कवि आयुष झा आस्तीक की दस कविताएँ

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दस  कविताएँ

 (1)  इन दिनों

______
सुईया-धागा प्रतियोगिता में
अव्वल आती रही
किसी लड़की के स्वप्न में
बहत्तर छेद है।
चलनी में पइन भरती आ रही
कुछ महिलायें
पारंगत हो चुकी है
जलोढ़ मिट्टी पर
कैक्टस उगाने में…
विकल्पों के
उपले पाथने वाले हाथों में
कोई तैराक डूब मरे
तो अचंभित मत होना!
छुई-मुई की पत्तियों से
हीरे काटने का
कार्य त्वरित हो रहा है
इन दिनों…
इन दिनों
समय के कैरमबोर्ड पर
युक्तियों का डांसिंग पाउडर
छिड़क दिया गया है…
उजली गोटियों को
एंगल से
काट कर
पिलाने के बजाय
रिवोन्ड खेलना जारी रक्खो…
कब किसी काली गोटी पर
तर्जनी से
खून चूबा कर
क्वीन घोषित कर दिया जाए
कुछ खबर नही।
यात्रा स्ट्राइगर
और मंजिल थर्ड पोकेट है
मेरे दोस्त… smile emoticon
स्ट्राइगर पिला कर
स्मृतियों को गच्छ में
रख दो बोर्ड पर…
प्रेम करना
साँप-सीढ़ी का खेल है।
प्रथम प्रेम 98 का साँप है
जो छोड़ आता रहेगा
तुम्हें बचपन में,
15-19(यौवन) की पूंछ पर…
पर इन दिनों
प्रेम करते हुए आप,
सुविधानुसार सीढ़ियां चढ़ते हुए
हँसी-खुशी 99 तक पहूँचते हो…
यक़ीन मानिये
कि इन दिनो
ज़िन्दगी के लूडो के
डाइस में
एक आने का मतलब
चार कदम पीछे चलना होता है…
सिक्सर लगाते हुए आप
एक्स एक्सिस पर
माइनस इनफिनाइट की
दिशा में
फिर किसी प्रेम में होते हो…


(2)  पूर्वाग्रह

_________
एक(1) के बाद
दो(2) पढ़ते आ रहे
लोगों ने
सवा,डेढ़ और पौने के
अस्तित्व को
आँख मुंद कर खारिज़ किया।
कैलेण्डर के
छुट्टी वाले कुल दिनों पर
लाल रौशनाई छिड़क कर
रविवार घोषित कर दिया गया।
आशिकों ने
विरह की रैना को
सावन-भादो लिखते हुए
खूब आँसू बहाए।
और मिलन के हरेक लम्हा को
बसंत पढ़ा गया…
धान को
सरसों की तरह पीस कर
तेल निकाले गए।
यहां तक कि
कौए के अंडे से
कोकील को जन्मते सुना मैंने…
मैंने देखा
कि डर की
नब्ज़ टटोल कर
मृत घोषित करने वाले
हकीम की मौत
हृदय आघात से हुई।
तथाकथित शुभ चिंतको का
प्रथम खेमा
उस लावारिस लाश पर
सहानुभूति के पत्थर
बरसा रहा था।
और दूसरे खेमा ने
प्रथम खेमा पर
मुकदमा दायर करते हुए
अपने बच्चों को
वकालत पढ़ाने का प्रण किया…
अश्वमेघ यज्ञ में
कुछ गदहों के ललाट पर
घोड़ा लिख कर,
उसे जंगल की तरफ
हांक दिया गया।
कि शहर के
समस्त घोड़े को
गदहा बनने के लिए
विवश किया गया।
कुछ घोड़े
डायनासाॅर की तरह
शनै-शनै लुप्त होते रहे।
और कुछ घोड़ों ने
भैंस की तरह
पगुराना स्वीकार लिया…

