इंतेहा देश को लूटने की… !

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{ निर्मल रानी }  हमारे देश में प्रतिदिन सरकारी स्तर पर कहीं न कहीं कोई न कोई निर्माण 111कार्य चलते ही रहते हैं। इनमें अनेक बड़ी परियोजनाएं अथवा निर्माण कार्य तो ऐसे हैं जो विदेशी कंपनियों द्वारा किए जाते हैं अथवा भारत की बड़ी व प्रतिष्ठित निर्माण कंपनियां उन कार्यों को अंजाम देती है। जबकि अनेक निर्माण कार्य ऐसे हैं जो पीडब्लूडी,नगर निगम,नगरपालिका,जिला परिषद,पंचायत तथा रेलवे जैसे अन्य कई विभागों द्वारा अपने माध्यम से करवाए जाते हैं। जहां तक विदेशी कंपनियों द्वारा तथा देश की बड़ी व प्रतिष्ठित निर्माण कंपनियों द्वारा किए जाने वाले विभिन्न निर्माण कार्यों का प्रश्र है तो निश्चित रूप से इनमें काफी हद तक गुणवत्ता व टिकाऊपन नज़र आता है। परंतु अन्य विभागीय निर्माण कार्यों में ठेकेदारों तथा विभागीय अधिकारियों की संयुक्त लूट के चलते किसी निर्माण कार्य की क्या दुर्दशा होती है यह देखते ही बन पड़ता है। देश के लोग यह बात भी भलीभांति जानते हैं कि कई राज्यों के कई विभागों में कई निर्माण कार्य तो ऐसे भी होते हैं जो केवल फाईलों में कागज़ी खानापूर्ति के द्वारा पूरे कर लिए जाते हैं तथा ठेकेदारों व अधिकारियों द्वारा उनके बिल पास कराकर सरकारी धनराशि की लूट-खसोट आपस में कर ली जाती है। देश के कई राज्य खासतौर पर इस मामले में बहुत बदनाम रह चुके हैं।

यदि आप इस विषय पर छोटे व मध्यम श्रेणी के ठेकेदारों से अथवा विभिन्न विभागों में निर्माण कार्य करने वाले पंजीकृत ठेकेदारों से बात करें तो उनका साफ कहना है कि ठेका देने वाले अधिकारियों द्वारा जितनी अधिक रिश्वत लेकर किसी काम का ठेका दिया जाता है वह काम उतना ही अधिक घटिया,कमज़ोर तथा मिलावटी होता हैं। क्योंकि ठेकेदार के अनुसार वह न तो बिना अपना मुनाफा सुनिश्चित किए हुए कोई कार्य कर सकता है न ही अपनी जेब से पैसे लगाकर किसी कार्य की निर्धारित गुणवत्ता सुनिश्चित कर सकता है। उधर ठेका देने वाले अधिकारियों की भी यही सोच होती है कि जिस ठेकेदार को किसी निर्माण का ठेका दिया जा रहा है चूंकि वह इस कार्य से खूब पैसे कमाएगा इसलिए क्यों न इस ठेकेदार से कमीशन स्वरूप अपने हिस्से की धनराशी पेशगी वसूल कर ली जाए। और सरकारी अधिकारियों व ठेकेदारों की इसी सोच के चलते इनकी आपसी मिलीभगत ने देश के खज़ाने को लूटने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। अब यदि आप किसी अधिकारी से इस विषय पर ईमानदाराना जवाब चाहें तो वह इस लूट-खसोट का यह उत्तर देगा कि चूंकि हमें अपने आला अफ़सरान की जेबें भरनी होती हैं इसलिए हम ठेकेदारों से प्रत्येक निर्माण कार्य का कमीशन वसूल करते हैं। अब यदि किसी विभागीय आला अफसर से पूछिए कि जनाब आप इतने बड़े विभाग के प्रमुख होने के बावजूद देश की संपत्ति को लूटने में क्यों लगे हैं तो वहां भी एक ‘ईमानदार’ आला अधिकारी आपको यही जवाब देगा कि हमें भी ‘राजधानी’ में अपने विभागीय प्रमुख को पैसे भेजने पड़ते हैं।

अपनी उपरोक्त बात के समर्थन में देश की एक पुरानी घटना का उल्लेख करना प्रासंगिक है। जिससे हमें एक तो इस बात का पता चलता है कि भ्रष्टाचारियों के हाथ कितने लंबे होते हैं। और दूसरे यह कि सरकारी खज़ाने की लूट का यह सिलसिला कोई नया सिलसिला नहीं है बल्कि संभवत:आज़ाद होने के बाद हमारे देश के जि़म्मेदार लोगों ने सबसे अधिक ध्यान ही सरकारी खज़ाने की लूट-खसोट तथा भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने पर ही दिया है। 1960-70 के दशक में उत्तर प्रदेश के कानपुर की नगरमहापालिका में एक निहायत काबिल व ईमानदार इंजीनियर का नाम था भगवती प्रसाद दीक्षित। उनके समक्ष एक बार एक पुल के निर्माण संबंधी फाईल पास होने की गरज़ से आई। दीक्षित ने उस निर्माण कार्य की फाईल को पास करने से पूर्व निर्माण सथल का दौरा कर निर्माण कार्य की जांच करना ज़रूरी समझा। वे जानना चाहते थे कि अमुक पुल का निर्माण कार्य ठेके में उल्लिखित निर्धारित शर्तों व निर्धारित सामग्री के अनुरूप हो रहा है अथवा नहीं। जब उन्होंने निर्माण स्थल का दौरा किया तथा निर्माणाधीन परियोजना में प्रयुक्त होने वाली सामग्री की बारीकी से जांच-पड़ताल की तो उन्हें पता चला कि ठेकेदार द्वारा उस काम में बहुत लापरवाही बरती गई है तथा निर्माण हेतु किए गए अनुबंध की शर्तों का घोर उल्लंघन किया गया है। उन्होंने ठेकेदार की उस फाईल को पास कर अग्रसित करने के बजाए उसपर आपत्ति का नोट लिखकर ठेकेदार का भुगतान रुकवा दिया। दीक्षित ने अपने नोट में यह शंका भी व्यक्त की कि यह निर्माण कार्य कतई टिकाऊ नहीं है और बहुत जल्दी यह पुल गिर सकता है। जब ठेकेदार को इस बात का पता चला तो उसने नगरमहापालिका के प्रशासक तथा अन्य आला अधिकारियों को दीक्षित द्वारा उठाए गए कदम के विषय में बताया। सभी अधिकारी जो ठेकेदार से रिश्वत ले बैठे थे वे दीक्षित द्वारा की गई आपत्ति के विषय पर खमोश हो गए। अधिकारियों ने ठेकेदार को दीक्षित से स्वयं निपटने को कहा। उसके बाद ठेकेदार व उसके गुंडों ने  दीक्षित के घर व दफ्तर के रास्ते में लाठियों व हाकी से उनकी जमकर पिटाई कर दी।

उसके बाद भगवती प्रसाद दीक्षित का भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक लंबा संघर्ष शुरु हुआ। जब दीक्षित ने अपने अधिकारियों तथा ठेकेदारों के बीच भ्रष्टाचारी नेटवर्क को जगज़ाहिर करने के लिए उनके विरुद्ध राज्य सरकार के स्वायत शासन मंत्रालय में शिकायत की तो जांच रिपोर्ट में उल्टे दीक्षित को ही मानसिक रोगी साबित करने की कोशिश की गई। उन्होंने अपनी शिकायत केवल राज्य सरकार से ही नहीं बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक को लिखित रूप से भेजी। उस समय के समाचार पत्रों में भी इस घटना का खूब जि़क्र हुआ। परंतु न तो दीक्षित के आक्रमणकारियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई हुई न ही भ्रष्ट अधिकारियों का कुछ बिगड़ा। बजाए इसके दीक्षित ने जिस निर्माण कार्य पर शीघ्र ध्वस्त हो जाने की शंका ज़ाहिर की थी वह पुल निर्माण होने के कुछ समय बाद ही गिर भी गया। दीक्षित ने जब यह देखा कि लखनऊ से लेकर दिल्ली तक के सत्ता के सभी द्वार खटखटाने के बावजूद उन्हें कहीं से भी न्याय नहीं मिल रहा है तो वे अपने मन में बड़े संघर्ष की ठान कर तथा राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्ट व्यवस्था में परिवर्तन लाने के हौसले के साथ एक घोड़े पर सवार होकर तथा अपने हाथों में बिगुल लेकर इंदिरा गांधी के विरुद्ध चुनाव लडऩे के लिए चुनाव मैदान में कूद पड़े। वे इंदिरा गांधी के िखलाफ रायबरेली तथा चिकमंगलूर तक जाकर चुनाव लड़े। 1981 में उन्होंने राजीव गांधी के विरुद्ध अमेठी से भी लोकसभा का चुनाव लड़ा। इसी चुनावी जंग के दौरान बेचारे दीक्षित का घोड़ा भी स्वर्गवासी हो गया। और उन्हें पैदल ही अपना चुनाव प्रचार करना पड़ा। परंतु नतीजा क्या निकलना था? कुछ समय बाद बेचारे दीक्षित जी भी अल्लह को प्यारे हो गए। जहां भी वे चुनाव लड़ते उनकी ज़मानत ज़ब्त हो जाती। हालंाकि उनके साथ देश के उज्जवल भविष्य की कल्पना करने वाले कानपुर के कुछ युवाओं तथा विद्यार्थियों की टीम रायबरेली,अमेठी तथा चिकमंगलूर पहुंच जाया करती थी। परंतु भ्रष्टाचार से आकंठ डूबी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करना कितना मुश्किल है यह पूरा देश जानता है।

