**कांग्रेस पार्टी के यह ‘होनहार सलाहकार’

0
14

**निर्मल रानी
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देश के सबसे प्राचीन राजनैतिक संगठनों में है। 1885 में अपने अस्तित्व में आने से लेकर आज तक कांग्रेस पार्टी ही देश के सबसे बड़े राजनैतिक संगठन के रूप में अपना स्थान बनाए हुए है। देश की स्वतंत्रता से लेकर स्वतंत्रता के उपरांत देश पर सबसे लंबे समय तक शासन करने का सेहरा भी इसी कांग्रेस पार्टी के सिर पर बांधा जाता है। धर्म निरपेक्ष एवं गांधीवादी विचार धारा को साथ लेकर चलने वाली कांग्रेस के साथ एक और कड़वा सच यह भी जुड़ा हुआ है कि देश में अब तक किसी भी राजनैतिक दल का इतनी बार विभाजन नहीं हुआ जितना कि कांग्रेस पार्टी  का हो चुका है।
परंतु बार-बार टूटने-बिखरने व कमज़ोर पडऩे के बावजूद आज भी देश में सबसे बड़े राजनैतिक संगठन के रूप में इसका बने रहना इस बात का प्रमाण है कि भारतीय जनमानस में कांगेस पार्टी की विचार धारा गहराई तक समाई हुई है। प्रश्र यह है कि जब देश की जनता अनेक बार पार्टी के टूटने,बिखरने व विभाजित होने के बाद भी कांग्रेस पार्टी को ही अभी तक सबसे अधिक सीटें देकर लोक सभा में भेजती आ रही है फिर आख़िर बार-बार इसके बिखरने का कारण क्या है?
दरअसल कांग्रेस पार्टी ‘खुद घर को आग लग गई घर के चिराग से’ मिसरे को चरितार्थ करती आ रही है। जहां कांग्रेस  के साथ महात्मा गांधी,पंडित नेहरू,सरदार पटेल,अबुल कलाम आज़ाद जैसे तमाम वरिष्ठतम एवं अनुभवी राजनेताओं के नाम जुड़े हुए हैं वहीं दुर्भाग्यवश यही पार्टी प्रारंभ से ही अनुभवहीन,स्वार्थी,चापलूस तथा बिना जनाधार वाले नेताओं की भी पनाहगाह रही है। और यह सिलसिला आज तक क़ायम है। परिणामस्वरूप जहां कांग्रेस पार्टी के लोकप्रिय व बड़े जनाधार वाले नेतागण पार्टी को संगठित रखने,इसे संकट से उबारने तथा इसका जनाधार बनाए रखने की सफल कोशिशें करते रहे हैं,वहीं पार्टी को इसके अनुभवहीन नेताओं द्वारा समय-समय पर भारी नु$कसान भी पहुंचता रहा है। मज़े की बात तो यह है कि इस प्रकार के कई अनुभवहीन सलाहकारों की सलाह पर अमल करने व इसके बाद इसका भारी नुकसान उठाने के बावजूद पार्टी को बार-बार उसी प्रकार के फैसलों को दोहराते हुए भी देखा गया।
परिणामस्वरूप कहीं पार्टी ने विभाजन का सामना किया तो कहीं दल बदल से रूबरू हुई। कभी कोई वरिष्ठ साथी इन्हीं गलत फैसलों के चलते पार्टी छोडक़र विपक्षी दलों की पंक्ति में जा खड़ा हुआ तो कभी पार्टी को इस स्तर पर विभाजन को सामना करना पड़ा कि कांग्रेस से बाहर जाने वाले नेताओं ने स्वयं अपना क्षेत्रीय दल गठित कर लिया। और आज इन्हीं परिस्थितियोंवश कांग्रेस पार्टी छोड़ कर गए तमाम वही नेता जिन्हें कांग्रेस पार्टी ने ही देश में पहचान दी उन्हें देश से परिचति कराया तथा उनकी प्रतिभाओं को फलने-फूलने का अवसर दिया वही नेता गण कांग्रेस पार्टी से ही दो-दो हाथ करने को आमादा दिखाई देते हैं।
