कबीर, गंगोही और जायसी की रचनाओं में बहुभाषीय संस्कृति का प्रभाव : प्रो. ओर्सिनी

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unnamedप्रवीण राय,
आई एन वी सी,
इलाहाबाद,
मध्यकालीन कवियों कबीर, गंगोही, दादू व मलूकदास की रचनाएं न केवल रचनाएं हैं बल्कि इनसे भारत की सामासिक व बहुभाषीय संस्कृति का प्रकटीकरण भी होता है। यह विचार गोविन्द बल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद में स्कूल आफ ओरियंटल एण्ड अफ्रीकी स्टडीज, यूनिवर्सिटी आफ लण्दन की प्रोफ्रेसर फ्रेचेस्का ओर्सिनी ने ‘‘लैग्वेज, जैनर्स, स्पेस फार ए मल्टीलिंगुअल  लिटरेरी हिस्ट्री आफ अवध’’ विषय पर व्याख्यान देने के बाद आईएनवीसी के वरिष्ठ संवाददाता प्रवीण राय से बातचीत के दौरान कही।

वार्ता के दौरान प्रो0 ओर्सिनी ने बताया कि भाषाई इतिहास का अध्ययन करने पर पता चलता है कि औपनिवेशिक काल में भाषा, लिपि व साहित्य का अपना निश्चित दायरा था। कालान्तर में बहुसांस्कृतिक समाज के विकसित होने के साथ ही साथ भाषाओं की सीमाएं भी धंुधली पड़ने लगी। कबीर, दादू ,मलूकदास आदि संतो के लेखनी व कविताओं में बहुभाषीय संस्कृति का प्रभाव साफ देखा जा सकता है। उन्होनें आगे बताया कि ‘‘भाषाओं और कौमों के अंर्तसंबंध को जिस प्रकार आपस में जोड़ा गया है, वह काफी अनैतिहासिक है। इसलिए एक बहुभाषायी इतिहास की जरुरत है। कबीर, अब्दुल कट्दूस गंगोही और जायसी की भाषा एक ही है। उनके लिए अवधी भाषा उनकी अपनी थी। मलूकदास भोजपुरी एवं फारसी दोनों जानते थे। अब्दुल जलील ने अपने बेटे को पत्र लिखा कि मुझे और कवि भेजो जिससे दरवार में मैं अपने को प्रभावशाली बना सकूं। इसके साथ साथ यह भी ध्यान देने योग्य है कि विद्वानों ने स्थानीय भूगोल को उच्चतम काव्यात्मक भाषा में प्रस्तुत किया, उदाहरण के लिए मलिक मुहम्मद जायसी ने कान्धवत में जायस की प्रशंसा की। मध्य काल में बहुत से कस्बे भाषायी रूप से उभरे। इन कस्बों में एक बहुभाषिकता का भी जन्म हुआ। जौनपुर में फारसी भाषा के साथ स्थानीय भाषा भी बोली जाती थी। निराला द्वारा लिखित चतुरी चमार, के उदाहरणों से प्रो0 ओर्सिनी ने बताया कि सामान्य एवं विनम्र लोगों की अपनी बहुदेशिकता थी जो भद्रवर्ग में नही देखी जा सकती । प्रो0 ओर्सिनी ने बातचीत के दौरान यह बताया कि उत्तर भारत के बारे में बात करते समय पाठ के बारे में भी विचार करना चाहिए कि उनकी स्थिति क्या है, उन्हें पढ़ा कैसे जा रहा है और किसे सम्बोधित हैं।

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