अनुवाद दो भाषाओं और संस्कृतियों के मध्य सेतु का काम करता है:- डॉ. विमलेश कांति वर्मा

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संजय राय,,
आई.एन.वी.सी,,
दिल्ली,,

अनुवाद के बिना देश की भौगोलिक दूरियां जहाँ बढ़ती दिखती है, वहीं अनुवाद के सेतु से वे दूरियां मिटती दिखती हैं। देश की अखण्डता को सुरक्षित और सुदृढ़ बनाने के लिए पारस्परिक संभाषण और सौहार्द की आवश्यकता होती है और यह संभाषण और सम्प्रेषण पूरे देश में अनुवाद के माध्यम से ही संभव है। अनुवाद दो भाषाओं और संस्कृतियों के मध्य सेतु का काम करता है। यह विचार हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष एवं भाषाविद् डॉ विमलेश कांति वर्मा ने हिन्दी अकादमी द्वारा भारतीय विद्या भवन, नयी दिल्ली में आयोजित अनुवाद सेतु दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र मेें विषय प्रवर्तन करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने यह भी कहा कि अनुवाद ज्ञान का ऐसा वाातायन है जिससे हम विशाल विश्व की विशिष्टताओं से परिचित हो सकते हैं। संगोष्ठी के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. महीप सिंह ने कहा कि संसार में मानवीय संबंधों के बीच यदि कोई सेतु है तो वह अनुवाद है। उन्होंने भारतीय भाषा आयोग के गठन किए जाने पर जोर देते हुए कहा कि इससे सभी भारतीय भाषाएं निकट आएंगी। संसार में अनुवाद के बिना कोई काम नहीं हो सकता। बीज भाषण देते हुए डॉ. रणजीत साहा ने कहा कि भारत जैसे वृहत्तर देश में अनुवाद ही इसकी अखण्डता को अक्षुण्य रख सकता है। भारतीय भाषाओं के अनुवाद की ज़रूरत के साथ विदेशी भाषाओं के अनुवाद के लिए आज की पीढ़ी को तैयार करना होगा। आज अनुवाद की व्याप्ति को गुणवत्ता से जोड़ने की ज़रूरत है। उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त करते हुए कहा कि अनुवाद की सत्ता और भारतीय समाज में इसकी रचनात्मक उपस्थिति को गंभीरता से नहीं लिया गया इसलिए इसके गौरव और योगदान की अनदेखी की गई। इसे स्वांतः सुखाए और दोयम दर्जे का काम बताया गया। संगोष्ठी का पहला सत्र ‘भारतीय भाषाएं एवं हिन्दी: स्वरूप और समस्याएं’ विषय को समर्पित था। इस सत्र के अध्यक्ष डॉ. श्रीनारायण सिंह समीर निदेशक, केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो, ने अपन अध्यक्षीय उ्वबोधन में कहा कि अनुवाद दो भाषाओं में अंतरभाषिक सेतु का काम करता है। अनुवाद किसी भी भाषा के शब्दों में वृद्धि करता है। मार्क्स और फ्रायड जैसे विद्वानों के विचार हम तक अनुवाद के माध्यम से पहुंच सके हैं। अनुवाद मूलतः सर्जनात्मक कर्म तो है ही साथ ही एक उन्नत ज्ञान समाज का विकास भी करता है। इस सत्र में डॉ. उमा पाठक ने बांगला, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मिश्र ने ओडि़या, डॉ. शशि शेखर तोशखानी ने कश्मीरी और डॉ. रवि टेकचंदानी ने सिन्धी भाषाओं के हिन्दी अनुवाद के स्वरूप और समस्याओं पर विस्तार से चर्चा की। संगोष्ठी के दूसरे के अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. अवधेश कुमार सिंह प्रो. एवं निदेशक, अनुवाद अध्ययन विभाग इग्नू ने कहा कि तुलसी की रामचरित मानस के अनुवाद ने उत्तर से दक्षिण को जोड़ा। 21वीं सदी में अनुवादक की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होगी। कोई भी अनुवाद अंतिम नहीं होता। इस सत्र में डॉ. वर्षा दास ने गुजराती, प्रो. सीतालक्ष्मी किदाम्बी ने तेतुगु और प्रो. एम.एस विश्वम्भरन ने मलयालम से हिन्दी अनुवाद स्वरूप और समस्याओं पर अपने सारगर्भित वक्तव्य दिए। संगोष्ठी का तीसरी सत्र ‘विदेशी भाषाएं एवं हिन्दीः स्वरूप और समस्याएं’ विषय पर केन्द्रीत रहा। इस सत्र के अध्यक्ष प्रो. हेम चन्द्र पाँडे ने कहा कि विदेशी साहित्य से हमारा परिचय अंग्रेजी के माघ्यम से हुआ और लगभग आज भी वही स्थिति है। किसी भी विदेशी भाषा का बड़ा शब्दकोश प्रकाशित नहीं हुआ है। अनुवाद शब्दों, अर्थों और व्याकरण के बीच का खेल है। अनुवाद एक प्रकार का द्विभाषिक संम्प्रेषण है। इस सत्र में डॉ. बी.एस. बागला ने साहित्येत्तर विषय अर्थशास्त्र के अनुवाद की समस्याओं पर विस्तार से चर्चा की। डॉ. कानन झिंगन ने अंग्रजी और डॉ. विभा मौर्या ने स्पेनिश से हिन्दी अनुवाद को रेखांकित किया। चौथे और अंतिम सत्र में अपन अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि अनुवाद के माध्यम से ही राष्ट्रीय ईकाईयां आगे बढ़ती हैं। आज जो समाज में जड़ता दिखाई देती है उसका कारण है अनुवाद कार्य कम होना। अनुवाद के जरिए हम दुनिया के नजदीक आते हैं। अनुवाद दूर पड़ी चीजों को पास लाता है। हस सत्र में डॉ. चन्द्रशेखर ने फारसी, डॉ. उनीता सच्चिदानन्द ने जापानी, डॉ. सुरेश धींगरा ने स्पेनिश और डॉ. त्रिनेत्र जोशी ने चीनी भाषाओं के हिन्दी अनुवाद पर तकनीकी और सघन रूप से चर्चा की। संगोष्ठी में श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर भी दिए गए। संगोष्ठी में सांस्कृतिक, देशज शब्दों, मुहवरों और लोकोक्ति के अनुवाद की समस्याओं पर विस्तार से चर्चा की।

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