इतिहास बना डोली का अस्तित्व

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– घनश्याम भारतीय –

Dolly's existence‘चलो रे डोली उठाओ कहांर…….पिया मिलन की ऋतु आयी……।‘ यह गीत जब भी बजता है, कानों में भावपूर्ण मिश्री सी घोल देता है। ऐसा  इसलिए क्योंकि इसमें छिपी है किसी बहन अथवा बेटी के उसके परिजनों से जुदा होने की पीड़ा के साथ साथ नव दाम्पत्य जीवन की शुरूआत की अपार खुशी…..। जुदाई की इसी पीड़ा और मिलन की खुशी के बीच की कभी अहम कड़ी रही ‘डोली‘ आज आधुनिकता की चकाचौध में विलुप्त सी हो गयी है जो अब ढूढ़ने पर भी नहीं मिलती।

एक समय था जब यह डोली बादशाहों और उनकी बेगमों या राजाओं और उनकी रानियों के लिए यात्रा का प्रमुख साधन हुआ करती थी। तब जब आज की भांति न चिकनी सड़के थी और न ही आधुनिक साधन। तब घोड़े के अलावा डोली प्रमुख साधनों मंे शुमार थी। जिसे ढोने वालों को कंहार कहा जाता था। दो कहार आगे और दो ही कहांर पीछे अपने कंधो पर रखकर डोली में बैठने वाले को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाते थे। थक जाने की स्थिति में सहयोगी कहांर उनकी मदद भी करते थे। इसके लिए मिलने वाले मेहनताने व इनाम इकराम से कहांरो की जिन्दगी की गाड़ी चलती थी। यह डोली आम तौर पर दो और नामों से जानी जाती रही हैै। आम लोग इसे ‘डोली‘ और खास लोग इसे ‘पालकी‘ कहते थे। जबकि विद्वतजनों में इसे ‘शिविका‘ नाम प्राप्त था। राजतंत्र में राजे रजवाड़े व जमींदार इसी पालकी से अपने इलाके के भ्रमण पर निकला करते थे। आगे आगे राजा की डोली और पीछे पीछे उनके सैनिक व अन्य कर्मी पैदल चला करते थे।

कालांतर मंे इसी ‘डोली‘ का प्रयोग शादी विवाद के अवसर पर दूल्हा दूल्हन को ढोने की प्रमुख सवारी के रूप में होने लगा। तत्समय आज की भांति न तो अच्छी सड़के थी और न ही यातायात के संसाधन। शादी विवाह में सामान ढोने के लिए बैलगाड़ी और दूल्हा दूल्हन के लिए ‘डोली‘ का चलन था। शेष बाराती पैदल चला करते थे। कई कई गांवो में किसी एक व्यक्ति के पास तब डोली हुआ करती थी। जो उसकी शान की प्रतीक भी थी। शादी विवाह के मौकों पर लोगो को पहले से बुकिंग के आधार पर डोली बगैर किसी शुल्क के मुहैय्या होती थी। बस ढोने वाले कहांरो को ही उनका मेहनताना देना पड़ता था।

यह ‘डोली‘ कम वजनी लकड़ी के पटरों, पायों और लोहे के कीले के सहारे एक छोटे से कमरे के रूप में बनायी जाती थी। जिसका दोनो तरफ का हिस्सा खिड़की की तरह खुला होता था। अंदर आराम के लिए गद्दे विछाये जाते थे। ऊपर खोखले मजबूत बांस के हत्थे लगाये जाते थे। जिसे कंधो पर रखकर कहांर ढोते थे। प्रचलित परंपरा और रश्म के अनुसार शादी हेतु बारात निकलने से पूर्व दूल्हे की सगी सम्बंधी महिलाएं डोल चढ़ाई रश्म के तहत बारी बारी दुल्हे के साथ डोली में बैठती थी। इसके बदले कहांरो को यथा शक्ति दान देते हुए शादी करने जाते दूल्हे को आशीर्वाद देकर भेजती थी। दूल्हें को लेकर कहांर उसकी ससुराल तक जाते थे। इस बीच कई जगह रूक रूक थकान मिटाते और जलपान करते कराते थे। इसी डोली से दूल्हे की परछन रश्म के साथ अन्य रश्में निभाई जाती थी। अगले दिन बरहार के रूप में रूकी बारात जब तीसरे दिन वापस लौटती थी तब इस डोली में मायके वालों के बिछुड़ने से दुखी होकर रोती हुई दुल्हन बैठती थी। ओर रोते हुए काफी दूर तक चली जाती थी। जिसे हंसाने व अपनी थकान मिटाने के लिए कहांर तमाम तरह की चुटकी लेते हुए गीत भी गाते चलते थे।