उपरोक्त घटना भी यही ज़ाहिर करती है कि भ्रष्टाचार तथा सरकारी खज़ाने की लूट को लेकर क्लर्क से लेकर मंत्री व अधिकारी तक प्राय: सभी की मिलीभगत होती है। पिछले कुछ वर्षों में शहरों में सडक़ों व गलियों को ऊंचा करने तथा सीमेंटेड गलियां बनाए जाने का देश के अधिकांश राज्यों में बड़े पैमाने पर काम किया गया है। कोई भी व्यक्ति जाकर उन सडक़ों व गलियां का मुआयना कर सकता है कि किस अनुपात की सामग्री के तहत उस निर्माण कार्य पर अनुबंध किया गया तथा वास्तव में किस अनुपात की सामग्री प्रयोग में लाई गई। किसी भी निर्माण कार्य की गुणवत्ता उसका टिकाऊपन स्वयं ज़ाहिर कर देता है। रेलवे कालोनी तथा प्लेटफार्म आदि पर होने वाले कई निर्माण कार्य तो मैंने स्वयं ऐसे देखे हैं जो निर्माण कार्य पूरा होने के मात्र एक सप्ताह के भीतर ही अपनी हकीकत बयान करने लगते हैं। उधर ठेकेदारों द्वारा केवल घटिया सामग्री का ही प्रयोग नहीं किया जाता बल्कि किसी निर्माण कार्य को पूरा करने के बाद निर्माण किए गए हिस्से पर पानी छिडक़ने अथवा उसकी तराई करने की ज़हमत तक नहीं उठाई जाती। शायद ठेकेदार इसी काम को पूरा करने के फौरन बाद ही इसी कार्य के पुनर्निमाण के बारेमें सोचने लग जाते हैं। यदि जनता की खून-पसीने की कमाई को इन बेरहम लुटेरों की लूट से बचाना है तो उसका एक ही उपाय है कि किसी भी निर्माण कार्य के टिकाऊ होने की समय-सीमा उसकी सामग्री के निर्धारित अनुपात के अनुसार तय की जाए। और यदि उस समयावधि के भीतर उस निर्माण कार्य में किसी प्रकार की टूट-फूट,मुरम्मत या उसके पुनर्निमाण की ज़रूरत पेश आती है तो उस ठेके से जुड़े अधिकारियों व ठेकेदारों से ही बिना नई निविदा के ही कार्य कराया जाए। और यदि कोई ठेकेदार इसमें आनाकानी करे तो उसे व उसकी फर्म को काली सूची में डाल दिया जाए। साथ-साथ उससे संबद्ध अधिकारियों को भी निलंबित कर दिया जाए। परंतु ऐसे कदमों को उठाने के लिए राजधानियों में बैठे देश के ठेकेदारों का ईमानदार व साफ-सुथरा होना भी तो ज़रूरी है।

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nirmal rani invc newsपरिचय -:

निर्मल रानी

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

 Nirmal Rani  : 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City134002 Haryana  

 phone : 09729229728

* Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC. 

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