अब चाय की चौपाल नही लगेगी – अलविदा अनिलजी

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– संजय रोकड़े – 

late-anil-daveअनिल जी नही रहे। अनिलजी याने भाई साहब। बेशक इस समय देश में उनकी छवि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे के रूप में थी लेकिन वे अपनों के बीच भाई साहब के नाम से ही प्रसिद्ध थे। जल,जंगल,जमीन की परवाह करते हुएअनिलजी ने अपनी एक अलग पहचान भी बनाई। वह अपने काम के सहारे एक पर्यावरणविद के रूप में भी जाने जाने लगे। आज से आठ दस साल पूर्व मेरी उनसे ज्यादा नजदीकी नही रही थी लेकिन जब इंदौर में भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ था उन दिनों कुछ ज्यादा ही नजदीकियां बढ़ गई थी। अनिलजी से उन दिनों जो मेलजोल बढ़ा असल में उसके सच्चे हकदार भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय रहे है। उस अवसर पर मेरे संपादकत्व में द इंडिय़ानामा पत्रिका को भाजपा कल आज और कल नामक विशेषांक का प्रकाशन करना था, इसके प्रकाशन में राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की विशेष रूचि थी। वे भाजपा के इस राष्ट्रीय अधिवेशन के आयोजन में अहम भूमिका अदा कर रहे थे, इस कारण विशेष प्रकाशन में अधिक समय नही दे पा रहे थे। लेकिन वे दिल से चाहते थे कि यह डाक्यूमेंट अच्छी जानकारी को लेकर सामने आए। इसके लिए वे खासे चिंतित भी थे। सभी जगह नजर दौड़ाने के बाद उनके दिलों -दिमाग में सबसे अहम और उचित व्यक्ति के रूप में अनिलजी सामने आए। भाजपा के इतिहास, वर्तमान और भविष्य को अपने अंदर समेटने वाला यह ड़ाक्यूमेंट तथ्यात्मक जानकारियों के अंबार से भरा होने के साथ ही खुबसूरत हो इसके लिए उनने अनिलजी से ही अनुरोध करना उचित समझा। इस फैसले के साथ ही हम लोग अधिवेशन परिसर में तुरत उनकी खोज में निकल पड़े। अपने अहम कामों को नजरअंदाज कर कैलाश जी की मंशा शीघ्र ही अनिलजी से मिलने की हुई। पुछताछ में पता चला कि वे स्वागत कक्ष के समीप बने अतिथि कक्ष में बैठे है, उसी वक्त कैलाशजी और मैं स्वंय पैदल स्वागत कक्ष की ओर चल दिए। हमारे साथ द इंडिय़ानामा के प्रबंध संपादक कृष्णकांतजी भी हो लिए। जब हम तीनों उनके सामने पहुंचे तब राष्ट्रीय महासचिव कैलाशजी ने उनसे अनुरोध किया कि इस ड़ाक्यूमेंट का प्रकाशन आपकी देखरेख और मार्गदर्शन में हो तो वे उनको मना करने का साहस नही जुटा पाए। मजेदार बात तो ये है कि जब इस ड़ाक्यूमेंट के प्रकाशन के लिए सुषमा स्वराज से मिले तो उनने भी एक ही बात कही, इसके प्रकाशित होने के पूर्व एक बार दवेजी को जरूर दिखा देना। सुषमाजी का यह कहना भी उनके कार्य के प्रति समर्पण और कुशाग्र व्यक्तित्व का परिचायक है। अनिल जी ने ततपल विशेषांक के प्रारंभिक आवरण और कंटेंट पर सरसरी नजर दौड़ाई। इसके बाद एक ही वाक्य बोले कि इसमें कोई दोराय नही कि यह एक अच्छा और संग्रहणीय डाक्यूमेंट बनेगा और इसके प्रकाशन में मेरा पूरा मार्ग दर्शन मिलेगा। फिर क्या था। वे एक समर्पित शिक्षक और पेनी नजर वाले पत्रकार की तरह हर विषय और उसकी वर्तनी पर बारिकी से ध्यान देने लगे। उस समय मुझे उनको बेहद करीब से जानने का