कश्यप किशोर मिश्र की पांच कविताएँ

9
31

कवि कश्यप किशोर मिश्र के पास कविता की भाषा है।  भाषा सरल है और समृद्ध  भी।  इनकी कविताओं में एक पिता का दर्द है और एक बेटी की संवेदनाएं भी।  कवि एक पिता की पीड़ा  को  बहुत ही बारीकी और संवेदनशीलता से अपनी कविताओं में रेखांकित करते हैं।  समाज , शासन और प्रशासन की बर्बर और संवेदनविहीनता से आहत है कवि।  ये कवितायेँ उसी की उपज हैं।
-नित्यानन्द गायेन

कश्यप किशोर मिश्र की कविताएँ

1.हँसो तानाशाह हँसो !

ख़ामोशी का शोर, बहुत गहरा होता है,
बड़ी टीस पहुचाती है, भुरभुरी बर्फ सी चुप्पी|
ख़ामोशी की चादर, ढँक देती है, प्रतिरोध की सूरत |
कुछ भी नहीं बदलता, प्रतिरोध रहता है, जस का तस |
बस एक परदा चढ़ जाता है, ख़ामोशी का |
जैसे पसर जाती है, बर्फ दूर दूर तक,
जो भी होता है, उसे वैसे ही रखे, बस ढक कर |
गहन चुप्पी का परदा,
बहुत डराता है,
सोने नहीं देता सारी रात,
तानाशाह करवटे बदलता है |

गो की, भिची मुठ्ठियों से प्रतिरोधी नारे लगाते चेहरे,
चीन्ह लिए जाते है, आसानी से|
लेकिन
ख़ामोशी के परदे तले,
फैलते प्रतिरोध चीन्हे नहीं जाते |
कितने गहरे है, पता ही नहीं चलता |
और एक दिन !
सर्कस का जोकर,
शो के बाद,
या हो सकता है शो के दौरान ही,
अपना मुखौटा उतार फेकता है|

उसके हाथ में है, ख़ामोशी से बना खंजर,
(ख़ामोशी दुनिया की सबसे कठोर वस्तु है,
यह बात किताबों में पढ़ानी खतरनाक मानी जाती है)
जोकर इस खंजर से,
तानाशाही कलेजा चाक कर देता है |
और अपना मुखौटा पहन लेता है |
शो चलता रहता है !

तो, तुम जिस विदूषक के करतबों पर
हँस-हँस के लोटपोट थे,
उसने छिपा रखा था,
खामोश खंजर |
अरे ! ओ तानाशाह !
सुनो साहेब !
तुम्हारी तालियाँ रुक क्यों गई ?
तुम्हारी हंसी को क्या हो गया ?
ओह ! तो तुम भी,
खामोश भंगिमाओ की नक़ल कर रहे हो |
है न ?
करो करो !!!

2. अगर लाहौर जाना

मेरे दादू कहा करते थे,
जिसने लाहौर नहीं देखा उसने दुनियां नहीं देखी,
नूरेजमीं है लाहौर|
बड़ी मुहब्बत थी मेरे दादू को लाहौर से,
वहां के तांगे, हो या तांगेवाले,
वहां की बंद गलियाँ, गलियों के मुहाने के फाटक,
कोट सा शहर, शहर के भीतर, सबके अपने कोट,
दादू कहते,
लाहौर परकोटों का शहर है, बबुआ
बाहर से भी, भीतर से भी|
बूढ़े हो चले थे, दादू
पर अनारकली की बात चलते ही
उनकी ज़र्द आखें टिमटिमा उठती थी|
बताते रहते मेयो कालिज के किस्से,
जो बाद में नेशनल कालिज आफ आर्ट हो गया था|
रीगल पर आकर ठहर जाते थे दादू
वक़्त में पीछे चले जाते थे |
लक्ष्मी चौक, सिंगार बाज़ार, गनपत रोड, धनीराम बाज़ार
न जाने कहाँ कहाँ घूमते रहते ख्यालों में
और घुमाते रहते हमें भी अपने साथ, ख्यालों में ही|
एक तस्वीर लेकर चले थे, दादू लाहौर की
सन अड़तालीस की सितम्बर में,
और बाकी जीवन भर,
वह तश्वीर ही रहा दादू का अपना शहर लाहौर
जहाँ सुबह-सुबह सड़के धोयी जाती थी|
दादू के साथ-साथ एक शहर लाहौर
मेरे ख्यालों का भी बसता चला गया|
अब मेरे लाहौर में भी है, मोरी गली
बादशाही मस्जिद, बादामी बाग़,
रावी का किनारा और सिविल लाइंस भी|

