारी की मार यूं तो समूचे प्रदेश में पड़ रही है, लेकिन कालीमठ क्षेत्र के कुंणजेती गांव के उन 65 परिवारों पर सबसे ज्यादा पड़ रही है, जिनके पास न रहने को घर और न मवेशियों के लिए गौशाला ही बची है। यह गांव आपदा के दौरान पूर्णरूप से ध्वस्त हो गया है। इस गांव में वर्तमान में 10 से 15 परिवार आज भी तम्बूओं में किसी तरह गुजर-बसर कर रहे हैं। वहीं इस गांव के कुछ परिवारों ने गौशालाओं में शरण ली हुई है, जहां आपदा प्रभावित और जानवर एक साथ रह रहे हैं। ठीक यही हाल सेमी गांव का भी है। चन्द्रापुरी में भी 15 से अधिक परिवार तम्बूओं में दिन गुजार रहे हैं। प्रदेश सरकार के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि उसकी ओर से आपदा प्रभावित क्षेत्र के लोगों के लिए अब तक क्या किया गया, क्योंकि न तो अभी तक आपदा प्रभावित क्षेत्र के लोगों के लिए सरकार द्वारा बनाए जाने वाले प्री-फैब्रिकेटेड भवन ही बन पाए हैं और न ही उनके लिए कोई और उपयुक्त स्थान का चयन ही किया जा सका है। एक जानकारी के अनुसार जब विश्व बैंक ने प्री-फैब्रिकेटेड भवनों के बारे में राज्य सरकार से पूछा तो प्रदेश सरकार के आलाधिकारियों ने प्रभावित ग्रामीण क्षेत्रों में पटवारी और तहसीलदार को भेजकर ग्रामीणों से जबरन यह समझौता पत्र लिखवाया कि वह पांच लाख रूपये को तीन किश्तों में लेने को तैयार हैं। प्रदेश सरकार और जिले के अधिकारियों की आपदा प्रभावित परिवारों के साथ दरिंदगी देखिए कि चन्द्रापुरी की एक महिला जो गौशाला में रह रही थी और जिसके मकान में मदांकिनी का रेत पत्थर भर गए थे, को आज तक मुआवजा नहीं मिला है। इस महिला को लोक संचार स्वायतः सहकारिता समिति ने एक लाख 60 हजार में वह मकान दिया है, जिसको प्रदेश सरकार प्री-फैब्रिकेटेड भवन के नाम से पांच लाख रूपये में आपदा प्रभावित क्षेत्र के लोगों को देने की घोषणा की थी। समिति ने यह मकान देहरादून के एक शिक्षण संस्थान से सहायता स्वरूप मिले रूपयों से तैयार किया है।

कुल मिलाकर प्रदेश के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में आज भी आपदा प्रभावितों की दुर्गती ही नजर आ रही है। इन छहः महीनों के बाद भी न तो उनके पास रहने का अपना मकान है और न पहनने के कपड़े। मवेशी और मानव दोनों एक साथ एक ही जगह रहकर अपने दिन काट रहे हैं, आपदा राहत के नाम पर तमाम स्वंय सेवी संगठनों और केंद्र सरकार द्वारा दिया गया पैसा कहां चला गया, यह तो किसी को नहीं मालूम, लेकिन आपदा प्रभावित आज भी 16-17 जून की उस तबाही के मंजर पर आंसू बहाते नजर आ रहे हैं।

 किसी लोककल्याणकारी राज्य में स्वास्थ्य एवं शिक्षा किसी भी सरकार की चिंता के केंद्र में होने चाहिएं, किंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा है कि ये दोनों ही महत्वपूर्ण क्षेत्र सरकार की प्राथमिकता से बाहर रहे हैं।

राज्‍य में जनता को विकास का इंतजार है तो राजनेता व नौकरशाह विकास के नाम पर जनता को गुमराह कर रहे हैं, सूबे का विकास अढाई दिन में चले अढाई कोस के समान है, सरकारी योजनाओं का लोगों को तभी लाभ मिल सकता है, जब शासन-प्रशासन चुस्त होता है। सरकार की चुस्ती से जहां व्यवस्थाएं पटरी पर रहती हैं, वहीं जनता को भी समय पर सुविधाएं मिलती हैं। जरा सी ढील होने पर व्यवस्था पटरी से उतर जाती है।

 उत्तराखंड में निवेश के नाम पर देहरादून जिले के त्यूणी और अल्मोड़ा के सोमेश्वर में सीमेंट फैक्टियों की स्थापना की आनन फानन घोषणा पर स्‍वयं कांग्रेस के वरिष्‍ठ नेता हरीश रावत ने चिंता जताई,  इसमें उत्तराखंड की परिस्थितियों के साथ ही पर्यावरण और स्थानीय हितों कोई ध्‍यान नही रखा गया जिससे सूबे में असंतोष व्‍याप्‍त हो गया। सूबे के  देहरादून जिले के त्यूणी और अल्मोड़ा के सोमेश्वर में सीमेंट फैक्टियों की स्थापना के निर्णय के समय यह भूला दिया गया कि पैंसठ फीसद वन भू-भाग वाला यह राज्य जैव विविधता के लिए मशहूर है। स्थानीय संसाधनों यथा जल-जंगल-जमीन को यहां के लोगों ने सींचा-पाला है। ऐसे में औद्योगिक विकास के नाम पर यहां की पारिस्थितिकी को तहस-नहस करने की कोशिशों को लेकर जनसामान्य का आक्रोशित होना लाजिमी है। गौरतलब है कि अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय लोहाघाट में तत्कालीन सरकार ने सीमेंट फैक्ट्री खोलने को मंजूरी दी थी। भारी प्रदूषण फैलाने वाले और कच्चे माल के लिए स्थानीय संसाधनों के भारी विदोहन वाले इस उद्योग से क्षेत्र की पहचान पर अस्तित्व का खतरा मंडराने की चिंता ने क्षेत्रवासियों को इसके विरोध में खड़ा किया और फिर सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े। इसी तरह सूबे के एक वरिष्ठ नौकरशाह की पहल से  देहरादून जिले के छरबा में शीतल पेय बनाने वाली नामी कंपनी के प्लांट के लिए ऐसी भूमि प्रस्तावित कर दी गई, जिसमें  हरा-भरा जंगल स्थापित  है। जनता के भारी विरोध पर यह मामला छह माह से ठंडे बस्ते में है। सूबे के उसी विशेष नौकरशाह ने अब सेब के लिए मशहूर त्यूणी और सूबे की सबसे उपजाऊ घाटी सोमेश्वर में एक नामी कंपनी की सीमेंट इकाइयों की स्थापना की घोषणा करने पर पर्यावरणविद् मुखर हुए हैं।

अवैध खनन पर चौंकाने वाली रिपोर्ट

अवैध खनन पर विजिलेंस टास्क फोर्स की कार्रवाई के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। विजिलेंस फोर्स ने कुमाऊं मंडल के तीन स्थानों पर कार्रवाई कर मात्र दस दिनों में 2.70 करोड़ रुपये का राजस्व वसूला है। यह  हैरत भरा इसलिए है क्योंकि पिछले एक साल में विभाग कुल दो करोड़ रुपये का राजस्व ही वसूल पाया था। समझा जा सकता है कि किस प्रकार खनन माफियाओं के दबाव के चलते सरकार को राजस्व का चूना लगाया जाता रहा। इस पूरे प्रकरण में विभागीय के साथ ही शासन की कार्यशैली पर भी सवालिया निशान उठने लगे हैं। विजिलेंस फोर्स ने जो काम महज दस दिन में किया, विभागीय कर्मचारी पूरे सालभर उससे काफी कम काम ही कर पाए। इससे यह भी जाहिर हो गया कि अवैध खनन पर रोक लगाने को सरकारी मशीनरी लंबे अरसे तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रही। विजिलेंस फोर्स ने जो रिपोर्ट शासन को सौंपी है उसमें भी विभागीय कर्मचारियों व खनन माफियाओं की साठगांठ का जिक्र किया गया है।

सूबे के नौकरशाहों के लचर रवैये से कांग्रेस को भारी नुकसान होना तय माना जा रहा है,  उत्‍तराखण्‍ड के नौकरशाहों के कामकाज करने का ढंग किस कदर लचर पूर्ण है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हाईकोर्ट द्वारा राज्‍य सरकार केखिलाफ आये फैसले पर मुख्यमंत्री द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एस एल पी दायर करने की बात ३ माह बाद भी हवा में रही  वही राज्य सरकार द्वारा ४० हजार नियुक्तियां किये जाने की घोषणा की है जिसमें आरक्षण दिया गया तो वह हाईकोर्ट की अवमानना होगा और अगर नहीं दिया गया तो राज्य सरकार को आंदोलनकारियों के कोप का भाजन बनना पडेगा। इससे उत्‍तराखण्‍ड के नौकरशाहों के लचर रवैये से सूबे में कांग्रेस को भारी नुकसान होना तय माना जा रहा है, राज्‍य में शीघ्र ही त्र्रिस्‍तरीय पंचायत चुनाव तथा लोकसभा चुनावों के मददेनजर राज्‍य सरकार के खिलाफ राज्‍य आंदोलनकारियों का गुस्‍सा फूट सकता है,  चन्द्रशेखर जोशी सम्पादक की रिपोर्ट के अनुसार दरअसल उत्तराखण्ड के हाईकोर्ट ने इस बात का संज्ञान लिया था कि राज्य आंदोलनकारियों की आड में राज्य सरकार अपने चहेतों को नौकरियां दे रही है। इसके बाद २६ अगस्त २०१३ को उत्तराखण्ड के हाईकोर्ट ने सरकार की उस नीति और नियम पर अगले आदेश तक रोक लगा दी थी जिसके तहत राज्य आंदोलनकारियों को दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण दिया जा रहा था। हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा था कि राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में १० प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण का लाभ देने की व्यवस्था बनाए रखने का सरकार प्रयास करेगी, हाईकोर्ट के आदेश प्राप्त होने के बाद उसका परीक्षण करवा कर सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दाखिल करने का निर्देश संबंधित महकमे को दे दिया गया है। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि विह अगले आदेश तक किसी भी सरकारी नौकरी में दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के तहत नियुक्तियां न करें। नैनीताल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बारिन घोष एवं न्यायमूर्ति सर्वेश कुमार गुप्ता की संयुक्त खण्डपीठ के समक्ष मामले की सुनवाई हुई थी। केस के अनुसार करूणेश जोशी बनाम राज्य सरकार में १० मई २०११ को हाईकोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि सरकार द्वारा राज्य आंदोलनकारियों को जो दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण दिया जा रहा है वह संविधान के अनुच्छेद १४ और १६ का उल्लंघन है। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया था कि वह सम्पूर्ण तथ्य कोर्ट के समक्ष रखें। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा राज्य आंदोलनकारियों को दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण दिया जा रहा था हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह अगले आदेश तक किसी भी सरकारी नौकरी में दस प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण के तहत नियुक्ति न दें। हाईकोर्ट द्वारा क्षैतिज आरक्षण पर लगायी गयी रोक दरअसल आरक्षण सीटों में ही आरक्षण को क्षैतिज आरक्षण कहा जाता है, इसमें किसी वर्ग के लिए अगर २७ फीसदी आरक्षण है तो उसमें से दस फीसदी सीटे क्षैतिज आरक्षण राज्य आंदोलनकारियों के लिए आरक्षण किया गया था।

माननीय उच्च न्यायालय द्वारा याचिका सं० ६७/२०११ में २८ अगस्त २०१३ को आदेश पारित किये हैं कि राज्य सरकार माननीय न्यायालय के समक्ष राज्य आन्दोलनकारी घोषित करने के मानक प्रस्तुत करें जब तक मानक प्रस्तुत नही किये जाते हैं राज्य आन्दोलनकारियों को आरक्षण दिया जाना सम्भव नही होगा। ऐसी अवस्था में चालीस हजार नियुक्तियों पर सरकार का निर्णय हवाई साबित हुआ है। यदि चालीस हजार नियुक्तियों की विज्ञप्ति जारी की जाती है तो सरकार माननीय न्यायालय के २८ अगस्त २०१३ के पारित आदेश के अनुसार राज्य आन्दोलनकारियों कों आरक्षण नही दे पायी थी। ऐसे में सरकार दोनो तरफ से असंमजस में है। या तो नियुक्तियां लम्बित रखी जाये या राज्य आन्दोलनकारियों को आरक्षण बगैर विज्ञप्ति जारी की जाये। ऐसी अवस्था में राज्य सरकार का रवैया बडा ढीला ढाला रहा  जिससे बेरोजगारों को एवं आन्दोलनकारियो को राहत नही मिल सकी।

चन्द्रशेखर जोशी सम्पादक की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखण्ड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों की आहट सुनाई देने लगी है तो वही लोकसभा चुनाव भी सन्निकट है। ऐसे समय में राज्य आंदोलनकारियों के खिलाफ आए हाईकोर्ट के फैसले को राज्य सरकार के लिए नुकसान माना जा रहा है। उत्तराखण्ड गठन के बाद से सूबे में सरकारी नौकरियों में राज्य आंदोलनकारियों को १० प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है। जिस पर १३ साल बाद हाईकोर्ट ने रोक लगाकर विजय बहुगुणा सरकार के लिए मुश्किलें बढा दी हैं। वही राज्य सरकार ने 4 महीने बाद सुप्रीम कोर्ट में एस०एल०पी० दायर तो की परन्‍तु वह भी अनमने ढंग से, जिसका दूरगामी असर पडना तय माना जा रहा है।

-केदारनाथ में 5  माह बाद भी लाशे निकलती रही है, केदारनाथ में मरने वालों की तादाद कितनी जयादा रही होगी, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है  इस दौरान उस क्षेत्र में राज्‍य सरकार अनेक कार्यक्रमों करवा चुकी है, पूरी सरकारी मशीनरी झोंकी गयी , परन्‍तु फिर भी शव मिलते रहे हैं, इसकी विभिषिका का अंदाजा लगाया जा सकता है, जहा परिवार के परिवार खत्‍म हो गये वही सरकारी पक्ष का प्रयास यही रहा कि विभिषिका को किस तरह कम से कम दिखाया जाएा

उत्तराखंड सरकार आपदा प्रभावित क्षेत्रों में पुनिर्निर्माण की दिशा में तेजी से कार्य करने का दावा जरूर रही है, लेकिन सूरतेहाल सब कुछ सरकारी अंदाज में ही घिसट रहा है। आपदा की सर्वाधिक मार केदारघाटी ने झेली। यहां आई जल प्रलय ने जो जख्म दिए, उनकी भरपाई शायद ही कभी हो पाए।  आपदा प्रभावित क्षेत्रों में जीवन के लिए फिर से पटरी तैयार करने के जो दावे सरकार ने किये थे वह छह महीने तक पूरे नही हो पाये, अभी उनका धरातल तक तैयार नहीं हो पाया। सहज ही समझा जा सकता है आपदा प्रभावित किस हाल में जीवन की डोर को आगे सरकार रहे होंगे। दरअसल, वातानुकूलित कमरों में केदारघाटी में पुनर्निर्माण की बातें जोर शोर से होती रही  पर सच की तरफ किसी को झांकने की शायद किसी को फुर्सत नहीं है। आपदा ने जिन हजारों लोगों के सिर से छत छीन ली, जिनके खेत-खलिहान बोल्डरों में तब्दील हो गए, उनमें से अधिसंख्य अभी भी नाते-रिश्तेदारों के घरों में शरण लिए हुए हैं। इन छह महीनों में सरकार उन्हें एक अदद छत तक नसीब नहीं करा पाई। आपदा ने समूची केदारघाटी का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक ताना बाना ध्वस्त कर दिया पर इसको लेकर सरकार बेपरवाह सी बनी हुई है। लोगों के सामने दो जून की रोटी का संकट गहराया और सरकार ने इस ओर उपेक्षा का रूख अपनाया। शीतकालीन कपाटबंदी से पहले सरकार ने केदारनाथ मंदिर में केदार बाबा की पूजा जिन हालत और जिस उद्देश्य को लेकर कराई, वह किसी से छिपा नहीं है। होना तो यह चाहिए था कि केदारघाटी में ध्वस्त बुनियादी तंत्र को जल्द से जल्द बहाल किया जाता, ताकि प्रभावितों के मन में जीने की आस जग सके। प्रभावित निराशा के भंवर से बाहर निकलने की कोशिश करें, मगर हुआ इसके ठीक उलट। सरकार अभी तक आपदा प्रभावितों को ठीक से यह अहसास भी नहीं करा पाई कि वह पुनर्निर्माण को लेकर संजीदा है। सुस्ती का आलम ये कि आपदा में मारे गए या लापताउत्तराखंड मूल के सभी लोगों के परिजनों को अब तक डेथ सर्टिफिकेट जारी नहीं किए जा सके। पुनर्निर्माण कार्यो की डीपीआर भी सरकारी रास्तों में उलझी हुई है। केदारघाटी के साथ ही प्रदेश के दूसरे आपदा प्रभावित इलाकों के हालात भी कमोबेश यही हैं। ऐसे में प्रभावितों का हौसला टूटना लाजिमी है। सर्दियों में पर्वतीय क्षेत्रों मे बर्फबारी के कारण निर्माण कार्य वैसे ही प्रभावित रहते हैं, जाहिर है कि अगले तीन महीनों तक शायद ही पुनर्निर्माण की मुहिम अपेक्षित गति पकड़ पाए। सरकार  आपदा पीड़ितों का दर्द समझकर व पुनर्निर्माण के प्रति गंभीरता नहीं दिखा पायी जिससे कांग्रेस सरकार के प्रति निराशा बढती गयी।

