आदित्य शुक्ल की सात कविताएँ

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आदित्य शुक्ल की सात कविताएँ

१.वर्तमान के टुकड़े

जब मैं पर्वतों में था
हरे पेड़, रंगहीन पत्थरों के बीच
मैंने फिर कल्पना की एक निर्मल नदी की
नदी जो हलांकि
पहाड़ की चोटियों से उतर पत्थरों से लड़-टकरा
मेरे सामने से बह निकल रही थी
मैंने उसी नदी की कल्पना की
जिसमें मेरी अंधी आंखों के सामने श्रद्धालु लोग नहा रहे थे।
नदी जो तब वर्तमान था
असल में वह भविष्य की तरह मेरे अवचेतन पर चस्पा थी।
जैसे जब मैं पठारों से होकर गुजरा
पठारों पर वर्तमान में ही सफेद बर्फ की बर्फबारी हो गई
संभवतः यह बर्फबारी जो भविष्य का हिस्सा थी
तत्क्षण समकालीन थी।
जैसे जब मैं समुद्र तट
रेत पर लिख रहा था अपनी प्रेयसी का नाम
हिंसक लहरें जिसे मिटा मिटा देती
मुझे फिर फिर लिखने को
मेरे उसी वर्तमान में
बादलों से होकर गुजरा मेरे वर्तमान का एक जहाज
अतीत के फ्लैशबैक की मानिंद।
जिससे नीचे समुद्र में समुद्री जहाज
समुद्र में लकीरें बनाते कहीं जा रहे होते थे।
तब मैं अपने उस तमाम वर्तमान में
अतीत की तरह घटित हुआ
जिसे भविष्य मान लिया गया ….

२.आबरा का डाबरा

छत, छाता, जादू
कुछ भी नहीं बचा है जादूगर के पास अब।
सुबह होते
धूप निकलते
चार दीवारों पर ढ़क्कन सी रखी छत
सरक कर
दीवारों के ढ़ांचे को बना देती है खंडहर
दिन भर के लिए।
जादूगर अब भी कभी कभी
घुमाता है जादू की छड़ी
‘आबरा का डाबरा’
और रूमाल से
उड़ती निकल आती हैं तितलियां।
तितलियां
काली/लाल तितलियां
जर्जर छातों पर बैठ
घूरती हैं
दीवार/आसमान/सड़क
मगर छत
जस की तस।
खुली रहती है दिन भर
दीवारों के बीच का ढ़ांचा बना रहता है खंडहर

३. चींटियां

अंधेरे का एक कोई दीवार
चौकोर,
चार तीखे कोनों वाला
और ये चींटियां
बारिश रिसे दीवारों पर।
चींटियां,
अंधेरा तोड़ तोड़ ले आती हैं
उनमें अपने घर बनाती
गहरे, बहुत गहरे सुराख कर
दो दुनिया के रास्ते तय कर लेतीं
ये चींटियां
छोटी छोटी।
मुझे ये
मेरे चारों तरफ
घेर लेतीं
किसी रात के उजाले में
रखे होते जहां अंधेरे अनाज के टुकड़े,
मुझे ये चींटियां
मरी हुई लाश समझकर
कभी कभी मुझपर
उजाले उगल देतीं।
मुझे ये चींटियां कभी कभी
महीने-साल का राशन दे जातीं,
अंधेरी जमीन को खोद
कहीं उस पार
अगली बारिश तक के लिए चलीं जातीं।
मुझे ये चींटियां फिर अक्सर याद आतीं

४.वापसी

मेरे जाने के बाद
तुम लौट आना!
एक ओर करवट कर सो जाना।
या
मेरे जाने के बाद
एक ओर करवट कर लेट जाना
फिर करवट बदल कर
दूसरी ओर गली के अंधेरे को देखना सुनना
फिर दूसरी ओर मुंह पलट लेना।
मेरे जाने के बाद,
बुके के सूखे फूल पंखुड़ियों को
बिन/चुन
किताब के इकहत्तरवें/बहत्तरवें पेज बीच छिपा देना
अगली पढ़न में
बाकी कहानी ढूंढने में सरलता हो जिससे।
फिर बत्ती बुझा
एक ओर करवट कर शून्य कर देना सब

५.दो

मन के दो हिस्सों में से
एक पर रख दो
नरम पूजा के फूल
तरतीब से सजा दो उन्हें
दूसरे पर बचा हुआ हिस्सा
गाढ़ा, काला-नीला
कांटेदार दर्दनाक
चीखता हुआ हिस्सा
फिर मन के इन दो हिस्सों को
अदल बदल दो
या जरा सा इसमें
और जरा सा उसमें मिश्रण कर दो
मन, मन बना रहेगा
कांटे पर फूल खिलते रहेंगे मुरझाने तलक
या फिर कभी मन टूटे
मुरझाये मौत की तरह
तो किसी सुबह
किसी अगली सुबह आने तक
मन दो रहने देना