सिविल लाइंस की बात चली तो याद आया
वही कहीं डीएवी कालिज भी है, गुजरे वक़्त का,
उसके बगल से बड़ी साफ़ सड़क गुजरती है,
आगे जाकर रेलवे रोड से मिलती है|
उस सड़क पर पहुचते ही,
जरा आगे बाए मुड़कर एक गली जाती थी
जो खत्म होती थी, मोहल्ले के एक छोटे से मैदान में,
उस मैदान के, पूरब-उत्तर के कोने पर
एक पुराना शिवाला था,
एक पक्की मुंडेर का कुवाँ
और एक ईमली का पुराना पेड़ भी था,
पेड़ के चारो तरफ चबूतरा था,
जो लखौरी ईंटों से बंधा था|
आने के ठीक पहले,
सितम्बर अड़तालीस के एक दिन,
बड़े मायूस से मेरे दादू के पास
जब कोई चारा नहीं बचा,
सिवाय लाहौर छोड़ देने के,
तो रो पड़े थे, उस चबूतरे पर बैठे-बैठे|
एक घर भी था, कही वहीँ
पर उसकी बात उतनी जरूरी नहीं,
इस वक्त ज़रूरी वे आंसू है,
सुनो जायरीन,
मेरे लिए लाहौर जाने वाला
जायरीन ही है,
मेरे दादू के शहर जा रहे हो
उस चबूतरे तक ज़रूर जाना,

चबूतरा मिले न मिले,
शिवाला मिले न मिले,
ईमली का पेड़ मिले न मिले
पर मेरे दादू के आंसुओ की नमी ज़रूर मिलेगी|
उन आंसूओ की नमी को लेते आना,
मेरे मुल्क को उनकी सख्त ज़रूरत है|