बजट को खर्च करने में उदासीनता

प्रदेश की सालाना योजना के आकार को बढ़ाने में सरकार जितनी मशक्कत करती है, उतनी ही उदासीनता बजट खासकर प्लान मद के बजट को खर्च करने में दिखाई जा रही है। यह अफसोसनाक है। यह रवैया जनता के साथ किसी छल से कम नहीं है। सालाना योजना को लुभावना बनाने की कवायद कागजों तक ही सीमित हो रही है। जनता को अपेक्षा के अनुरूप लाभ नहीं मिल पा रहा है। प्लान मद के जिस बजट पर प्रदेश में आधारभूत अवसंरचनाओं के विकास और विस्तार का दारोमदार है, उस मद में बेहद कम धनराशि का इस्तेमाल सरकार की दूरदर्शिता पर भी सवालिया निशान लगाता है। इस वित्तीय वर्ष के 9 माह गुजरने पर भी तमाम सरकारी महकमे प्लान मद में 25 फीसद धनराशि खर्च नहीं कर सके। जन सेवा और बुनियादी विकास से जुड़े कई महकमों का बजट खर्च में सुस्त प्रदर्शन चिंताजनक तो है ही, प्रदेश को विकास की दौड़ में पीछे खींच रहा है। राज्य बने हुए 13 साल गुजर चुके हैं, लेकिन बजट के गुणवत्तापरक खर्च को लेकर हालात बेहतर नहीं हुए।  बजट का बड़ा हिस्सा बगैर इस्तेमाल पड़ा है। पिछले कई वित्तीय वर्षो से यही स्थिति है। बजट खर्च पर यह रवैया आपदा से कम नहीं है। इस वर्ष आपदा से गहरे जख्म मिले हैं। इन जख्मों से उबरने को जरूरी है कि आपदा प्रभावित क्षेत्रों समेत राज्य के विभिन्न हिस्सों में पुनर्निर्माण और बुनियादी ढांचा दुरुस्त करने की दिशा में तेजी से प्रयास किए जाएं। इसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति के साथ युद्धस्तर पर काम की आवश्यकता है। इस नाजुक मौके पर भी प्लान मद के बजट के सदुपयोग को लेकर जिस गंभीरता से काम होना चाहिए, उससे मुंह ही फेरा जा रहा है। नतीजतन आपदा प्रभावित क्षेत्रों में पुनर्निर्माण और विकास की न तो तात्कालिक और न ही दीर्घकालिक रणनीति सामने आ सकी। कृषि, ग्राम्य विकास, शहरी विकास, समाज कल्याण, तकनीकी शिक्षा, उच्च शिक्षा, सिंचाई, लघु सिंचाई, स्वास्थ्य, पेयजल, पर्यटन व ऊर्जा जैसे महत्वपूर्ण महकमे प्लान बजट को खर्च करने में जन अपेक्षाओं पर खरे नही उतर रहे।  चालू वित्तीय वर्ष के आखिरी महीनों में बजट ठिकाने लगाने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं।  जनता  परेशानहाल है और दूरदराज एवं ग्रामीण इलाके लंबे अरसे बाद भी पिछड़ेपन के शिकार हैं लेकिन प्रदेश के नौकरशाह बजट का सदुपयोग ही नही कर पा रहे हैं। ऐसे में जनता में रोष लगातार बढ रहा है। राज्‍य सरकार द्वारा एक के बाद एक लुभावनी घोषणाएं तो की तो जा रही हैं, लेकिन उन पर ठोस अमल को लेकर कार्ययोजना या रणनीति बनाने की फुर्सत नीति निर्धारकों को नहीं है। इससे कार्मिकों से लेकर जनता में असंतोष अस्वाभाविक नहीं है। एक ओर सियासी नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर काम करने की प्रवृत्ति, दूसरी ओर अधिकारों की जंग में दायित्व बोध की कमी के पाटों के बीच जनता पिस रही है।

राज्‍य सरकार के अकुशल नेत़त्‍व से  प्रदेश में आंदोलनों की झड़ी लग गई

राज्‍य सरकार के अकुशल नेत़त्‍व से  प्रदेश में आंदोलनों की झड़ी लग गई है।  लगातार आंदोलनों  से सरकारी कामकाज पर बुरा असर  पडा, शासन से लेकर जिला प्रशासन तक पूरा सरकारी तंत्र लाचार और असहाय स्थिति में रहा। इसका खामियाजा आम आदमी को भुगतना पडा। महकमों में कामकाज ठप , अस्पतालों में दवाओं के वितरण से लेकर तमाम जरूरी कार्य ठप्‍प्‍ रहा।  एक के बाद एक आंदोलनों की श्रृंखलाओं से सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े हो गये।  आपदा की भीषण तबाही झेलने के बाद  उत्तराखंड में सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल ने आम जनता की मुसीबतें बढ़ा दी जिस ओर राज्‍य सरकार का कोई ध्‍यान नही गया। सूबे की सरकारी मशीनरी पूरी तरह ठप होने का सबसे अधिक खामियाजा आम जनता को ही उठाना पडा।

कांग्रेस हाईकमान सर्वमान्‍य नेता को राज्‍य का नेत़त्‍व सौपे

नौ नवंबर 2000 को  भाजपा ने पहली अंतरिम सरकार बनाई और नित्यानंद स्वामी को पहले मुख्यमंत्री के रूप में चुना। उस वक्त भाजपा में स्वामी को मुख्यमंत्री बनाने का इस कदर विरोध हुआ कि साल गुजरने से पहले ही पार्टी नेतृत्व को झुकना पड़ा और मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपनी पड़ी भगत सिंह कोश्यारी को। हालांकि कोश्यारी को बतौर मुख्यमंत्री चंद महीने ही मिले और जनता ने भाजपा को पहले विधानसभा चुनाव में नकार दिया। 2002 में सत्ता में आई कांग्रेस ने भी इससे कोई सबक नहीं लिया। सत्ता हासिल होते ही मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए आलाकमान ने तत्कालीन नैनीताल सांसद नारायण दत्त तिवारी को आगे कर दिया तो उस समय के कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत के खेमे की ओर से जोरदार विरोध हुआ। हालांकि तिवारी अपने लंबे तजुर्बे के बूते पूरे पांच साल तक टिके रहे मगर इस दौरान कांग्रेस के भीतर का अंतरकलह चरम पर रहा, जिसने सरकार को स्थिर नहीं होने दिया। 2007 के विधानसभा चुनाव में जनमत फिर उलट गया और मौका मिला फिर भाजपा को लेकिन इतिहास खुद को दोहराने से नहीं रोक सका। भाजपा नेतृत्व ने तत्कालीन पौड़ी सांसद भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री तो बना दिया मगर उनकी राह निष्कंटक नहीं रही। नतीजतन, भारी खींचतान के बीच सवा दो साल बाद खंडूड़ी को बदल कर सरकार का नेतृत्व सौंप दिया गया डा. रमेश पोखरियाल निशंक को। सियासत के समीकरण फिर बदले और निशंक को भी भगत सिंह कोश्‍यारी व बीसी खण्‍डूडी का विरोध झेलना पड़ा तो भाजपा आलाकमान ने विधानसभा चुनाव से ऐन पहले उन्हें बदल कर सत्ता सौंप दी फिर भुवन चंद्र खंडूड़ी को। 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में सबसे बड़ी पार्टी होने पर जोड़-तोड़ कर सरकार तो बना ली मगर कांग्रेस नेतृत्व ने फिर किसी निर्वाचित विधायक की बजाए अपने एक सांसद पर ही भरोसा जताया। टिहरी के तत्कालीन सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया गया तो शुरुआत से ही उनकी मुखालफत आरंभ हो गई। 13 मार्च 12 को सरकार बनाकर बहुगुणा बतौर सीएम पौने दो साल का कार्यकाल पूरा कर चुके हैं लेकिन वह भी सूबे में स्थिर सरकार देने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। अगर राजनैतिक स्थिरता नहीं होगी तो स्वाभाविक रूप से इसका असर विकास पर भी पड़ेगा और यही इस राज्य में हो रहा है।  आम जनता उम्मीद कर रही है किकांग्रेस हाईकमान उत्तराखंड को  राजनैतिक रूप से स्थिरता देते हुए एक ऐसे सर्वमान्‍य नेता को राज्‍य का नेत़त्‍व सौपेगा जो राज्‍य के हर वर्ग को साथ लेकर विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ सकेगा।

;; तकरीबन अस्सी फीसद साक्षरता दर वाले उत्तराखंड में  अभी पर्यावरण हमारी प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है।   हरित राज्य के रूप में पहचान रखने वाला उत्तराखंड देश को ताजी हवा की आपूर्ति करता है। इसी आधार पर प्रदेश केंद्र सरकार से ग्रीन बोनस का दावा करता  रहा है।

 ‘उत्तराखंड में 12 जनपदों में त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों को लेकर राज्य सरकार का आधा-अधूरा होमवर्क सूबे के विकास की गति पर भारी पड़ सकता है।   पंचायत चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव होने हैं। परिणामस्वरूप पहले पंचायत और फिर लोस चुनाव की आचार संहिता के कारण आपदा प्रभावित उत्तराखंड में नए विकास कार्य बंद हो जायेगें। इस सबके आलोक में देखा जाए तो पंचायत चुनाव को लेकर राज्य सरकार की उदासीनता ही जिम्मेदार है। राज्य बने 13 साल हो चुके हैं कि पंचायत चुनावों में अभी तक एकरूपता नहीं आ पाई है। हरिद्वार जनपद और बाकी जनपदों में पंचायतों का कार्यकाल बराबर करने की दिशा में अभी तक कोई पहल नहीं हो पाई है। यही वजह है कि हरिद्वार में पंचायतों का कार्यकाल अभी खत्म नहीं हुआ है, जबकि बाकी जनपदों में कार्यकाल खत्म होने के बाद इनके लिए चुनाव की कसरत शुरू की जा रही है। लेकिन, इन 12 जनपदों में भी पंचायत चुनाव को लेकर सरकार की कार्यशैली सवालों के घेरे में आ गई है। पंचायतों का कार्यकाल खत्म होने से पूर्व निवर्तमान पंचायत प्रतिनिधियों को प्रशासक बनाने की बात कही गई। इससे बनी गफलत का ही नतीजा रहा कि कई जनपदों के जिलाधिकारियों को शासन से मार्गदर्शन तक मांगना पड़ा। फजीहत होने के बाद आखिरकार पंचायतों के प्रशासकों की जिम्मेदारी अधिकारियों को सौंपी गई। इसके बाद पंचायतों के निर्वाचन कार्यक्रम को लेकर भी सरकार को कदम पीछे खिसकाने को विवश होना पड़ा है और इसके लिए भी उसकी कार्यप्रणाली जिम्मेदार है। जब सरकार को मालूम है कि चुनाव से पहले सीटों का आरक्षण तय होना है तो इसके लिए वक्त पर सर्वे का कार्य पूरा क्यों नहीं कराया गया। ठीक है कि राज्य कर्मचारी तब हड़ताल पर थे, लेकिन इसका समाधान निकालना और हड़ताल के लंबी खिंचने पर वैकल्पिक व्यवस्था सुनिश्चित कराना भी तो सरकार का ही दायित्व था। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अब जल्द होमवर्क पूरा कर लेगी। साथ ही उसकी कोशिश यह भी होनी चाहिए कि आपदा प्रभावित सूबे के विकास की गति मंथर न होने पाए। खासकर पुननिर्माण से जुड़े कार्य प्रभावित न हों, इसके लिए उसे गंभीरता से कदम उठाने होंगे।

पीड़ित आज भी कराह रहे

 उत्‍तराखण्‍ड के राज्‍यपाल ने यह आहवान  किया था कि बदहाली को जिम्मेदार नेताओं के खिलाफ हो बगावत, वही धारचूला थाने के निकट भोटिया पडाव में आपदा पीडतों के साथ बैठे जगत मर्तोलिया का कहना है कि मुख्यमंत्री के भीतर आपदा प्रभावितो के सवालो का जबाब देने पर नैतिक साहस नही था इसलिये उन्हे जेल भेजकर आन्दोलनकारियो के लोकत्रात्रिक अधिकारो का हनन किया गया हैं। पुर्नवास, मुआवजा वितरण, नदी किनारे स्थित गांवो के सुरक्षा सहित जिन १५ सवालो को हमने उठाया था उस पर मुख्यमंत्री ने कोई ध्यान नही दिया। यह वक्त जनजाति आयोग बनाने का नही था। आपदा प्रभावित परिवारो के लिये घर व गांव बनाने का था लेकिन मुख्यमंत्री ने आपदा प्रभावितो को पूर्ण रूप से निराश कर दिया हैं। आपदा के पांचवे माह श्‍रू होने के बाद भी मकान, जमीन, फसल, मवेशी का मुआवजा तक नही मिला हैं। और आपदा के लिये आन्दोलन करने वालो को दबाने व डराने का काम सरकार कर रही है जिसे बर्दाश्‍त नही किया जायेगा।

  पत्रकार विजेन्द्र रावत लिखते हैं कि -उत्तराखंड की भीषण आपदा में वहां के लोगों के बीच डेरा जमाने के बजाये दिल्ली के चक्कर काटने के कारण मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा उत्तराखंड के हीरो बनने से चूक गए. जहां के गांवों में हजारों बच्चे, महिलायें व बुजुर्ग आपदा के घिरे थे यदि बहुगुणा उनके बीच डेरा डालकर उन्हें ढाढस बंधाते तो प्रशासन का पूरा अमला जी जान से उनके पीछे खड़ा होता। इतिहास गवाह है कि जो राजा युद्ध में अपनी सेना का नेतृत्व करके आगे बढ़ा जीत ने उनके कदम चूमे और जो शासक खुद बख्तर बंद आवरण में बैठकर जीत की राह ताकते रहे वे हमेशा निराश ही हुए. हिमालयी आपदा ने पूरे देश को झकझोर दिया जिससे पूरे देश ने दिल खोल कर जख्मी उत्तराखंड पर मरहम लगाने के लिए मदद की पर उत्तराखंड सरकार उस मदद को संभालने व उसे अंतिम पीड़ित तक पहुंचाने में आंशिक रूप से ही सफल रही यही कारण है उत्तराखंड में दूर दराज के गांवों में पीड़ित आज भी कराह रहे है।

——-पुनर्निर्माण नीति में जुगाड़बाजी——-

. अपने घर से उजड़ों को कंपनी द्वारा बनाए गए प्री फेब्रीकेटेड (रेडीमेड) घरों में कैसे बसाया जाए सरकार की पूरी ताकत इस बात पर लगी है. दो कमरों वाले इन घरों की कीमत   6 लाख रुपये हैं. ये घर पहाड़ की आर्थिकी व सामाजिक परिवेश के अनुकूल नहीं है क्योंकि इसमें पशु आदि रखने की कोई व्यवस्था नहीं है जबकि गाँव में नीचे के तल पर सभी के अपने गाय,बैल व भैंस आदि पाले जाते हैं. लोगों ने विरोध किया तो उन्हें कहा गया कि जो इन घरों में नहीं रहना चाहता उसे चार लाख रुपये दिए जायेंगे जिसे अब और अधिक विरोध पर पांच लाख रूपये किया गया है.

पीड़ितों की मांग है कि वे खुद पहाड़ के अनुकूल अपने मकान बनाना चाहते हैं. पहाड़ों से हर रोज सैकड़ों ट्रक वन निगम की लकड़ी मैदानों में आती है उन्हें इस लकड़ी को रियायती कीमत पर मुहैया किया जा सकता है जिससे वे अपने परम्परागत भूकंप रोधी मकान बना सकें।

लोग अपने मकान खुद बनायेंगे तो स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा होंगे। इसलिए इन्हें प्री फेब्रिकेटेड मकानों की तुलना में ज्यादा राशि मिलनी चाहिए। पर सरकार का गुप्त एजेंडा कंपनी को प्रमोट करने का है.
वही दूसरी ओर आपदा के दौरान अपने प्रचार के लिए बहुगुणा सरकार ने चैनलों पर खबरों को विज्ञापन के रूप में चलाने में अब तक 24 करोड़ से ज्यादा फूंक दिए हैं, इससे नाराज होकर उत्तराखंड की आपदा में सबसे बड़े सहयोगी उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार ने मदद रोक दी और मीडिया के सामने आकर कहा कि वे आर्थिक मदद उत्तराखंड के आपदा पीड़ितों के लिए दे रहे हैं उसका उपयोग बहुगुणा अपनी छवि सुधार में करे यह उनको मंजूर नहीं है!