 (3)   लड़कियां जो भागना चाहती है

_______________
( 1)
लड़कियां जो भागना चाहती है
लड़कियां क्यूं भागना चाहती है?
क्या कभी देखा है तुमने?
लड़कियों को भागते हुए।
क्या कभी भागी है?
तुम्हारी लड़की भी।
क्या कभी तुमने पूछा?
कि वह क्यूं भागना चाहती है?
भागना चाहती है!
मगर किससे?
किसके साथ?
किसके लिए?
(2)
क्या पता है तुम्हें?
उसके भागने की दिशा।
अच्छा!
जरा बताओ तो,
क्या था उसके फ्राॅक का रंग?
दोलची में कपड़े भी थे,
या कपड़ो में टूटे हुए बटन…
क्या कभी देखा?
उसकी रूह पर
सुईयों के दाग।
काजल से भिक्स की दुर्गंध।
उसकी गुलाबी ख्वाहिशों पर
काले चकते।
न!
ये चींटियो के दाँत के
निशान तो हरगीज़ नही!
ऐसा लगता है
जैसे चिमटे का हो दाग।
दाग पर तिलकूट के दाने,
कि तिल-तिल
भागने लगती है लड़कियां…
( 3)
लड़कियां भागती रहती है ताउम्र
घर्षण से ऊब कर!
घर्षण रहित सतह पर
फिसलते हुए।
जैसे एकांत में
पलकों के झपकने से
टूट रहा है
आसमान से कोई तारा।
लड़कियां
भागती रहती है ताउम्र
उसे लपकने के लिए…
( 4 )
तुमसे,
तुम्हीं से क्या?
वह भागती है स्वयं से भी।
न्यूटन के
द्वितिय गती नियम को
फिर भी
वह करती है
बार-बार स्मरण।
कि कोई हो ,
जो दाँत में फँसा ले
घोड़े का लगाम।
कि कोई हो ,
जो प्यादे कटवा कर
जीत जाए वज़ीर….
( 5 )
सच कहूं दोस्त!
तो लड़कियां
भागना चाहती है।
क्यूंकि लड़कियां
भागना नही चाहती है….
वह भाग कर
पूर्ण तो करना चाहती है अपना अष्टक।
सहसंयोजी बंधन( कोवालेंट बोंड )
के उपरांत
ग्रहण करना चाहती है
स्थायित्व भी।
पर एक तरफ
नाभिक(न्यूकिलियस) में
गिरने का खतरा।
तो एक तरफ
भेड़ियों का शहर…
कि इलेक्ट्राॅन की तरह
वो वृताकार पथ पर
लगाती रहती है चक्कर
कारी-झूमारी खेलते हुए….
( 6)
जैसे जांता में
खेसारी पीसते हुए
गाँव की औरतें
फाँकती रहती है जर्दा।
ठीक उसी तरह
भागती हुई लड़कियां
छोड़ जाती है पगडंडियों पर
कुम्हलाए हुए फूलों की नदी।
कि लड़किया भागती है
भागने से बचने के लिए…
और उसी नदी किनारे
कोई मल्हार,
प्रेयसी की
स्मृतियों में खोए हुए
अलापता है यह राग-
( कि कुन देश गेलये ये चिरई,
हम अछि बेनमा ये!
अहाॅ बिना
पल-पल अइछ बरख समान…
धनकट्टी महीना अइछ,
रोपल कदीमा अइछ!
पर अहाॅ बिना
कुन मुंह करब हम नेवान….)

 (4) ओ पिता,  मेरे पिता!

_________
मेरे समय के रेत में
जगमगाने वाले अभ्रक,
ओ मेरे पिता!
मैं चुनता रहा रातें
दिन को टाल कर!
कभी जुगनू,कभी चिमनी
कभी ध्रुव तारा बने तुम…
मेरी उम्मिदों की
गाभिन बकरियां,
गुमनामियों की
कंटीली झाड़ियों में
ओझरा-पोझरा लटपटाती जब भी।
मेरी हसरतों की
मछलियां,
धूप में धत्ता पर
पटपटा कर,
पानी बिन छटपटाती जब भी।
ओ पिता,
मेरे पिता!
तूने मेरी बदकिस्मती के
अम्ल से भी
जल कर मुझको जल परोसा।
हो तुम पारदर्शी,
पर कुचालक क्षार बन
मुझे लवण परोसा…
पिता क्षार बने तुम
मेरे खातिर!
पिता क्षार बने तुम
मेरे खातिर,
कि हो कभी ना
मेरी उम्मिदों का क्षय!
कि हो सके ना
मेरी हसरतों का ऊर्जा अपव्यय।
मुझे लवण परोसा आपने,
कि कहीं
अनून न रह जाए ज़ायका,
मेरे हौसले का!
मुझे उड़ना सीखाया आपने,
कि मैं अथक उड़ता रहूं,
बिन घोषले का…
ओ पिता,
मेरे पिता!
मैं किस सफर में हूँ पिता,
नही जानता हूँ कुछ, मगर!
बस इतना जानता हूँ,
कि हो मेरी दिशा तुम!
मेरी मंज़िल तुम्हारी नाक है…
हाँ मैं बस उड़ रहा हूँ,
अब जब मैं उड़ रहा हूँ!
पिता मैं उड़ रहा हूँ अंबर में,
हवाओं पर पेटकूनया पार कर।
मैं चाहता हूँ
मुझे प्यार दो गोदी उठा कर,
डाँट कर,
पूचकार कर!
फिर से जगा कर बचपना,
मुझे खूब दूलार दो!
खूब दूलार दो,
अधउजरी दाढ़ी गड़ा कर
मेरे गाल पर।
ओ पिता,
मेरे पिता!
मेरे समय के रेत में
जगमगाने वाले अभ्रक,
ओ मेरे पिता!
मैं चुनता रहा रातें,
दिन को टाल कर!
कभी जुगनू,कभी चिमनी
कभी ध्रुव तारा बने तुम…
ओ पिता,
मेरे पिता!


