**असफल होना आंदोलन अन्ना का

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**निर्मल रानी

बहुचर्चित, बहुप्रतीक्षित एवं अत्यंत विवादित लोकपाल बिल लगता है फिर अनिश्चितकाल के लिए ठंडे बस्ते में जाने की तैयारी में है। उधर संसद में राजनैतिक दलों की खींचातानी तथा इस विषय पर दिए जाने वाले अपने-अपने तर्कों के बीच जहां इस बिल पर सकारात्मक व रचनात्मक बहस नहीं हो सकी, वहीं सशक्त लोकपाल बिल लाने के लिए संघर्षरत अन्ना हज़ारे का आंदोलन भी असफल हो गया। भले ही कुछ लोगों को इस आंदोलन के सफल होने की उम्मीद थी पंरतु तमाम राजनैतिक विश्लेषक ऐसे भी थे जिन्हें अन्ना आंदोलन का कुछ इसी प्रकार का हश्र होने की पूरी उम्मीद थी। और आखिरकार हुआ भी वही। अभी कुछ ही दिन पूर्व अपने एक आलेख में मैंने देश की 121 करोड़ जनता पर अपनी दावेदारी जताने वालों के बड़बोलेपन पर चर्चा करने की कोशिश की थी। इस पर कई सुधी पाठकों ने अपने तेज़-तर्रार जवाबी तर्क भी दिए थे। हालांकि उनके कई तर्कों से मैं सहमत भी हूं। परंतु मेरा प्रश्र भी कतई गैरवाजिब नहीं है कि 121 करोड़ जनता की ओर से बोलने का अधिकार आखिर किन-किन लोगों को है, किस प्रकार है और किस आधार पर है।

निश्चित रूप से भ्रष्टाचार हमारे देश को दीमक की तरह खाए जा रहा है। संविधान की रक्षा करने वाले लोग ही संविधान व देश के लोकतांत्रिक ढांचे की धज्जियां उड़ाने पर तुले हैं। राजनीति, अफसरशाही, न्याय पालिका तथा मीडिया सभी क्षेत्रों के तमाम लोग किसी न किसी प्रकार देश को लूटकर खाने में लगे हैं। ऐसे में निम्र व मध्यम वर्ग तथा समाज के भ्रष्टाचार से प्रभावित वर्ग की आवाज़ बनकर अन्ना हज़ारे खड़े होते हुए दिखाई दिए। जंतर-मंतर और तिहाड़ जेल से लेकर रामलीला मैदान तक अन्ना हज़ारे के पीछे जिस प्रकार देश का वास्तविक हितैषी, राष्ट्रभक्त जनसमूह उमड़ा उसे देखकर वास्तव में एक बार तो ऐसा ही लगा कि गोया पूरा देश भ्रष्टाचार से त्राहि-त्राहि कर रहा है और पूरे देश का समर्थन अन्ना हज़ारे के साथ है। परंतु यदि हम अपै्रल व अगस्त में हुए आंदोलनों के समय व मौसम पर नज़र डालें तो वह समय ऐसा था कि कोई भी व्यक्ति खुले आसमान के नीचे उठ-बैठ सकता था तथा अपनी रातें आंदोलन को दे सकता था। परंतु दिसंबर माह में सर्दी के चलते इस आंदोलन के असफल होने की पूरी संभावना थी।

हालांकि टीम अन्ना ने इसी बात के मद्देनज़र अन्ना हज़ारे के तीन दिवसीय अनशन का र्प्रबंध दिल्ली के बजाए मुंबई के एम एम आर डी ए ग्राऊंड में कराए जाने की योजना बनाई। परंतु एक लाख से अधिक लोगों की क्षमता वाले इस विशाल मैदान में भी अन्ना समर्थकों की भीड़ टीम अन्ना की उम्मीदों से कहीं कम जमा हो सकी। निश्चित रूप से मुंबई का मौसम सामान्य था तथा वहां भ्रष्टाचार विरोधी भारतीय जनता पूरे देश से चलकर बड़ी तादाद में अन्ना को अपना समर्थन देने तथा देश की अब तक की इस सबसे बड़ी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में भाग लेने के लिए इकठ्ठा हो सकती थी। परंतु दूरदराज़ के लोगों को उनके परिजनों ने इसी सर्दी के मौसम के मद्देनज़र मुंबई जाने की इजाज़त नहीं दी। जहां युवाओं को उनके अभिभावकों ने नहीं जाने दिया वहीं बुज़ुर्ग लोगों को उनके बच्चों ने सर्दी के मौसम में एहतियात बरतने की सलाह दी।