इसके अलावा मुख्‍यमंत्री ने एक रात भी नहीं काटी पीड़ितों के बीच , इतिहास की सबसे बड़ी हिमालयी आपदा से पीड़ित लोगों के बीच उनके मुखिया बहुगुणा ने एक रात भी नहीं काटी। वे पूरी आपदा के दौरान पीड़ितों के बीच जाने से कन्नी काटते दिखे। वे ही नहीं इसमें लगभग सभी नेता असफल रहे जो नेता पीड़ितों के बीच दिखे भी उनका मक्सद पीड़ितों के जख्मों से मरहम लगाने से ज्यादा मीडिया में सुर्खियाँ बटोरना रहा।

;;  बीते जून में दैवीय आपदा से उत्तराखंड में जो भीषण त्रासदी हुई, उसमें न सिर्फ हजारों जिंदगियां तबाह हुई, बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था को भी गहरे जख्म लगे हैं। चारधाम यात्रा पूरी तरह ठप होने की वजह से पर्यटन व तीर्थाटन व्यवसाय भी चौपट हो गया। पर्यटन सेक्टर से जुड़े स्थानीय व्यवसायियों के सामने भी बेरोजगारी के हालात पैदा हो गए हैं। ऐसी परिस्थितियों में जरूरत इस बात की थी कि सरकार व सरकारी महकमे आपदा प्रभावितों की मदद के लिए तात्कालिक व दीर्घकालिक योजना तैयार कर उन्हें अमलीजामा पहनाते। आपदा से उबरने की इस मुहिम में सरकार की भूमिका बेहद ही लापरवाही की रही  उससे राज्यवासियों में निराशा का वातावरण पैदा होना भी लाजिमी  था।

 असफल स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री

इस उदाहरण से वर्तमान स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री के कार्य करने का अंदाजा आपको हो जाएगा, पूववर्ती कांग्रेस सरकार के समय वर्ष 2006 में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी ने उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में जिला अस्पताल भवन का लोकार्पण किया था। तब आस जगी थी कि अस्पताल में मरीजों को सुविधाएं हासिल होंगी। लेकिन विशेषज्ञ डॉक्टरों के अभाव में यह अस्पताल रेफर सेंटर बन कर रह गया। छह वर्ष बाद तत्‍कालीन  स्वास्थ्य मंत्री के रूप में उन्‍होंने सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ऊखीमठ के भवन का लोकार्पण किया। लोग फिर आस लगाए बैठे हैं कि अब उन्हे इलाज के लिए भटकना नहीं पडे़गा। लेकिन लोग यह भी जानते हैं कि सिर्फ भवन खड़ा करने से कुछ नहीं होगा।

उत्‍तराखण्‍ड के दूरदराज क्षेत्रों में दवाईयां मिलती ही नही है, अगर मिल भी गई तो बहुत महंगी मिलती है और नकली होने की भी आशंका रहती है । डेंगू के बढ़ते प्रकोप को रोकने में प्रदेश की सरकारी मशीनरी जिस लापरवाह ढंग से खानापूर्ति करती नजर आई, उसने आम जनता के लिए सेहत की चिंता को और बढ़ा दिया है। डेंगू के डंक से राज्य में 45 से अधिक लोगों की मौत स्वास्थ्य महकमे तैयारियों व गंभीरता पर खुद ही सवाल खडे़ करती है। उत्तराखंड के लिए तंत्र की यह लापरवाही इसलिए भी बेहद चिंताजनक है कि यहां राज्य गठन के बाद से ही डाक्टरों की भारी कमी लगातार बनी हुई है। प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों के आधे से अधिक पद वर्षो से खाली पड़े हैं, जिसकी वजह से स्वास्थ्य सेवाएं पटरी पर नहीं आ पा रही। इसका सबसे अधिक खामियाजा पर्वतीय जनपदों के उन दुर्गम व अति दुर्गम इलाकों को भुगतना पड़ता है, जहां सेवाएं देने के लिए डाक्टर कतई तैयार नहीं। नतीजा यह कि दुर्गम क्षेत्रों के कई अस्पताल फार्मासिस्टों के भरोसे चल रहे हैं, तो कई अस्पतालों में ताले लटके हैं।  \

राज्य के जिन तराई जिलों में डेंगू का सर्वाधिक प्रकोप रहा,  स्वास्थ्य विभाग डेंगू के कहर को रोकने में पूरी तरह नाकाम नजर आया। साफ है कि इस नाकामी की वजह स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी नहीं, बल्कि सरकारी तंत्र में दायित्वबोध व गंभीरता की कमी है। कुछ ऐसी ही स्थिति बीते जून में दैवीय आपदा से हुई भीषण तबाही के बाद भी नजर आई, जब आपदाग्रस्त क्षेत्रों में संक्रमण व महामारी फैलने की आशंका पैदा हो गई थी। संक्रामक बीमारियों को रोकने के लिए राज्य के स्वास्थ्य महकमे के पास तब भी पुख्ता कार्ययोजना का अभाव साफ तौर पर नजर आया।   प्रदेश के कई हिस्सों में डेंगू के डंक ने लोगों में खौफ पैदा कर दिया है, हरिद्वार जिले में इससे काफी मौते हुई। सर्दियों में आपदा प्रभावित क्षेत्रों की दिक्कतें बढ़ गई हैं।  आपदा प्रभावित क्षेत्रों में जनजीवन को जल्द सामान्य बनाने के साथ ही गंभीर बीमारियों को थामने की युद्धस्तर पर कोशिशें नही की गयी।

6 माह बाद भी सड़कें  ध्वस्त,स्कूल बंद, बदहाल व दयनीय स्वास्थ्य सेवा; यह है उत्‍तराखण्‍ड सरकार

सूबे में भीषण प्राकृतिक आपदा को अब 6 महीने से ज्यादा वक्त गुजर चुका है लेकिन अभी भी हालात पूरी तरह सामान्य नहीं हो पाए हैं। सड़कें अब भी ध्वस्त हैं और स्कूल बंद। पहले से ही बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति बहुत ज्यादा दयनीय।  6 माह बाद भी प्रभावित आपदा के दंश से उबर नहीं पाए हैं। प्रभावितों की इस हालत के लिए सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती। एक ओर दावा किया जा रहा है कि सबकुछ ठीक है और दैनिक जनजीवन पटरी पर आ रहा है तो दूसरी ओर अभी तक गांवों तक पहुंचने के लिए सुगम यातायात की व्यवस्था न बन पाना इन दावों को आइना दिखाने के लिए काफी है। अगर केवल केदारनाथ घाटी को भी लिया जाए तो भी सरकार के पास यहां बताने के लिए बहुत कुछ नहीं है।

आज भी स्थिति यह है कि यहां भवनों में सैकड़ों शव दबे पड़े हैं। मलबा हटाने के लिए सरकार जियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया की रिपोर्ट का इंतजार कर रही है। छोटे स्कूली बच्चे खुले आसमान के नीचे पढ़ने को मजबूर हैं। गांवों में अभी भी विद्युत आपूर्ति बहाल नहीं हो पाई है। दो सौ से अधिक गांव अभी भी भूस्खलन के खतरे की जद में हैं। यह सारी स्थिति प्रभावित इलाकों की तस्वीर बताने के लिए काफी है। सर्दियां बढ़ने से राहत कार्य बंद कर दिये गये  हैं। इस कारण आपदा प्रभावितों को 6 माह बाद भी दोहरी मार झेलनी पड़ रही है। हालात यह हैं कि लोग पहाड़ों से पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं। अधिकारी चुपचाप यह सब देख रहे हैं। दरअसल, सरकार अभी तक धरातल पर पुरजोर तरीके से कार्यो को आगे नहीं बढ़ा पाई है। यहां तक कि शुरुआती दौर में राहत कार्यो के लिए चलाई गई मानिटरिंग व्यवस्था सुचारू रखने के लिए कोई इच्छुक नजर नहीं आता। इससे आमजन पिसा जा रहा है। इससे उसका आक्रोश भी बढ़ रहा है। सरकार  केवल कागज पर योजनाओं के घोड़े दौड़ा कर व चैनलों पर विज्ञापन बांट कर सोच रही है कि आल इज वेल। सरकार को चाहिए था कि आपदा राहत कार्यो को सर्दी का हवाला देकर बंद न कराए। जहां तक संभव हो कार्य कराए जाएं। यदि निर्माण संभव नहीं तो मौजूदा व्यवस्था को ही दुरुस्त कर प्रभावितों को राहत देने के लिए कदम उठाए जाते।

;;मुख्‍यमंत्री पद की शपथ लेते समय प्रतिज्ञा की जाती है कि पक्षपात रहित होकर काम करूंगा, यह शपथ विजय बहुगुणा ने भी ली थी परनतु उन पर लगातार पक्षपात होकर काम करने की चर्चा रही, पत्रकार विजेन्द्र रावत ने अपने एक आलेख में लिखा है कि मुख्‍यमंत्री विजय बहुगुणा अपने मकान मालिक पर मेहरबान हैं- सेवानिवृत अधिकारी को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देने की तैयारी की जा रही है तो  बत्ती का इंतजार करने वाले कांग्रेसियों में बेचैनी वही – विरोधी खेमा बहुगुणा को घेरने की तैयारी में  सेवानिवृत लेफ्टिनेंट जनरल एस.पी. बधानी उन कम भाग्यशाली मकान मालिकों में से एक है जिनके लिए किरायेदार भरपूर शौकात लेकर आया है. आखिर हो भी क्यों न, जब इलाहाबाद से आया कोई किरायेदार, सांसद से लेकर सूबे की सर्वोच्च कुर्सी पर आसीन हो जाए तो वह तो अपने मकान व उसके मालिक को अपने लिए शुभ मानेगा ही! यही कारण कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के मकान मालिक रहे बधानी ने जिस तेजी से सत्ता की सीढियां चढी उससे देहरादून का मकान मालिक तो क्या कांग्रेस में अपनी एड़ियां रघड़ने वाले घाघ नेता भी बधानी की किस्मत से जलने लगे हैं. बहुगुणा ने जनरल बधानी को पहले उत्तराखंड में आउट सोर्सिंग से नौकरियाँ बांटने वाले सबसे बड़े संगठन का अध्यक्ष बनाया और कुछ ही दिन बाद राज्य में आपदा आने पर उन्हें ही उत्तराखंड आपदा प्रबंधन समिति का उपाध्यक्ष नामित कर दिया। कुछ दिन भी नहीं बीते कि उन्हें समिति का अध्यक्ष बना दिया गया और अब मुख्यमंत्री सचिवालय में उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा देने की कवायत चल रही है. बधानी की इस प्रगति से कांग्रेस के वे विधायक व वरिष्ठ नेता खासे उत्तेजित हैं जो एक अदद लाल बत्ती पाने के लिए देहरादून से लेकर दिल्ली में सोनिया व राहुल सहित कई आला नेताओं के दरवाजों की परिक्रमा करके थक चुके हैं और उन्हें अब तक सिर्फ आश्वासन ही मिल रहे हैं.

कांग्रेस के विरोधी खेमे के एक बड़े नेता का कहना है कि उपनल और आपदा में बधानी ने ऐसे क्या तीर चलाये हैं जो पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा कर उन्हें प्रमोशन पर प्रमोशन मिल रहे हैं.

आपदा के बाद अब पलायन की सबसे बड़ी त्रासदी झेल रहा है .लोग बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं क्योंकि सरकार ने वहां रोजगार के कोई अवसर खड़े करने की योजना नहीं बनाई है.  स्थानीय युवाओं को भर्ती करने से भी सरकार कतरा रही हैं. सरकार आपदा प्रबंधन के लिए पुलिस वालों को लगाना चाहती है ताकि वे बैरकों में लेट कर आपदा का इंतजार करते रहें और जब दूर दराज की घाटियों में कोई आपदा आये तो खराब मौसम का हवाला देकर लोगों को मरने के लिए उनके हाल पर छोड़ दिया जाए! आपदा प्रबंधन के लिए उन्ही गांवों के युवाओं को तैयार दिया जाए इस सीधी सी बात को समझने के लिए बहुगुणा सरकार तैयार नहीं है.

आपदा के 6 माह बाद भी सुविधाएं बहाल नहीं

गोपेश्वर उत्त^राखंड के चमोली जिले की उर्गम घाटी में आपदा के 6 माह बाद भी सुविधाएं बहाल नहीं हो पाई हैं। घाटी में पैदल पुलिया, आम रास्ते, पेयजल योजनाएं और मोटर मार्ग अब भी क्षतिग्रस्त हैं। ऐसे में घाटी के लिए वाहनों की आवाजाही नहीं हो पा रही है। क्षेत्र में इन दिनों जंगली भालू, सुअर और गुलदार का आतंक बना हुआ है। मजबूर ग्रामीण डर के साए में अपने रोजमर्रा के कार्यों के लिए पैदल ही आवागमन कर रहे हैं।

 वहीं, उर्गम घाटी के समीप ही आपदा प्रभावित क्षेत्र डुमक, कलगोठ, पल्ला जखोला और किमाणा गांवों के ग्रामीण भी क्षतिग्रस्त पैदल रास्तों से ही आवागमन कर रहे हैं। 16/17 जून को हेलंग-उर्गम मोटर मार्ग कई जगहों पर अवरुद्ध हो गया था। जो अभी तक भी ठीक नहीं हो पाया है। 21 अक्तूबर को उर्गम गांव से अपने भाई की शादी में घाट ब्लॉक के सेंती गांव जा रही विजया देवी अपने दो बच्चों को लेकर 8 किमी पैदल चलकर हेलंग पहुंची। विजया का कहना है कि शासन-प्रशासन ने घाटी की ओर से मुंह फेर दिया है। देवग्राम के राजेंद्र सिंह नेगी का कहना है कि कल्प गंगा के बहाव से गांव के पैदल पुलिया और आम रास्ते क्षतिग्रस्त हो गए थे, जो अब तक दुरुस्त नहीं हुए हैं। डीएम ने मनरेगा के तहत गांवों में पैदल रास्तों को सुधारने का आश्वासन दिया था, लेकिन अब तक विकास खंड से इस ओर कोई कार्रवाई नहीं हो पाई है।

उर्गम घाटी के देवग्राम, बड़गिंडा, उर्गम, ल्यारी, सलना, गीरा, बांसा, भर्की, पिलखी, अरोसी और भेंटा गांवों के ग्रामीण पैदल आवाजाही कर रहे हैं। हेलंग-उर्गम मोटर मार्ग कई जगहों पर क्षतिग्रस्त है।

बैजरो पेट्रोल खरीदने के लिए आप कितना दूर जाते हैं, 4 किमी 5 किमी दूर या ज्यादा से जयादा 10 किमी के दायरे में अपना टैंक भरवा लाते हैं, लेकिन उत्तराखंड में एक जगह ऐसी भी है जहां लोगों को पेट्रोल भरवाने के लिए ही 100 किमी दूर जाना पड़ता है। विकास खंड बीरोखाल और उसके आस-पास के क्षेत्र के लोगों के लिए वाहन चलाना किसी मुसीबत से कम नहीं होता। हाल यह है कि क्षेत्र में वाहनों में पेट्रोल भरने के लिए कहीं कोई सुविधा नहीं है।

 पेट्रोल भरवाने के लिए लोगों को या तो रामनगर जाना पड़ता है या फिर कोटद्वार। ऐसा नहीं है कि क्षेत्र में पेट्रोल पंप नहीं है, पेट्रोल पंप तो है, लेकिन उसमें सिर्फ डीजल ही मिलता है।  इस क्षेत्र के लोगों के लिए तेल की कीमतों से ज्यादा तेल तक पहुंचना भारी पड़ता है। पेट्रोल भरवाने के लिए ही बाइक में औसतन 3 लीटर तेल मौजूद रहना चाहिए, जबकि कार में पेट्रोल की मात्रा कहीं ज्यादा बढ़ जाती है। क्षेत्र में सैकड़ों वाहन चलते हैं। जिसमें अधिकांश पेट्रोल से चलने वाले हैं। लेकिन लोगों को अपने वाहनों के लिए पेट्रोल जुटाने में तमाम दिक्कतें झेलनी पड़ रही हैं।  रोज मर्रा की तमाम जरूरतों को पूरा करने के लिए वाहनों का प्रयोग जरूरी हो जाता है, लेकिन तेल की किल्लत लोगों के सिर का दर्द बनती जा रही है।

——-एक गोपनीय पत्र ने सरकार की पोल खोली——-

उत्तराखंड के खुफिया प्रमुख का 14 जून को राज्य के सभी जिलाधिकारियों व पुलिस अधीक्षकों को एक गोपनीय पत्र भेजकर कहा था कि 15,16 व 17 जून को भीषण बारिश की चेतावनी दी गयी है जिससे यातायात व्यवस्था अस्तव्यस्त होने के अतिरिक्त भारी क्षति की आशंका व्यक्त की गई हैं इसलिए इसके लिए हर संभव उपाय कर लिए जाएँ। यह चेतावनी मौसम विभाग से निकलकर सरकार से होते हुए जिलों तक पहुँची बावजूद इसके प्रशासन ने बड़ी संख्या में चार धामों की ओर बढ़ने वाले यात्रियों को भी उनके ठिकानों पर रोकने का प्रयास नहीं किया जिससे आपदा से जनहानि और भी ज्यादा बढ़ी.

आपदा के बाद तीन-चार दिनों तक जब जंगलों में फंसे यात्री भूख,प्यास और ठण्ड से तिल -तिल कर दम तोड़ रहे थे तो सूबे के मुख्यमंत्री दिल्ली में वक्तव्य दे रहे थे कि मरने वालों की संख्या हजारों नहीं बल्कि मात्र कुछ सौ हैं ! वे आपदा पीड़ित लोगों के बीच जाने के बजाये दिल्ली- देहरादून के बीच हवाई चक्कर काटते रहे. यदि वे आपदा पीड़ित गांवों में डेरा डाल देते तो उत्तराखंड के इतिहास में हीरो बन जाते और जिनके दरवार में वे लोग चक्कर काटते मिलते जिनको मिलाने वे दिल्ली में घंटों नहीं कई दिनों इंतजार करते हैं.शायद वे अपने पिता स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा से जनता के दिलों में राज करने के गुर नहीं सीख पाए जिसका उन्हें जीवन भर मलाल रह सकता है.

आपदा के दो माह के बाद मैंने जब भारत के आख़िरी गाँव माणा के प्रधान से बात की तो उनका कहना था कि भले ही यहाँ आज तक सरकार का कोई कारिन्दा नहीं पहुंच सका हो पर ऊपर पहाड़ी पर चीनी सेना पत्थरों पर अपना दावा लिखकर चले गए हैं.