६.कभी कभी मैं 

मेरे अन्दर एक मरा हुआ काफ्का है
जो,
शाम को लिखने की टेबल पर बैठ अपनी गर्दन खुजाता है ..
सोचता है कि खाना क्या है
और यह भी बहन के स्कूल की फीस कैसे भरी जायेगी अगले महीने.
सुबह बेतरतीब उठता है ये मेरे अन्दर का काफ्का
बिस्तर छोड़ना ही नहीं चाहता कमबख्त.
और मेरे अन्दर एक पेसोआ भी है
अपने द्वीप महाद्वीप में विचरता है.
चश्मा टिकाता है नाक पर,
छड़ी के सहारे किसी तरह चढ़ जाता है पांचवी मंजिल पर.
चाय पीते वक़्त सोचता है प्रेयसी के बारे में
लिखता है बेचैनी की कवितायें
मेरे अन्दर फिर तीसरा भी है.
मार्केज़ भी है.
जादूगर होना चाहिए था जिसे.
मार्केज़ ने पाले हैं मेरे दिल के भीतर कुछ सौ सफ़ेद हाथी
जिन्हें वो श्रीलंका से पकड़ कर लाया था.
वह सपनों में जीता है हरदम
नीले पहाड़ों के स्वप्न पहली बार मार्केज़ ही ने उगाये थे
लाल मोर पर उसी ने की पहली फोटोग्राफी.
उसका एक अपना तोता भी है
जिसे बूढ़े कर्नल को दे दिया मैंने और उसने.
मेरे अन्दर तीन ही हैं और, और भी हैं शायद.
ये मुझे धीरे धीरे खा रहे हैं
चाट रहे हैं दीमक की तरह.
काफ्का भीतर से मेरी गर्दन चिकोटता है.
पेसोआ अपनी छड़ी से खोदता रहता है.
मार्केज़ दिन भर सपने देखता रहता है

७.बचा हुआ प्रेम

मान लो,
प्रेम अगर नहीं रहा प्रेम अब
जैसे सुबह का बासी गुलाब नहीं रहता है गुलाब शाम तक,
जैसे चहक कर निकल गई चिड़िया
हवाओं में धब्बे सी बची रही चहक उसकी,
बरसों पुरानी कोई सिहरन नहीं रही सिहरन अब,
छुवन हाथों में पड़ा रहा फिर बाद में
जैसे बच्चा बड़ा हो गया
चलने फिरने लगा तो नहीं रहा बच्चा अब
प्रेम, प्रेम नहीं रहा सच में!
मगर,
बच्चा चलने फिरने लगा और उसके दिल में तड़पता बचा रहा बचपन
गुलाब सूख गया
मगर उसकी गुलाबियत बची रही सूखी पंखुड़ियों में,
सिहरन बची रही रोंगटों में
चहक की जरूरत बची रही चिड़िया को
ठीक ऐसे ही प्रेम भी बचा रहा कप के धब्बे-सा

परिचय – :

aditya shukla,invc newsआदित्य शुक्ल

 

सम्प्रति : डाटा एनालिस्ट, एक्स्चंगिंग टेक्नोलॉजी, गुडगाँव

 

निवास: गुडगाँव, मूल निवासी गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

 

संपर्क – :  +91-7836888984 , ईमेल: shuklaaditya48@gmail.com

3 COMMENTS

  1. आदित्य की कवितायें ताजातरीन हवा के झोंके की तरह है .जिसकी ठंडक देर तलक बनी रहें ..सधी ,सटीक ,कहीं-२ मारक भी ..कई बार प्रतिक्रिया देने में खुद को असमर्थ पाती हूं ..ये सारी कव्तायें आदि की बेहतरीन कवितायें हैं ..”कभी -२ मैं “, “वर्तमान के टुकड़े ” ,”बचा हुआ प्रेम “और “दो” इनके लिये विशेष तौर पर बधाई आदित्य को ..यूं ही लिखते रहो दोस्त ..सच एक व्यक्तित्व के रुप में ,एक पाठक के रुप में ,एक कवि के रुप में और एक मित्र के रुप में वे एक बेहतरीन इन्सान है ..कभी-२ रश्क हो उठता है तुमसे मेरे दोस्त ! 🙂

  2. कभी कभी मैं ….सबसे बढिया कविता हैं ! बधाई

  3. बचा हुआ प्रेम …सबसे शानदार कविता हैं ! साभार अच्छी कविताओं के लियें

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