इंदु सिंह की पांच कविताएँ

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 युवा कवयित्री इंदु सिंह की कविताएँ पाठकों से संवाद करती हैं। इनकी कविताओं में एक स्त्री की वेदना भी है और अपने जनपद की यादें भी।  इंदु जी अपनी कविताओं में आम बोल -चाल की भाषा का प्रयोग करती हैं।  कहीं -कहीं ऐसा लगता है कि बहुत सपाट तरीके से लिखी गयी हैं किन्तु ये सपाट नही सरल है। जीवन और दुनियां की घटनाओं को सरलता से कविता में ला पाना बहुत कठिन हैं और इंदु सिंह यह विधा अच्छी तरह जानती हैं -नित्यानन्द गायेन

इंदु सिंह की पांच कविताएँ

1-सर्द दोपहर में

सर्द दोपहर में बालकनी का वो कोना
जहाँ सूरज अपना छोटा सा
घर बनाता है अच्छा लगता है
हर’पहर’के साथ
खिसकता हुआ वो घर,जीवन पथ पर
चलना सिखाता है
हो कितनी ही ठण्ड पर उसकी गर्म सेंक
सुकून देती है
है जीवन भी ऐसा कभी सर्द तो कभी गर्म
हर कोने की सर्दी को सेंक देना है
हर गर्म घर को शीतल कर देना है
वो सूरज की किरणों का छोटा सा घर
सब की बालकनी में एक कोना सा … है

2-झूठ !!!

सब कहते हैं
बड़े प्यार से
आराम से
आहिस्ता-आहिस्ता
जी जाता हूँ मैं
उछल जाता हूँ मैं
मेरे बिन कोई रह
नहीं पाता
मेरे बिन सब बेरंग
हर दिल में
हर शख्स में
वास है मेरा
पूरा का पूरा समाज
साम्राज्य है मेरा
हाँ मुझे सरे आम नहीं पुकारते
आखिर
शर्मो – हया
अदा है मेरी
प्रणय मिलन कब
सरे आम हुआ है
चुम्बन तक तो
सामजिक उल्लंघन है
फिर भी
हो जाता है उजागर
कभी-कभी
ठीक वैसे ही रखते हैं सब
मुझे संभालकर
न देखे कोई न सुने कोई
बस जज़्ब हो जाता हूँ
सभी के अन्दर
दिख भी जाता हूँ
कभी-कभी लेकिन
बड़ा शर्मीला हूँ
लजाता हूँ नैन मिलाते
हुए प्रियतम से
मिलता हूँ अक्सर ही
रात के किसी पहर में
जब ‘मैं’ और ‘वो’
हो जाते हैं हम
तब
दिन के उजाले में
एक जिस्म-एक जान
ही नज़र आते हैं हम
मुझसा कोई महबूब नहीं
इस जहाँ में
मैं रह भी लूँ
न रह सकोगे तुम
मेरे बिना
लाख कर लो कोशिश
या लाख पालो भरम
मैं ही हूँ तुम्हारा
सिर्फ तुम्हारा हमदम.

3-गाँव हूँ मालूम है मुझे…

गाँव हूँ मालूम है मुझे फिर भी
चर्चा सब जगह मेरी
मै खो गया हूँ ये भी कहा किसी ने
बदल गया हूँ ये भी
मुझे, मेरी पहचान को धूमिल
किया जा रहा है
गाँव को विषय बना दिया है आज
मुझ पर चर्चा मेरी चिंता
सबसे बड़ा आज का मुद्दा
न आना है किसी को मेरे पास
न जानने हैं मेरे जज़्बात
बस करनी चर्चा ख़ास
मेरी तरक्की मेरी खामियाँ
मुझ पर सरकारी खर्चे
सब मुझ पर कुर्बान
कितना क्या चाहिए
या कितना है मिला
न किसी को इसकी कोई पहचान
कविता लिखो मुझ पर
कहानी भी
उपन्यास से तो भरा हूँ मैं
लिखने को हर किसी को
बस यूँ ही मिला हूँ मैं
जैसे समाज में कुछ और
अब शेष ही न हो
महानगर मुझ पर गर्व करते
अपनी चमकीली गोष्ठियों में
थोथली बातों से अनभिज्ञ नहीं मैं
अब बस भी करो
गाँव था अब भी वहीँ हूँ
बेवजह अपनी खामियाँ
भरने को
न मुझे उजागर करो
बदला मैं नहीं
बदल रहे हो तुम मुझे
जैसा हूँ रहने दो
हाँ !
इतनी ही फुर्सत है गर तुम्हे
लिखो कुछ
खुद पर कभी
गर लिख सको तो …

4-चुप्पी

चुप्पी बयाँ भी होती है
और जज़्ब भी
चीखें गूंगी भी होती हैं
अद्रश्य भी
निर्भर करता है कि
चुप्पी कहाँ है और
चीखें किसकी .
ख़ामोश चीखों की असहनीय आवाज़
तार – तार करती है
समाज को
मूक बन निहारते हैं सब
कभी चुप्पी कभी
चीखों को
जारी है ये क्रम
सदियों से …