(5)  कौआ गाओ,  मैना गाओ !

 __________

सुख चुकी नदी का पानी लाओ!
डूब चुके शहर के खेत पटाओ।
कौआ गाओ,
मैना गाओ,
चें-चें,कांव-कांव ,कांव-चें,चें-कांव।
बीत चुके समय की
डायरी को दीमक चाटे!
आने वाले समय की
गाभिन गाय को मच्छर काटे।
समय का कुत्ता भौंक-भौंक कर
उलझनों की रस्सी बाँटे।
शहर-नगर में अफरा-तफरी,
ख्वाबों को लटका दे फँसरी।
अपने ही मौत का लड़ा मुकदमा,
मरने वाले को लगा है सदमा।
छोड़ वकालत मार खर्राटे,
जज साहेब कलकत्ता भागे…
ससुर फगुनिया ढ़ोल बजाओ,
रे चोरसिया पान खिलाओ।
कत्था-चून,लपेट ज़मीर
हियां चोर-डकेत मने फकीर।
आह!
कचर-कचर,
मत कचर-मचर!
पिचिक-पिचिक,थूह-थूह
आह्ह थूह्हह्ह…
अरे कुँआ के मेढ़क के स्वर में
ताल मिलाओ!
टर्र-टर्र,
तिकड़म-विकड़म,टर्र-टर्र।
अर्रे
वाह्ह शाबास!
अब गदहों के महफिल में
गदर्भ राग अलापो!
ढ़ेंचु-ढ़ेंइचु,
ढ़िस्सुम-विस्सुम,ढ़ेंचु-ढ़ेंइचु।
ढेंचु-टर्र,टर्र-ढेंइचु, कचर-कचर…
मुबारक तोहर महफिल चच्चा,
करो जुगाली चभर-चभर..
कौआ गाओ,
मैना गाओ,
चें-चें,कांव-कांव,कांव-चें,चें-कांव।

 (6)   देखना, एक दिन

________
देख लेना!
देखना,
एक दिन
मौसम के दाँए हाथ से
सरक जाएगी लाठी!
प्रकृति के वृक्ष से
तूब कर
धम्म से खसेगा आसमान।
है पृथ्वी,
सीढ़ी से लुढ़क कर
टप्पा खाती हुई कोई गेंद।
देखना,
एक दिन यह
अचक-पचक कर
चूने लगेगी
किसी फूलही लोटा की तरह…
देखना,
कलाई घड़ी में मिनट की सुई
किसी अज्ञात भय
से आशंकित
दौड़ती रहेगी सरपट
चीता की तरह!
जैसे किसी तेज धारदार
औजार से
काट दी गयी हो
गिरगिट की पूंछ…
देख लेना!
देखना,
एक दिन भविष्य में
जाकर
तुम घोंट चुके होओगो तुम्हारा गला!
और खसा चुके होओगे तुम
तुम्हारी कब्र पर
गैहूँ के बीज…
देखना!
एक दिन ये सभी कबूतर
बाज हुआ करेंगे,
शने:-शने: लुप्त हो रहे
सारे गिद्ध
कभी कबूतर हुआ करते थे…
तुम चींटियो के उड़ने पर
अचंभित मत हुआ करो!
देख लेना एक दिन
वो आसमानी परिंदे
जमीन पर
रेंगते हुए नजर आएंगे…
देख लेना!
हाँ देखना,
एक दिन
सब कुछ देख सकोगे तुम,
कुछ भी
नही देख सकने के वाबजूद…
खुदा करे
कि मेरे विचारों की बारिश
सक्षम हो सके,
पत्थर निर्मित
तुम्हारी आँखों पर
हरे-भरे घास और
कंटीली झाड़ियां उगाने में।
कि तुम
तुम्हारी नैतिकता के
खरगोशों,
और हौसले के
हिरणों को
आखेटक से बचा सको…
कि तुम
प्रकृति के वृक्ष से
तूब कर
खसने से पहले ही,
आसमान को
तुम्हारे कंधे पर टिका सको…

