अमानवीय तालिबानी गतिविधियों के विरुद्ध फ़तवों की दरकार

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तनवीर जाफ़री**,,

जिस इस्लाम धर्म को साढ़े चौदह सौ वर्ष पूर्व हज़रत मोहम्मद के नाती हज़रत इमाम हुसैन ने अपनी व अपने परिजनों की जान की कुर्बानी देकर यज़ीद जैसे तत्कालीन दुष्ट एवं क्रूर सीरियाई शासक के चंगुल में जाने से बचाया था दुर्भाग्यवश आज वही इस्लाम धर्म क्रूर तालिबानी मुसलमानों की गिरफ़्त में जाता दिखाई दे रहा है। पश्चिमी ताक़तों से अपने विरोध का बहाना बनाकर यह तालिबानी राक्षसी प्रवृति की शक्तियां केवल अमेरिका या नाटो सेनाओं पर ही हमले नहीं करतीं बल्कि इनके निशाने पर तो इस्लामी हित साधने वाले तमाम लक्ष्य भी दिखाई देते हैं। कुल मिलाकर अब तो यह समझ पाने में ही दिक्कत होने लगी है कि आखिर तालिबानों का दुश्मन है कौन? यदि हम इनकी इन सब गतिविधियों व इनके द्वारा आक्रमण किए जाने वाले लक्ष्यों पर नज़र डालें तो हमें यही नज़र आता है कि इस प्रकार की हिंसक कार्रवाईयों को अंजाम देना पूरी तरह गैर इस्लामी व ग़ैर इंसानी भी है। साथ ही साथ इनके द्वारा की जाने वाली हिंसक कार्रवाईयां इस्लाम के इतिहास में पहले कहीं भी और कभी भी देखी नहीं गईं।

यदि थोड़ी देर के लिए हम यह मान लें कि इनकी सांठगांठ चरमपंथी संगठन अलकायदा के साथ है तथा दोनों का संयुक्त लक्ष्य अमेरिका व अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचाना है फिर सवाल यह उठता है कि तालिबानी विचारधारा व तालिबानी कानून की आड़ में किसी नकाबपोश औरत को भरे मजमे के सामने बदचलनी के इल्ज़ाम में सार्वजनिक रूप से गोली मारकर उसकी निर्दयता से हत्या किए जाने का आखिर क्या औचित्य है? क्या इस्लाम इस बात की इजाज़त देता है कि एक असहाय व निहत्थी अकेली औरत के इस प्रकार हाथ-पैर बांधकर उसे हज़ारों लोगों के सामने गोली मार दी जाए? अब तक तालिबानी ताकतें अफगानिस्तान व वज़ीरिस्तान क्षेत्र में सैकड़ों स्कूलों व शिक्षण संसथान के नामोनिशान मिटा चुके हैं। इन हथियारबंद वहशी दरिंदों की यह सोच है कि स्कूली शिक्षा गैर इस्लामी है। और अपनी इसी नापाक अवधारणा के चलते यह तालिबानी तमाम स्कूलों व मदरसों की इमारतों को ध्वस्त कर चुके हैं। इतना ही नहीं बल्कि पिछले दिनों इन्हीं हैवानों ने मलाला युसुफ ज़ई नामक उस 14 वर्षीय कन्या पर गोली चला कर उसे गंभीर रूप से घायल कर दिया जोकि अफगानिस्तान के बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने के प्रति आकर्षित करने का काम कर रही थी। परंतु इन हथियारबंद अशिक्षित शैतानी ता$कतों को उस मासूम बच्ची द्वारा इस्लाम के रास्ते पर चलते हुए शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना पसंद नहीं आया और उन्होंने उस बच्ची को गोली मारकर घायल कर दिया। ज़रा सोचिए कि मलाला द्वारा अनपढ़ बच्चों को पढ़ाई की ओर आकर्षित करने में पश्चिमी देशों के कौन से हित साधे जा रहे थे जिसके चलते मलाला को को इन हैवानों की दहशत का शिकार होना पड़ा। क्या इतनी छोटी उम्र की लडक़ी पर स्वयं को मुसलमान व इस्लाम के रक्षक बताने वाले लोगों द्वारा जानलेवा हमला किया जाना कोई इस्लामी कृत्य है?

