कविता – पेट की आग

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पेट में उनके आग होती है ,
जिनके चूल्हे बुझे होते हैं ,
बुझे चूल्हे की आग पेट से ,
जब बाहर निकलती है ,
तब विकराल हो जाती है ,
चूल्हे की आग से ज्यादा ,
पेट की आग तेजी से भड़कती है ,
इस पेट की आग को और मत भड़काओ ,
पेट की भड़की आग सब कुछ भस्म कर देगी ,
पेट सबके पास होता है ,
पेट में चूल्हा जब जलेगा ,
हर घर से उठेगा धुंए का गुबार ,
उस गुबार में कुछ नजर नहीं आयेगा ,
चारो और गुबार ही गुबार ,
धुएं के इस गुबार में ,
सभ्यता का खेल ख़त्म हो जाएगा ,
तब संघर्ष, भीषण संघर्ष होगा ,
सभ्यताएं और मानवताएं तब सिसकेंगी ,
पेट में आग मत भड़काओ ,
चूल्हों की आग जलाओ ,
चूल्हों की आग जलाओ ,
चूल्हों को मत बुझने दो ,
चूल्हों को मत बुझने दो ,

कापीराईट @विनोद भगत

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vinod bhagatविनोद भगत ,
पत्रकार ,लेखक
व्यथा की कथा लिखना मेरा शौक है .

सम्पादक , हिंदी साप्ताहिक  “शब्द दूत ”
कुर्मांचल कालोनी ,
काशीपुर , उधमसिंह नगर , (उत्तराखंड )

4 COMMENTS

  1. चूल्हों को मत बुझने दो ,
    चूल्हों को मत बुझने दो ,

  2. पेट की बात आपने दिल से कह दी , बहुत ही उम्दा लिखी है !

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