5-गाँव की लड़की

याद आ गई कैथा खाते हुए
लाल मिर्च वाले नमक के साथ
और सुनाई दी उसकी
तेज़ मिर्च वाली
चटकारे की चटाक
फिर फीते से बंधी
तेल लगी कसी हुई
दो चोटियाँ
बीच में सीधी सपाट
उसकी माँग
जैसे बंटे  हो दो हिस्से
और एक भी बाल को
इजाज़त नहीं पार करने की
वो बाड़ !
बैठी दो सहेलियों के साथ
चटाचट खेलती गुट्टों की आवाज़
चट -चट …….ख़ट-खट
खिलखिलाती उन्मुक्त हँसी
वो खनकती आवाज़
नीला कुर्ता सफ़ेद सलवार
कुर्ते में चिमटी से लगाया हुआ दुपट्टा
जाती हुई स्कूल अपने
छोटे भाई – बहनों के साथ
जैसे जाना है
किसी और ही जहान
बस उड़ान को
तैयार हो रहे पंख
चूल्हे में कंडे सुलगाती
फुंकनी से फूंक मारती
चिमटे से लकड़ी सुधारती
धुँए से आँखों को मींजती
और फिर जलते चूल्हे पर
रखती हुई अदहन
काटती हुई साग
एक साथ
सारा काम कर लेने का
विश्वास
मोटा लगा आल्ता
चौड़ी सी पाजेब और
तीन-तीन बिछुए
लाल साड़ी सपाट माँग में
आखिर तक भरा सिन्दूर
माथे पे बड़ी सी बिंदी
कलाइयों में भरी चूड़ियाँ
ओढ़े हुए पिछौरी
लम्बा सा घूँघट
थोड़ी हील की चप्पल
एक नया ही रूप
फिर सुखाती हुई कथरी
गोद में बच्चा
चढ़ा चूल्हा
चौकाबासन
बिखरे बाल
अधखुला शरीर
घुटने तक चढ़ी बिना फ़ॉल की साड़ी
बटोर रही हैं आँगन
आँचर में
अभी भी बंधा है कैथा
कि खाएगी फुरसत में कभी
हाँ वही गाँव की लड़की //

प्रस्तुति :
नित्यानन्द गायेन
Assitant
Editor International News and Views Corporation

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 इंदु सिंह

शिक्षा : लखनऊ विश्व विद्यालय – एम .ए . ( हिंदी )
पत्राचार : 102 – S , सेक्टर – 8 , जसोला  विहार  नई दिल्ली  – 110025

e-mail : induravisinghj@gmail.com – Blog :  http://hridyanubhuti.wordpress.com/
दो वर्ष हिंदी अध्यापन, अब स्वतंत्र लेखन , विभिन्न कार्यक्रमों में मंच संयोजक एवं उदघोषक रही।

उपलब्धि :
लखनऊ दूरदर्शन द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘ नए हस्ताक्षर ‘ में काव्य पाठ.
फोकस टेलिविज़न द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘ होली के रंग ‘ में काव्य पाठ .
ऑल इण्डिया रेडियो के कार्यक्रम ‘ आधा आकाश हमारा ‘ में एकल काव्य पाठ .
ऑल इण्डिया रेडियो द्वारा महिला दिवस पर प्रसारित राष्ट्रीय कार्यक्रम में काव्य पाठ .
अनेकानेक काव्य गोष्ठियों एवं मुशायरों में काव्य पाठ .

देश के अनेकानेक प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं जैसे भारतीय भाषा परिषद की मासिक पत्रिका ‘ वागर्थ ‘ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘साहित्य भारती ‘ तथा  ‘ अपरिहार्य ‘ ‘परिकथा’ , ‘ लमही’ , ‘सादर इण्डिया’   ‘ मगहर ’ ‘ विश्वगाथा ’  भोपाल से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘ दुनिया इन दिनों’ दैनिक समाचार पत्र – आज, स्वतंत्र भारत , नवभारत टाइम्स ,प्रभात वार्ता , जनवाणी ,नेशनल दुनिया ,पाक्षिक समाचार पत्र प्रेस पालिका आदि अनेकानेक पत्र – पत्रिकाओं में लेख, , कविताएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं तथा निरंतर प्रकाशित हो रही हैं .

अन्य रुचियाँ : घूमना , योग , सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेना है।

32 COMMENTS

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  2. गाँव की लड़की बहुत शानदार हैं ! बाकी भी बहुत बढिया हैं !

  3. कई बार पढ़ने के बाद भी मन नहीं भरा ! सच में आपने कमाल कर दिया !

  4. समझ में नहीं आता की मैं आपकी कौन सी कविता की तारीफ़ करूँ ! सब एक से बढकर एक हैं ! शानदार ! पहली कविता सबसे बढिया हैं !

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  7. सहज अभिव्यक्ति लिए अच्छी कवितायें हैं …

  8. चुप्पी….तोड़ने का मन ? वाह सभी एक से एक उम्दा ! बधाई !

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  10. एक से बढकर एक कविताए ,सुन्दर ,स्वछन्द ,पढ़ने के बाद एक अलग तरहा की अनुभूती कराती कविताए !

  11. आपकी कविताएं …उम्दा हैं पर गाव की लड़की …लाजबाब हैं ! बधाई हो ! साथ में आई एन वी सी को भी जो लिखने पढ़ने वालो को इतना कुछ देते हैं ! साभार

    • आभार निहारिका जी , आपकी प्रतिक्रिया पाकर अच्छा लगा !

    • आप सभी की प्रतिक्रिया पाकर अच्छा लगा .
      भविष्य में बेहतर और बेहतर लिख सकूँ सदा यही कोशिश रहेगी !

      सादर

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