मौका मिला। मैंने इस दौरान इतना जो जान लिया था कि वे एक समर्पित कार्यकर्ता है और उनके सामने सब चलता है वालों के लिए कोई स्थान नही था। वे किसी भी काम को चेलैंज की तरह हाथ में लेते थ और उसमें पूरी उर्जा के साथ लग जाते थे। तभी मैंने यह जाना कि आखिर क्यों इस इंसान की हर जगह इतनी पुछ परख है। समय आने पर यह डाक्यूमेंट उतना ही खुबसूरत व ज्ञानवर्धक बनकर सामने आया जितनी इससे अपेक्षा की जा रही थी। आज भी यह बड़े-बड़े अखबारों व पत्रकारिता के संस्थानों के कार्यालयों में इसे संदर्भ के लिए सहेज कर रखा जाता है। अनिलजी से बना यह संबंध कालातंर में ओर प्रगाढ़ होते चला गया था। वे भी कुछ समय के बाद द इंडिय़ानामा में अपने विचार प्रकाशन के लिए भेजने लगे थे। उनके अधिकांश लेखों में पानी, नदी और पर्यावरण ही चिंता व चिंतन का विषय होता था। अक्सर जब दिल्ली के दौरे पर जाना होता था तो वह मेरे सौजन्य भेट के आग्रह को टाल नही पाते थे। चाय के साथ जो चोपाल लगती थी वह कब घंटों में तब्दील हो जाती थी पता ही नही चल पाता था। हालाकि उनके पर्यावरण मंत्री बनने के बाद हमारी ये चाय की चौपाल जरूर चंद मिनटों में सिमट कर रह गई थी। मेरी जब-जब भी उनसे भेंट हुई उस भेंट में नर्मदा जरूर चर्चा का सब्जेक्ट होता था। नर्मदा का ज्यादातर हिस्सा निमाड़ में बहता है और निमाड़ में नर्मदा की महत्ता भी अधिक है। निमाड़ के लोग आज भी नर्मदा को मां का दर्जा देते है और बड़ी आस्था के साथ पूजा पाठ करते है। अनिलजी ने भी जब से पर्यावरण संरक्षण  का बिड़ा उठाया तब से नर्मदा को लेकर उनका लगाव कुछ ज्यादा ही बढऩे लगा था। मैं भी निमाड़ अंचल याने पश्चिम निमाड़ खरगोन से सरोकार रखता हूं और इन दिनों निमाड़ महासंघ के चलते निमाड़ की बेहतरी के लिए काम करने लगा हूं। वैसे भी निमाड़ और मालवा के लोगों का बड़े और छोटे भाई के समान रिश्ता है। निमाडवासियों ने मालवावासियों को हमेशा बड़े भाई की नजर से देखा है, इस नाते भी हम दोनों के बीच भाई-भाई का रिश्ता बन गया था। जब भी मेरी उनसे मुलाकात होती तब-तब उनकी एक ही जिज्ञासा होती थी कि क्या प्रदेश सरकार इन दिनों जो काम कर रही है उसका लाभ निमाड़ को मिल रहा है या नही। वे अक्सर वहां के कपास उत्पादक किसानों की परेशानियों को लेकर भी चिंतित रहते थे। बता दूं कि हाल के दिनों में निमाड़ में किसानों ने तेजी से मौत को गले लगाने का सगल जो पाल लिया। बेशक कोई यूं ही मौत को गले नही लगाता है, कुछ तो मजबूरी रहती है। पर किसानों की मौत की खबर अनिलजी को खासी विचलित कर देती थी। वे इस समस्या को एक नेता की बजाय बेहद संवेदनशाील इंसान के रूप में सुलझााना चाहते थे। निमाड़ अंचल के किसानों की आत्महत्या पर अंकुश लगे इसके लिए वे नर्मदा के जल का ज्यादा से ज्यादा दोहन निमाड़ में करने पर बल देते थे। नर्मदा निमाड़ के किसानों की बेहतरी ,खुशहाली और तरक्की का वाहक बने इसके लिए जमीनी स्तर पर काम करने के पक्षधर थे। वे प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की सोच के विपरित नर्मदा को स्वछंद और खुले में बहते रहने देने की वकालत करते थे। नर्मदा को नाला और नाले को