कलमकार शर्मा जी के कलयुगी श्रवण कुमार

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{ डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी }
शर्मा जी मेरे पुराने मित्र हैं और एक अच्छे कलमकार। वह प्रायः मेरे पास आकर अपना दुःख-सुख साझा करते हैं। आज भी आए थे, काफी दुःखी दिख रहे थे। मैंने उन्हें बैठने के लिए कहा। औपचारिक हाल-चाल पूंछने के उपरान्त मैंने पूंछ लिया डियर आज कुछ ज्यादा ही ‘टेन्स’ दिख रहे हो क्या बात है? वह नहीं बोले। मैंने उन पर अधिक जोर नहीं डाला। शर्मा जी मेरे तखत के निकट कुर्सी पर विचार मुद्रा में बैठे लेखन कक्ष के जीर्ण-शीर्ण छत के उखड़ते हुए प्लास्टर की तरफ देख रहे थे। मैं भी नित्य की भाँति तख्ते पर लेटा था। उनका कमरे की छत की तरफ देखने से मुझे लगा कि वह पुराने भवन की छत के उखड़ते प्लास्टर की रिपेयरिंग (मरम्मत) के बारे में कुछ कहेंगे, लेकिन नहीं वह तो छत की तरफ लगातार निहारते रहे। मैंने महसूस किया कि वह छत को नहीं अपितु ऊपर आसमान की तरफ देख रहे हैं और सोच रहे हैं।
कुछ समय उपरान्त वह सामान्य हुए और बोले डियर कलमघसीट यार कलयुग अपनी पराकाष्ठा पर है। हर कोई स्वार्थी हो गया है। धनाभाव की स्थिति में सभी रिश्ते बेमानी से होकर रह गए हैं। इतना कहकर वह खामोश हो गए। मैंने देखा कि आज वह ठण्ड से अपने आप को बचाने के लिए एक पुराना गर्म स्वेटर पहने हुए थे। मैंने पूंछा डियर शर्मा जी यह स्वेटर कहाँ से पाए? वह बोल पड़े मत पूंछो। फिर कहने लगे इसे एक मित्र ने दिया है बहुत गर्म करता है मैं इसे बराबर पहन रहा हूँ। आज इसी स्वेटर को लेकर एक आलेख लिखना है और यह सुकार्य तुम करोगे। मैंने कहा डियर तुमसे अच्छा कौन लिख सकता है, तब वह बोले लो मैं जो कह रहा हूँ उसे ही लिख डालो। मैंने शर्मा जी की बात मान कर कहा कि बोलो जो लिखना है। वह कहने लगे- मुझे जब ठण्ड से बचने के लिए किसी का उतारन पहना देखा तो बेटे कलयुगी श्रवण कुमार की संवेदनशीलता जागृत हो उठी। ऐसा नहीं हुआ अपितु कथित रूप से उसको अनदेखा करते हुए मेरे बगल बैठी अपनी मासूम पुत्री को डाँट पिलाई और नसीहत दिया।
हुआ यूँ कि श्रवण कुमार की पुत्री जिसे लोग मेरी पौत्री कहते हैं ने मुझसे पूँछ लिया था कि बाबा जी सूखे मेवा, काजू, बादाम खाएँगे लाऊँ क्या? मैने कहा था नही बेटा तुम खाओ मैं मेवा नहीं खाता। तभी पास ही लेटे पौत्री के पिताश्री ने कहा क्यूँ क्या तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें खाने के लिए मेवा दिया था या फिर आलमारी मे से चुराकर खा रही हो? वह बोली नहीं पापा मम्मी मुझे बताकर गई थी कि मेवा खा लिया करना। उसका उत्तर सुनकर श्रवण कुमार ने कहा तब दूसरों को क्यों दे रही हो। वह भयवश बोली सॉरी पापा अब फ्यूचर में ऐसा नही होगा। इतना सुनकर उसके पापा खामोश हो गए।
बात चल रही थी कि ठण्ड से बचाव के लिए मैंने उतारन (किसी दूसरे का पहना हुआ पुराना गर्म कपड़ा) पहना हुआ था, जिसे देखकर साहबजादे मन ही मन क्या सोचे होंगे इसका अन्दाजा मैं नहीं लगा सका। अलबत्ता उन्होंने मासूम बच्ची को डाँट पिलाते हुए उसे मेवा न देने की नसीहत दिया था, जिस पर सोचते-सोचते यह आलेख वजूद में आकर अब आपके सामने है। मैंने कभी अपेक्षा भी नहीं किया है कि कलयुग के श्रवण कुमार मुझ जैसों पर अपनी कृपा करेंगे। इनके लिए तो बाप बड़ा न मैय्या सबसे बड़ा रूपैय्या। यदि यह अपेक्षा करता कि बेटा होने के नाते मुझ पर मेहरबानी करेंगे और वह सब कुछ करेंगे जिसे एक कमाऊ पूत करता है तो शायद मेरी सबसे बड़ी भूल होती। चूँकि मैं एक कलमकार हूँ, कोई इतनी कमाई नहीं है कि साहबजादे की माली इमदाद कर सकूँ, ऐसे में जाहिर है कि उनकी नजर में मेरी क्या औकात होगी? इसे हर कोई सहज ही जान सकता है।