सरकार, उत्तराखंड में कैंसर बनी आपदा को सिर्फ मरहम लगाकर ठीक करना चाहती है जबकि इसके लिए बड़े आपरेशन की जरूरत है.…नहीं तो ऐसी आपदाओं की आशंका हर रोज लोगों को डराती रहेगी और एक दिन ये सुरम्य पहाड़ खाली हो जायेंगे।

 विजय बहुगुणा ने की राज्‍य की दुर्दशा

— उत्‍तराख्‍ण्‍ड  में बिजली की बढ़ती जरूरतों के सापेक्ष इसके उत्पादन में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाना, राज्य सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है।  वही सड़कें किसी भी राज्य की भाग्यरेखाएं होती हैं क्योंकि उन पर प्रदेश का विकास भी निर्भर करता है। इस बार देर तक चलने वाली बरसात भी लगभग बीत गई लेकिन भाग्यरेखाओं को मिले जख्म अब तक नहीं भरे। आपदा की व्यापक त्रासदी झेल चुके उत्तराखंड को जरूरी केंद्रीय मदद के बाद भी प्रभावित परिवारों के पुनर्वास को लेकर ठोस नीति सामने नहीं आ पाई। पुनर्वास के अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे पर   अब तक धरातल पर नहीं उतरा।   आपदा के प्रति अब बेहद संवेदनशील हो चुके गांवों और आबादी क्षेत्रों को अन्यत्र विस्थापित करने की प्रक्रिया समय रहते शुरू होनी चाहिए। राज्य सरकार ने काफी कसरत के बाद इस बाबत विस्तृत प्रस्ताव तैयार कराया, किंतु उसे अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। वर्तमान में सबसे पहले उन आपदा प्रभावित परिवारों को पुनर्वासित किया जाना है, जो आपदा में बेघरबार हो चुके हैं। इसके बाद आपदा के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को विस्थापित करने की सुध लेनी चाहिए थी। फिलवक्त आपदा में भवन ध्वस्त होने या उजड़ने से खुली छत के नीचे रहने को विवश परिवारों के लिए प्री-फेब्रिकेटेड आवास बनाए जाने प्रस्तावित हैं। यह कार्य काफी देर से शुरू हो पाया है। ऊंची पहाड़ियों पर बर्फबारी के साथ ही आपदा प्रभावित क्षेत्रों में ठंड बढ़ रही है। खुले में रहने वाले परिवारों को  छत नसीब नहीं हो पायी यह राज्‍य के मुखिया की नाकामी थी। आपदा के चलते कारोबार से हाथ धो बैठने वाले लोगों की संख्या भी काफी है। बेरोजगारी के कगार पर पहुंचे इन लोगों को जीवन यापन के साधन मुहैया कराने के लिए  मदद की दरकार है।

6 माह बाद भी सरकार कुछ भी नही कर पायी

–उत्तराखंड में दैवीय आपदा से हुई भीषण तबाही के बाद अभी तक सरकार कुछ भी नही कर पायी है। कुदरत के इस कहर से सबक लेते हुए भविष्य के लिए ऐसी ठोस कार्ययोजना की जरूरत महसूस की गयी थी जो उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्यों में पर्यावरण व विकास के बीच संतुलन बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो। राज्य योजना आयोग ने हाल में सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में भी ऐसी कई महत्वपूर्ण संस्तुतियां दी हैं। आयोग द्वारा पहाड़ी जिलों में गांवों को सड़कों की बजाय रोपवे नेटवर्क के जरिए जोड़ने का जो सुझाव दिया गया है, वह निसंदेह पर्यावरण व विकास के बीच संतुलन बनाने की दिशा में एक सार्थक विकल्प साबित हो सकता है।  पिछले कुछ दशकों में तीन-तीन बड़े भूकंप झेलने के बाद हाल की दैवीय आपदा ने प्रदेश ही नहीं, समूचे देश को झकझोर दिया। यह हकीकत भी किसी से छिपी नहीं है कि पहाड़ी जिलों में   सड़क निर्माण के दौरान होने वाली ब्लास्टिंग से पहाड़ की बुनियाद भी हिलने से भी आपदा के खतरे लगातार बढ़ रहे हैं। योजना आयोग द्वारा रोपवे नेटवर्क का विकल्प सुझाने के पीछे ऐसी तमाम आशंकाएं व चिंताएं छिपी हुई हैं।  आपदाग्रस्त उत्तराखंड के पुनर्निर्माण के लिए सरकार को और व्यापक रणनीति अपनाने की जरूरत है। आपदा में बेघर हुए लोगों के पुनर्वास व विस्थापन के साथ ही लकवाग्रस्त हो चुकी पहाड़ की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना भी बड़ी चुनौती हे। इसके लिए पर्यटन, तीर्थाटन व बिजली उत्पादन तीन प्रमुख स्रोत उत्तराखंड में उपलब्ध हैं, मगर यहां भी पर्यावरण व विकास के बीच संतुलन बनाने वाली ठोस रणनीति की जरूरत महसूस की गयी परन्‍तु बहुगुणा सरकार नाकाम साबित हुई।

विपदा में सरकार जनता के साथ नही होने का संदेश गया

उत्तराखंड में आपदा के पीड़ितों का दर्द कम नहीं हो रहा। सरकारी तंत्र उनके आंसू पोंछने की बजाय एक प्रकार से जख्मों पर नमक छिडकने का प्रयास कर रही है। किसी से छिपा नहीं है कि 6 महीने पहले उत्तराखंड में प्रकृति ने जो कहर बरपाया, उसकी भरपाई शायद ही कभी हो पाए। बड़े पैमाने पर जानमाल के नुकसान से प्रदेश स्तब्ध है। आशियाने उजड़ने से हजारों परिवार सड़क में आ गए तो सैकड़ों परिवारों के पालनहार आपदा ने लील लिया। वैसे तो चमोली, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी, टिहरी, उत्तरकाशी, चंपावत और रुद्रप्रयाग आपदा की मार झेली, लेकिन सबसे ज्यादा तबाही केदारघाटी के हिस्से आई। 6 महीने गुजरने को हैं, लेकिन आपदा प्रभावित क्षेत्रो में जीवन को पटरी पर लाने के अपेक्षित प्रयासों की खामी अभी तक दूर नहीं हो पाई। फौरी तौर पर सरकार ने जो कदम उठाए, उसका भी सड़कों के आसपास के प्रभावित गांवों को ही मिल पाया। दूर दराज के गांव अब भी सरकार की राह ताक रहे हैं। राहत कार्यो के नाम पर सरकारी तंत्र ने जिस अंदाज में काम किया, उस पर आमजन के साथ ही सत्ता के गलियारों में भी खूब बहस हो रही है। यह दीगर बात है कि इस सबके बावजूद सरकार आपदा प्रबंधन को बेहतर ढंग से अंजाम देने का दावा कर खुद ही अपनी पीठ थपथपाने से नहीं हिचक रही। लेकिन, सच किसी से नहीं छिपा है। अगर यूं कहे कि सरकार ने पर्वतीय क्षेत्र के लोगों पर कहर बनकर टूटी विपदा में पूरी तरह साथ खड़े होने की बजाय इससे किनारा लेने का प्रयास ज्यादा किया तो गलत नहीं होगा। ऐसे में खुद ही समझा जा सकता है कि आपदा पीड़ितों के आंसू भला कैसे थम सकते हैं। सरकारी तंत्र इतना संवेदनशून्य हो सकता है, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जानी चाहिए थी, पर ऐसा ही बर्ताव आपदा प्रभावितों के साथ कर रही है। तंत्र ने पहले तो प्रभावितों की भरपूर मदद करने से पल्ला झाड़ा और अब उन्हें दी सरकारी इमदाद भी वापस लेने की कोशिशें कर रहा है। केदारघाटी में प्रभावितों को आपदा राहत के रूप में दिए दो-दो लाख रुपये के चेक वापस मांगे जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि खाता खतौनी या जमीन की रजिस्ट्री प्रस्तुत करें, इसके बाद ही लोग राहत राशि के हकदार हो पाएंगे। दरअसल आपदा में कई परिवारों को सब कुछ तबाह हो गया, जबकि कुछ ने पट़टे की जमीनों पर आशियाने बनाए हुए थे, इन लोगों के पास जमीन का कागजात हैं ही नहीं, वो कहां से प्रमाण लाएं। राहत की राशि पात्रों को ही मिल, यह सुनिश्चित जरूर किया जाना चाहिए, मगर इसके लिए प्रभावितों के जख्मों को कुरेदकर नहीं। सरकार के पास अपना इतना बड़ा तंत्र है, जिसकी मदद से असल पीड़ितों का पता लगाया जा सकता है। सरकारी रेकार्ड से मिलान कर प्रभावितों की क्षति के बारे में जानकारी जुटाई जानी चाहिए। अगर सरकार इनके लिए विकल्प तलाशे तो न केवल प्रभावितों को राहत मिलेगी, बल्कि सरकार गड़बड़ी की आशंका को लेकर लगभग बेफिक्र रहेगी।

राज्‍य सरकार अपने  दायित्व निर्वहन में असफल रही

किसी भी राज्य के विकास का एक महत्वपूर्ण सूचकांक वहां उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाएं होती हैं। इन सुविधाओं का अर्थ यह नहीं है कि प्रदेश में कितने बडे़, क्षेत्रीय, नागरिक अस्पताल अथवा सामुदायिक चिकित्सा केंद्र या प्राथमिक चिकित्सा केंद्र हैं। सुविधाओं का मोटा अर्थ यह है कि मरीज को राहत कितनी देर में और कैसे मिली।

जून में आई आपदा के बाद से बंद चार धाम यात्रा को सरकार ने  साख बचाने के लिए किसी तरह शुरू तो कर दिया है   परन्‍तु आपदा के  दौरान लगभग तबाह हो चुके राष्ट्रीय राजमार्गो को पूर्व स्थिति में लाने में सफल नही हो पायी, पायी।   जोखिमभरे रास्तों पर बामुश्किल छोटे वाहनों से आवाजाही की।     हकीकत में देखा जाए तो सरकार ने प्रतीकात्मक रूप से चार धाम यात्रा शुरू कर देश को बरगलाने वाला संदेश दिया।   इस यात्रा से स्थानीय व्यापारियों और ग्रामीणों को ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। इतना जरूर है हुआ कि यात्रा के प्रचार प्रसार में करोडों रूपये अपव्‍यय कर दिये गये,  सरकार द्वारा मनोविज्ञान के जरिए मिली इस बढ़त को आगे नहीं बढा पायी, अपने प्रियजनों के साथ ही रोजगार और छत गंवा चुके लोग पूरी तरह से निराशा की गर्त में हैं। ऐसे में पुनर्वास के कार्यो को तेजी से गति देने की जरूरत थी।  शासन और प्रशासन में बैठे अधिकारी संजीदा तथा संवेदनशील नही बन पाये, शायद तभी सड़क, बिजली, पानी, स्कूल और अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाएं बहाल नही कर पाये । राज्‍य सरकार अपने इस  दायित्व में असफल रही कि किस तरह निराश लोगों में भरोसा जगाए।

–खाद्य व शिक्षा सहित स्वास्थ्य परिसेवा भी जनता को सहज ढंग से सुलभ कराना सरकार की जिम्मेदारी है। परन्‍तु सरकार अस्पतालों का  विस्तार ही नही कर पायी ।  सरकारी अस्पतालों व कई मेडिकल कालेजों में ढांचागत सुविधाएं ही मौजूद नही है,  निजी अस्पतालों का  दायरा जरूर बढ़ा है परन्‍तु निजी अस्पतालों में चिकित्सा महंगी है। गरीब की बात कौन कहे, निम्न मध्यवर्गीय लोगों के लिए भी निजी अस्पतालों में चिकित्सा का खर्च वहन करना संभव नहीं है।  सरकारी अस्पतालों की दशा में कोई सुधार नही है। सरकारी अस्पतालों में रियायती दर वाली दवा की  आम लोगों को नही मिल पाती है।  वही राज्‍य सरकार को  निजी अस्पतालों में   गरीबों के लिए बेड आरक्षित करने की नीति भी बनानी चाहिए थी  पर राज्‍य सरकार का इस ओर ध्‍यान नही है,   गरीबों को मुफ्त चिकित्सा की व्यवस्था की ओर तो विजय बहुगुणा सरकार की कोई सोच ही नही है।  निजी अस्पतालों में गरीबों के लिए बेड  आरक्षित कराने की बात तो बहुत दूर की बात है।

ज्ञात हो कि बड़े निजी अस्पतालों को राज्‍य सरकार से मुफ्त जमीन भी मिली और कई तरह की सुविधाएं भी चिकित्सा सेवा के नाम पर वे उठाते हैं।  अस्‍पताल का कचरा के अलावा हाउस टैक्‍स व वाटर टैक्‍स सभी में रियायत की सुविधा वह राज्‍य सरकार से लेते हैं परन्‍तु बदले में वे गरीबों को मुफ्त चिकित्सा की नीति बनायी जानी चाहिए थी जिस ओर विजय बहुगुणा सरकार की कोई सोच ही नही हैा

स्वास्थ्य क्षेत्र में राज्य सरकार का हर दावा भोर के तारे जैसा होता है, वास्तविकता का थोड़ा सा उजाला उसे गायब कर देता है। बात हर व्यक्ति तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने की हो, महिलाओं, बच्चों को एनीमिया से मुक्ति दिलाने या सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी दूर करने की हो, कोई दावा हकीकत में नहीं बदलता नहीं दिखाई दिया। सर्वेक्षण से सच्चाई सामने आ रही है कि चिकित्सकों की कमी से राच्य में जच्चा-बच्चा मृत्यु दर बढ़ रही है। पर्वतीय क्षेत्रों  में स्थिति सबसे खराब है।  यह मुद्दा सरकार की प्राथमिकता में ही नही रहा है,    विजय बहुगुणा सरकार आने के करीबन पौने दो साल बाद भी  स्वास्थ्य सेवाओं का आधारभूत ढांचा तैयार नहीं हो पाया। बाल एवं शिशु मृत्यु दर में कमी लाने तथा  चिकित्सकों के पद भरने के लिए  तथा सरकारी अस्पतालों की छवि बदलने पर की ओर सूबे के स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री ने कभी मंथन  ही नही किया। दवाओं और अन्य चिकित्सा सुविधाओं के अभाव के चलते आम जन का विश्वास  कांग्रेस सरकार से लगातार उठता चला जा रहा है।

;;उत्‍तराखण्‍ड में भ्रष्‍टाचार ही भ्रष्‍टाचार चारोओर

मानव सभ्यता की सबसे बड़ी खासियत शायद यही है कि वो इतिहास से सबक लेकर भविष्य को सुरक्षित बनाती है। लेकिन उत्तराखंड में सिस्टम इस सबक पर नजर डालने से बच रहा है। सिस्टम पर लगी भ्रष्टाचार की दीमक मानवीय संवेदनाओं की नींव भी खोखली कर चुकी है। शायद यही वजह है कि उत्तरकाशी की असी गंगा घाटी में बाढ़ सुरक्षा कार्यो के तहत बनायी जा रही दीवारों की नींव में कंक्रीट की जगह मिट्टी और रेत मिली और यह सच सामने आया जांच के लिए पहुंचे गढ़वाल के मंडलायुक्त के सामने। असी गंगा और भागीरथी ने दो अगस्त 2012 की आधी रात को जो घाव दिए, सिस्टम की ‘कारस्तानी’ से वे नासूर बन चुके हैं। लाखों जिंदगियां बचाने के नाम पर 66 करोड़ रुपये खर्च हो गए और नतीजा निकला भयावह। सुरक्षा के नाम पर खड़ी की जा रही दीवारों की खोखली नींव स्थानीय लोगों में सुरक्षा का कितना भाव उत्पन्न कर पाएगी, कहने की आवश्यकता नहीं है। यह सरकारी विभागों पर आम जन का ‘भरोसा’ ही है कि उत्तरकाशी में लंबे समय से बाढ़ सुरक्षा कार्यो में अनियमितता का आरोप लगाते हुए लोगों समय-समय पर सड़कों पर उतर रहे हैं। कई बार प्रशासन से शिकायत के बाद शासन की पहल पर कमिश्नर ने जांच शुरू की तो साबित हो गया कि आम आदमी की आशंका निर्मूल नहीं थी। यह हाल उस प्रदेश का है जहां दैवीय आपदाओं से चोली दामन का साथ है। जून में आई प्राकृतिक आपदा से प्रदेश के चार जिले रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ के अलावा पहाड़ के दूसरे जिलों में नुकसान हुआ है। सरकार भले ही योजनाएं बनाकर लोगों को राहत देना चाहती हो, लेकिन क्रियान्वयन की हकीकत किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि केदारनाथ त्रासदी के पुनर्निमाण के नाम पर पीड़ितों को कैसी राहत दी जा रही होगी। अकेले केदारघाटी ही नहीं, उन सभी प्रभावित जिलों में भी स्थिति इससे अलग नहीं है

;; प्रदेश में पिछली भाजपा सरकार के कार्यकाल में विधानसभा से पारित और इसी सितंबर में राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित लोकायुक्त एक्ट को लेकर चल रही सियासत प्रदेश की सेहत के लिए ठीक नहीं कही जा सकती। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए राष्ट्रपति की ओर से हस्ताक्षरित बिल को  राजनीति की बिसात पर  आगे सरकाया जा रहा है।  इस एक्ट को विधायकों के पास पढ़ने और मंथन के लिए नहीं भेजा गया। हालात ये हैं कि अभी भी प्रदेश के अधिकांश विधायक इस एक्ट से पूरी तरह वाकिफ नहीं हैं। उन्हें केवल इस बात की जानकारी है कि यह एक्ट भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए बनाया गया है और लोकायुक्त जो भी होगा वह बहुत शक्तिशाली होगा तथा सरकार के नियंत्रण से बाहर होगा। इसके अलावा एक्ट में क्या व्यवस्था दी गई हैं, इसकी जानकारी लेना भी कोई उचित नहीं समझ रहा है। बावजूद इसके इस एक्ट पर शुरुआत से ही जिस प्रकार की बयानबाजी हुई उससे स्पष्ट है कि लोकायुक्त एक्ट को लेकर गंभीरता कम और राजनीति ज्यादा हो रही है।

महिलाओं को राज्‍य सरकार सिर्फ कागजी नारे ही देती रही

;; नारी शक्ति को जिम्मेदारी और अधिकारों को देकर ही समाज में सकारात्मक बदलाव आता है।  नारी सशक्त होगी, वहां विकास की लौ भी अवश्य पहुंचेगी। यह दुखद है कि उत्‍तराखण्‍ड प्रदेश में महिलाओं को राज्‍य सरकार सिर्फ कागजी नारे ही देती रही। यह लोकतंत्र के लिए भी दुखद स्थिति है। बेहतर शिक्षा व अन्य सुविधाएं राज्‍य सरकार नही दे पायी हैं।  यहां महिला शोषण के मामले भी बढ़े हैं।  ग्रामीण छात्राओं को सबल, सक्षम और साक्षर बनाने की योजना बनाने में प्रदेश सरकार पिछडी रही, स्त्री शिक्षा पर गंभीरता नही दिखायी गयी। पहाड में उच्चतर शिक्षा के लिए ठोस आधार तैयार नही हो सका।  नारी सशक्तीकरण का लक्ष्य पूरा ही नही कर पायी। माहौल और मानसिकता ही नही बना पायी राज्‍य सरकार।  प्रदेश सरकार बालिका शिक्षा एवं संरक्षण पर सक्रिय ही नही रही है, वही योजनाओं की घोषणाओं में किसी से पीछे नहीं।