उधर अन्ना हज़ारे ने भी जेल भरो आंदोलन का नारा देकर जनता के पाले में गेंद डालने का बहुत सही कदम उठाया था। ज़ाहिर है देश में फैला भ्रष्टाचार कोई सिर्फ अन्ना हज़ारे या उनके गांव रालेगण सिद्धि के लोगों को ही प्रभावित नहीं कर रहा है या इससे केवल टीम अन्ना या उनके संगठन ही सदस्य ही दुरूखी नहीं हैं बल्कि दुर्भाग्यवश हमारे देश में कोई बच्चा पैदा होते ही भ्रष्टाचार का शिकार हो जाता है और यह सिलसिला मरने तक यहां तक कि संस्कार व अंतिम क्रियाक्रम तक जारी रहता है। यानी जन्म प्रमाण पत्र लेने से लेकर मृत्यु प्रमाण पत्र लेने की अवस्था तक प्रत्येक व्यक्ति रिश्वत का शिकार है। ऐसे में आखिर अन्ना हज़ारे जैसे वृद्ध व्यक्ति को अकेले अपनी जान देने की क्या ज़रूरत है? होना तो यह चाहिए था कि इस बार भी देश के प्रत्येक शहर व कस्बे में अन्ना हज़ारे के साथ-साथ आम लोग  भी जोकि स्वयं को भ्रष्टाचार से पीड़ित समझते हैं तथा भ्रष्टाचार निवारण की आकांक्षा रखते हैं वे सब पूरे देश में जगह-जगह, चौराहे-चौराहे पर अनशन पर बैठकर अन्ना हज़ारे के आंदोलन को अपना पूरा समर्थन देते व उनको ऊर्जा प्रदान करते। परंतु आम लोगों की तो खैर बात ही क्या की जाए। स्वयं टीम अन्ना के सदस्य व सहयोगी तक एक ओर तो वृद्ध अन्ना को प्रतीकात्मक रूप से आगे रखकर उन्हें भूख-हड़ताल पर बिठा देते थे तो दूसरी ओर यह लोग स्वयं पांच सितारा अथवा उच्च श्रेणी के पकवान का आनंद लेते फिरते थे। आखिर इसे किस प्रकार का सत्याग्रह कहा जाए?
जहां तक बड़े पैमाने पर भीड़ इकठ्ठी करने का प्रश्र है तो देश के लगभग सभी राजनैतिक दल इस काम में पूरी महारत रखते हैं। भीड़ जुटाने का प्रबंधन करना कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। ज़रूरत पडऩे पर राजनैतिक दलों का नेटवर्क वार्ड, मोहल्ला व पंचायत स्तर तक सक्रिय हो उठता है। आए दिन कहीं न कहीं किसी न किसी पार्टी का कोई न कोई नेता किसी न किसी अवसर को बहाना बनाकर अपना शक्ति प्रदर्शन करता रहता है। और यह वही वर्ग है जोकि भारतीय संविधान में उल्लिखित व्यवस्थाओं के अनुसार भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व भी करता है। इसलिए इन्हें जनता को बुलाने या उनसे अपने नेटवर्क के माध्यम से संपर्क स्थापित करने में कोई समस्या नहीं आती। यह और बात है कि भीड़ जुटाऊ ऐसे अवसरों पर यहां भी परिवहन व यातायात व्यवस्था को लेकर भारी भ्रष्टाचार देखा जा सकता है।
परंतु अब इस व्यवस्था से जोकि वास्तविक भी है आखिर कोई कैसे मुंह फेर सकता है? सवाल यह है कि क्या टीम अन्ना के पास या उनके साथ खड़े दिखाई दे रहे लोगों के पास इतनी क्षमता है कि वे राजनैतिक दलों की तुलना में अधिक भीड़ इकठ्ठी कर यह प्रमाणित कर सकें कि देश का अवाम भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के साथ नहीं बल्कि उनके साथ है? मिसाल के तौर पर मुंबर्ह को ही ले लें। पूरे देश के सुधी व बौद्धिक लोग बाल ठाकरे व राज ठाकरे दोनों के विषय में काफी कुछ जानते हैं। मुंबई के स्थानीय लोग इन लोगों के अंडरवर्ल्ड माफिया, स्मगलर, बिल्डर आदि के संबंधों व उनकी पैठ से भी वाक़िफ हैं। इनके स्थानीय चेलों के चरित्र के बारे में भी तमाम लोगों को पता है। परंतु इन सबके बावजूद मुंबई में जब और जहां चाहे यही ठाकरे परिवार अधिक से अधिक भीड़ जुटाने की क्षमता भी रखता है। गोया आप इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि भीड़ जुटाने का प्रबंध करने की भी यह भ्रष्ट राजनैतिक वर्ग भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन संचालित करने वालों से कहीं बेहतर क्षमता रखता है।

