कहां गांधी-पटेल और कहां भाई नरेन्द्र मोदी

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तनवीर जाफ़री**,,
प्रचलित कहावत है- जो दिखता है वह बिकता है। परंतु लगता है व्यवसाय व राजनीति के मध्य रिश्ते प्रगाढ़ होने के साथ -साथ व्यवसायिक उपयोग में आने वाली कहावतें अब राजनैतिक क्षेत्र में भी सही साबित होने लगी हैं। भले ही प्रत्येक राजनीतिज्ञ जो दिखता है वह बिकता है की कहावत का पात्र न हो परंतु देश की राजनीति में कुछ महारथी ऐसे भी हैं जो दिखने और बिकने की गरज़ से ही अपनी राजनीति को मात्र अभिनय,दिखावा, विज्ञापन तथा मार्किटिंग के आधार पर ही संचालित कर रहे हैं। कहना $गलत नहीं होगा कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही अन्य क्षेत्रों में कितने भी पीछे क्यों न हों परंतु राजनीति के इस दिखने और बिकने वाले व्यवसायरूपी फंडे में सबसे आगे हैं। बेशक गुजरात की जनता ने उन्हें तीसरी बार अपना मुख्यमंत्री निर्वाचित कर लिया है परंतु इस बार उन्होंने सत्ता में अपनी वापसी के लिए अपनी मार्किटिंग संबंधी कोई कमी बाकी नहीं छोड़ी थी। नरेंद्र मोदी ने अपने पिछले शासन के दौरान बड़ी ही चतुराई एवं षड्यंत्र के द्वारा जहां आम गुजरातियों के दिलों में सांप्रदायिकता का ज़हर बोया तथा संाप्रदायिक आधार पर समाज में विघटन पैदा किया वहीं अपनी इस नकारात्मक उपलब्धि पर उन्होंने राज्य के विकास का लेप चढ़ाने की ज़ोरदार कोशिश भी की। और कहा जा सकता है कि इन्हीं हथकंडों के परिणामस्वरूप वे सत्ता में वापस आने के अपने एकमात्र मकसद में सफल भी रहे।
इसमें कोई शक नहीं कि देश के सभी राज्यों के मुख्यमंत्री अपने शासन की उपलब्धियों का बखान करने के लिए सरकारी फंड का भरपूर उपयोग करते हैं। जिस राज्य में भी जाईए वहां के मुख्यमंत्री के चित्र के साथ जनहितकारी योजनाओं का लंबा-चौड़ा ब्यौरा कोर्ट-कचहरी,स्टेशन व भीड़-भाड़ वाले प्रमुख स्थलों पर इश्तिहार,बोर्ड व फ्लेक्स आदि के रूप में दिखाई दे जाता है। राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चित्र भी प्रत्येक राज्य में योजना संबंधी इश्तिहारों में ऐसे प्रकाशित होते हैं गोया इन योजनाओं पर माननीय मुख्यमंत्री जी अपनी जेब से ही पैसे खर्च कर रहे हों। सच पूछिए तो जनसंपर्क विभाग द्वारा राज्य के मुख्यमंत्रियों की इस प्रकार की मार्किटिंग करने में इतना पैसा खर्च कर दिया जाता है जितने पैसे में एक अच्छी-खासी लोकहितकारी योजना चलाई जा सके। परंतु इन राजनीतिज्ञों का मुख्य मक़सद तो दरअसल सरकारी पैसों के बल पर अपने नाम का ढिंढोरा पीटना ही होता है। लिहाज़ा वे प्राथमिकता के आधार पर इसी काम को अंजाम देते हैं। गुजरात में भी यही हो रहा है। बल्कि देश के सभी राज्यों से अलग हटकर पेशेवर तरीके से नरेंद्र मोदी की मार्किटिंग अंतर्राष्ट्रीय विज्ञापन विशेषज्ञों द्वारा की जा रही है। दुनिया की नज़रों में उनकी सांप्रदायिक नेता की बन चुकी छवि के ऊपर विकास पुरुष का मुखौटा लगाने जैसे तमाम काम किए जा रहे हैं। और इसी सिलसिले की एक कड़ी के रूप में उनके मार्किटिंग सलाहकार व मैनेजर गुजरात में अपना सर्वोच्च $कद रखने वाले दो प्रमुख महापुरुषों महात्मा गांधी तथा सरदार वल्लभ भाई पटेल से नरेंद्र मोदी की तुलना कर रहे हैं।