तत्समय विदा हुई दुल्हन की डोली जब गांवो से होकर गुजरती थी तो महिलाएं व बच्चे कौतूहल वश डोली रूकवा देते थे। घूंघट हटवाकर दुल्हन देखने और उसे पानी पिलाकर ही जाने देते थे। जिसमें अपने पन के साथ मानवता और प्रेम भरी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते थे। समाज में एक दूसरे के लिए अपार प्रेम झलकता था जो अब उसी डोली के साथ समाज से विदा हो चुका है। डोली ढोते समय मजाक करते कहांरो को राह चलती ग्रामीण महिलाएं जबाव भी खूब देती थी। जिसे सुनकर रोती दुल्हन हंस देती थी। दूल्हन की डोली जब उसके पीहर पहुंच जाती थी तब एक रश्म निभाने के लिए कुछ दूर पहले डोली में दूल्हन के साथ दूल्हे को भी बैठा दिया जाता था। फिर उन्हें उतारने की भी रश्म निभाई जाती थी। जिस अवसर पर कहांरो को फिर पुरस्कार मिलता था। तथ्य यह भी उल्लेखनीय है कि ससुराल से जब यही दूल्हन मायके के लिए विदा होती थी तब बड़ी डोली के बजाय खटोली (छोटी डोली) का प्रयोग होता था। खटोली के रूप में छोटी चारपाई को रस्सी के सहारे बांस में लटकाकर परदे से ढं़क दिया जाता था। दुल्हन उसी मंे बैठाई जाती थी। इसी से दूल्हन मायके जाती थी। ऐसा करके लोग अपनी शान बढ़ाते थे। जिस शादी में डोली नही होती थी उसे बहुत ही हल्के में लिया जाता था।

तेजी से बदलकर आधुनिक हुए मौजूदा परिवेश में तमाम रीति रिवाजांे के साथ डोली का चलन भी अब पूरी तरह समाप्त हो गया। करीब तीन दशक से कहीं भी डोली देखने को नहीं मिली है। अत्याधुनिक लक्जरी गाड़ियों के आगे अब जहां एक ओर दूल्हा व दूल्हन डोली में बैठना नहीं चाहते वहीं अब उसे ढोने वाले कहांर भी नहीं मिलते। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि अब मानसिक ताकत के आगे शारीरिक तकत हार सी गयी है। दिन भर के रास्ते को विज्ञान ने कुछ ही मिनटों में सुलभ कर दिया है। वह भी अत्यधिक आरामदायक ढंग से। ऐसे में डोली से कौन हिचकोले खाना चाहेगा। … और कौन चंद इनाम व इकराम के लिए दिनभर बोझ से दबकर पसीना बहाते हुए हाफना चाहेगा। ऐसे में डोली ही नही तमाम अन्य साधनों व परम्पराओ का अस्तित्व इतिहास बनना ही है।

कभी डोली ढोने का काम करते रहे सत्तर वर्षीय सोहन, साठ वर्षीय राम आसरे, व बासठ वर्षीय मुन्नर तथा साठ वर्षीय बरखू का कहना है कि अच्छा हुआ जो डोली बंद हो गयी वरन् आज ढोने वाले ही नहीं मिलते। क्योंकि अब के लोगो को जितनी सुख सुविधाएं मिली है उतने ही वे नाजुक भी हो गये है। उनके जमाने के लोग आधा पेट मोटा अन्न खाकर भी जबदस्त ताकत वाले होते थे और कई कई दिन तक डोली ढोते रहते थे। अब उसका आधा वजन भी कंधे पर रख दिया जाय तो चलना दूर, लोग खड़े भी नहीं हो पायेंगे। कहा जा सकता है कि आध्ुनिकता की आंधी ने हमारी तमाम व्यवस्थाओं और परम्पराओं को उड़ा दिया है। जो कभी हमाारी संस्कृति और सभ्यता की प्रतीक थी आज वह सब कुछ विलुप्त है। जिसमें कभी लोगों की शान होती थी आज उसे हेय दृष्टि से देखा जा रहा है। विज्ञान के चमत्कार से हो रहे नित नए आविष्कार ने सुख सुविधाएं जरूर दी हैं परन्तु तमाम मामलों में हमें पंगु भी बना दिया है।

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घनश्याम भारतीय

स्वतंत्र पत्रकार/स्तम्भकार

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