 (7) सुबह की तलाश

_________________
खाली होते जा रहे
अचार का मर्तबान,
ताली पीट रहा है।
होठ और चम्मच के मध्य
शहद छटपटाता है…
कंघी में कैद,
टूटे चुके बालों की टहनी पर
“ना टूटने” की चिड़ियां गीत गाती है।
प्रायश्चित का तूफान,
आईना की आँखों में
धूल झोंकता है।
आईना,
पिंजरा खोल कर
मर चुके कबूतरों को
रिहा करता है…
मैं आईना को आईना
दिखलाते हुए
भविष्य की यात्रा से
लौट रहा होता हूँ।
कुछ यात्रियों को देखता हूँ
चलती हुई ट्रेन से
अतीत में छलांग लगाते हुए…
मैं ट्रेन की जंजीर खींच कर
मेरी कवितायें सुनाना
जारी रखता हूँ…
एक छियासठ(66) साल का
वृद्ध,
अपने पोता को
अपना पिता मान कर
उसकी जेब से कुछ पैसे चुराता है।
मेरी दादी की उम्र की
कोई औरत,
चुपके से मेरी जेब में
देवनांद के
गाइड फिल्म की
तीन टिकटें रख देती है…
हम रात की सुरंग से
बहते जा रहे थे,
नदी की तरह
हमारे सुबह की तलाश में…
कुछ बच्चे
पिछले कुछ दशकों से
गुब्बारे उड़ा रहे हैं,
किसी गुमशुदा पतंग की
तलाश में।
मैं बच्चों में
मेरे *बीत चुके दिनों* के
पतंग बाँट कर,
एक गुब्बारा उधार माँग लेता हूँ…
मैं मेरी पृथ्वी को
कलाई घड़ी की तरह पहन कर
चंपत हो चुका था,
फिर किसी सुबह की तलाश में…
फिजाओं में गूंज रहा है
अब तलक,
गाइड फिल्म का यह मधुर गीत-
( वहाँ कौन है तेरा,
मुसाफ़िर जायेगा कहाँ?
दम ले ले घड़ी भर
ये छैयां, पायेगा कहाँ?
वहाँ कौन है तेरा,
मुसाफ़िर जायेगा कहाँ
वहाँ कौन है तेरा …
होहोओहोअओहो….. )

(8)  जय जय संतुलन

__________
मेरी कमीज के
बटन में शून्य चार!
चार आसमान,
पृथ्वी चार।
बटन रणभूमि,
चार घूड़सवार!
बटन तलवार,
बटन ढ़ाल।
पृथ्वी की
नकेल कसती एक सूई!
युद्ध पत्थर,
चार योद्धा छुई-मुई।
एक जोड़े आसमान के
कंधे पर पालो,
ऐ जोतते हुए हल बटोही,
पीठ पर एक पृथ्वी उठा लो।
तीन पृथ्वी,
तीन चंदा,
एक चूल्हा!
एक चूल्हा,चार योद्धा,एक थाली!
एक पंक्षी,एक वृक्ष और चार आरी।
दो आसमान जैसे
एक सिक्का के दो पहलू।
दो आसमान जैसे
एक तराजू का दो पलरा।
गर एक ऊपर,
एक नीचे!
गर एक आगे,
एक पीछे।
सात ढ़िबरी तेल सठा कर
संतुलन खोजो,
नदी/नाली से पइन उपछ कर
समंदर में बोझो।
उफ्फ संतुलन,
हाये संतुलन,
भाय-भाय संतुलन!
खोजकर्ताओं की
ऐसी-तैसी,
जय जय संतुलन…