3. बेटियों के पापा

दुनियाँ के मेले में,
कुछ पिता,
बेटियों के पापा होते है|
अपनी नन्ही बेटियों को
काँधे टिकाये
बिता देते है, सारी रात,
बिटिया को सुलाते
ख़ुद जागे -जागे|
दुनियां के बाकी पापाओ से
एकदम अलग,
ये बेटियों के पापा
तो बस, बेटियों के पापा होते है |
ये अपनी बेटियों को सिखाते है,
साहस और बहादुरी की बाते|
ये थमा देते है, अपनी बेटियों को साइकिल
थाम लेते है, उसका कैरियर, मजबूती से
और कहते है बेटियों को, बहादुर बनो
मारो पैडल|
और कुछ देर बाद, छोड़ देते है, साईकिल का कैरियर भी|
बेटियां गिर पड़ती है, साइकिल से
और पूछती है
“कैरियर क्यूँ छोड़ा, पापा”
तो ये बेटियों के पापा कहते है,
आज कैरियर छोड़ा
अब कल, इसपर बिठा कर मुझे चलाएगी तू|
और सर सहलाते कह उठते है “बन बहादुर”
बेटियों के पापा, अपनी ताकत पहचानते है|
वह खड़े रहते है,
बेटियों की राह में
उनके रखवार बनकर |
समय के साथ, बेटिया बड़ी और पापा बूढ़े हो जाते है|
अब पापा जर्जर दिवार हो जाते है|
वो रोक नहीं सकते और जादा
अपनी बेटियों की किसी मुश्किल को,
अब वो ख़ुद बूढ़े हो चुके होते है, कमजोर |
इधर बेटिया बड़ी और बहादुर है|
पिता डरता है, समाज से
जो उसकी बेटियों की बहादुरी पसंद नहीं करता
पिता जानता है,
इस समाज के लिए बस एक शिकार है, उसकी बेटियाँ|
पर अब वह बूढा और कमजोर हो चला है|
वह रोकना चाहता है, अब भी
अपनी बेटियों की राह की हर मुश्किल
पर लाचार है|
पर वह रोक सकता है, अपनी बेटियों को |
तो वह रोकने लगता है, अपनी बेटियों को|
बेटियाँ इसे समझ नहीं पाती,
उन्हें यह बड़ा विचित्र लगता है|
पिता का टोका-टोकी करना हर बात पर,
उन्हें परेशान करता है|
वे विद्रोह करती है, पिता से|
एक दिन वो पिता के डर के पार उतर जाती है |
इधर पिता सहलाते है, बेटियों की तस्वीरे,
अकेले में|
वे याद करते है, बेटी की डगमगाती साइकिल,
और फिर सर्र से चलाती साइकिल|
पर वो यह सब बताते नहीं|
अब उन्हें डरपोक होना सुहाता है|
देर रात, कुर्सी की पुस्त पर सर टिकाये पिता,
गर्व कर रहे होते है, अपनी बेटियों पर
कि तभी एक हल्की चट् आवाज होती है|
पिता पहचानते है, अपनी बेटियों की
दबी-छुपी, छुपा-छुपी पदचाप|
तौलिये से वह चेहरा पोछ कठोर हो जाते है|
आमने-सामने अब बेटी-पापा,
पापा कड़कते है
“यह कोई वक्त है, आने का”
बेटी सर झुकाए आगे बढ़ जाती है,
सोचती “कितना बदल गए है, पापा”
इधर पापा बडबडा रहे है|
“हाथ से निकलती जा रही हो, तुम”
अपने अपने बिस्तर में सोये, पापा-बेटी|
पापा चाहते है कहना, बेटी तुम सही हो,
पर मै डरपोक हूँ|
कहना चाहती है, बेटी, वैसी ही तो बनी, पापा
जैसा बनाना चाहते थे, तुम
फिर, यह सब क्या ?
दोनों सही है|

4. जाड़े में आग़

झड चुके पात,
ठूँठ से खड़े गाछ,
कब साँस लेते है ?
पाले से पुसित निस्तब्धता !
छिपी किस खोह , जा हवा ?
ठण्ड ने ले ली समाधी,
बर्फ की चादर बिछा दी .
हर तरफ कोहरे का पहरा ,
जा छुपा सूरज सुनहरा ।
कि तभी लकड़ी चटकती
एक लौ ज्यो भभकती …
नर्म हो सांसे बताती
जाड़े में अग्नि नेह प्यारी
रोटी हमारी -बेटी हमारी.

5.नए साल की सुबह

आज भी अख़बार आया देर से,
ख़बरें वहीँ बस तारीख बदली सी,
एक रस्म निभाते जैसे,
वही चेहरे, वही वादे, वही नारे।
हमेशा कि तरह वसूली करती पुलिस,
ट्रक वालों से,
कि समय हों चुका है “प्रवेश नहीं” का,
…नशे कि खुमारी उतारता एक थानेदार,
याद करता…
उस गोस्त कि लज्ज़त,
जिसकी साँस चलती थी, प्रतिरोध था,
चीखे थी और अंतत, बची रह गयी,
आँखों में बस एक मूक याचना
“अब तो जाने दो”।
रोती नौकरानी
याद करती मां को, और सुबकती है,
उम्र बस सोलह है और बचपना भी है।
उसमे यही तो “वह” है,
जो मालिक को पसंद है।
सिसकती है गावं की भोली बच्ची,
अपने ही मुह से ये सब कहे किससे।
जन्मे है आज, फिर ढेर सारे बच्चे
जिनकी किस्मत में बचपना नहीं है।
नुक्कड़ पर चीख रहा है एक बाप,
अपने मासूम बेटे पर,
“कम्बखत” मर क्यों नहीं जाता,
बस तू ही नहीं है,
और भी बच्चे है मेरे,
मुझे आसरा देने को।
सोचता है बेचारा बच्चा
वो आसरे के लिए,
किस “और” बाप के पास जाये।
याद करती है एक सैनिक कि विधवा,
अपने पति कि शहादत और,
दौड़ती है दफ्तर दर दफ्तर,
पेंसन मुल्तवी है…
थक हार थूकती है,
उस भावना पर…
जिसके लिए उसका पति शहीद हुआ।
रो रहा है एक रिक्सा वाला,
शिकायत जाये करे किससे,
एक सामान कि तरह उठा ले गाए,
उसकी बीबी,
माननीय मंत्री जी के कुछ गुंडे।
फुटपाथ पर एक लाश पड़ी है,
ठण्ड से मर गए
एक भिखारी की…
एक बच्ची निकलती है, घर से,
बाटने को गुलाब,
कहने सभी को “मंगलमय नव वर्ष”
पर…
लाश देखती है, रुक जाती है।
घुटने के बल झुक कर,
न जाने क्या बुदबुदाती है,
और डाल देती है उस निर्जीव पर,
सारे के सारे गुलाब,
लौट जाती है घर,
बिना किसी को कहे,
मंगलमय नववर्ष, चुपचाप।
दम तोडती मनुष्यता
जी उठी…
खीची उसने एक जीवनी साँस,
उस भावना के नाम,
जो लाश पर अर्पित हुए,
बच्ची के गुलाबों के साथ।

