कविताएँ – कवि : सुशान्त सुप्रिय

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कविताएँ

                                    1.  इक्कीसवीं सदी का प्रेम-गीत

> ओ प्रिये
> दिन किसी निर्जन द्वीप पर पड़ी
> ख़ाली सीपियों-से
> लगने लगे हैं
> और रातें
> एबोला वायरस के
> रोगियों-सी

> क्या आइनों में ही
> कोई नुक्स आ गया है
> कि समय की छवि
> इतनी विकृत लगने लगी है ?

                                 2.  कहा पिताजी ने

> जब नहीं रहेंगे
> तब भी होंगे हम —
> कहा पिताजी ने

> जिएँगे बड़के की क़लम में
> कविता बन कर

> चित्र बन कर जिएँगे
> बिटिया की कूची में

> जिएँगे हम
> मँझले के स्वाभिमान में

> छोटे के संकल्प में
> जिएँगे हम

> जैसे हमारे माता-पिता जिये हममें
> और अपने बच्चों में जिएँगे ये
> वैसे ही बचे रहेंगे हम भी
> इन सब में–

> कहा पिताजी ने
> माँ से

                                 3.  हाँ, मैं चोर हूँ

> व्यस्तता की दीवार में
> सेंध लगा कर
> मैं कुछ बहुमूल्य पल
> चुरा लेना चाहता हूँ —
> क्या पुलिस मुझे पकड़ेगी ?

> बीत चुके वर्षों की
> बंद अल्मारी में
> चोर-चाबी लगा कर
> मैं कुछ बहुमूल्य यादें
> चुरा लेना चाहता हूँ —
> क्या पुलिस मुझे पकड़ेगी ?

> ‘ हलो-हाय ‘ संस्कृति वाले महानगर
> के अजायबघर का ताला तोड़ कर
> मैं कुछ सहज अभिवादन
> चुरा लेना चाहता हँू —
> क्या पुलिस मुझे पकड़ेगी ?

                                  4.  इस युग की कथा

> इस युग की कथा
> जब कभी लिखी जाएगी
> तो यही कहा जाएगा कि
>                            फूल ढूँढ़ रहे थे ख़ुशबू
>                            शहद मिठास ढूँढ़ रही थी
>                             गुंडे पीछे पड़े थे शरीफ़ लोगों के
>                             नदी प्यासी रह गई थी
>
>                             पलस्तर-उखड़ी बदरंग दीवारें
>                             ढूँढ़ रही थीं ख़ुशनुमा रंगों को
>                             वृद्धाएँ शिद्दत से ढूँढ़ रही थीं
>                             अपनी देह के किसी कोने में
>                             शायद कहीं बच गए
>                             युवा अंगों को
>                             जिसके पास सब कुछ था
>                             वह भी किसी की याद में
>                             खोया हुआ था
>                             सूर्योदय कब का हो चुका था
>                             किंतु सारा देश सोया हुआ था

                        ———–0———–

Sushant-supriy-poemsपरिचय – :
सुशांत सुप्रिय
कवि , कथाकार व अनुवादक

शिक्षा: अमृतसर ( पंजाब ) व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ : हत्यारे , हे राम, दलदल ( कथा-संग्रह ) ।
एक बूँद यह भी , इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं (काव्य-संग्रह)।
सम्मान :  # भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा

रचनाएँ पुरस्कृत ।
# कमलेश्वर – कथाबिंब कथा प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो वर्ष प्रथम

पुरस्कार ।
अन्य प्राप्तियाँ : # कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी , उर्दू , पंजाबी , उड़िया ,
असमिया , मराठी , कन्नड़ व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित
व प्रकाशित ।
#  कहानियाँ कुछ राज्यों के कक्षा सात व नौ के हिंदी पाठ्यक्रम में
शामिल ।
#  कविताएँ पुणे वि.वि. के बी.ए. ( द्वितीय वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में
शामिल ।
#  कहानियों पर आगरा वि.वि. , कुरुक्षेत्र वि.वि. व गुरु नानक देव
वि.वि.,अमृतसर के हिंदी विभागों में शोधकर्ताओं द्वारा शोध-कार्य ।
#  अनुवाद की पुस्तक ” विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ” प्रकाशनाधीन ।

# अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन । अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह ” इन गाँधीज़ कंट्री ” प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ” द फ़िफ़्थ डायरेक्शन ” प्रकाशनाधीन ।

# सम्पर्क : मो – 8512070086 ,  ई-मेल: sushant1968@gmail.com

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  आत्म-कथ्य
मुझमें कविता है , इसलिए मैं हूँ : सुशांत सुप्रिय
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कविता मेरा आॅक्सीजन है । कविता मेरे रक्त में है , मज्जा में है । यह मेरी धमनियों में बहती है । यह मेरी हर साँस में समायी है । यह मेरे जीवन को अर्थ देती है । यह मेरी आत्मा को ख़ुशी देती है । मुझमें कविता है , इसलिए मैं हूँ । मेरे लिए लेखन एक तड़प है, धुन है , जुनून है । कविता लिखना मेरे लिए व्यक्तिगत स्तर पर ख़ुद को टूटने, ढहने , बिखरने से बचाना है । लेकिन सामाजिक स्तर पर मेरे लिए कविता लिखना अपने समय के अँधेरों से जूझने का माध्यम है , हथियार है , मशाल है ताकि मैं प्रकाश की ओर जाने का कोई मार्ग ढूँढ़ सकूँ । मेरा मानना है कि श्रेष्ठ कविता शिल्प के आगे संवेदना के धरातल पर भी खरी उतरनी चाहिए । उसे मानवता का पक्षधर होना चाहिए । उसमें व्यंग्य के पुट के साथ करुणा और प्रेम भी होना चाहिए । वह सामाजिक यथार्थ से भी दीप्त होनी चाहिए । कवि जब लिखे तो लगे कि वह केवल अपनी बात नहीं कर रहा , सबकी बात कर रहा है । यह बहुत ज़रूरी है कि कवि के अंदर एक कभी न बुझने वाली आग हो जिससे वह काले दिनों में भी अपने हौसले और संकल्प की मशाल जलाए रखे ।उसके पास एक धड़कता हुआ ‘रिसेप्टिव’ दिल हो ।उसके पास एक ‘विजन’ हो, एक सुलझी हुई जीवन-दृष्टि हो । श्रेष्ठ कवि की कविता कभी अलाव होती है, कभी लौ होती
है , कभी अंगारा होती है…
( २०१५ में प्रकाशित मेरे काव्य-संग्रह
” एक बूँद यह भी ” में से )

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