दैवीय आपदा से बेघरबार हुए लोगों के पुनर्वास में विलंब के आसार नजर आ रहे हैं।   सरकार की ओर से पुनर्वास की दिशा में प्रयास किए तो जा रहे हैं, लेकिन ये नाकाफी हैं।   पुनर्वास का कार्य चुनौतीपूर्ण है। आपदा के प्रति संवेदनशील और विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले राज्य में यह दुष्कर कार्य है। इस काम को बहुत कम वक्त में अंजाम तक पहुंचाना भी है। अब आवश्यकता यह है कि आशियाना गंवा चुके परिवारों को सुरक्षित आवास मुहैया कराने का कार्य युद्धस्तर पर किया जाए। आपदा से ज्यादा प्रभावित पांच जिलों रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ और बागेश्वर में विस्थापन के लिए तकरीबन दर्जनभर स्थानों का चयन किया गया। परिवारों की तादाद देखते हुए चिन्हित स्थानों पर सभी का विस्थापन संभव नहीं है। सरकार ने प्रत्येक चिन्हित स्थान पर 50 से 100 परिवारों को ही बसाने की बात कही थी, इस हिसाब से उक्त स्थानों पर अधिकतम 1200 परिवारों को ही बसाया जा सकेगा। शेष परिवारों को खुद ही जमीन ढूंढ़ने या भवन बनाने का विकल्प तो दिया गया है, लेकिन इसे कारगर बनाने के लिए सरकार की मदद की दरकार रहेगी। आपदा की मार से बेहाल ज्यादातर परिवार उच्च हिमालयी क्षेत्रों के हैं। वही विस्थापितों के लिए प्री फेब्रिकेटेड आवासों का अता पता नही है, सरकार की ओर से बडे बडे वादे किये गये थे कि पुनर्वास स्‍थल को आदर्श गांव की तरह विकसित किया जाएगा, इन स्‍थलों पर स्‍कूल, हेल्‍थ सेंटर, कम्‍युनिटी सेंटर आदि मूलभूत सुविधाएं जुटायी जाएगी, परन्‍तु तमाम सरकारी दावे गलत साबित हुएा

 हर बच्चे तक शिक्षा का उजाला; राज्‍य सरकार फेल साबित हुई

हर बच्चे तक शिक्षा का उजाला पहुंचे, इसके लिए मिड-डे मील योजना एक क्रांतिकारी कदम है। इसके पीछे उद्देश्य यही है कि वे गरीब परिवार जो अपने बच्चों को दो जून की रोटी दे पाने में भी असमर्थ हैं और इसके लिए उन्हें स्कूल भेजने की बजाय बाल्यावस्था में ही काम -धंधे पर लगा देते हैं, वे भी अपने बच्चों को स्कूल भेजें और इन बच्चों को एक समय का पौष्टिक भोजन स्कूल में ही मिल सके। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि शुरुआत से ही यह योजना विवादों में घिरी रही है। कभी समय पर फंड न मिलने के कारण इसका चूल्हा ठंडा पड़ता रहा है तो कभी इसकी खराब गुणवत्ता को लेकर सवाल उठते रहे हैं।

केन्‍द्र सरकार की यह यह योजना उत्‍तराखण्‍ड में फ्लाप हो गई।  सरकार  यह समझना होगा कि यह कोई मामूली नहीं बल्कि अहम जिम्मेदारी भरा काम है। ये नौनिहाल फलेंगे-फूलेंगे, अच्छी शिक्षा हासिल करेंगे तो देश और प्रदेश भी तरक्की करेंगे।

राज्य सरकार  बच्‍चों को स्‍कूल भेजने के लिए आकर्षक नारा देकर करोडों का विज्ञापन चैनलों को देती है और राज्य के भविष्य निर्माता बच्चों को शिक्षा का माहौल उपलब्ध कराने की बातें करती है लेकिन उसकी मशीनरी   हद दर्जे तक उपेक्षा भाव रखती है,  केंद्र सरकार की कई योजनाएं यहां लागू ही नहीं की जा सकी।  राज्य के सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का माहौल बनाने तथा यहां पढ़ रहे नौनिहालों को शैक्षणिक सामग्री और अन्य आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने में  लापरवाही कोई नई बात नहीं है।

 राज्य सरकार के अधिकतर फैसले रोलबैक वाले सिद्व हुए

उत्तराखंड में हरिद्वार को छोड़ बाकी जनपदों में पंचायतों का कार्यकाल खत्म होने के बाद इनमें प्रशासक नियुक्त करने के मामले में राज्य सरकार ने जिस प्रकार फैसले पलटे, उसने एक नहीं, कई सवाल छोड़ दिए हैं।   इस मामले में राज्य सरकार ने जितनी हीलाहवाली की, वह उसकी संजीदगी को भी दर्शाती है। तभी तो ग्राम पंचायतों में प्रशासक नियुक्त करने के लिए सरकार को तीन संशोधित शासनादेश जारी करने पड़े। जाहिर है इससे सरकार की ही जगहंसाई हुई। सरकार ने पहले कहा कि पंचायतों में निर्वाचित प्रतिनिधियों को ही बतौर प्रशासक नियुक्त किया जाएगा। बाद में सरकार ने यह फैसला पलटा और फिर ग्राम पंचायतों को ग्राम पंचायत विकास अधिकारियों के हवाले करने की बात कही। बाद में सहायक विकास अधिकारियों को प्रशासक बनाया गया। इस सबके चलते यही संदेश गया कि प्रशासकों की तैनाती के मामले में सरकार में कहीं न कहीं भ्रम की स्थिति है या फिर वह अपने लोगों को कुर्सी पर बैठाने को कोई भी तिकड़म कर सकती है। लेकिन, सवाल वही है कि जब संवैधानिक व्यवस्था है तो तिकड़म क्यों। ऐसे में सरकार की मंशा पर भी सवाल उठने लाजिमी हैं कि क्या सिर्फ वोट बैंक बढ़ाने अथवा झूठी शान बघारने के मकसद से उसने ऐसा किया।

बढ़ते शहरीकरण और रीयल इस्टेट में कुछ वर्ष पूर्व आए उछाल के कारण सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बनने वाला एमडीडीए तथा सिडकुल अब राज्‍य सरकार के लिए अब काजल की कोठरी साबित होने जा रहा है। सिडकुल में फर्जीवाड़े की लंबी प्रक्रिया चली पर सरकार की नजर उस पर क्यों नहीं पड़ी?  सरकार की भूमि संबंधी नीति का लचीलापन अनेक धांधलियों का कारण बन रहा है, इसे दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है।

सूबे में अनेक कार्य ऐसे हुए जिससे विजय बहुगुणा सरकार की साख पर गहरा असर पडता गया, उस समय तो उन्‍होंने उस पर कोई ध्‍यान नही दिया परन्‍तु जनता में साख शून्‍य हो गयी, सूबे में सत्तासीन कांग्रेस के एक विधायक द्वारा सरकार में सहयोगी बसपा कोटे के मंत्री के लिए की गई आपत्तिजनक बयानबाजी इतना तूल पकड़ गई कि मंत्रिमंडल के एक-तिहाई सदस्य सरकार के भविष्य तक पर सवाल उठाने लगे हैं। दरअसल, पिछले विधानसभा चुनाव में बहुमत से चंद कदम दूर रह गई कांग्रेस को सिंगल लार्जेस्ट पार्टी होने के कारण सरकार बनाने का मौका मिला तो उसने बसपा के तीन, उत्तराखंड क्रांति दल के एक और तीन निर्दलीय, कुल सात विधायकों को पाले में लाकर बहुमत जुटाया। इसकी ऐवज में कांग्रेस को बारह सदस्यीय मंत्रिमंडल में चार स्थान सहयोगियों को देने पड़े। यानी मंत्रिमंडल का एक तिहाई हिस्सा सहयोगी विधायकों के पास है। सरकार में शामिल होने के बाद ये सभी गैर कांग्रेसी विधायक आपस में एकजुट हैं और यही वजह सरकार के लिए मुसीबत का सबब बनी हुई है। पहले भी ऐसे मौके आए जब इन गैर कांग्रेसी विधायकों ने संकेतों में ही सही, कांग्रेस को अपनी ताकत का अहसास कराया। इस दफा जब कांग्रेस के एक विधायक ने बसपा कोटे से कैबिनेट मंत्री के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी कर डाली तो सरकार को समर्थन दे रहे सभी सातों गैर कांग्रेसी विधायक एकजुट हो गए। मामला यहां तक आ पहुंचा कि उन्होंने कांग्रेस सरकार और संगठन को संबंधित विधायक के खिलाफ सख्त कदम उठाने के लिए दस दिन का अल्टीमेटम दे दिया।

हरीश रावत को मिलेगा बाबा केदारनाथ का आशीर्वाद

आपदा के उपरांत केन्‍द्रीय मंत्री हरीश रावत रूद्रप्रयाग पहुंचे थे तथा  अगस्त्यमुनि, चन्द्रापुरी, गुप्तकाशी से लेकर गौरीकुंड तक आपदा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने के साथ ही पीड़ितों में मिलकर उनकी समस्याएं सुनी। साथ ही आपदा से हुई क्षति का जायजा भी लिया। रात्रि विश्राम के लिए गौरीकुंड पहुंचे थे। गौरीकुंड में विश्राम के पश्चात  पैदल मार्ग के जरिये केदारनाथ के लिए रवाना हुए थे। हरीश रावत जंगल चट्टी, रामबाडा, लिनचौली, भीमबली होते हुए देर शाम केदारनाथ पहुंचे थे। केदारनाथ में क्षतिग्रस्त हुए प्रतिष्ठानों एवं लॉजों का भी उन्होंने जायजा लिया था। हरीश रावत ने  शनिवार को सुबह प्रथम नवरात्र के अवसर पर भोले बाबा की पूजा की थी, इससे पूर्व गुरूवार को उन्‍होंने  गर्म कुंड, मंदिर समिति के विश्राम गृह, समेत कई भवनों के नुकसान का जायजा लिया था।  इससे राज्‍य में कांग्रेस के प्रति एक अच्‍छा संदेश गया था।

 सीएम आपदा राहत कोष में कूडा कचरा बीनने वालों तथा विकलांगों ने भी सहायता राशि जमा करवायी थी

केदारनाथ में लाशें की बेकदरी दुनियां ने देखी, लाशें बह कर इलाहाबाद तक पहुंची, तो वही लावारिश लाशे जला दी गयी, बारिश से मलबे के नीचे दबी सैकडो लाशे निकलती थी, और उनसे मुक्‍ति पायी जाती थी, परन्‍तु इन सबके बावजूद भी अपने प्रियजनों की लाशों की ढुढ में लोग केदारनाथ पहुंचे, इससे पहले केदारनाथ जाने में प्रतिबंध लगा दिया गया जिसे पूर्व मुख्‍यमंत्री डा0 निशंक ने तोड कर स्‍वयं पैदल केदारनाथ जाकर लाशों की दुर्दशा का भंडाफोड किया था, उसके बाद ही यह तथ्‍य दुनियां के सामने आया कि केदारनाथ में अभी भी सैकडो लाशे दबी हुई हैं,

जलप्रलय के बाद केदारघाटी में लापता हजारों लोगों को मृत मानकर एक ओर सरकार मुआवजा देने जा रही है। वहीं दूसरी ओर कई लोग अपनों को ढूंढने केदारनाथ धाम पहुंचे ।   वही आपदा से ध्वस्त पेयजल आपूर्ति को चालू करने के लिए जल संस्थान ने कामचलाऊ व्यवस्था की, जो टिक नहीं पाई। जिन गांवों में पेयजल स्रोत नहीं हैं, वहां ग्रामीण बारिश के पानी को एकत्रकर प्यास बुझा रहे हैं।  जून में आई जलप्रलय के बाद से कालीमठ घाटी का यातायात संपर्क कटा हुआ है, जिससे ब्यूंखी, कालीमठ, कविल्ठा, खोन्नू, कोटमा, जाल तल्ला, जाल मल्ला, चिलौंड, चौमासी गांव के लोगों की मुसीबत बढ़ा दी। कालीमठ मोटर मार्ग गुप्तकाशी के निकट विद्यापीठ से ही ध्वस्त है। कालीमठ गांव में भी भू-धंसाव से सड़क ध्वस्त है, जिससे मार्ग पैदल चलने लायक भी नहीं रहा है।   गांवों में भारी पेयजल संकट गहराया हुआ है। कविल्ठा के विक्रम रावत बताते हैं कि आपदा के बाद से पानी नहीं आया।

वहीं दूसरी ओर केदारनाथ विस्थापन व पुनर्वास विस्थापन संघर्ष समिति के अध्यक्ष अजेंद्र अजय ने कहा कि आपदा के बाद से ही स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। हाईवे खोल दिया है। लेकिन, खतरा बना हुआ है। समिति ने सरकार से विस्थापन व पुनर्वास की ठोस नीति बनाने की मांग की है। साथ ही प्रभावितों को या तो मैदान क्षेत्रों में भूमि उपलब्ध कराई जाए या आर्थिक पैकेज दिया जाए।

आपदा के समय केदारघाटी में लोगों की मदद करने वाला गौरीगांव के ग्रामीणों को राज्‍य सरकार मदद नही कर पायी, ग्रामीण राज्‍य सरकार की सहायता की बाट जोह रहे हैं, रोजगार छिन गया, सरकार से अहैतुक राशि के अलावा कुछ नही मिल पाया, वे भविष्‍य के प्रति सरकार से कोई आशा ही छोड चुके हैं।

जून माह में हुई तबाही थमने के बाद जब हजारों की संख्या में तीर्थयात्री, पर्यटक, स्थानीय व्यापारी व लोगों का हुजूम गौरीगांव में जमा हो गया तो यहां के ग्रामीणों ने स्वयं भूखे रहकर अतिथियों की सेवाभाव में कोई कमी नही आने दी। ग्रामीणों ने यहां फंसे लोगों को शरण देने के साथ ही अपने परिवार के लिए रखे राशन से भंडारा लगाकर कई दिनों तक यहां शरण लिए हुए लोगों की जान बचाई, लेकिन दूसरों की मदद करने वाले गौरीगांव के लोगों को आज कोई पूछने वाला नहीं है।   मुआवजा तो क्या सरकार की ओर से मिलने वाली अहेतुक राशि तक नहीं मिल पाई।

वही इस गांव के ग्रामीणों द्वारा किये गये सहायता भाव को मुख्‍यमंत्री ने अपने भाषण का स्‍लोगन बनाकर उसे टीवी चैनलों में विज्ञापन के रूप में खूब प्रसारित किया परन्‍तु इन लोगों को कोई सहायता नही दी गयी, गौरी गांव निवासी व गौरीकुंड व्यापार संघ अध्यक्ष कुलानंद गोस्वामी, जगतराम, दीर्घायु प्रसाद, पूर्व प्रधान सूर्य प्रसाद गोस्वामी ने कहा कि केदारनाथ आपदा से सबसे अधिक प्रभावित गौरी गांव के ग्रामीण हुए हैं। आपदा के दौरान सरकार की ओर से अभी तक उन्हें किसी भी प्रकार की सहायता नहीं मिल पाई है। कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं ने उन्हें जरूर मदद दी , लेकिन मंदाकिनी एवं सोन गंगा में पुल न होने के कारण गौरी गांव में राहत पहुंचाने को पहुंचे अधिकांश लोग सोनप्रयाग से ही वापस हो गए।

  यात्रा व्यवस्था के संबंध में सरकारी दावे हकीकत कम और हवाई ज्यादा साबित हुए हैं।  सोनप्रयाग में लगने वाला स्वास्थ्य परीक्षण शिविर एवं यात्रियों के रजिस्ट्रेशन की अभी तक कोई व्यवस्था नहीं की गई है।  ं

— उत्तराखंड में आई आपदा के तकरीबन साढ़े तीन माह बाद नवरात्र के पहले दिन बदरी-केदार यात्रा एक बार फिर शुरू की गयी थी। बादलों की आंख मिचौनी के बीच सोनप्रयाग से 49 यात्रियों का पहला जत्था देर शाम केदारनाथ पहुंचा था। इस जत्थे में दो विदेशियों समेत 15 स्थानीय और 32 यात्री बाहरी प्रदेशों के है। वहीं, जोशीमठ से 30 वाहनों में दो सौ श्रद्धालु बदरीनाथ रवाना हुए। हालांकि, जोशीमठ से दस किलोमीटर आगे पिनौला घाट के पास भूस्खलन से सड़क बंद हो गई, जिससे यात्रियों को दूसरी ओर खड़े वाहनों से बदरीनाथ भेजा गया। गौरतलब है कि गंगोत्री और यमुनोत्री यात्रा पहले ही शुरू की जा चुकी है।

विकास दर नीचे की ओर

वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार पर्वतीय क्षेत्रों से तेजी से पलायन के आंकडे है। दो पर्वतीय जिलों पौड़ी और अल्मोड़ा में जनसंख्या की नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई है। चीन और नेपाल की 625 किमी लंबी सीमा से सटे काफी संख्या में गांव पलायन के कारण जनशून्य हो चुके हैं। वन संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण के कारण अवस्थापना ढांचे के विस्तार में रोड़ा लग रहा है। रोजगार, स्वरोजगार और बेरोजगारी को नियंत्रित करने के लिए बुनियादी ढांचा खड़ा नहीं हो सका। राज्य की आर्थिकी को संभालने के लिए बड़े उद्योग नदारद हैं। बड़ी संख्या में ग्रामीण बस्तियों में पेयजल और बिजली सुविधा नहीं पहुंची। हालत यह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा सरकारी राशन के बूते पेट पालने को विवश है। 65 फीसद वन संपदा सहेजने, इको सेंसिटिव जोन समेत विभिन्न बंदिशों का असर राज्य के विकास और लोगों की खुशहाली पर भी पड़ रहा है। इन हालातों में राज्य को विकसित राज्यों की श्रेणी में खड़ा करना कई सवाल खड़े करता है। पड़ोसी हिमाचल प्रदेश अपने गांवों में जन सुविधाएं पहुंचाने और खुशहाली के पैमाने पर उत्तराखंड से बेहतर स्थिति में माना जाता है।