प्रस्तुति :
नित्यानन्द गायेन
Assitant Editor
International News and Views Corporation
——————–

कश्यप किशोर मिश्र की पांच कविताएँ,कश्यप किशोर मिश्रपरिचय –

कश्यप किशोर मिश्र

कुछ कविताएँ  पीपुल्स समाचार, अवध दर्पण, नया इंडिया , दैनिक भास्कर आदि अखबारों में प्रकाशित जनज्वार, पल पल इंडिया, जैसे वेब पोर्टल पर भी लेखन  !

रोजीरोटी के लिए चार्टर्ड अकाउंटेंट की नौकरी  पर सुख की नीद शब्दों के बिछौने पर ही आती है ।

दूरभाष संपर्क 09936288931 है और ई-संदेस पता cakashyapcakashyap@yahoo.co.in

 

9 COMMENTS

  1. WAAH MUNSHI JI , MUJHE LAGTA HAI KI KASHYAP BHAI KI TAREEF ME JAB TAK UNHE MU

    “MUNSHI JI” NA KAHA JAYE TAB TAK UNKI PRASHANSHA ADHURI HAI , YADI KISI NE UNKI KAHANIYAN NA PADHI HO TO JAROOR PADHEN

  2. आपकी कविताएं बहुत शानदार हैं ! नए साल की सुबह ..सबसे शानदार हैं ,बधाई हो !
    अभी एयर पोर्ट पर मैंने अपने दोस्त को मालूम किया किया तो उसने इस साईट के बारे बताया ! उसने सच में सही तारीफ़ की थी ! पिछले दो घंटे से इस साईट पर हूँ …इतना कुछ पढ़ा हैं शायद आज ताज मैंने किसी और साईट ,पोर्टल ,फेसबुक अलाबला पर नहीं पढ़ा ! साफ़ सुथरा ,सवच्छंद सा ! हर खबर हैं पर मिर्च मसाले के बिना ,कहानी हैं ,कविता हैं ,क्या क्या नहीं इस साईट पर ….सभी को इस साईट से सीखना चाहियें

  3. बहुत ही बेहतरीन कवितायें हैं , खासकर बेटियों के पापा ..सहज सरल और कथ्य इतने स्पष्ट थे कि कविता में उतरना बहुत आसान लगा निकलना उतना ही मुश्किल ..बधाई स्वीकार करें | नित्या भाई को आभार उनके सतत प्रयास के लिए ..

  4. आपकी हर कविता पढ़ने लायक …याद ,,,चर्चा करने लायक हैं …आलोचकों को भी पढ़नी चाहिए …
    वाह ….सुबह पढ़ने के आना होता हैं इस न्यूज़ पोर्टल पर ….पर रात को ही …सबसे बढिया कदम हैं !

  5. बेटियों के पापा ….पर नज़र …किसी आलोचक की अभी तक क्यूँ नहीं पडी ! क्या आलोचक भी अब चाटुकारिता का शिकार हो गयें ….बहुत बहित उम्दा !!

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here