अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ

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 अच्युतानंद की कविताओं पर आशीष मिश्र की टिप्पणी : कविता भाषा का चरम रूप है। इसकी चरमता भाषा को सजाने-चमकाने में नहीं; गुत्थमगुत्थ यथार्थ को बोधगम्य बनाने और जीवन-स्वप्न रच पाने में है। यह किसी उत्तल दर्पण की तरह विस्तृत दिक्काल को एक बिन्दु पर टीक देती है। यह बिन्दु भी बहुत वाईव्रेण्ट है, झिलमिल तारों की तरह। जो  सामाजिक प्रजनक-प्रक्रिया के द्वन्द्वात्मक प्रवाह में आत्मपरिवर्तन के साथ भावक को भी बदलती चलती है। इस क्षमता का मूल कवि की भाषिक समझ और अपने समय के यथार्थ-बोध में है। यथार्थ का सरलीकरण कविता और पाठक दोनों ही को ले डूबता है। ऐसी कविता पाठक के जीवन में कोई मदद नहीं कर सकती। अतः कविता के लिए सबसे पहली चीज़ यथार्थ और उसके कारणभूत तत्त्वों को बोधगम्य बनाना होना चाहिए। अगर आप अच्युतानन्द की कविताएँ देखें तो इनमें हमारा समय है, हमारे पैरों के नीचे का समय। जिसे हम अपने गहरे स्तरों पर जी रहे होते हैं, जो हमारे अस्तित्त्व में ख़ून की तरह बह रहा है। हम जिस समय में जी रहे हैं और सारतः जो हैं, चकचक दिखते हुए भी कितना ठंडा और ठहरा हुआ है! जहाँ हमारा सारा विरोध-प्रतिरोध अंततः उसी से समंजित होकर रह जाता है। अच्युतानन्द अपनी कई कविताओं में इसी ठंडेपन को पकड़ने की कोशिश करते हैं। यह ठंडापन हमें चीर देती है। उनका संवेदनतंत्र इतना सजग और तीक्ष्ण है कि कविताओं के लिए जमीन आसमान की चूलें मिलाने की जरूरत नहीं पड़ती; छोटी-छोटी चीजें एक संवेदनशील दृष्टि-बिन्दु के सहारे कविता में नियोजित हो जाती है। ‘शायद कोई बाहर गया’ इसी तरह की कविता है। यह ठहरा-ठंडापन किसी संवेदनशील मनुष्य के लिए त्रासद है!

अच्युतानन्द सामान्यतः सरलीकरण और वक्तृता के फेर में नहीं पड़ते। वे चीज़ों की द्वंद्वात्मकता को भाषा में पकड़ने की कोशिश करते हैं, कविता इसी प्रक्रिया में बनती है। नीचे एक कविता है-‘जाल मछलियाँ और औरतें’। पहले बन्द में लिखते हैं-‘ वह जो धब्बे की तरह हरकत में दिख रहा है/ मल्लाह टोल है’। मल्लाह टोल का धब्बे की तरह दिखना सिर्फ ‘फ़ोकल पॉइंट’ से ‘ऑब्जेक्ट’ की दूरी नहीं बताता। यह संस्कृति में विस्थापित और परिधिकृत अस्मिता है। हमारी सामाजिक संरचना में एक बहुत बड़े हिस्से का धब्बे जितना ही वजूद रहा है। धब्बा कहना हमारी महान संस्कृति का ऑपरेशन कर देता है। इसके लिए कुछ अलग से जोड़ने/बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती। अब कलाकार दृष्टि-बिन्दु को बदलता है और ‘ज़ूम इन’ कर के, धब्बे में हो रही हरकत को, बड़ी तटस्थता से हमारे सामने कर देता है। पहली ही पंक्ति है- ‘जहाँ खुले में/ जाल मछलियाँ और औरतें/ सूख रही हैं’। इस कविता में मूलतः तीन धागे हैं- ‘मछुआरे’, मछलियाँ और औरतें। तीनों ही पक्षों से सरलीकरण की पूरी संभावना थी। कोई मछुआरे के साथ खड़ा होकर सबकुछ का हिंसक सरलीकरण कर देता। या फिर मछलियों और औरतों के पाले में खड़ा होकर मछुआरे को एक शोषक चरित्र में बदल देता। यह बहुत आसान भी होता। पर अच्युता जी ज़रूरी तटस्था से पूरे उलझाव को इस तरह सामने धर देते हैं कि आप उसके रेशे-रेशे को देख सकें। इस गुत्थमगुत्थ उलझाव को अभिव्यक्त करने के लिए जिस भाषा का सहारा लिया गया है, वह भी उतनी ही अंतर्विरोधपूर्ण और जगह-जगह से तोड़ दी गयी है। अगला बन्द पिछले बन्द को तोड़ देता है। पहले बन्द में स्त्रियाँ जाल बुनती हुई दिखेंगी तो अगले बन्द में साथ-साथ सूखती हुई, जहाँ दोनों में एक बहनापा दिखता है। पहले बन्द में हमें लगेगा कि मछलियों को किसी तरह बच जाना चाहिए पर जब हम भूख से बिलबिलाते और सपने में मतलियाँ-मतलियाँ करते बच्चों को सुनते हैं तो लगता है, कि आज उन्हें मर ही जाना चाहिए। जीवन के इस अंतर्विरोधी यथार्थ को आँखों के सामने रख देने की क्षमता अपनी पीढ़ी में सिर्फ़ अच्युतनंद के पास है। यह कविता किताब भर के विमर्श को चंद पंक्तियों में समेट लेती है।