पार्टी के इन गैऱ तजुर्बेकार सलाहकारों की सलाह पर लिया गया ऐसा ही एक $फैसला पिछले दिनों उत्तराखंड राज्य में सरकार बनाने को लेकर लिया गया । उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद के तीन मज़बूत दावेदारों के बजाए पार्टी ने टिहड़ी से सांसद तथा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के पुत्र विजय बहुगुणा को राज्य का मुख्यमंत्री बनाए जाने का फैसला ले लिया। इस घटनाक्रम में पार्टी को  जितनी फ़ज़ीहत का सामना करना पड़ा पार्टी की उतनी $फज़ीहत पहले कभी होती हुई नहीं देखी गई। पहले तो मुख्यमंत्री पद के सबसे मज़बूत दावेदार हरीश रावत को पार्टी आलाकमान ने यह समझा कर मुख्यमंत्री पद की दौड़ से अलग कर दिया कि चूंकि वे सांसद हैं इसलिए पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री बनाने व संसदीय सीट खाली कराए जाने तथा बाद में फिर एक विधानसभा सीट खाली कराए जाने, तत्पश्चात एक संसदीय व एक विधानसभा सीट पर उपचुनाव कराने जैसा ज़ोखिम नहीं उठा सकती।
एक वफादार कांग्रेस कार्यकर्ता होने के नाते हरीश रावत वरिष्ठ पार्टी नेताओं की इस बात को मान गए तथा उन्होंने नया मुख्यमंत्री किसे बनाया जाए इस बात का निर्णय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर छोड़ दिया। परंतु पार्टी के इन्हीं ‘होनहार सलाहकारों’ ने कांग्रेस अध्यक्ष को न जाने किस समीकरण के मद्देनज़र विजय बहुगुणा को राज्य का मुख्यमंत्री बनाए जाने की सलाह दे डाली। राजनैतिक सूझ-बूझ रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति इस बात को भलीभांति समझ रहा है कि राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में विजय बहुगुणा की ताजपोशी महज़ ‘लॉबिंग’ तथा सोनिया गांधी को दी गई $गलत सलाह का नतीजा है। यह तो भला हो हरीश रावत व उनके वफादार कांग्रेसी विधायकों का जिन्होंने पार्टी आलाकमान विशेषकर सोनिया गांधी की बातों को मानते हुए विजय बहुगुणा के साथ कुछ फार्मूलों के आधार पर सुलह-सफाई कर ली। अन्यथा ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कांग्रेस उत्तराखंड में एक बार फिर नए विभाजन तथा एक नए क्षेत्रीय दल के गठन की ओर बढ़ रही है।
उत्तराखंड में कांग्रेस पार्टी को भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले में केवल एक सीट अधिक प्राप्त हुई है। निर्दलीय विधायकों तथा बहुजन समाज पार्टी के समर्थन से पार्टी राज्य में सरकार चलाने की कोशिश कर रही है। परंतु इन सब के बीच यह बात किसी के भी गले नहीं उतर पा रही कि आखिर पार्टी के ‘होनहार सलाहकारों’ ने किस आधार पर विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री मनोनीत किए जाने की सलाह कांग्रेस अध्यक्ष को दे डाली। यदि ईमानदारी से तथा निष्पक्षता के साथ देखा जाए तो विजय बहुगुणा का उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में कोई दावा ही नहीं बनता था। वे प्रारंभ से ही अपने पिता स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा व माता कमला बहुगुणा के साथ इलाहाबाद में ही रहा करते थे। उनके पिता व माता इलाहाबाद से ही चुनाव भी लड़ते थे। उन्होंने व उनके पूरे परिवार ने अपना कैरियर इलाहाबाद में ही रहकर संवारा।