उत्तराखंड ने सरकारी नौकरियों में जबरदस्त कटौती की है परन्‍तु व्‍यय दूसरी ओर जयादा किया गया।  विकास दर नीचे की ओर गोता लगा चुकी है।

गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओं के तहत मिलने वाले राशन की कालाबाजारी चिंताजनक है। सोचनीय विषय यह है कि अधिकतर डीलर सरकारी राशन को गरीबों में आपूर्ति करवाने के बजाय उसे आटा मिल मालिकों और दुकानदारों को बेच रहे हैं।   अंत्योदय, अन्नपूर्णा, बीपीएल और एपीएल जैसी योजनाएं राज्‍य में असफल साबित हुई हैा दूरस्थ तथा पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले गरीब लोगों को बीपीएल, अंत्योदय और अन्नपूर्णा जैसी योजनाओं के तहत भेजे जाने वाले करोड़ों रुपये मूल्य के राशन में घपलेबाजी रोकने में राज्‍य सरकार की असफलता साफ इशारा कर रही  है  कि वह ऐसी योजनाओं का सही ढंग से क्रियान्वयन नहीं कर पा रही है।  प्रदेश में दैवीय आपदा से बेघरबार हुए लोगों के पुनर्वास में विलंब से पर्वतीय क्षेत्रों में जीवन यापन कठिन हो चुका है। सरकार की ओर से पुनर्वास की दिशा में प्रयास नाकाफी हैं।

फसल खराब होने पर किसानों को मुआवजे के नाम पर अपमानित करने का अधिकार किसी को नहीं, यदि सरकार की ओर से ऐसा किया जाए तो और भी दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा। एक फसल नष्ट होने का अर्थ है किसानों पर दो फसलों की मार, ऐसे में मुआवजे के नाम पर भीख देने की कोशिश हो और उसे भी जायज ठहराने के लिए अनर्गल तर्क दिए जाएं तो किसी का भी धैर्य जवाब दे सकता है।   सरकार को अपनी फसल मुआवजा नीति का अवलोकन कर इसकी तार्किकता और व्यावहारिकता को वर्तमान संदभरें की कसौटी पर परखना चाहिए।

 कांग्रेस के विधायक ने खोली पोल- मिल मालिकों के हिसाब से गन्‍ने के दाम तय करते हैं

23 दिसम्‍बर 2013 को नारसन में कांग्रेस के विधायक कुंवर प्रणव सिंह चैम्‍पियन ने कहा कि गन्‍ना व क़षि मंत्री किसानों के दुख दर्द को नहीं समझ सके, गन्‍ना मंत्री मिल मालिकों के हिसाब से गन्‍ने के दाम तय कर रहे हैं, खानपुर के कांग्रेस विधायक ने उत्‍तराखण्‍ड की कांग्रेस सरकार के गन्‍ना व क़षि मंत्री के बारे में कहा कि इन मंत्रियों को खेती के मायने नही मालूम हैं, सूबे के क़षि मंत्री के पास क़षि भूमि नही है, और गन्‍ना मंत्री के पास गन्‍ने की एक पोरी तक नहीं है, ये शुगर मिल मालिकों की सुनते हैं किसानों की नहीं, ऐसे में किसानों की समस्‍याओं को कैसे समझेगें

प्रदेश का कृषि विभाग अब किसानों के पसीने को व्यर्थ  हीं बहा रहा है।  पर्वतीय क्षेत्र के हर जिले से मिट्टी के नमूने एकत्र कर जांचा जाता कि मिट्टी की सेहत कैसी है, जरूरी तत्व कितने हैं और कितने नहीं हैं। उसके बाद किसानों को यह परामर्श भी दिया जाता कि पैदावार बढ़ाने के लिए क्या किया जाना चाहिए।  इस ओर कृषि व गन्‍ना मंत्री का कोई ध्‍यान नही है।

कांग्रेस विधायक का बयान असलियत बता रहा है कि  कृषि भूमि खत्म हुई है।   बंदरों और लावारिस पशुओं के लिए कोई योजना नही बनायी जा सकी जिससे कृषि उत्पादन कम हुआ है। किसान जो भी मेहनत करे, वह पशुओं की भेंट चढ़ जाए तो आजीविका का संकट तो उत्पन्न होता ही है, प्रदेश का समूचा कृषि उत्पादन भी प्रभावित होता है जिसका असर पूरी आर्थिकी पर पड़ता है। इसके अलावा बरसात और प्रदेश की भौगोलिक स्थिति के कारण इस पहाड़ी राज्य की मृदा से खनिज बहते जाते हैं और पैदावार पर कुप्रभाव पड़ता है। जिस ओर राज्‍य सरकार कोई मदद नही करती, प्रदेश के पास एक कृषि विश्वविद्यालय भी है, जिसमे किसानों की यह अपेक्षा रहती  है कि वह वातावरण के कारण मिट्टी में आ रहे परिवर्तनों के अनुसार किस्में पैदा करे परन्‍तु ऐसा कुछ नही हो पाता है। कृषि विभाग  मृदा परीक्षण की ओर भी ध्‍यान देता तो कृषि प्रधान राज्य उत्‍तराखण्‍ड प्रदेश में कृषि उत्पादन बढता।  प्रदेश का कृषि विभाग जनता तक पहुंच नही बना पाया।

अवैध खनन पर राजनैतिक व नौकरशाही की जुगलबंदी

अवैध खनन पर राजनैतिक व नौकरशाही की जुगलबंदी बाहरी लोगों के खननके पटटे के रेट बंधे हुए हैं- वही नौकरशाहों व सत्‍ता पक्ष का है पूरा नियंत्रण-

 उत्‍तराखण्‍ड  में अवैध खनन पर विजिलेंस टास्क फोर्स की कार्रवाई के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। विजिलेंस फोर्स ने कुमाऊं मंडल के तीन स्थानों पर कार्रवाई कर मात्र दस दिनों में 2.70 करोड़ रुपये का राजस्व वसूला है। यह हैरत भरा इसलिए है क्योंकि पिछले एक साल में विभाग कुल दो करोड़ रुपये का राजस्व ही वसूल पाया था। समझा जा सकता है कि किस प्रकार खनन माफियाओं के दबाव के चलते सरकार को राजस्व का चूना लगाया जाता रहा। खनन माफिया की मनमानी से लोग त्रस्त हैं। नदियों का सीना चीरकर मनमाने दामों पर इसे बेचा जा रहा है। अब वैध खनन की बारी आई तो इसमें भी हीलाहवाली की जा रही है। ऐसे में यह अंदेशा भी उठ रहा कि कहीं यह सब खनन माफिया के इशारे पर तो नहीं हो रहा। माफिया की सरकारी तंत्र में रसूख के चलते इन आशंकाओं को बल मिल रहा है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह जल्द से जल्द खनन नीति के संबंध में स्थिति स्पष्ट कर नदियों में उपखनिज चुगान का कार्य शुरू करवाए, ताकि परेशान लोगों को भटकना न पड़े। साथ ही उसे खनन माफिया पर प्रभावी अंकुश लगाने को ठोस कदम उठाने होंगे। यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो उपखनिज चुगान के लिए खुलने जा रही नई नदियों में भी माफिया का साया मंडराता रहेगा।

  प्रदेश में अवैध खनन पर अंकुश लगाने के लिए सरकार की ओर से पहली बार कोई सकारात्मक पहल की गई है। जिस प्रकार से खनन माफिया धड़ल्ले से खनन कर रहे थे उससे पुलिस और प्रशासन की कार्यशैली सवालों के घेरे में थी। यहां तक कि सरकार भी विभिन्न कारणों से खनन माफियाओं के आगे बौनी सी दिखने लगी। यही कारण भी रहा कि खनन माफिया पुलिस व प्रशासन की टीम पर हमले करने से भी पीछे नहीं हट रहे थे। ऐसे में सरकार की ओर से अवैध खनन रोकने के लिए विजिलेंस फोर्स के गठन से अब अवैध खनन पर अंकुश लगाने की बात कही गयी, परन्‍तु फोर्स के लिए तय इंस्पेक्टर और कांस्टेबल की कम संख्या रखी गयी। फिर अचानक ही सरकार ने फोर्स के ढांचे में बदलाव कर दिया, इससे शासन की कार्यशैली पर सवालिया निशान लग गया।  ऐसा प्रस्ताव क्‍यों बनाया गया जिसे 24 घंटे के भीतर ही इसे बदलने की नौबत आई। फोर्स के अधिकार तय करने का नोटिफिकेशन भी इसके बाद किया गया। यदि अवैध खनन रोकने की प्राथमिक जिम्मेदारी अभी भी जिलाधिकारी और एसएसपी की है तो फिर फोर्स के गठन का मतलब क्या है। केवल इन पर निगरानी रखने और शिकायत मिलने पर कार्यवाही करने के लिए एक अलग बल के गठन का औचित्य अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है। हरिद्वार, देहरादून, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल में अवैध खनन की जानकारी के बावजूद कैसे चुनिंदा सिपाही इस पर अंकुश लगा सकते हैं यह तुगलकी निर्णय था।  अब यह  फोर्स सरकार और जनता के अवैध खनन पर अंकुश लगाने पर असफल रही है।

हरिद्वार से 23 दिसम्‍र 2013 को प्राप्‍त सूचना के अनुसार  खनन के लिए कुख्यात रहे हरिद्वार के बिशनपुर कुंडी क्षेत्र में फिर अवैध खनन शुरू हो गया है। रात को दर्जनों ट्रकों व ट्रैक्टर ट्रालियों में भरकर उपखनिज ठिकाने लगाया जा रहा है। सूचना पर प्रशासन की टीम ने छापा भी मारा, लेकिन उसके हाथ कुछ नहीं लगा।  खनन को निजी पट्टे दिए जाने के बाद फिर से कई जगह अवैध खनन शुरू हो गया है। हरिद्वार में अवैध खनन के लिए बिशनपुर कुंडी कुख्यात रहा है। यहां गंगा में अवैध खनन लगातार जारी है। बीती रात भी बिशनपुर कुंडी के गंगा तटों पर जमकर खनन हुआ। खनन करने वालों ने दर्जनों ट्रैक्टर ट्रालियों के जरिये उपखनिजों को स्टोन क्रशरों में पहुंचा दिया। खनन नियमावली के अनुसार सूरज ढलने के बाद किसी तरह का खनन काम नहीं किया जा सकता है। लेकिन, यहां नियमों के विपरीत अवैध खनन हो रहा है। इस क्षेत्र में प्रशासन की ओर से निजी खनन पट्टे भी नहीं दिए गए। लेकिन, जनपद में दूसरी जगह दिए गए पट्टों की आड़ में यहां अवैध खनन शुरू हो गया है।

   पर्यटन विकास का पहिया जाम

नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण उत्तराखंड में कुदरत ने मुक्त हाथों से नेमतें बख्शी हैं, लेकिन पर्यटन विकास का पहिया वहीं का वहीं थमा है, जहां राज्य गठन के वक्त था। 13 साल में भी इस दिशा में सूबा एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया है। ऐसा नहीं कि पर्यटन विकास की गति बढ़ाने को कसरत न हुई हो, लेकिन नीति नियंताओं में सही सोच और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति इसकी राह में अब तक रोड़ा बनती आई है। यही वजह है कि अभी तक राज्य में एक भी नया पर्यटक स्थल विकसित नहीं हो पाया है, जिसे आदर्श माना जा सके। यह हाल तब है, जबकि यहां पर्यटन विकास की असीम संभावनाएं हैं। हाल यह है कि जिन स्थलों पर थोड़ा सा प्रयास करके उसे पर्यटकों की नजरों तक लाया जा सकता है, वहां भी सुस्ती का आलम है। इसका उदाहरण है पौड़ी जिले में स्थित कण्वाश्रम। ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व की मानी जाने वाली इस स्थली को राष्ट्रीय धरोहर बनाने की कसरत वर्षो से चल रही, लेकिन उत्तराखंड पर्यटन विकास परिषद अभी तक सिर्फ संभावनाएं टटोलने को स्थलीय निरीक्षण भी नहीं करा पाई है। परिणामस्वरूप यह रमणीक स्थल पर्यटकों की नजरों से दूर ही है, जबकि इसके पर्यटन विकास को अक्सर दावे होते रहते हैं। यही नहीं, टिहरी झील पर्यटन सर्किट विकसित करने की योजना भी सतही तौर पर ही है। वहां साहसिक खेल एकेडमी बनाने का भी प्रस्ताव है, लेकिन इस दिशा में भी कोई ठोस पहल होती नजर नहीं आ रही। सिवाय, कागजी कवायद के। ऐसी ही स्थिति पर्यटन के लिहाज से महत्वपूर्ण दूसरे स्थलों की भी है। ऐसा नहीं कि सूबे में पर्यटन विकास को कोई पहल नहीं हुई। जो थोड़ी-बहुत पहल हुई, वह पहले से विकसित पर्यटक स्थलों तक ही सीमित होकर रही और वह भी सिर्फ नाममात्र को। नये स्थलों और पर्यटन सर्किटों को संवारने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो पाई। इसकी राह में कभी वन कानूनों के आड़े आने का रोना रोया गया तो कभी कनेक्टिविटी, सड़क सुविधा का अभाव समेत दूसरे कारण गिनाए गए। परिणामस्वरूप पर्यटन विकास की जो योजनाएं बनाई गई, वह ठंडे बस्ते की भेंट चढ़ती चली गई।  महज कोरी बयानबाजी से पर्यटन विकास नहीं होने वाला।  उत्तराखंड को पर्यटन प्रदेश बनाने का सपना सिर्फ सपना ही रह गया है।

  कांग्रेस आलाकमान वर्तमान मुख्यमंत्री की कार्यशैली और उनकी सरकार पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते नेतृत्व परिवर्तन का मन तो बना चुका है, लेकिन नए मुख्यमंत्री के नाम पर सहमति न बन पाने के कारण निर्णय नहीं ले पा रहा है। चुनावी वर्ष होने के नाते पार्टी किसी भी प्रकार के जोखिम से बचते हुए एक ऐसा चेहरा तलाशने में जुटी है जो सबको साथ लेकर चलने की कूवत तो रखता ही हो साथ ही बेदाग छवि का भी हो। कई गुटों में विभाजित उत्तराखण्ड कांग्रेस में एक भी ऐसा सर्वमान्य नेता का न मिल पाना वर्तमान मुख्यमंत्री के लिए संजीवनी साबित हो रहा है। पिछले दिनों केदारनाथ समेत पूरे राज्य में आई प्राकृतिक आपदा के दौरान मुख्यमंत्री बहुगुणा के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना, नौकरशाही का बेलगाम होना और आपदा के लिए आवंटित राहत बजट में बंदरबांट के आरोपों से कुपित कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रदेश प्रभारी अंबिका सोनी और सह प्रभारी संजय कपूर को मुख्यमंत्री बदलने की कवायद शुरू करने के निर्देश दिए थे। सूत्रों के मुताबिक विधायक दल और कांग्रेस संगठन से सलाह -मशविरा करने के बाद उभरी तस्वीर ने बहुगुणा को राहत पहुंचाने का काम किया है।

हवा हवाई घोषणा- का कोई असर नही

मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा अपने कार्यकाल में कई लोक लुभावन घोषणाएं कर चुके हैं। गौर करने वाली बात यह है कि अधिकांश घोषणाएं चुनावी मौसम को देखते हुए ही की गई हैं। सबसे पहले सितारगंज उप चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए मुख्यमंत्री ने जमकर घोषणाएं की थीं। लेकिन बंगाली समाज को उनकी जमीनों का मालिकाना हक देने की उनकी घोषणा आज तक अधूरी है। जिसे समाज के लोग अपने साथ भारी धोखा मानते हैं। कड़े नियमों के चलते समाज के अधिकांश परिवार आज तक भूमि के पट्टे हासिल नहीं कर पाये हैं। इसी तरह सितारगंज में बाढ़ नियंत्रण के लिए करोड़ों की योजनाओं की घोषणाएं भी जमीन पर नहीं उतर पाईं। इसी का परिणाम है कि आपदा के समय हजारों एकड़ भूमि बाढ़ की भेंट चढ़ गई।

टिहरी लोकसभा उप चुनाव में तो बहुगुणा ने अपने पुत्र साकेत को सांसद बनाने के लिए भारी भरकम घोषणाएं करने में जरा भी संकोच नहीं किया। गैरसैंण में विधानसभा भवन, वहां विधानसभा सत्र के अलावा कैबिनेट की बैठक आदि न जाने क्या-क्या प्रलोभन जनता को दिये गए। इसके अलावा कई ऐसी जातियों को भी आरक्षण में शामिल करने की घोषणायें की गईं जो कि उत्तराखण्ड में दिखाई ही नहीं देती हैं। नमोशूद्र जाति को आरक्षण, उत्तरकाशी की भटवाड़ी और बड़कोट तहसील को ओबीसी में शामिल करने की घोषणा भी अभी तक पूरी नहीं हुई। गोरखा समाज को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलवाने की बात भी चुनावों के बाद सिरे नहीं चढ़ पाई है। टिहरी लोकसभा उप चुनाव निपटने और साकेत बहुगुणा की हार के बाद वादों और बयानो से पल्ला झाड़कर जनता को बेवकूफ बनाने के आरोप भी मुख्यमंत्री पर लगे हैं। चुनाव से पहले उन्होंने जनता को सब्सिडी के नौ सिलेंडर देने का वादा किया था। लेकिन साकेत के हारते ही वे इससे मुकर गए। बाद में वे केवल बीपीएल परिवारों को ही वर्ष में ९ सिलंडर दिये जाने की बात करने लगे।