अफ़गानिस्तान व पाकिस्तान में सक्रिय तालिबान नामी शैतानी ताकतें आखिरकार किसकी दुश्मन हैं यह भी समझ पाना आसान नहीं है। कहीं अमेरिका का विरोध तो कहीं सभी पश्चिमी देशों से बैर का बहाना। कहीं मुस्लिम समाज को शिक्षित किए जाने के प्रयासों का विरोध तो कहीं गीत-संगीत, फिल्म व टेलीविज़न से मुखा़लेफत। कभी महिलाओं के अकेले घर से बाहर निकलने पर आपत्ति तो कभी महिलाओं की बेपर्दगी को लेकर टूटता इनका क़हर। और तो और स्वयं को इस्लाम का मुहाफिज़ बताने वाले यह वहशी दरिंदे दरगाहों,मस्जिदों व इमामबाड़ों में चलने वाली इस्लामी गतिविधियों को भी चलते हुए नहीं देख पाते। अब तक इनके द्वारा सैकड़ों दरगाहों,मस्जिदों,इमामबारगाहों, पीर-फकीरों के आस्तानों,मज़ारों व मुसलमानों के तमाम धार्मिक जुलूसों पर जानलेवा हमले किए जा चुके हैं। यहंा तक कि यह आसुरी ताकतें हज़रत इमाम हुसैन का गम मनाने वाले शिया समुदाय के जुलूसों व मजलिसों पर भी कई बड़े व आत्मघाती हमले कर चुके हैं। इनके द्वारा सिखों,हिंदुओं व अहमदिया मुसलमानों व शिया समुदाय के लोगों पर हमले करना तथा दहशत फैलाना तो इनके लिए आम बात है। लिहाज़ा जब इनके निशाने पर अमेरिका से लेकर महिलाओं तक व मस्जिद में नमाज़ पढऩे वाले नमाज़ी तक हैं फिर आखिर इनका वास्तविक दुश्मन कौन है और यह स्वयं किसके साथी हैं और किसके साथ हैं यह समझ पाना बहुत मुश्किल है।

पिछले दिनों पूरी दुनिया के साथ-साथ अफगानिस्तान में भी बकरीद का त्यौहार मनाया गया। तालिबान ने यहां उत्तरी अफगानिस्तान के फरायाब प्रांत के मैमाना शहर में 4 दिवसीय ईद-उल-जुहा उत्सव के पहले दिन अपनी क्रूरता का वह तांडव दिखाया जिसने एक बार फिर इनके मुसलमान ही नहीं बल्कि इंसान होने पर भी संदेह खड़ा कर दिया। मैमाना शहर में स्थित एक प्राचीन जामा मस्जिद में बकऱीद के पहले दिन प्रांत के गवर्नर व प्रांतीय सरकार के कई मंत्री शुक्रवार के दिन नमाज़ में हिस्सा ले रहे थे। बकरीद का पहला दिन होने के साथ-साथ शुक्रवार भी होने के चलते मस्जिद खचाखच भरी थी। इसी बीच 14 से 19 वर्ष की आयु वर्ग के एक आत्मघाती मानव बम ने इस मस्जिद में स्वयं को उड़ा लिया। परिणामस्वरूप 45 नमाज़ी मौके पर ही मारे गए। इनमें पांच बच्चे भी शामिल हैं। जबकि पुलिस सेना व खुफिया एजेंसी के 19 लोग भी इस आत्मघाती हमले का शिकार हुए। कम से कम 75 लोगों के घायल होने का भी समाचार है। गत् कुछ महीनों में हुआ यह सबसे भीषण आत्मघाती हमला था। अब यहां भी यही सोचने का विषय है कि बकरीद की नमाज़ और वह भी जुम्मे के दिन अदा की जाने वाली अहम एवं पवित्र नमाज़ और यह सब कुछ एक प्राचीन व ऐतिहासिक विशाल जामा मस्जिद में आयोजित हो रहा हो इससे अच्छा और पवित्र इस्लामी आयोजन और क्या हो सकता है? इस आयोजन से आखिर अमेरिका या पश्चिमी देशों के कौन से हित साधे जा रहे हैं?