अच्युतानन्द बहुत सार्थक ढंग से विट और वक्तृता का भी उपयोग करते हैं। बच्चे वाली कविताओं में इसे देख सकते हैं। ‘क्या हम इज़राइल को नहीं जानते’ शीर्षक कविता में जहाँ वे लिखते हैं- –‘और बच्चे
और तीन साल के बच्चे और
ढाई साल की गुडिया
और समूचा फिलिस्तीन
और निहत्था फिलिस्तीन’
……और …और ….और । यह वक्तृता का जरूरी उपयोग है जो बर्बरता को बहुत सघनता से हमारी चेतना में उतार देती है।…….आशीष मिश्र !!!

 

 

अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ

 

1.शायद कोई बाहर गया

दुपहरिया खदक रही होगी।
पिता के रक्तचाप सी
मां की आँखों की चमक
बुझे हुए गोइंठे की राख में खो गई होगी।

वहां बरसने का मौसम हो रहा होगा
अपने रात भर के सूजे चेहरे को
दिन में बरसने को
इस कोने से उस कोने भटक रही होगी बहन

ये जगह जो घर होने को अभिशप्त है
वहाँ ईट के खोडरों में दियासलाई नहीं
एक रोशन ख्याल जब
घर की दीवारों को
छू रहा होगा
पिता, इस बार भयंकर ठंड
की अखबारी भविष्यवाणी
की बात सुनाऐंगे
मां अपने अधपके बालों में
रोशनी तलाशेगी
और चावल के कंकड़ों में
अपनी आंखें फोड़ने लगेगी

अब इस जगह खबरें नहीं आती
यहां सब कुछ शांत है
बहन किताबें पढ़कर
जिंदगी को अखबार की तरह मोड़ लेती है
वह नहीं जानती सुर्खियों
मोड़ने से नहीं छिपती
लेकिन इस शांति का क्या करें
जो हर वक्त
कपड़ों की तरह उसके बदन से चिपकी हुई है

बहन पूछती है क्या करें?
मां पूछती है क्या करें?
पिता पूछते हैं क्या करें?
आखिर क्या करें

अगर दिन बर्फ की तरह जमने के बाद
पिछल नहीं रहें हों
शाम एक छोटी सी खबर की तरह भी
चाय की प्यालियों के बीच कहीं दर्ज न हो
रात पहाड़ से लुढ़कते हुए चट्टानों की आवाज भी
पैदा न कर सके
तो आखिर क्या करें वो
कहाँ जाएँ
क्या वहां दीवारें नहीं होंगी
वहां घर नहीं होगें
वहां चूल्हें, वहां राख
वहां केरोसिन की गंध में डूबे अखबार नहीं होंगे

वे दिन भर टकराते हैं दीवारों से
और रात को चादर की तरह ओढ़ लेते हैं
दीवारों के खिलाफ
दिन को वे काट देते हैं
कबूतर और कौए की प्रतीक्षा में
जो कभी कभार
टीन के छत पर बैठते हैं
पर सिवा बीट के वे कुछ भी नहीं करते

