असगर अली इंजीनियर एक अपाहिज़ कौम के वकील का जाना *

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{ वसीम अकरम त्यागी **} मौत एक ऐसी सच्चाई है जिससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक। इसका आना हर खास ओ आम के लिये तय है, राना साहब ने कहा भी है कि सब ओढ़ लेंगे मिट्टी की चादर को एक दिन, दुनिया का हर चराग हवा की नजर में है और आज जिस शख्स ने इस मिट्टी की चादर को ओढ़ा है वह सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म’ के अध्यक्ष और इस्लामिक विषयों के जानकार डॉ. असगर अली इंजीनियर हैं जो उस कौम की वकालत कर रहे थे जिसे अमेरिकी पोषित पद्धती के तहत आतंकवादी माना जा रहा था। जिसे सांप्रदायिक दंगों में झोंका जा रहा था जिसके खिलाफ दुष्प्रचार करने की मुहिम मीडिया ने छेड़ रखी है। ऐसे में असगर अली साहब उन गिने चुने बुद्धीजीवियों में से एक थे जो मुस्लिम समुदाय के पक्ष में खड़े हो गये हालांकि कुछ लोगों को उनसे आपत्ती जरूर थी मगर उन्होंने उसे नजरअंदाज कर दिया और अपने शाहीं की तरह अपने टार्गेट पर निशाना लगाये रखा. अभी पिछले महीने की ही तो बात है जब उन्होंने मुस्लिम टूडे के आगृह पर सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण आलेख लिखा था। उनके इंतकाल की खबर वाकई सदमा पहुंचाने वाली है। और ये सदमा हर उस शख्स को है जिसके दिल में समाज का, कौम का, दर्द है जब इस खबर को सुप्रसिद्ध शायर मुनव्वर राना को बताया तो वे अपने को रोक नहीं पाये राना ने कहा कि असगर अली इंजीनियर साहब देश के उन दानिश्वरों में से थे जिन्होंने तमाम उम्र मिल्लत और देश की सेवा की है वे देश के रियल दानिश्वर थे वे किसी भी तरह की धार्मिक कट्टरता के खिलाफ थे. इतना कहते – कहते उनका गला रुंध सा गया और उनके मुंह से ये शेर निकला कि……..

हवा उड़ाये लिये जा रही है हर चादर

पुराने लोग सभी इंतकाल करने लगे।

वास्तव में आज जो हवा चली है उसने उस चादर को उड़ा दिया है जिसके नीचे मुस्लिम तबके आबरु महफूज थी। जो कभी आतंकवाद तो कभी सांप्रदायिक उन्मादियों के निशाने पर था वे उन्हीं की चादर के नीचे आकर अपने आपको महफूज समझते थे।

इसे मुस्लिम समुदाय और दब कुचले समुदाय का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा जब भी उन्हें कोई सच्चा हमदर्द मिला वह बहुत ही जल्द इस दुनिया को अलविदा कह गया चाहे वह हेमंत करके हो या कोई और। मगर इतना जरूर है वह अपने हिस्से का जो काम इस मुख्तसर सी जिंदगी में कर के गये हैं वह मील का पत्थर है। उन्होंने वे काम किये हैं जो बड़े बड़े मंचों से घोषणा करने वाले मुस्लिम रहनुमा नहीं कर पाये. 1940 में जन्मे असगर अली ने विक्रम विश्वविद्यालय से सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी में स्नातक किया. 1980 में उन्होंने एक पत्रिका ‘इस्लामिक परिप्रेक्ष्य’ का संपादन करना शुरु किया था. 1980 के दशक मे ही असगर अली ने इस्लाम और भारत में सांप्रदायिक हिंसा पर किताबों की पूरी कड़ी प्रकाशित की. उनकी असाधारण सेवा कार्यों के यूएसए इंडियन स्टूडेंट असेंबली और यूएसए इंटरनेशनल स्टूडेंट असेंबली की ओर से 1987 में सम्मानित किया गया. धार्मिक अमन चैन के लिए उन्हें 1990 में ‘डालमिया अवार्ड’ मिला. डॉ. असगर इंजीनियर को डॉक्टरेट की तीन सम्मानित डिग्रियों से भी नवाजा जा चुका है. 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद डॉ. इंजीनियर बेहद आक्रोशित और दुखी हुए. उन्होंने 1993 में “सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म’ के नाम से एक संस्था स्थापित की. इस संस्था के वे अध्यक्ष रहे. धर्मनिरपेक्ष पत्र-पत्रिकाओं सहित विभिन्न विषयों पर उनकी करीब 52 किताबें प्रकाशित हुई हैं ,देश के प्रतिष्ठित अखबारों और पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हुए हैं. जो मुख्यतः सांप्रदायिक उन्माद के खिलाफ थे, उन्होंने ‘इंडियन जर्नल ऑफ सोसलिज्म’ और एक मासिक पत्रिका, ‘इस्लाम एंड मार्डन एज’ का भी संपादन किया.