  राज्य में कर्मचारियों के ४० हजार खाली पदों पर भर्ती और दस वर्ष से अधिक समय से काम कर रहे संविदा कर्मियों को नियमित करने की मुख्यमंत्री ने इस बीच जो घोषणा की, उसे सिर्फ चुनावी पासा करार दिया जा रहा है। सवाल उठ रहे हैं कि अचानक बहुगुणा सरकार राज्य के बेरोजगारों पर इतनी मेहरबान क्यों हो गई है? सरकार की मंशा पर इसलिए संदेह है कि जिन ४० हजार पदों पर भर्ती और संविदा कर्मियों को नियमित करने की घोषणा की गई है, उसे नॉन-प्लान के तहत ही होना है। इसके लिए कोई बजट नहीं रखा गया है। सरकार इसके लिए जरूरी संसाधन कैसे जुटायेगी, इस बारे में भी कुछ स्पष्ट नहीं किया गया है। साफ है कि इससे राज्य के वित्तीय खजाने पर भारी बोझ पड़ेगा और केंद्र से मिलने वाले बजट का अधिकांश हिस्सा कर्मचारियों के वेतन आदि में ही चला जायेगा।  वित्त विभाग हर काम में वित्तीय संसाधन न होने का अड़ंगा लगाकर योजनाओं को लटका रहा है, वह अचानक ही ४० हजार पदों पर भर्ती के लिए हरी झण्डी दे देता है। जबकि स्वयं मुख्यमंत्री की कई ऐसी घोषणाएं हैं जो कि वित्त विभाग के चलते आज तक पूरी नहीं हुई हैं। यहां तक कि उनके लिए बजट भी स्वीकृत नहीं हो पाया है।  राज्य वित्त विभाग के प्रमुख सचिव राकेश शर्मा हैं जो कि मुख्यमंत्री के सबसे चहेते और दुलारे नौकरशाह हैं। अचानक ही वित्त विभाग ने भर्तियों के लिए अनुमति दे दी जबकि यह साफ है कि राज्य की अर्थिक स्थिति पूरी तरह डावाडोल हो चुकी है। आपदा के चलते राज्य पर वैसे ही अतिरिक्त भार भी पड़ चुका है।

राज्य में होने वाली भर्तियों की हकीकत भी सामने आ रही है। सर्व शिक्षा अभियान में आउटसोर्सिंग के तहत होने वाली तकरीबन १४०० शिक्षकों की भर्ती भी संशय के द्घेरे में है। इसके लिए अभी तक न तो कोई बजट स्वीकृत हो पाया है और न ही कोई योजना बन पाई है। केंद्र सरकार की वित्त पोषित शिक्षा का अधिकार योजना के तहत ये भर्तियां होनी हैं। खास बात यह है कि ये सभी भर्तियां निजी संस्थाओं या गैरसरकारी संगठनों के द्वारा आउटसोर्सिंग के तहत की जाएंगी। इसमें बाहरी राज्यों के बेरोजगारों को भरपूर अवसर मिलने की पूरी संभावनाएं हैं। इस योजना में एक बात यह भी गौर करने वाली है कि यह पूरी तरह केंद्र सरकार के बजट पर ही आश्रित है। राज्य सरकार का इसमें कोई योगदान नहीं है। साथ ही इस योजना में कड़े नियम रखे गए हैं। सबसे पहले तो सरकार ने बजट स्वीकूत होने से पूर्व ही भर्तियों के प्रस्ताव केंद्र को भेजे हैं और भर्ती प्रक्रिया आरंभ भी कर दी गई है। जबकि अभी यह साफ नहीं हुआ है कि केंद्र सरकार कितनी भर्तियों के लिये बजट स्वीकूत कर रही है। यदि बजट भर्तियों के प्रस्ताव के अनुरूप नहीं होगा तो ऐसे बेरोजगार शिक्षकों को सरकार कहां से वेतन देगी, इस बारे में भी राज्य सरकार ने स्पष्ट नहीं किया है। नियमों की बात करें तो सबसे बड़ा और कठिन नियम यह है कि सौ से कम छात्रों वाले विद्यालयों में यह नियुक्तियां नहीं होनी हैं। अगर कहीं सौ से एक भी छात्र कम हुआ तो शिक्षक की नौकरी समाप्त हो जायेगी।

  प्रदेश के अधिकांश विद्यालयों की हालत खस्ता

यह सर्वविदित है कि प्रदेश के अधिकांश विद्यालयों की हालत खस्ता है। अधिकांश विद्यालयों के भवन क्षतिग्रस्त हैं। इनमें अध्ययन करना जान को खतरे में डालने जैसा है। सैकड़ों विद्यालयों में बिजली, पेयजल और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। सीएजी की रिपोर्ट में भी इस बात का खुलासा हो चुका है। सरकार की उदासीनता के चलते अगर छात्र इन विद्यालयों में पढ़ रहे हैं तो यह उनकी विवशता ही है। विद्यालयों में निरंतर छात्र की संख्या द्घटती जा रही है। इसका खमियाजा उन शिक्षकों को अपनी नौकरी से हाथ धोकर भुगतना पड़ेगा जिनकी नियुक्ति इस योजना के तहत होगी।

इसके अलावा राज्य में पेट्रोलियम पदार्थों पर वैट को हटाने के फैसले का भी यही हश्र हुआ। टिहरी उपचुनाव के समय वैट कम करना और हार के बाद फिर से लागू करना, लोग पचा नहीं पाए। इससे बहुगुणा की छवि एक ऐसे खांटी राजनीतिक बाजीगर की बनी जो वोट की खातिर किसी भी हद तक झूठी घोषणाएं कर सकता है। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की चुनावी मौसम में की गई घोषणाओं में सबसे बड़ी घोषणा पदोन्नति में आरक्षण की रही। अपने पुत्र साकेत बहुगुणा को जीत दिलवाने के लिए उन्होंने ये घोषणाएं की थी। लेकिन इससे आरक्षण विरोधियों और समर्थकों के अलग-अलग मोर्चे खुल गए और राज्य में हड़तालों का दौर आरंभ हो गया। साथ ही इस फैसले से कर्मचारी वर्ग के बीच खाई बन गई जो आज गहरी होती जा रही है। माननीय उच्चतम न्यायालय के फैसले जिसमें कि पदोन्नति में आरक्षण को संविधान के विपरीत बताया गया है, को मानने की बजाए पदोन्नति में आरक्षण लागू करने के लिए बाकायदा एक्स काडर को नियम बनाया गया जो कि किसी भी तरह लागू नहीं हो सकता था। इसको लागू करने में ंभी कई कानूनी अड़चनें आ रही थीं। इससे करीब एक माह तक राज्य भर में अनिश्चितता का माहौल बना रहा।

बहुगुणा सरकार ने एक्स काडर को लागू करने में इतनी हड़बड़ी दिखाई कि इसके संविधान के अनुरूप होने या न होने पर कोई होमवर्क नहीं किया गया। एक्स काडर लागू करने के बाद जब विवाद और भी गहराने लगे तो सरकार ने इसे शांत करने के लिए इरशाद हुसैन आयोग का गठन कर दिया। लेकिन आयोग ने एक्स काडर को संविधान के विरुद्ध बताया तो सरकार को अपने ही निर्णय से पलटी मारते देर नहीं लगी। इससे राज्य का जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई नहीं हो पाई है।

पिछले वर्ष ३ नवम्बर को मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में कैबिनेट की बैठक की। जिसका बखूबी प्रचार किया गया। लाखों रुपये सरकारी खजाने से लुटाये गये। मंत्रियों और अधिकारियों को सरकारी खर्च पर हवाई यात्रा द्वारा गैरसैंण तक पहुंचाया गया। इस बैठक में मुख्यमंत्री ने करोड़ों रुपए की लोक लुभावन घोषणाएं भी की। जिनमें गौचर में इंजीनियरिंग कालेज बनाये जाने, गैरसैंण में बालिका कॉलेज के प्रांगण मेें स्टेडियम बनाये जाने, बालिका इंटर कॉलेज गैरसैंण के भवन के लिए धनराशि दिये जाने एवं गैरसैंण में ही पॉलिटेक्निक की घोषणायें की गई थीं। इनमें इंजीनियरिंग कॉलेज और स्टेडियम के मामलों में कोई प्रगति तक नहीं हुई है और पॉलिटेक्निक के लिए अभी भूमि का कहीं कोई अता-पता नहीं है। बालिका इंटर कॉलेज भवन की धनराशि के लिए फाइलें अभी विभागों के ही चक्कर लगा रही हैं।

इसके अलावा आदिबदरी नंदा सैंण में ३३ केवी पावर स्टेशन और मेहलचौरी में ६६ केवी  पावर स्टेशन की घोषणा में भी अभी तक कोई प्रगति नहीं हो पाई है। इन विद्युत स्टेशनों के लिए अभी तक विभाग को कोई भी आदेश  जारी नहीं हुये हैं। इस क्षेत्र को सड़कों से जाेड़ने के लिए मुख्यमंत्री ने कई घोषणायें की थीं जो कि आज भी फाइलों में ही दौड़ रही हैं। इनमें खजूरखाल- भंडारीखोड़-कनूगाड़ मोटर मार्ग का डमरीकरण और दिवालीखाल किमोली मार्ग को नारायण बगड़ से जोड़ने के लिए दो पुलों का निमार्ण किये जाने की घोषणाओं पर भी विभागीय प्रगति नहीं हो पाई है। गैरसैंण पेयजल लाइन के पुनर्गठन और विस्तारीकरण का काम अभी तक शुरू नहीं हो पाया है।

 मुख्‍यमंत्री हवा हवाई घोषणा का नकारात्‍मक असर

 सूबे के पिथौरागढ़ जनपद में प्रदेश की एकमात्र आदिम जनजाति वनरावत की समस्याएं  मुख्यमंत्री के सामने रखी गई। क्षेत्रवासियों ने वनरावत को वनभूमि पर मालिकाना हक देने की मांग की थी। सामाजिक कार्यकत्री शंकुतला दताल की अगुवाई में महिलाओं ने मुख्यमंत्री को बताया  था कि वनरावत प्रदेश की एकमात्र आदिम जनजाति है। इस जनजाति की आबादी मात्र साढ़े पांच सौ के आसपास है। ये परिवार वर्षो से वन भूमि पर बसे हुए हैं। केंद्र सरकार ने इन्हें वन भूमि पर मालिकाना हक देने के लिए वनाधिकार अधिनियम भी बनाया हुआ है। इसके बावजूद जिले में उन्हें भूमि का मालिकाना हक नहीं दिया जा रहा है। इससे उन्हें न तो सरकारी योजनाओं का लाभ मिल रहा है और न ही बैंक से स्वरोजगार के लिए ऋण मिलता है। भूमि संबंधी कागजातों के अभाव में वनराजियों के बच्चों विभिन्न प्रमाण पत्रों से भी वंचित हैं। उन्हें शिक्षा में चलाई जा रही योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल रहा है। महिलाओं ने वनराजियों को भूमि पर मालिकाना हक देने की मांग मुख्यमंत्री से की। महिलाओं ने जौलजीवी मेले का समय नजदीक होने की जानकारी मुख्यमंत्री को देते हुए आपदा में बह गए भारत-नेपाल झूलापुल को बनाने, राहत केंद्रों में रह रहे लोगों का पुनर्वास किए जाने की मांग भी की थी। जिासमें धरातल पर कुछ नही हुआ,

पिथौरागढ जनपद के धारचूला  तहसील के नेपाल सीमा से लगे पांगला क्षेत्र में तीन गांवों की विद्युत आपूर्ति पिछले पांच माह से बंद है। आपदा से भी एक माह पूर्व से भंग आपूर्ति बहाल नहीं होने से करीब एक हजार परिवार चीड़ के छिलके जलाकर घरों को रोशन कर रहे हैं। ग्रामीणों ने दीपोत्सव से पूर्व बिजली बहाल करने की मांग की है

आपदा से पांगला क्षेत्र में तबाही मची। चार माह बाद बामुश्किल क्षेत्र तक आवाजाही संभव हो सकी है। अब भी क्षेत्र में पहुंचने वाले मार्गो की हालत ठीक नहीं हो सकी है। वहीं पिछले पांच माह से क्षेत्र में विद्युत आपूर्ति भंग है। आपदा से एक माह पूर्व क्षेत्र की आपूर्ति भंग हुई थी। एक माह तक विद्युत विभाग हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। इसके बाद आपदा आने के कारण कोई कार्य नहीं हो सका। इधर एक माह पूर्व से स्थिति में सुधार आया। अन्य स्थानों की विद्युतापूर्ति बहाल हुई परंतु पांगला क्षेत्र की स्थिति यथावत बनी है। क्षेत्र के जयकोट, गस्कू, और पांगला गांव अंधेरे में जी रहे हैं। जयकोट के 350, गस्कू के 55 और पांगला के 560 परिवार इस समय चीड़ के छिलके जलाकर प्रकाश कर रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि किरोसिन तेल सीमित मिलता है। उजाले का कोई अन्य विकल्प नहीं है। इससे नाराज ग्रामीणों ने शुक्रवार को तहसील मुख्यालय पहुंच कर विभाग के खिलाफ प्रदर्शन किया। इस अवसर पर उपजिलाधिकारी और उप खंड अधिकारी विद्युत कारपोरेशन को ज्ञापन सौंपे गए। जिसमें दीपावली से पूर्व विद्युत बहाल करने की मांग की गई है।

 पिथौरागढ़ जनपद के थल तहसील में : आपदा के बाद से थल-बेरीनाग सड़क बदहाल हाल है। सड़क पर जगह-जगह बने गड्डे दुर्घटनाओं को दावत दे रहे हैं। सड़क की हालत नहीं सुधारने से क्षेत्रवासी खिन्‍न हैं। आपदा के बाद थल-बेरीनाग सड़क पर जगह-जगह मलबा आ गया था। सड़क के किनारे बनी नालियां मलबे से पट गई थी।   इस सड़क से हर रोज धारचूला, मुनस्यारी, जिला मुख्यालय पिथौरागढ़, थल व नाचनी के लिए सैकड़ों वाहन गुजरते हैं। मुनस्यारी जाने वाले पर्यटकों के लिए भी यह महत्वपूर्ण मार्ग है।  परन्‍तु यहां भी कुछ नही किया गया,

आपदा के पांच माह बाद भी एक हजार की सहायता राशि नही मिली छात्र छात्राओं को-

धारचूला के राजकीय महाविद्यालय बलुवाकोट में अध्ययनरत 162 छात्र-छात्राओं को मुख्यमंत्री आपदा राहत कोष से दी जाने वाली एक हजार रुपए की राहत राशि महाविद्यालय में ही पड़ी है। इन्‍हें आपदा के पांच माह बाद भी सहायता नही दी जा सकी है, मुख्‍यमंत्री ने छात्रों को एक हजार रूपये की सहायता कापी किताबों हेतु दी थी,;; धारचूला में दारमा घाटी में अधिकांश लोग मार्ग खराब  है।  बीमार और उम्रदराज लोगों के लिए कोई व्‍यवस्‍था नही की गयी।

जून माह में आई आपदा के कारण उच्च हिमालयी क्षेत्रों को जोड़ने वाले अधिकांश मार्ग बंद हो गए थे। पुलों के बह जाने से अब भी कुछ मार्ग बंद पड़े हैं। प्रमुख स्थानों पर लोनिवि द्वारा कच्चे पुलों का निर्माण किया गया है, लेकिन अब भी कुछ स्थानों पर मार्ग बेहद संकरे और खतरनाक बने हुए हैं। मार्ग के खराब होने से माइग्रेशन पर गए दारमा घाटी के लोग घबराए हैं।  गांव के ऊपरी हिस्से में बर्फवारी शुरू हो गई है।  जो लोग धारचूला से यहां आ रहे हैं उनके अनुसार सोबला से नीचे मार्ग अत्यधिक बदहाल स्थिति में हैं। ऐसे में जानवरों के साथ सामान लेकर लौटने में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। उन्होंने बताया कि माइग्रेशन पर बुजुर्ग भी उच्च हिमालयी क्षेत्रों में आए थे। परंतु मार्ग खराब होने से उन्हें परेशानी हो सकती है। उन्होंने प्रशासन से हेलीकाप्टर की व्यवस्था करने की मांग की है।

 वही दूसरी ओर पिथौरागढ जनपद के सीमावर्ती क्षेत्रों में आइटीबीपी के चिकित्सक कर रहे हैं उपचार, राज्‍य सरकार की तो चिकित्‍सा की कोई व्‍यवस्‍था ही नही है- धारचूला से प्राप्‍त खबर के अनुसार माइग्रेशन पर दारमा गए एतराम बोनाल का स्वास्थ्य अचानक खराब हो गया। वहां पर चिकित्सा की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण आइटीबीपी से मदद मांगी गई। आइटीबीपी के चिकित्सकों ने गांव पहुंचकर बीमार ग्रामीण का उपचार किया। सामाजिक कार्यकर्ता कृष्ण सिंह ने बताया कि माइग्रेशन के दौरान भारत तिब्बत सीमा पुलिस द्वारा ही लोगों को चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।

पिथौरागढ़ : आपदा के  6 माह बाद भी आपदा प्रभावित मुनस्यारी और धारचूला के आधा भू-भाग अब भी सम्पर्क से बाहर है। धारचूला में तवाघाट से आगे, तो मुनस्यारी में बंगापानी से आगे के क्षेत्र अब भी कालापानी बने हुए हैं। एक लाख से अधिक की आबादी अभी भी आपदा का दंश झेल रही है। सरकार ने पुनर्वास के नाम पर आवास के लिए धन देने की घोषणा की है। परंतु जमीन कहां से आएगी, यह प्रश्नचिन्ह बना हुआ है।

