आचार-विचार वाली मूर्खता

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एक बार एक अजनबी किसी के घर गया पर वह खाली हाथ आया ही था तो उसने सोचा कि कुछ उपहार देना अच्छा रहेगा तो उसने वहां के मेहमान कक्ष में टंगी एक पेंटिंग उतारी और जब घर का मालिक आया तो उसे वही पेंटिंग देते हुए कहा, 'यह पेंटिंग आपके लिए लाया हूँ|' घर का मालिक जिसे पता था कि यह पेंटिंग उसकी ही है और यह उसकी चीज ही उसे भेंट में दे रहा है। अब आप ही बताइए कि क्या वह भेंट पाकर जो कि पहले से ही उसका है, उस आदमी को खुश होना चाहिए? मेरे ख्याल से नहीं…. लेकिन यही चीज तो हम भगवान के साथ भी करते है। 

 

हम उन्हें रुपया, पैसा चढाते हैं और हर चीज जो उनकी ही बनाई है, उन्हें भेंट करते है, लेकिन मन में भाव रखते है कि ये चीज मैं भगवान को दे रहा हूँ और सोचते है कि ईश्वर खुश हो जाएंगे। मुर्ख है हम! हम यह नहीं समझते कि उनको इन सब चीजों की जरूरत नहीं। 

 

मानवीय व्यवहार और आचार-विचार की यही एक मूर्खता है जो अपनी पराकाष्ठा को छूने के बाद भी भान नहीं होने देती, जो समझ जाता है वह ईश्वर को समर्पित हो जाता है। PLC

 

 




 

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