अपनी तमाम जिंदगी कौम और समाज की खिदमत के लिये वक्फ करने वाले असगर अली इंजीनियर आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा लिखे गये आलेख उनकी किताबें आज हमारे बीच में एक सनद की तरह महफूज हैं, जो हमेशा काम आती रहेंगी और उनका बेबाकी से यह कहना कि “मुसलमानों पर जहां जुल्म होता है तो वे लड़ते हैं उसका विरोध करते हैं” हमेशा जुल्म के खिलाफ आवाज उठने वाली ताकत को समबल प्रदान करते रहेंगे। मगर उस कौम का क्या जिसकी वह वकालत कर रहे थे जो जिसके लिये वे रात की आखिरी पहर का चराग साबित हो रहे थे वह तो उनके जाने से नेतृत्वहीन सी हो गई है जिसकी भरपाई करना फिलहाल तो मुमकिन नहीं है. क्योंकि असगर अली इंजीनियर उन बुद्धीजीवियों में से जिन्होंने 2008 में जब आजमगढ़ को आतंकवाद को की नर्सरी बताया जा रहा था तो इन्होंने सर्वप्रथम उसका खुलकर विरोध किया  था और देश के विभिन्न समाचारपत्र, पत्रिकाओं में उनका खंडन करते हुऐ लेख लिखे और कुछ कथित लोगों द्वारा थोपे जा रहे इस दंश का खंडन किया। अगर यह कह दिया जाये तो गलत न होगा कि असगर अली इंजीनियर उस अपाहिज कौम के वकील थे जो जुल्म के खिलाफ आवाज से डरती है कि कहीं उसे फर्जी मुठभेड़ में मार ना दिया जाये, जिसका सांप्रदायिक दंगों में सबसे अधिक नुकसान होता है. जो खाकी आतंकवाद की भेंट चढ़ती है. इसी के साथ – साथ वे कट्टरता के घोर विरोधी थे मुसलमान थे और उन्होंने अपने धर्मगुरू के खिलाफ खूब लड़ाई लड़ी थी। उस समय अकेले सारिका संपादक कमलेश्वर ने उनका जी जान से साथ दिया था। असगर अली सांप्रदायिक सदभाव को मन से मानते थे। ऐसी अजीम शख्सियत के इंतकाल पर हम उन्हें राहत साहब के इस शेर के साथ खिराज ऐ अकीदत पेश करते हैं

दिल धड़कने का तसव्वुर ही ख्याली हो गया

एक तेरे जाने से सारा शहर खाली हो गया।

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वसीम-अकरम-त्यागीWasim-Akram** वसीम अकरम त्यागी

उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में एक छोटे से गांव अमीनाबाद उर्फ बड़ा गांव में जन्म

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एंव संचार विश्विद्यलय से पत्रकारिता में स्नातक और स्नताकोत्तर

समसामायिक मुद्दों और दलित मुस्लिम मुद्दों पर जमकर लेखन। यूपी में हुऐ जिया उल हक की हत्या के बाद राजा भैय्या के लोगों से मिली जान से मारने की धमकियों के बाद चर्चा में आये ! फिलहाल मुस्लिम टूडे में बतौर दिल्ली एनसीआर संवाददता काम कर रहें हैं

9716428646. 9927972718

*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely

his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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