पाईप में बांधने के तो सरासर पक्ष में नही थे। ऐसा नही था कि वे नर्मदा के पानी का लोक तांत्रिकरण करना नही चाहते थे। बल्कि वे इस पानी के बटंवारे को लेकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया के हिमायती थे। मतलब उनका साफ था जहां इस पानी की आवश्यकता अधिक हो वहां उसकी पूर्ति जरूरी हो। उद्योग लगे और उद्योगों को भी पानी मिले लेकिन मानव जीवन की बलि चढ़ा कर नही। जब भी उनसे मेरी मुलाकात होती और इस मुलाकात में नर्मदा और नर्मदा के मुद्दे को लेकर चर्चा होती तो वे अक्सर मुखर होकर यही कहते थे कि- आखिर उद्योग भी किसकी बेहतरी के लिए लगाए जाते है। उद्योगों को लगाने का आधार भी तो मानव जीवन में खुशहाली लाना ही है। फिर क्यों लोगों के हिस्से का पानी उनको न देकर उद्योगों को देने की नीतियां बनाने पर बल दिया जाता है। क्या आज का कोई भी विकास इंसान को दुखी करके अच्छा और टिकाऊ साबित हो सकता है। नीति और नियत में समानता ही सबसे बड़ा विकास होता है। यहां इसका अभाव दिखाई देता है। वे पानी को टिकाऊ विकास का आधार मानते थे और खुदा की इस अनमोल नियामत की कीमत समझाने के लिए समाज के अंतिम व्यक्ति की ओर निकल पड़ते थे। इसके लिए उनने अपना एक सामाजिक संगठन भी बनाया। इसका नाम भी उनने नर्मदा समग्र ही रखा। आप इस बात से अंदाजा लगा सकते  हो कि नर्मदा को लेकर उनके दिल में क्या स्थान था। वे हमेशा नर्मदा को मां की तरह पूजते थे। नर्मदा को न केवल संभाला बल्कि उसे संरक्षित भी किया। असल बात तो ये भी है कि वे नर्मदा पर बांध बनाने के भी हिमायती नही थे। वे नदियों के सच्चे रखवाले थे। उनका ज्यादातर जीवन एक सच्चे पर्यावरण संरक्षक और मानव कल्याण के लिए समर्पित रहा। शायद वे पहले ऐसे पर्यावरण मिनिस्टर रहे जो पद संभालने से पहले ही पर्यावरणविद् के रूप में विख्यात थे। नर्मदा नदी पर किए गए काम की वजह से ही वे पर्यावरण मंत्री के रूप में पीएम मोदी की पसंद बने। वे पयार्वरण के क्षेत्र में बहुत रूचि रखते थे और इसके लिए अध्ययन भी खुब करते थे। उनके खाते में जलवायु परिवर्तन पर भोपाल में गोष्ठी कराने का काम भी दर्ज है। सन 2013 में भोपाल में अंतरराष्ट्रीय विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन का श्रेय भी उनको ही जाता है। इसके साथ ही वे नर्मदा महोत्सव भी मनाने लगे। इसके अलावा वह जल संसाधन समिति और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सलाहकार समिति में शामिल रहे। ग्लोबल वार्मिंग पर संसदीय समिति में भी वह सदस्य रह चुके थे। जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते का भारत की ओर से अनुमोदन किए जाने में भी उनकी खासी भूमिका निभाई। प्रधानमंत्री की पयार्वरण से जुडी योजनाओं में भी वह एक प्रमुख नीतिकार और सलाहकार थे। वे हाल ही में मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की प्रशासनिक अकादमी में नदी, जल एवं पर्यावरण संरक्षण मंथन पर होने वाले कार्यक्रम में पहुंचे थे। इस दौरान उनने जो खरी-खरी बातें कही थी उसका राजनीतिक गलियारों व सामान्य लोगों ने दूसरे अर्थ भी निकाले। हालाकि उनने जो कहा उसका मतलब साफ था कि यदि पहाड़, जंगल, पर्यावरण को नहीं बचाया गया, तो एक दिन नर्मदा नदी क्रिकेट का मैदान बन जाएगी। नर्मदा के अलावा जीवन में कुछ नहीं है। वे इस मौके पर ये भी बोल गए कि हर छोटी नदी को जीवंत बनाने का अभियान चलना चाहिए। जो नदी प्यास बुझाती है, वही गंगा है। गांवों के पास बहने वाली नदियों, गांवों के तालाबों, पोखरों को बचाने की भी बचाने की पहल करनी चाहिए। नदियों और उसके पानी को सहेज कर रखने के प्रति उनका प्रयोगधर्मिता वाला काम निरंतर चलते ही रहता था। आमतौर पर सादा जीवन जीने वाले अनिलजी को प्रकृति से बहुत लगाव था। ये बात जानकर हर कोई हैरान होगा कि उनने अपनी एक वसीयत लिखी थी जिसमें स्पष्ट तौर पर लिखा कि संभव हो सके तो मेरा अंतिम संस्कार होशंगाबाद जिले के बांद्राभान में नदी महोत्सव वाले स्थान पर कराना। मेरी याद में कोई स्मारक, प्रतियोगिता, पुरस्कार, प्रतिमा न हों। बल्कि पेड़ लगाएं और नदियों-तालाबों को बचाने की कोशिश करें तो मुझे खुशी होगी। इसके साथ ही लिखा कि अंतिम संस्कार की सभी उत्तर क्रिया वैदिक कर्म के साथ ही संपन्न कराई जाए, जिसमें किसी भी प्रकार का आडंबर या दिखावा न हो। ये जो बाते लिखी गई थी वो लेटर 23 जुलाई, 2013 को सामने आया। आपको अवगत हो कि पर्यावरण संरक्षण के साथ ही वे गरीब लोगों की खासकर दलित- आदिवासियों की शिक्षा व स्वास्थ्य को लेकर भी खासे चिंतित रहते थे। इस वर्ग को सहज रूप से सस्ती और अच्छी शिक्षा- चिकित्सा सुविधाएं मुहैयां हो इसके लिए भी हमेशा प्रयासरत रहते थे। प्रदेश के निमाड़ में बसे डही कस्बे के सुदूर आदिवासी बहुल इलाके में नदी एम्बुलेंस की सुविधा देने का काम करना भी इस बात का प्रमाण है कि उनकी कथनी और करनी समान थी। दरअसल यह पहाड़ी वाला ईलाका है। ऐसे क्षेत्रों से शासकीय दवाखाने दूर होते हैं। इस तरह के ईलाके में लोगों को स्वास्थ्य सुविधा कैसे मिले इसी सोच के साथ नदी एम्बुलेंस की शुरुआत की गई। बता दे कि धार जिला भौगोलिक रूप से बहुत ही पिछड़ा है। इस वजह से कई बार यहां दिक्कतें होती हैं। यह ऐसा क्षेत्र है जहां स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिलने से परेशानी होती है। इसीलिए नर्मदा तट के दसाणा, सत्राणा, धरमराय, छाछकुआ गांवों में नदी एम्बुलेंस पहुंचा दी। यह देश की पहली और एकमात्र ऐसी सेवा है जो नदी के तट पर लोगों को चिकित्सा सुविधाएं मुहैया कराती है। कुछ इसी तरह से वे शिक्षा को लेकर भी चिंतित रहते थे। वे वर्तमान शिक्षा पद्धति को जहर के समान मानते थे। इसके संबंध में उनका मानना था कि आज हम जिस व्यवस्था में रह रहे हैं, उसमें कोई दूर दृष्टा नहीं है। हमें लोकमान्य तिलक जैसा दूर दृष्टी वाला व्यक्तित्व चाहिए। हम अभी भी 1947 के पहले प्रचलित अंग्रेजी शिक्षण पद्धति को ही चलाए जा रहे हैं, जिसे तुरंत बंद कर देना चाहिए। हमें अब इस बात पर सोचने की जरूरत है कि हम स्वयं क्या कर सकते हैं। सुधार केवल उपदेश देने से नहीं होगा। शिक्षकों को अब स्वयं शिक्षा क्या है इस प्रश्न का उत्तर तलाशते हुए समाज में उत्प्रेरक की भूमिका अदा करनी होगी। शिक्षक ही शिक्षा को विकृतियों से बचा सकते है।