ज़रा सोचिए कि कितना विरोधाभास है मोदी के शुभचिंतकों, उनके समर्थकों व उनके प्रचार व मार्किटिंग की लगाम संभालने वाले लोगों की बातों में। पिछले दिनों एक समाचार पत्र में एक भाजपाई नेता का एक आलेख इस शीर्षक के साथ छपा कि ‘गुजरात ने सेक्युलर दावों को ठुकराया’। गोया इस लेखक का यह आशय है कि गुजरात मोदी के पुन: चुनाव जीतने के बाद अब धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा। ऐसे विचार भाजपाई नेता उस समय व्यक्त कर रहे हैं जबकि नरेंद्र मोदी को 2007 के चुनाव की तुलना में इस बार दो सीटें कम मिली हैं जबकि कांग्रेस पार्टी को दो सीटें अधिक प्राप्त हुई हैं। यानी सांप्रदायिकता कमज़ोर हुई है और धर्मनिरपेक्षता मज़बूत होती दिखाई दे रही है। फिर भी मोदी को सेक्युलरिज़्म के विरुद्ध खड़ा होने वाला एक योद्धा बताया जा रहा है। अब ज़रा मोदी मार्किटिंग फंडा भी मुलाहज़ा फरमाईए। पूरे गुजरात में नरेंद्र मोदी के चुनाव से पूर्व तथा चुनाव जीतने के बाद शपथ ग्रहण समारोह तक जगह-जगह तमाम ऐसे इश्तिहार देखे गए जिनमें महात्मा गांधी,सरदार पटेल तथा नरेंद्र मोदी के नाम व चित्र एक साथ छपे हुए थे। यानी मोदी के प्रचारक उनकी तुलना गुजरात के इन ऐसे दो महापुरुषों से कर रहे थे जो धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस पार्टी के नेता थे तथा जिनका नाम देश के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाता है। क्या नरेंद्र मोदी की तुलना गांधी व पटेल से करना उचित है? क्या यह नेता भी धर्मनिरपेक्षता के विरोधी थे? क्या इनकी छवि भी कट्टर हिंदुत्ववादी की थी? फिर आख़िर यह कैसी राजनीति है कि एक ओर तो नरेंद्र मोदी भाजपाई लेखकों के माध्यम से स्वयं को धर्मनिरपेक्ष भी नहीं बताना चाहते और दूसरी ओर वे बड़ी ही चतुराई से अपनी तुलना महात्मा गांधी व सरदार पटेल जैसे महापुरुषों से करवाने से भी नहीं चूकते।
नरेंद्र मोदी ने अपने इसी पेशेवर प्रचार माध्यम तथा मार्किटिंग के दम पर गत् वर्षों में गुजरात के विकास का ऐसा ढोल पीटा गोया उनके सत्ता में आने के बाद गुजरात भारत ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे प्रगतिशील राज्य बन गया हो। परंतु पिछले दिनों सामने आए ताज़ातरीन आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2006-2010 की ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान बिहार ने विकास दर के लिहाज़ से गुजरात को पीछे छोड़ दिया। इन पांच वर्षों में बिहार की विकास वृद्धि जहां 10.9 प्रतिशत की दर से दर्ज की गई वहीं इसी दौरान गुजरात की विकास वृद्धि पहले की तुलना में धीमी पड़ी और यह 9.3 प्रतिशत तक ही रही। जबकि 2001-2005 के दौरान बिहार की विकास वृद्धि मात्र 2.9 थी और इस दौरान गुजरात 11 प्रतिशत विकास की दर से आगे बढ़ रहा था। परंतु वर्तमान समय में देश के 17 राज्य ऐसे हैं जो तेज़ी से विकास करते जा रहे हैं तथा उनकी विकास वृद्धि की दरों में भी इज़ाफा होता जा रहा है। जबकि केवल गुजरात राज्य ऐसा है जिसकी विकास दर में पहले की तुलना में कमी आई है। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी ने अपने मार्किटिंग मैनेजर्स के हाथों पूरी दुनिया में यह ढिंढोरा पीटने में कोई कसर बाकी नहीं रखी जिससे दुनिया को यह पता लगे कि मोदी के नेतृत्व में गुजरात विश्व के सबसे प्रगतिशील राज्यों में एक हो गया है। इसके लिए उन्होंने अमिताभ बच्चन जैसे महान कलाकार का भी सहारा लिया तथा उन्हें राज्य का ब्रांड अंबैसडर बनाकर राज्य की कथित विकास गाथा का ज़ोरदार ढोल पीटा।