गोया उत्तराखंड के लोगों के मध्य उनकी कोई खास पकड़ अथवा पैठ नहीं थी। इसमें कोई शक नहीं कि उत्तराखंड के अस्तित्व में आने से पूर्व संयुक्त उत्तर प्रदेश के समय में स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा का उत्तराखंड के लोग बेहद सम्मान करते थे। परंतु उत्तराखंडवासियों के मध्य समय न देने के कारण विजय बहुगुणा के साथ वैसी स्थिति नहीं थी। हां पिछली बार चुनावों के समय उन्होंने टिहरी से लोकसभा का टिकट लेने व उसमें विजयी होने में सफलता ज़रूर हासिल की। जबकि ठीक इसके विपरीत हरीश रावत को राज्य के सबसे वरिष्ठ नेता नारायण दत्त तिवारी के बाद पार्टी का सबसे लोकप्रिय नेता माना जाता है। हालांकि राज्य में मुख्यमंत्री पद को लेकर मची उथल-पुथल में फिलहाल खामोशी ज़रूर दिखाई दे रही है परंतु यह खामोशी किस दिन भयंकर राजनैतिक सुनामी का रूप धारण कर ले कुछ कहा नहीं जा सकता।
इसी प्रकार की सलाहों के दर्जनों उदाहरण ऐसे हैं जो कांग्रेस पार्टी के ऐसे ही गैर तजुर्बेकार व बिना जनाधार रखने वाले अनुभवहीन सलाहकारों द्वारा कांग्रेस आलाकमान को बार-बार दिए गए हैं। परिणामस्वरूप कभी तमिल मनीला कांग्रेस (टी एम सी)अस्तित्व में आई और जी के मूपनार जैसे वरिष्ठ व समर्पित कांग्रेस नेता पार्टी को छोडक़र दूसरा क्षेत्रीय दल बना बैठे तो कभी तृणमूल कांग्रेस के रूप में कांग्रेस से टूटा हुआ एक क्षेत्रीय संगठन देश में पार्टी के लिए चुनौती बनता नज़र आने लगा। कभी कांग्रेस एस बनी तो कभी कांग्रेस तिवारी। कभी पार्टी 1987 में अमिताभ बच्चन से लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र मांगती दिखाई दी तो कभी उसी इलाहाबाद सीट पर विश्वनाथ प्रताप सिंह के मुकाबले सुनील शास्त्री जैसे कमज़ोर उम्मीदवार को उपचुनाव लड़वा कर देश को गठबंधन सरकार की राजनीति के दौर में धकेलती नज़र आई। कभी लालू यादव का साथ पकड़ा तो कभी शिब्बू सोरेन का। कभी मुफ्ती मोहम्मद सईद से गलबहियां कीं और मुंह की खाई। तो कभी जयललिता अथवा करुणानिधि से रिश्ता बनाने का खमियाज़ा पार्टी को भुगतना पड़ा। कुल मिलाकर पार्टी को इन सभी हालात का सामना केवल अपने गलत व गैर तजुर्बेकार सलाहकारों की सलाह पर अमल करने की वजह से ही करना पड़ा है।
अत: ज़रूरत इस बात की है कि कांग्रेस  आलाकमान इस विषय पर बहुत गंभीरता से चिंतन करे कि उसके किन-किन सलाहकारों ने किन-किन अवसरों पर कैसी-कैसी सलाहें दी हैं और उनके क्या-क्या नकारात्मक परिणाम हुए हैं। और ऐसे ‘होनहार सलाहकारों’ की शिनाख्त कर यदि उन्हें पार्टी से दरकिनार न भी किया जाए तो कम से कम उनकी सलाह रूपी सेवाएं लेनी तो ज़रूर बंद कर दी जाएं। अन्यथा ऐसे नीम-हकीम $खतर-ए-जान सरीखे सलाहकार खुद तो डूबें या न डूबें परंतु पार्टी को तो अपनी ऐसी ‘बेशकीमती सलाहों’ की बदौलत एक दिन ज़रूर ले डूबें गे।

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer)
1622/11 Mahavir Nagar
Ambala City  134002
Haryana
phone-09729229728

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here