यही होता है यहां और कुछ भी नहीं होता
यह घर टूट नहीं रहा
बस धीरे-धीरे तोड़ रहा है सबको
सब धीरे-धीरे टूट रहे हें इस घर में
एक दिन बचा रह जाएगा बस ये घर
पर क्या घर बचा रह जाएगा
दीवारों से चिपकी ये बुझी आंखें सवाल करती हैं
कौए ऊपर आसमान में उड़ने लगते हैं
मां चुप है, पिता चुप
बहन अपने हाथों को रगड़ते हुए
अपने ठंडे गालों को सेंकती है
भर्रर से दरवाजे के खुलने की
एक जोरदार आवाज होती है
शायद कोई बाहर गया।


2.जाल मछलियाँ और औरतें

वह जो दूर गावं के सिवान पर
पोखर की भीड़ पर
धब्बे की तरह लगातार
हरकत में दिख रहा है
वह मल्लाह टोल है

वहीँ जहाँ खुले में
जाल मछलियाँ और औरतें
सूख रहीं हैं
आहिस्ते –आहिस्ते वे छोड़ रहीं हैं
अपने भीतर का जल –कण

मछलियों में देर तक
भरा जाता है नून
एक एक कर जाल में
लगाये जाते हैं पैबंद
घुंघरुओं की आवाज़ सुनकर
नून सनी मछलियाँ  काँप जाती हैं

मछुवारिने जाल बुनती हैं

पानी की आवाज़ देर तक
सुनते हैं लोग और
पानी के जगने से पहले

औरतें पोंछ लेती है पानी
पानी के अंधकार में वे दुहराती हैं प्रार्थना
हे जल हमें जीवन दो
फिर उसे उलट देती हैं
हे जीवन हमें जल दो

मछलियाँ बेसुध पड़ी हैं नींद में
मछुवारों के पैरों की धमक
सुनती हैं वे नींद में
नींद जो की बरसात के बूंदों की तरह
बूंद-बूंद रिस रहा है

बूंद -बूंद घटता है जीवन
बूंद बूंद जीती हैं मछवारिने
कौन पुकारता है नींद में
ये किसकी आवाज़ है
जो खिचती है समूचा बदन
क्या ये आखरी आवाज़ है
इतना सन्नाटा क्यों है पृथ्वी पर ?

घन-घन- घन गरजते हैं मेघ
झिर-झिर-झिर गिरती हैं बूंदें

देर तक हांड़ी में उबलता हैं पानी
देर तक उसमे झांकती है मछुवारिने
देर तक सिझतें हैं उनके चेहरे

मछलियों के इंतज़ार में बच्चे रो रहे हैं
मछलियों के इंतज़ार में खुले हें है दरवाज़े
मछलियों के इंतज़ार मेंचूल्हों से उठता हैं धुआं
मछलियों के इंतज़ार में गुमसुम बैठी हैं औरतें

मल्लाह देखतें हैं पानी का रंग
जाल फेंकने से पहले कांपती है नाव

मल्लाह गीत गाते हैं
वे उचारते हैं
मछलियाँ मछलियाँ,मछलियाँ
उबलते पानी में कूद जाती हैं औरतें
वे चीखतीं हैं
मछलियाँ,मछलियाँ,मछलियाँ
बच्चे नींद में लुढक जाते हैं
तोतली आवाज़ में कहतें हैं
मतलियां  मतलियां  मतलियां

उठती हैलहर
कंठ में चुभता है शूल
जाल समेटा जा रहा है
तड़प रही हैं मछलियाँ
उनके गलफ़र खुलें हैं
वे आखिरी बार कहती हैं मछलियाँ
मल्लाहों के उल्लास में दब जाती है
यह आखिरी आवाज़

3.बच्चे- 1

बच्चे जो की चोर नहीं थे
चोरी करते हुए पकड़े गए
चोरी करना बुरी बात है
इस एहसास से  वे महरूम थे

दरअसल अभी वे इतने
मासूम और पवित्र थें
की भूखे रहने का
हुनर नहीं सीख पाए थे

4. बच्चे -2

सड़क पर चलते हुए एक बच्चे ने घुमाकर
एक घर की तरफ पत्थर फेंका
एक घर की खिडकी का सीसा टूट गया
पुलिस की बेरहम पिटाई के बाद बच्चे ने कबुल किया
वह बेहद शर्मिंदा है उसका निशाना चूक गया //

5.क्या हम इजरायल को नहीं जानते

                                   

घंटों धुआं उठने के बावजूद
सब कुछ खामोश था
धूल के गुबार और चींखें
वायुमंडल के उपरी सतह पर तैर रही थी
बादलों का कोई पता नहीं था
वैसे भी दुःख में बादल नहीं
आंसू बरसते हैं
आंसू सूख चुके थे