जामा मस्जिद में बकऱीद की नमाज़ अदा करना क्या गैर इस्लामी है या तालिबानों के सिद्धांतों के विरुद्ध है? और यदि यह सब गैर इस्लामी है तो फिर इस्लामी गतिविधियां क्या हैं? क्या तालिबानी क्रूरता व इनके द्वारा आए दिन खूनी खेल खेले जाने को ही इस्लाम का एक हिस्सा मान लिया जाए? क्या इनकी इच्छा के अनुसार शिक्षा के बजाए जहालत को ही इस्लाम धर्म का आभूषण समझ लिया जाना चाहिए? इनकी वहशियाना व खून-खराबे वाली मानसिकता व गतिविधियां तो साफतौर पर यही संकेत देती हैं कि न तो कोई स्कूल जाए, न नमाज़ पढ़े, न ही दरगाह,मजलिस-मातम आदि गतिविधियों में शरीक हो। इसका अर्थ तो यह निकलता है कि तालिबान या इनकी विचारधारा से मेल खाने वाली दूसरी आतंकी शक्तियां सिर्फ यही चाहती हैं कि प्रत्येक मुसलमान के बच्चों के हाथों में हथियार हों और चारों तरफ खून-खराबा होता रहे। गोया यह शक्तियां यज़ीदी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं या फिर कालांतर के उन आक्रमणकारी लुटेरों शासकों का जिन्होंने इस्लाम के नाम का सहारा लेकर दुनिया के कई भागों में कत्लोगारत व खून-खराबे का वह इतिहास रचा जोकि आज तक इस्लाम को कलंकित कर रहा है। इस्लाम धर्म के प्रवर्तक व स्तंभ समझे जाने वाले पैगंबर हज़रत मोहम्मद ,इमाम,हज़रत अली, हज़रत इमाम हसन व हुसैन तथा हज़रत मोहम्मद के अन्य कई प्रमुख सहयोगियों का आतंक, ज़ुल्म,जब्र आदि से कोई लेना-देना नहीं था। जहां-जहां और जब-जब मुस्लिम समुदाय से संबंध रखने वाले शासकों ने इस्लाम के नाम का सहारा लेकर अपनी सत्ता या साम्राज्य के विस्तार का प्रयास किया है वहां हमेशा इस्लाम बदनाम, कलंकित व शर्मिंदा हुआ है। इस्लाम यज़ीद की तरह बेगुनाह लोगों की हत्या करवाने का नाम नहीं बल्कि इमाम हुसैन की तरह अपनी शहादत देकर इस्लाम के वास्तविक मानवीय स्वरूप व सिद्धांतों की रक्षा करने का नाम है।

लिहाज़ा तालिबानी गतिविधियां या समान विचारधारा रखने वाले इनके दूसरे सहयोगी संगठन इस्लाम के रास्ते पर चलना तो दूर बल्कि इन की सभी गतिविधियां गैर इस्लामी व गैर इंसानी हैं। पूरे देश के मुस्लिम समुदाय से संबंध रखने वाले सभी धर्मगुरुओं को एकजुट होकर ऐसी क्रूरतापूर्ण तालिबानी गतिविधियों के विरुद्ध न केवल फतवा जारी करना चाहिए बल्कि इनकी वहशियाना कार्रवाईयों को गैर इस्लामी भी घोषित कर दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त राक्षसी प्रवृति के इन तालिबानों का सामाजिक बहिष्कार भी किए जाने की सख्त ज़रूरत है

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**Tanveer Jafri ( columnist),(About the Author) Author  Tanveer Jafri, Former Member of Haryana Sahitya Academy (Shasi Parishad),is a writer & columnist based in Haryana, India.He is related with hundreds of most popular daily news papers, magazines & portals in India and abroad. Jafri, Almost  writes in the field of communal harmony, world peace, anti communalism, anti terrorism, national integration, national & international politics etc.He is a devoted social activist for world peace, unity, integrity & global brotherhood. Thousands articles of the author have been published in different newspapers, websites & news-portals throughout the world. He is also a recipient of so many awards in the field of Communal Harmony & other social activities.
(Email : tanveerjafriamb@gmail.com)

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*Disclaimer: The views expressed by the author in this feature are entirely his own and do not necessarily reflect the views of INVC

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