मोदी की मार्किटिंग का सिलसिला उनके पुन:मुख्यमंत्री निर्वाचित होने तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि नरेंद्र मोदी अब अपने इसी व्यवसायिक फंडे के बल पर देश का प्रधानमंत्री बनने के सपने भी ले रहे हैं। अन्यथा पिछले दिनों दो राज्यों गुजरात व हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम सामने आए। दोनों जगह शपथ ग्रहण समारोह हुए। इनमें हिमाचल प्रदेश में तो सत्ता परिवर्तन भी हुआ। परंतु हिमाचल के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने अपने शपथ ग्रहण समारोह का न तो कोई ढिंढोरा पीटा न ही इस समारोह की मार्किटिंग करवाई। परंतु प्राप्त समाचारों के अनुसार नरेंद्र मोदी का शपथ ग्रहण समारोह उनके मार्किटिंग प्रबंधकों द्वारा कुछ इस ढंग से आयोजित किया गया जैसे कि किसी विदेशी तंत्र के हाथों से सत्ता लेकर राज्य को पराधीन से स्वाधीन बनाया गया हो। पूरा का पूरा समारोह भगवा रंग से शराबोर था। संतों व महात्माओं का भारी जमावड़ा था। अपने भक्तों को आशीर्वाद देने वाले सम्मानित संत-महंत नरेंद्र मोदी को आशीर्वाद देने के बजाए उनका आशीर्वाद प्राप्त करने, उनकी एक झलक पाने तथा उनसे हाथ मिलाने के लिए आतुर दिखाई देने की मुद्रा में खड़े हुए थे। अहमदाबाद के सरदार वल्लभ भाई पटेल स्टेडियम में हो रहे इस शपथ ग्रहण समारोह को अमेरिका व ब्रिटेन सहित दुनिया के 80 से अधिक देशों में दिखाया जा रहा था। क्या महात्मा गांधी व सरदार पटेल भी राजनीति की ऐसी मार्किटिंग शैली को पसंद करते थे जिसमें कि जनता के पैसों का इस $कद्र दुरुपयोग मात्र अपनी छवि को सुधारने या उसे राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करने के लिए किया जाए?

स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी यह सब कुछ केवल इसलिए कर रहे हैं ताकि गुजरात पर तो उनकी पकड़ बनी ही रहे साथ-साथ वह गुजरात की सत्ता के माध्यम से तथा उसे आधार बनाकर दिल्ली दरबार तक का सफर तय कर सकें। और राष्ट्रीय नेता दिखाई देने की अपनी चाहत के इसी सिलसिले में उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में अपने भविष्य के संभावित सहयोगियों प्रकाश सिंह बादल, जयललिता, उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे व ओम प्रकाश चौटाला जैसे अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग राजनैतिक दलों के नेताओं को आमंत्रित किया। परंतु राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अभी तक सहयोगी समझे जाने वाले उपरोक्त सभी नेताओं की राजनैतिक हैसियत इतनी नहीं है कि वे नरेंद्र मोदी को अपने दम पर देश का प्रधानमंत्री बनवा सकें। ओम प्रकाश चौटाला की ही शपथ समारोह में मौजूदगी को लेकर हरियाणा भाजपा इकाई $खुश नहीं दिखाई दे रही है।

बल्कि हरियाणा भाजपा का कहना है कि चौटाला का गुजरात जाना महज़ एक गलतफहमी पैदा करना है तथा हरियाणा में भाजपा व जनहित कांग्रेस के मध्य समझौता पूर्ववत् जारी रहेगा। हां उम्मीद के मुताबिक बिहार के मुख्यमंत्री तथा राजग में भाजपा के सबसे बड़े घटक दल जेडीयू के नेता नितीश कुमार, मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुए। गोया नितीश कुमार ने एक बार फिर यह संदेश दे दिया कि मोदी के मार्किटिंग मैनेजर्स भले ही उनको महात्मा गांधी व सरदार पटेल के समतुल्य खड़ा करने की कितनी ही कोशिशें क्यों न करें परंतु नितीश की नज़रों में नरेंद्र मोदी 2002 के गुजरात दंगों के दागदार एक सांप्रदायिक नेता ही हैं। उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े राज्य से भी समाजवादी या बहुजन समाज पार्टी का कोई भी नेता समारोह में शामिल नहीं हुआ। नवीन पटनायक व चंद्रबाबू नायडू जैसे राजग सहयोगी भी वहां नज़र नहीं आए। ऐसे में नरेंद्र मोदी के मीडिया मैनेजर्स की उस सोच पर तरस आना स्वाभाविक है जिसके आधार पर वे मोदी की तुलना गुजरात में जन्मे महात्मा गांधी व सरदार पटेल जैसे दूरदर्शी महापुरुषों से करने लगते हैं और राष्ट्रीय स्वयं संघ के पूर्व प्रमुख के उस वक्तव्य को भूल जाते हैं जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी को एक बड़ा षड्यंत्रकारी नेता बताया था।

 

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**Tanveer Jafri ( columnist),(About the Author) Author Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.
(Email : tanveerjafriamb@gmail.com)

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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC.

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