ऊपर वाले की कृपा रही तो दो वर्ष में मेरे श्रवण कुमार 40 वर्ष के हो जाएँगे। पढ़े-लिखे हैं, कर्मकाण्डियों द्वारा बताई गई पद्धति से स्वास्थ्य एवं धन के लिए पूजा-पाठ भी करते हैं परन्तु बात-बात में उन्हें क्रोध इस कदर आता है जैसे पौराणिक युग के ऋषि दुर्वासा। वर्तमान में जो कार्य कर रहे हैं, उसमें पूर्णतया पारंगत नहीं हैं, इस परिस्थिति में उनकी माताश्री ‘बैशाखी’ बनी हुई हैं। सोचता हूँ जब श्रवण कुमार की माताश्री अजलस्त हो जाएँगी तब वह क्या करेंगे…? मुझे नए वस्त्र और मेवा एवं लजीज व्यंजन की दरकार नहीं है। यदि होती भी तो मैं कलयुगी श्रवण कुमार जी से कत्तई अपेक्षा न करता। मैं खाने-पीने में परहेज करता हूँ और उम्र के 62वें दशक में जीवन जीते हुए सुख-सुविधा, साधन जैसी वस्तु की आवश्यकता नहीं महसूस करता जो मेरे लिए नई हो और उनके लिए सोचनीय। कलयुगी श्रवण कुमार जिस पद और संस्थान में काम करते हैं उसके लिए शिक्षित होना जरूरी होता है वह कथित रूप से पात्र है परन्तु उन्हें देखकर प्रतीत ही नहीं होता कि किसी प्रतिष्ठित संस्था के उच्च ओहदेदार हैं।
शायद उनके अन्दर बिलपावर की कमी है। पढ़े-लिखों के मुकाबिल होकर उन्हें फेश नहीं कर पाते हैं। वह कभी गणित तो कभी विज्ञान की भाषा बोलते हैं, जहाँ तक मैं समझता हूँ भाषा में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू आदि आते हैं। एक पुरानी कहावत सुनी थी कि पूत कपूत तो क्यों धन संचय और पूत सपूत तो क्यों धन संचय। मतलब यह कि धन संचय किसके लिए किया जाए? यदि औलाद सपूत होगी तो पैसा कमा लेगी यदि कपूत/नालायक होगी तो संचित धन व्यसन में खर्च कर डालेगी। इसी फार्मूले पर चलता हुआ मैंने धन संचय करने की बात पर ध्यान ही नहीं दिया। यही कारण रहा कि अब जब टेंट खाली है तब श्रवण कुमार जैसी कलयुगी औलाद के लिए मैं भार स्वरूप हो गया हूँ। सोच-सोच की बात है। ऐसा नहीं है कि मै जो कुछ भी कह रहा हूँ वह सर्वमान्य हो, यदि ऐसा हुआ तो एक पक्षीय विषय वस्तु कही जाएगी। मैं दो वर्ष पूर्व सेवानिवृत्ति की अवधि पार कर चुका हूँ। हाथ, टेंट और बैंक एकाउण्ट्स निल। परिजनों की अपेक्षाओं के अनुरूप खरा न उतर पाना मेरा सबसे बड़ा माइनस प्वॉइन्ट है। लक्जरी से दूर दिखावा व तड़क-भड़क से परहेज रखने वाला व्यक्ति आज के दौर में कहाँ एडजस्ट हो पाएगा। ठीक उसी तरह की हालत मेरी अपनी है।
मैं क्यों मना करूँ कि बेटा महँगाई में मेवा खाना कुछ कम कर दो, पूजा-पाठ में अधिक समय देने के बजाए कर्म करने में समय लगाओ, गणित, विज्ञान की भाषा न बोलकर वास्तविक लैंग्वेज का प्रयोग करो, क्रोध का परित्याग करो, स्वावलम्बी बनो, धन कमाओ, लेकिन समय-समय पर उसका सदुपयोग करो। लोभ का परित्याग करो, मतलब परस्ती छोड़ो, शिक्षित लोगों में उठो-बैठो। यदि ऐसा कह दूँगा तो उसी दिन घर के 144 वर्ग फुट जगह से भी हाथ धोना पड़ सकता है। यही कारण है कि चुप्पी मारे मैं कलयुगी सपूत श्रवण कुमार की हर गतिविधि को देखकर भी अनदेखा करते हुए कागज पर कलम घिसना जारी रखे हुए हूँ। इतना कहकर कलमकार शर्मा जी ने चुप्पी मार लिया। मुझे उनकी व्यथा-कथा सुनकर आश्चर्य हुआ परन्तु कर ही क्या पाऊँगा…? फिर भी मैं सोचने लगा कि किंवदन्तियों के अनुसार मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार सम्भवतः उतने शिक्षित नहीं रहे होंगे, जितने के कलमकार शर्मा जी के कलयुगी श्रवण कुमार हैं। कुछ भी हो शर्मा जी यह कहानी लगभग हर उस माँ-बाप पर चरितार्थ हो सकती है, जो धनाभाव में जी रहे होंगे। भाग्यशाली वो होंगे जो धनाभाव की स्थिति में भी अपनी सन्तानों से अपेक्षित सुख पाते हों।
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डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशीडॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
मो.नं. 9454908400

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