अब मुंबई में अन्ना के आंदोलन में पर्याप्त भीड़ न जुटने के बाद इस बात का अंदाज़ा भी बखूबी लगाया जा सकता है कि जब जनता दर्शक के रूप में तथा भीड़ की शक्ल में अन्ना हज़ारे के आंदोलन को अपना समर्थन नहीं दे सकी फिर आखिर वह जनता जेल यात्रा के लिए किस प्रकार तैयार हो जाती? कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी जैसे देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल जिनका कि राष्ट्रीय स्तर पर गांव-गांव, शहर-शहर संगठन खड़ा हुआ है जब कभी इन्होंने जेल भरो आंदोलन का नारा दिया है उस समय इन पार्टियों को भी जेल जाने वाले स्वयं सेवकों को जुटाने में पसीने छूट जाते हैं। ऐसे आंदोलन के लिए दिन-रात एक कर बहुत बड़े स्तर पर स्वयंसेवकों की भर्ती करनी पड़ती है और इसके लिए अन्ना हज़ारे या अन्य बाबाओं के  पास कोई अपना नेटवर्क उस स्तर का कतई नहीं है जैसा कि राजनैतिक संगठनों के पास है। लिहाज़ा भावनात्मक रूप से कोई भी, कुछ भी बोलता, चीख़ता या चिल्लाता रहे परंतु हकीकत तो यही है कि कोई भी काम तौर-तरीके, मेकैनिज़्म,विधि और विधान के साथ ही संपूर्ण हो पाता है।
जनक्रांति तथा भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन-जन में जागरुकता सडक़ों पर या मैदानों में दिखाई देने से पहले आम लोगों के दिलों में पैदा होनी ज़रूरी है और जब भारतीय जनमानस अपनी अंतर्रात्मा से भ्रष्टाचार का विरोधी हो जाएगा फिर न उसे मौसम की फिक्र होगी न परिवार की बंदिश उसके आड़े आएगी न ही मुंबई की दूरी उसके सामने रोड़ा बनेगी, न ही वे जेल की सलाखों को या पुलिस की लाठियों व गोलियों को कुछ समझेगा। यहां तक कि फिर उसे अन्ना हज़ारे जैसे प्रतीक पुरुष की भी कोई विशेष आवश्यकता नहीं होगी। लिहाज़ा घर-घर में तथा जन-जन में घर कर चुकी भ्रष्टाचारी मानसिकता को बदलने तथा अपने भीतर व जनमानस में भ्रष्टाचार विरोधी जनजागृति जगाने की पहली ज़रूरत है।

**निर्मल रानी
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer)
1622/11 Mahavir Nagar
Ambala City  134002
Haryana
phone-09729229728

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC

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