खून के धब्बों का रंग
खून की तरह नहीं
इतिहास की तरह काला पड़ चूका था
युद्ध की घोषणाओं के बगैर
युद्ध लड़ा जा रहा था
इक्कीसवीं सदी का युद्ध

पत्रकार खबरे लिख रहे थे
नेतागण स्पष्टीकरण दे रहे थे
सैनिक युद्ध लड़ रहे थे और
नागरिक अभ्यास कर रहे थे

लेकिन आदमी और औरतें
और बच्चे
और तीन साल के बच्चे और
ढाई साल की गुडिया
और समूचा फिलिस्तीन
और निहत्था फिलिस्तीन
और जैतून के पेड़ों वाला फिलिस्तीन
और अरबी घोड़े वाला फिलिस्तीन
और चितरंगी साफे वाला फिलिस्तीन
और नीली आँखों वाला फिलिस्तीन
बम और गोलियां
और बारूद
घृणा और मांस के लोथरे
और खून
और गालियाँ और अंधकार
झेल रहा था
बादल नहीं थे
दुःख सुख चुके थे
आंसुओं के बगैर रो रहा था फिलिस्तीन
और बच्चे जल रहे थे

वह कोयला होता तो
एक देश समृद्ध होता
इतने बड़े कोयले का टुकड़ा
जरुर वहां कोयले की खान होती
लेकिन वह कोयला नहीं था
उसकी जली हुयी पुतलियों के बावजूद
उसकी ऑंखें चमक रही थी
वह तीन साल का फिलिस्तीनी बच्चा था
वह इजराइल को नहीं जानता था
वह दुःख को भी नहीं जानता था
वह यह भी कहाँ जान पाया था कि
कितना क्रूर सत्य है फिलिस्तीनी होना
वह पिता को जानता था
जो मार दिए गये थे पिछली रात
वह माँ को जनता था
जिसे उठा ले गये इजरायली
वह कुछ और जान पाता
लेकिन उसके पहले
एक बम फेंक दिया गया
उसकी तरफ

वह बम हम सबकी छाती पर लगा
जली हुयी छाती और
उस जले हुए बच्चे की कसम खाकर
पूछता हूँ
क्या हम अब भी इजरायल को
नहीं जानते ?

प्रस्तुति
 नित्यानन्द गायेन
Assitant Editor
International News and Views Corporation

अच्युतानंदअच्युतानंद मिश्र

 

जन्म: 27 फ़रवरी 1981
जन्म स्थान   बोकारो

 

कुछ प्रमुख
कृतियाँ नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता (आलोचना) 

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invc newsआशीष मिश्र

केदारनाथ सिंह की कविताओं पर   Phd

आशीष मिश्र इधर की हिन्दी समीक्षा में रेखांकित किए जाने वाले नवउम्र प्रतिभावान समीक्षक हैं। हिन्दी
को नए सिरे से और अपनी तरह से आँकने का प्रयास कर रहे हैं। उनके निष्कर्ष वैचारिक हलचल से भरे
होते हैं और संवाद की भरपूर इच्छा/ आकांक्षा रखते हैं।

B.H.U से शोधकार्य किया है। फिलहाल मसिजीवी हैं और दिल्ली में रहवास है।

संपर्क :Ak19788@gmail.com –  मोबाइल  : 8010343309

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7 COMMENTS

  1. अब आपका एक स्थाई पता मिल गया हैं ,जब भी आपको पढ़ने का मन होगा तो यहाँ चले आयेंगे ! वरना आजके इस युग में भी किसी किताब और पत्रिका के भरोसे ही रहना पड़ता था ! बधाई हो !

  2. Aw, this was an incredibly nice post. Spending some time and actual effort to generate a good poetry… but what can I say… I hesitate a whole lot and never manage to get nearly anything done

  3. I needed to thank you for this excellent read!! I certainly enjoyed every bit of it. I have got you saved as a favorite to check out new stuff you post…

  4. अचुत्यानंद जी……….आपकी सब की सब कविताएँ बहुत अच्छी हैं…….

  5. ताज़गी से भर देने वाली कवितायेँ. अच्युतानंद जी को बधाई और धन्यवाद!

  6. सौभाग्य ही कहूँगी की इन कविताओं का पाठ मैंने सुना है.. अचुत्यानंद जी से ही.. और सब बहुत अच्छी हैं.. पर मुझे ‘जाल मछलियाँ और औरतें’ बहुत ही अच्छी लगी. कवि को शुभकामनायें!
    बेहतरीन चुनाव नित्यानंद भाई.

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