पिथौरागढ़ जनपद के मुनस्यारी/ धारचूला में अक्टूबर में दिसंबर जैसी बर्फबारी हो रही है। चोटियां तो दूर रही बुग्याल तक हिमाच्छादित हो गए।   वहीं स्थानीय जनता अंदर से भयभीत है। राज्‍य सरकार की एक भी घोषणा पूरी नही हो पायी है, आपदा के 6  माह हो चुके हैं। 6 माह के बाद भी  एक लाख से अधिक की आबादी अभी भी आपदा का दंश झेल रही है। 16 जून की रात से आपदा शुरू हुई थी। 16 और 17 जून को आपदा ने धारचूला और मुनस्यारी को तहस-नहस कर दिया। सम्पूर्ण धारचूला तहसील का चार दिन तक शेष जगत से संपर्क भंग रहा। धारचूला तहसील के प्रवेश द्वार जौलजीवी से आगे का पूरा क्षेत्र कट गया था। जौलजीवी में भारत-नेपाल को जोड़ने वाला झूलापुल बह गया था। दोनों देशों के बीच चार माह से सम्पर्क कटा हुआ है। इससे जौलजीवी का व्यापार ठप है। जौलजीवी में पढ़ने वाले नेपाली बच्चों को कमरे किराए पर लेकर रहना पड़ रहा है। उधर धारचूला से 18 किमी दूर तवाघाट से आगे का क्षेत्र 6 माह बाद भी कटा हुआ है। हजारों लोग आपदा राहत केंद्रों में शरण लिए हुए हैं। तवाघाट से आगे सड़क मार्ग तो दूर पैदल मार्ग तक नहीं खुल पाए हैं। मात्र दो पुल एलागाड़ और तवाघाट ही बन पाए हैं। तल्ला दारमा और मल्ला दारमा में रहने वाले सैकड़ों परिवार बुरी तरह प्रभावित हैं। चार माह बाद पुनर्वास के नाम पर पांच लाख रुपए या फिर फाइवर हट देने की बात तो हो रही है, परंतु ग्रामीण कहां पर आशियाना बनाएंगे, यह तय नहीं हो सका है। उधर जौलजीवी -मदकोट मार्ग पर बंगापानी से लेकर फगुवा तक की स्थिति अब भी जस की तस है। जौलजीवी-मदकोट का 44 किमी मार्ग नहीं खुला है। आसमान का बरसना बंद हो चुका है। नदी, नालों का प्रवाह भी शांत होने लगा है। वहीं आपदा प्रभावितों का जनजीवन यथावत बना हुआ है। गांव-घरों की दुकानें बंद हो चुकी हैं। लोगों को कई किमी पैदल चलकर पेट भरने को राशन ले जाना पड़ रहा है।

राजधानी देहरादून में भी हालात बुरे हैं, देहरादून अर्न्‍तत  चकराता में  लालपुल पुरोड़ी मोटर का निर्माण कार्य नौ वर्ष बीत जाने के बाद भी अधर में है। मार्ग निर्माण पूरा न होने से आधा दर्जन गांवों के ग्रामीणों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। लोगों में लोक निर्माण विभाग के खिलाफ रोष व्याप्त है। शासन से मार्ग निर्माण की स्वीकृति मिलने के बाद नौ वर्ष पूर्व लोक निर्माण विभाग चकराता द्वारा मार्ग निर्माण कार्य किया गया था। मार्ग का क्षेत्र अलग-अलग खंडों में होने से लोक निर्माण विभाग साहिया द्वारा साहिया से लालपुल तक मार्ग निर्माण कार्य किया गया। पुरोड़ी से रिखाड़ तक पांच किलोमीटर मार्ग का निर्माण लोक निर्माण विभाग चकराता द्वारा किया गया था। रिखाड़ से बिसोई तक तीन किमी मार्ग निर्माण नहीं किया गया। ऐसे में मार्ग पर वाहन संचालित नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे में निथला, बिसोई, रिखाड़, बिसाई, रिखाड़, बिरमऊ, डागुरा व ठाणा आदि गांव के लोगों के सामने आवाजाही का संकट है। लोगों को कई किलोमीटर का सफर तय कर मुख्य मागरे तक पहुंचना पड़ रहा है।

 राजधानी देहरादून में असफलता

राजधानी देहरादून में राज्‍य सरकार का चिकित्‍सा विभाग असफल साबित हुआ,  राजधानी के विभिन्न अस्पतालों में 38 डेंगू मरीजों को भर्ती हुए। डेंगू का असर कम होने का नाम नहीं ले रहा था। विभिन्न अस्पतालों में हर दिन बड़ी संख्या में डेंगू मरीज भर्ती होते रहे।  परन्‍तु राज्‍य का विशाल महकमा स्‍वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्‍याण राजधानी में असफल साबित हुआ,

एनआरएचएम के तहत कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा के दौरान केंद्रीय जल संसाधन मंत्री हरीश रावत ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में स्वास्थ्य मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी और चिकित्सा शिक्षा मंत्री हरक सिंह रावत के दावों की हवा निकाल दी। रावत बोले-डेंगू ने पूरी तरह से एक्सपोज कर दिया है। हेडक्वार्टर पर खून की जांचें नहीं हो पा रही हैं। वहीं,  प्रदेश में बाल मृत्यु दर  तथा लिंगानुपात की ओर भी कोई ध्‍यान नही दिया गया है।

मुख्‍यमंत्री स्‍वयं की प्रशसा करते रहे, हरीश रावत ने आईना दिखाया

मुख्‍यंत्री ने एक कार्यक्रम में कहा था कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने आपदा के बाद यहां बड़ी संख्या में डाक्टरों को भेजा, जिससे आपदा के बाद कोई महामारी नहीं फैल पाई। आजाद दिल्ली में उत्तराखंड की बड़ी शिद्दत से पैरोकारी करते रहे हैं, जिससे कई काम आसान हो गए। मुख्यमंत्री ने अपने मंत्रियों की तारीफ करते हुए स्वास्थ्य मंत्री और चिकित्सा शिक्षा मंत्री के व्यक्तित्व को विराट बताया।  मंत्री हरीश रावत ने इस बड़बोलेपन पर कायदे से पलीता लगाया। बोले कि हालत यह है कि डेंगू की जांच नहीं हो पा रही। अगर केंद्र की मदद नहीं आई तो कुछ नहीं हो पाएगा। निजी क्षेत्र के लोग अस्पताल खोल तो रहे हैं लेकिन वहां इलाज कराने की जनता की क्षमता ही नहीं है।

डेंगू ने राजधानी दूनघाटी में भी असर दिखाया।  इसके अलावा  राजधानी देहरादून जनपद के ही अन्‍तर्गत आने वाले जौनसार बावर की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह चौपट है।  जौनसार बावर क्षेत्र के मरीजों का बुरा हाल  रहता है।  मरीजों की न तो जांचें हो ती रही हैं और न ही दवाई मिल ती  है। सीएचसी चकराता के साथ ही क्वासी, त्यूणी, माक्टी, बरौंथा में भी बुरा हाल है।

राज्य गठन के इन तेरह वर्षो में पहाड़ी राज्य में जो बुनियादी सुविधाओं का थोड़ा-बहुत ढांचा खड़ा हो पाया था, उसको बीती जून में कुदरत के कहर ने तकरीबन पूरी तरह ही तबाह कर दिया है। खासतौर पर पांच पहाड़ी जिलों में सैकड़ों सड़कें, पुल, संपर्क मार्ग, सार्वजनिक व निजी भवन, विद्युत व पेयजल लाइनें, स्कूल व अस्पताल आदि को सर्वाधिक क्षति पहुंची है। सड़कें व संपर्क मार्ग ध्वस्त होने से दर्जनों गांव बाकी दुनिया से कट चुके हैं। ऐसे इलाकों में जिंदगी को फिर से पुराने ढर्रे पर लाना सीमित आर्थिक संसाधनों व विषम परिस्थितियों वाले राज्य के लिए पहले ही कम बड़ी चुनौती नहीं है।  पहाड़ पर जिंदगी ही ढर्रे पर नहीं लौटी, तो राज्य की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तीर्थाटन व पर्यटन व्यवसाय कैसे पुनर्जीवित हो पाएगा, यह भी बड़ा सवाल है।  साथ ही,  चार पौराणिक धामों के लिए विश्वप्रसिद्ध उत्तराखंड चीन व नेपाल की सीमा से सटे होने की वजह से सामरिक लिहाज से भी बेहद संवेदनशील है।

आपदा के छह माह बीतने के बावजूद भी प्रभावित क्षेत्रों में जीवन पटरी पर न लौट पाना चिंता का विषय है। सरकार की ओर से भले ही आपदा प्रभावितों के कल्याण के लिए घोषणाओं के अंबार लगाए गए हैं मगर इनके धरातल में उतरने में लग रहा समय सरकारी कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न लगाता है। दरअसल, जून में आई आपदा ने पर्वतीय निवासियों को बुरी तरह तोड़ कर रख दिया है। सिर से साया उठा, साथ ही छत भी उजड़ गई। सरकार ने घोषणाओं का मरहम लगाया तो जीवन के पटरी पर आने की उम्मीद जगी।  सरकार को केंद्र से धन तो खूब मिला लेकिन अभी इसके प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंचने का इंतजार है।   आपदा प्रभावित क्षेत्रों में कामचलाऊ मार्गो से ही आवाजाही हो रही है। अभी भी सरकार आपदा में दिए जाने वाले मुआवजों को ही अपनी उपलब्धि के रूप में प्रचारित कर रही है।   बिजली, पानी व सड़क से संबंधित अधिकांश क्षतिग्रस्त योजनाएं अभी तक पुनर्निर्माण का इंतजार कर रही हैं। यहां तक कि आपदा प्रबंधन के दावे हवाई साबित हुए हैं। आपदा के बाद भी सुस्त गति से चल रहे कार्यो से सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती।

 खेलों को लेकर राज्‍य सरकार के झूठे दावे

;उत्तराखंड में खेलों को लेकर सरकार दावे तो खूब करती रही है, इंटरनेशनल स्‍टेडियम आदि आदि, लेकिन उसकी कथनी और करनी में अंतर है।   यहां के खिलाडि़यों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन किया, लेकिन इसमें राज्‍य सरकार का कोई योगदान नहीं रहा। खिलाड़ियों ने अपने दम पर ये उपलब्धियां हासिल कीं।   राज्य सरकार ने खिलाड़ियों के लिए अवार्ड देने की घोषणा कर जरूर आशा की एक किरण जगाई, मगर खेलों के बुनियादी पहलू अब भी सरकारों की नजरों से ओझल हैं। इनके अभाव में प्रतिभाएं गांवों से बाहर नहीं निकल पा रही हैं। आलम ये कि अगर कोई खिलाड़ी अपने दम पर भी कुछ कर गुजरने का दंभ भरता है तो सरकारी तंत्र सहारा बनने की बजाए उसकी राह में रोड़े अटकाने का मौका तलाशता है। दरअसल, सरकार खेलों को बढ़ावा देने के नाम पर हवाई घोषणाएं ज्यादा कर रही है।   स्थिति यह कि इन खेलों के लिए टीमों के जो मानक बने हैं, सरकार उन तक का ध्यान नहीं रख रही है। सिर्फ और सिर्फ कागज का पेट भरने और बजट ठिकाने लगाने के लिए इन आयोजनों की औपचारिकता पूरी की जा रही हैं।   राज्य में खेल विकास का  ढांचा तैयार करने की पहल नही की गयी जिसमें अति पिछड़े इलाके के खिलाड़ी भी उम्मीद भर सकते। केवल खेल मैदानों के शिलापट्ट लगाने से कुछ भला नहीं होने वाला, राज्य सरकार की समझ में यह बात नही आ पायी।

राज्‍य सरकार के झूठे दावे-

 उत्‍तराखण्‍ड को कभी पर्यटन तो कभी ऊर्जा प्रदेश के नारों से गुंजाया जाता है लेकिन इनमें कुछ भी न होकर यह एकमात्र हडताल प्रदेश बनता जा रहा है।  आप किसी भी विभाग का रुख कर लीजिए, किसी न किसी कैडर के कर्मचारी हड़ताल पर जरूर मिलेंगे। यही हाल पार्क और मैदानों का है, जहां पूरे दिन धरना-प्रदर्शनों की गूंज रहती है।  इस हाल में क्या सचमुच सूबे का विकास संभव है। शायद इस सवाल की गंभीरता को सरकार भी नहीं समझना चाहती।  सरकार ऊंघाई लेती रहती है, फिर कर्मचारियों का संयम जवाब देता तो सरकार असहाय जैसे मुद्रा में आ जाती है।  कार्मिकों का सड़क पर उतरना शासन और सरकार की विफलताओं का ही नतीजा है।

वही कभी ऊर्जा प्रदेश कहलाने वाला उत्तराखंड आज बिजली के भयावह संकट से जूझ रहा है। सरप्लस स्टेट का खिताब छिने वर्षो बीत गए, लेकिन हालात इतने दुष्कर हैं कि बिजली का ओवर ड्रा भी मुश्किल होता जा रहा है। राज्य के जल विद्युत गृहों में बिजली का उत्पादन इन दिनों आधे से भी कम रह गया है। हर रोज आठ से दस मिलियन यूनिट बिजली खरीदने के बावजूद शहर और गांव भारी कटौती झेलने को विवश हैं।   असलियत यह है कि प्लान कागज में तो हैं, लेकिन क्रियान्वयन की स्थिति बेहद खराब है। सच्चाई यही है कि यदि क्रियान्वयन हुआ भी तो इतनी धीमी गति से तय समय कब गुजर गया पता ही नहीं चलता। जाहिर है यह देरी हर पहलू पर भारी पड़ती है। इससे न केवल लागत बढ़ती है, बल्कि इसका अपेक्षित लाभ भी नहीं मिल पाता। अंतत: बात फिर तंत्र की कार्यप्रणाली पर आकर टिक जाती है। सवाल यही है कि हम इस दिशा में कब गंभीर होंगे। देखा जाए तो जल, जंगल और जमीन का नारा देने वाले इस राज्य में हम इन तीनों ही संपदाओं का सदुपयोग करने में चूक रहे हैं।

रुद्रप्रयाग जनपद में केदारनाथ आपदा में तबाह हुई जिले की दो जल विद्युत परियोजनाओं के पुर्ननिर्माण पर संकट के बादल छाए हुए हैं।  केदारघाटी में निर्माणाधीन सुरंग आधारित 99 मेगावाट की सिंगोली-भटवाडी व 76 मेगावाट की फाटा-ब्यूंग जल विद्युत परियोजनाएं 16 जून की आपदा में भारी नुकसान पहुंचा है। इन परियोजनाओं पर 12 सौ करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, और अस्सी फीसदी कार्य पूरा हो चुका था, लेकिन आपदा ने कंपनियों को पांच सौ करोड़ का नुकसान पहुंचाया है। इतनी बड़ी तबाही के बाद इन कंपनियों के पुर्ननिर्माण को लेकर अभी तक कोई रुपरेखा नहीं बन पाई है। वर्तमान में कंपनी में कार्यरत तेरह सौ लोग भी बेरोजगार हैं। फाटा-ब्यूंग जल विद्युत परियोजना का निर्माण कार्य वर्ष 2014 में पूर्ण होना है, वहीं सिंगोली-भटवाडी परियोजना का कार्य वर्ष 2015 में पूर्ण किया जाना प्रस्तावित था।

विद्युत परियोजनाओं से क्षति; -सिंगोली-भटवाडी परियोजना 99 मेगावाट 300 करोड़ 1100 लोग फाटा-ब्यूंग परियोजना – 76 मेगावाट 200 करोड़ 200 लोग ; परियोजना से प्रभावित गांव- 40 गांव

सात साल में सडक नही बन पायी- लोकसभा चुनाव का बहिष्‍कार करेगे ग्रामीण 

रुद्रप्रयाग में भरदार क्षेत्र के विभिन्न गांव को जोड़ने वाला जवाड़ी-मल्यासू-कोटली-बांसी मोटरमार्ग का निर्माण कार्य शुरू न होने से क्षेत्र के ग्रामीणों ने घोषणा की है कि यदि शीघ्र मोटरमार्ग निर्माण का कार्य शुरू नहीं किया जाता है तो ग्रामीण आगामी लोक सभा चुनावों का बहिष्कार करेंगे। ग्रामीणों ने जिलाधिकारी डॉ. राघव लंगर को जिलाधिकारी को अवगत कराया कि वर्ष 2005-2006 में यातायात से उपेक्षित क्षेत्र जवाडी से मल्यासू, कोटली, बांसी के गांवों को जोड़ने के लिए 18 किमी मोटरमार्ग की स्वीकृति प्रदान की थी। सात साल बीत चुके है, लेकिन लोनिवि के अधिकारियों की लचर कार्यप्रणाली के चलते मोटरमार्ग की निर्माण की कार्रवाही मात्र दो किमी से आगे नहीं बढ़ पाए है। दो किमी की स्वीकृति जिला योजना से मिली थी, जिस पर लोनिवि रुद्रप्रयाग ने आधा अधूरा निर्माण कार्य छोड़ दिया है। जबकि 16 किमी पर राज्य योजना के अन्तर्गत स्वीकृत मिलने के बाद भी आगे की कार्रवाही शुरू नहीं हो पाई है। उक्त मोटरमार्ग के निर्माण से मल्यासू, कोटली, बांसी, सेरा, स्यारी, सौंरा, सतनी की लगभग दस हजार से अधिक जनता को लाभ मिलेगा। उन्होंने कहा कि यदि शीघ्र मोटरमार्ग का निर्माण कार्य शुरू नहीं किया जाता है तो क्षेत्रीय ग्रामीण आगामी लोक सभा चुनावों का बहिष्कार करेंगे।

रुद्रप्रयाग: जनपद में कर्मचारियों व अधिकारियों की भारी कमी से जहां सामान्य कामकाज प्रभावित हो रहा है, वहीं आपदा के कार्य भी सुचारू रूप से संचालित करने में दिक्कतें आ रही हैं, लेकिन सरकार इस ओर से मुंह मोड़े हुए है। जिस कारण लोगों में रोष है।

रुद्रप्रयाग: जनपद में पिछले छह महीने में सरकार भले ही आपदा से निपटने व आपदा प्रभावितों को हरसंभव मदद का दावा करती हो, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। आपदा से निपटने में रुद्रप्रयाग जनपद में अधिकारियों व कर्मचारियों की भारी कमी है। जनपद के 32 विभागों में वर्तमान समय में 853 कर्मचारियों के पद रिक्त हैं।  आपदा प्रभावित क्षेत्रों में पुर्ननिर्माण होना है। ध्वस्त हुए सरकारी संपत्तियों का भी फिर से निर्माण होना है, लेकिन यह होगा कैसे, जब अधिकांश विभागों में कर्मचारी ही नहीं है। सरकारी संपत्तियों का निर्माण होना है जबकि कर्मचारियों तो वहां है ही नही।  आपदा प्रभावित जनपद में बड़ी संख्या में पद खाली हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here