(9) गिरगिट

___________
(1) गिरगिट के पास
गिरगिट होने के
एक हजार महान तर्क है।
भले ही मैं उसके
प्रत्येक तर्क को
एक हजार एक तरीके से
कुतर्क साबीत कर दूं,
पर वह अगले
एक हजार दो जन्म तक
गिरगिट होने का
भीष्म प्रतिज्ञा कर चुका होता है।
(2)
मिलो जब कभी
किसी गिरगिट से,
गिरगिट बन जाया करो!
मिलो पियराये गिरगिट से
हाथ में
हरी झंडी लहराते हुए।
मिलो बीमार गिरगिट से
गिरगिट के
चिकित्सक की हैसियत से!
ताकि वह तुम्हें
दण्डवत प्रणाम कर
कुशल मंगल उगल सके…
(3)
दीवाल पर रेंग रहे
एक गिरगिट से मैं
उसके रंग बदलते रहने की
वज़ह पूछता हूँ।
वह लपलपाती जीभ से
मेरे सवाल की
मासूमियत को चख कर
मुस्कुराता है!
कि मैं अचंभित हूँ!
और वह मुझे
एलियन्स समझ कर
कमबख़्त पूंछ मटकाता है…
मेरे सवाल के
लाल रंग की दीवाल पर
ठिठक कर,
दौड़ते हुए
मुझे हरी झंडी दिखलाता है।
(4)
मेरा सवाल,
अब कोई गिरगिट है!
और वह गिरगिट,
कोई दीवाल।
मैं मेरे गिरगिट को
दीवाल पर उछाल कर,
उसके रंग बदलने की
प्रतीक्षा में हूँ…
(5)
वह पियराते हुए
छींकता है आ§§§क्छीईई!
मैं डीम्पियाते हुए
मुस्कुरा रहा हूँ,
वह आँखें
गोल-मटोल मटकाते हुए
अचंभित है।
उसकी आँखों के
आईना में
मैं उसे पढ़ता हूँ
मेरे बाँए गाल पर स्थित
चाय की प्याली में
शक्कर घोलते हुए।
(6)
पियर, रंगहीन,सफेद,
कत्थी,बादामी,सरसों,हरिहर क्रमशः
एक कप
अदरक-तुलसी काढ़ा
छोड़ आया हूँ मैं,
हमारे सुखद संवाद के रूप में।
पियराया हुआ गिरगिट
अब हरियाने लगता है!
और फुसफुसाता है,
क्या तुम भी एक गिरगिट हो?

 (10)  केले के छिलके

__________________
गर मुझे “केले के छिलके” पर
कुछ लिखने कहा जाए!
तो मैं हँसी खुशी
फिसलूंगा सर्वप्रथम,
और मुस्कुरा कर
छिलके के
कान में पढ़ूंगा पगडंडी।
पहूँचूंगा
पगडंडी की
उंगली पकड़ कर,
केले का बगान।
बगान में छींटते हुए
हमदर्दी,
चिन्ह लूंगा दम्पोच!
और लिखूंगा
प्रत्येक केला के
दम्पोच पर *तसल्ली*।
“केला का छिलका”
जलता है,
गलता है
पर मरता नही कभी।
सरकार को चाहिये
कि अकाल मृत्यु को प्राप्त
धूप से जल रहे,
ठंड से गल रहे,
भूख से लड़ रहे,
केले के छिलको को
अमर घोषित कर दिया जाए…
स्कूली बच्चों में
पढ़ाई जाए इनकी जीवनी!
जारी की जाए
डाक टिकट और
सिक्के इनके नाम से।
चिड़ियों!
खोद-खोद कर करो
हड़प्पा की खुदाई।
प्राचीन सभ्यता की
कब्र पर स्थित
“केले के छिलके” से
निर्मित *प्रगति के मंदिर* में
केला का प्रसाद
चढ़ाया जाता रहा है…
गर मेरा/तेरा कोई ख़ुदा है,
तो वह केला है!
‘आस्तिक’ होने की
एकमात्र शर्त पढ़ो!
केले के छिलके को
धूप-अगरबत्ती दिखाते रहना…

__________

poet-aayush-jha-astikpoet-ayush-jha-aastik-ayush-jha-astiks-poem-187x300परिचय – :

आयुष झा आस्तीक

लेखक व् कवि

यांत्रिकी अभियंता –  नोयडा सेक्टर

 सम्पर्क -:मो नं- 8743858912

ई मेल  – : ashurocksiitt@gmail.com

 स्थायी निवास- ग्राम-रामपुर आदि , पोष्ट- भरगामा, जिला-अररिया ,  पिन -854334

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