इतनी व्यसतता के बावजूद भी वे अपने सामाजिक व राजनीतिक जीवन से कुछ पल चुरा कर किताब लिखने के लिए समय निकाल ही लेते थे। उनने सृजन से विसर्जन तक, चन्द्रशेखर आजाद, संभल कर रहना घर में छुपे हुये गद्दारों से, शताब्दी के पांच काले पन्ने, नर्मदा समग्र, समग्र ग्राम विकास, अमरकंटर टू अमरकंटक और बियाण्ड कोपेंहगन जैसी अनेक लोकप्रिय पुस्तकें लिखी। किताब संभल कर रहना घर में छुपे हुये गद्दारों से में उनने अपने राजनीतिक जीवन के कटु अनुभवों को भी साझा किया है। वे एक पर्यावरण प्रहरी के साथ एक सफल राजनीतिक भी रहे है। वे प्रदेश की राजनीति में दिग्विजय को हराने की कामयाब स्ट्रैटजी को लेकर सुर्खियों में आए थे। उनकी नीति 2003 में उस वक्त के सीएम दिग्विजय सिंह को हराने में अहम साबित हुई थी। वे सन 2003 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी में शामिल हुए थे, इसके पूर्व संघ में सेवाएं दे रहे थे। वे लंबे समय तक आरएसएस में सक्रिय रहे। आरएसएस के प्रति जुड़ाव उनके दादा दादासाहब दवे की वजह से हुआ। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रचारक के तौर पर संघ में शामिल होने का फैसला किया। इसी के चलते वे संघ के खास स्ट्रैटजिस्ट भी बने। राजनीति में उनकी पहचान बूथ लेवल मैनेजमेंट और प्लानिंग दोनों स्तर पर रही है। वे कई कमेटियों में शामिल रहे। प्रेवेंशन ऑफ करप्शन (अमेंडमेंट) बिल 2013 की सिलेक्ट कमेटी के प्रेसिडेंट भी रहे थे। वे 2003, 2008 और 2013 में विधानसभा चुनाव में और 2004, 2009 और 2014 में लोकसभा चुनाव में इलेक्शन मैनेजमेंट कमेटी के चीफ रहे। प्रदेश में भाजपा संगठन को मजबूत करने में उनकी अहम भूमिका रही है।  माना जाता है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की दिग्विजय सरकार को सत्ता से बेदखल कर भाजपा को प्रदेश की सत्ता पर बिठाने में उनका बड़ा योगदान था। 1999 के आम चुनाव में उमा भारती ने दवे को अपना मीडिया मैनेजर नियुक्त किया था, वह तब भोपाल से चुनावी मैदान में थीं। वह उनके कार्यों से काफी प्रभावित थींं। जब 2003 में वह दिग्विजय सिंह के खिलाफ भाजपा की सीएम उम्मीदवार थीं तब अनिलजी को अपना रणनीतिकार बनाया था। यही वो समय था जब अनिलजी ने चुनावी प्रचार में दिग्विजय सिंह को मिस्टर बंटाधार की संज्ञा दी थी। प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की जीत में भी उनकी अहम भूमिका रही है। वे मध्य प्रदेश से दो बार राज्यसभा सांसद रहे, उनको भाजपा में गलतियां न करने वाले और ऑर्गनाइजेशन को बहुत अच्छे तरीके से चलाने वाले शख्स के तौर पर भी जाना जाता था। इंदौर के गुजराती कॉलेज से एम कॉम करने वाले इस शख्सियत का जन्म 6 जुलाई 1956 में उज्जैन के बडऩगर में हुआ था। अपनी शिक्षा के दौरान एनसीसी के एयर विंग कैडेट के तौर पर फ्लाइट उड़ाने की शुरुआती ट्रेनिंग ली। शायद कम लोगों को ही इस बात की जानकारी हो कि वह एक कामर्शियल पायलट थे। वो प्राइवेट पायलट लाइसेंस होल्डर थे। एक बार नर्मदा के किनारे 18 घंटे तक सेसना एयरक्राफ्ट भी उड़ाया था। इन सबके अलावा एक और अहम बात ये थी कि वह अवैवाहिक थे। उनकी शदी नही हुई थी। जीवन भर उनने काम को महत्व दिया और आगे बढ़ते चले गए। उनकी एक खास बात ये भी रही की वे कभी पद के पीछे नही भागे, बल्कि पद उनके आगे पीछे रहा। जब वे देश के पर्यावरण मंत्री बने थे और उसके बाद मध्यप्रदेश के दौरे पर आए थे तो यह बात विशेष तौर से कही थी कि मैं किसी के पास पद मांगने नही गया था। बेशक यह सच भी है। जिस तरह से उनने प्रदेश में भाजपा को मजबूती प्रदान की थी उसके एवज में उनको बहुत कुछ मिलना बाकी रह गया था। हालाकि कई बार ये चर्चाएं भी चली कि वे प्रदेश के मुखिया याने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने वाले है लेकिन यह सच में परिणित नही हो पाया। वे वक्त से पहले ही हम सबको अलविदा कह गए। दुख तो इस बात का है कि अब कभी भी , कहीं भी, एक पल के लिए भी नही, चाय की चौपाल लगेगी। अब वे बस हमारे बीच अपने कर्मों के रूप में अमर रहेगे। अलविदा अनिलजी।

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SANJAY-ROKDEपरिचय – :

संजय रोकड़े

पत्रकार ,लेखक व् सामाजिक चिन्तक

संपर्क – :
09827277518 , 103, देवेन्द्र नगर अन्नपुर्णा रोड़ इंदौर

लेखक पत्रकारिता जगत से सरोकार रखने वाली पत्रिका मीडिय़ा रिलेशन का संपादन करते है और सम-सामयिक मुद्दों पर कलम भी चलाते है।

Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely his  own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS.

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