{सोनाली बोस} आज 8 मार्च याने ”अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस” है। 1975 मेँ संयुक्त राष्ट्र द्वारा पहला अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष मनाया गया था और इसी के साथ आज ये दिन अपने 39 वें वर्ष मेँ प्रवेश कर चुका है। इस वर्ष का थीम “Equality for women is progress for all.” है। लेकिन इस दिन का भारत की महिलाओं के लिए क्या मतलब है?
महिलाओँ के खिलाफ़ होने वाले Sexual violence की सच्चाई से आज पूरा देश वाक़िफ है। दिसंबर 2012 के वहिशियाना Delhi gang rape कांड ने तो देश की राजधानी दिल्ली को एक बेहद दुर्भाग्यपूर्ण खिताब ‘rape capital’ के नाम कुख्यात कर दिया है। आंकड़ोँ के मुताबिक़ हर 18 घंटे मे एक औरत बलात्कार का शिकार होती है।इस तरह के हालात बदलने के लिये हमेँ सबसे पहले अपने विचार, व्यवहार और आचरण को बदलना होगा।लेकिन आज वक़्त और हालात चीख चीख कर एक ही मांग कर रहे हैँ और वो मांग है एक ऐसी मज़बूत क़ानूनी व्यवस्था की जहाँ लिंग भेद के लिये कोई जगह न हो और क़ानूनी दांव पेंच की लड़ाई मेँ शोषित के साथ कोई अन्याय ना हो सके।
फिर भी ना जाने क्यूँ बार बार इसी तरह की शर्मनाक खबरोँ से रोज़ दो-चार होना जैसे हम सबकी मजबूरी बन चुकी है। कुछ दिनोँ पहले की ही घटना है जब पश्चिम बंगाल मेँ एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार की खबर आई थी जिसमेँ गांव के मुखिया के प्रोत्साहन और साथ के बलबूते पर करीब दर्जन भर लोगोँ ने पीड़ीता का बलात्कार सिर्फ इसलिये किया था क्योंकि उसके किसी दूसरे समुदाय के लड़के से प्रेम संबन्ध थे।
लेकिन ये ही तो शायद एक भारी विडंबना है कि इस तरह के कुछ ”case” तो मीडिया मेँ सूर्खियाँ बटोर लेते हैँ और कई मामलोँ मेँ जनता और मीडिया के दबाव के चलते पीड़िता को न्याय भी मिल जाता है लेकिन हम सभी जानते हैँ कि ऐसे ही सैकड़ोँ किस्से हैँ जो या तो पुलिस थाने की सीढ़ियाँ चढ़ ही ना पाये और अगर किसी तरह रिपोर्ट किये भी गये हैँ तो आज फाईलोँ मेँ दर्ज हो वक़्त की धूल खा रहे हैँ।
ऐसे सभी मामलोँ मेँ पुलिस की दिलचस्पी ना होना या ‘बाहरी’ और ‘उपरी’ दबाव मेँ आकर कार्यवाई ना करना भी इस तरह के मामलो को बढ़ावा देता है। उदाहरण के तौर पर एक वाक़्या हम सभी को याद है जहाँ मुंबई की एक 23 वर्षीय IT professional, को एक बेहद व्यस्त ट्रेन स्टेशन से पहले अगुवा किया गया और फिर उसका बलात्कार करके उसे जान से मार दिया गया था।कई दिनोँ तक तो पुलिस ने इस मामले को रजिस्टर ही नहीँ किया और जब उक्त युवती के परिवार वालोँ ने अपने बलबूते पर उसकी लाश खोजी तब कहीँ जाकर ये केस दर्ज हो पाया।
इस केस से ठीक उलट एक और केस है जहाँ एक भारतीय राजनयिक को न्यूयार्क मेँ गिरफ्तार किया जाता है फिर उसे strip-search कर क़ैद मेँ डाल दिया जाता है।इस घटना ने भारत के साथ साथ समूचे अमेरिका को भी हिला के रख दिया था। सरकार ने अपनी राजनयिक के सम्मान की हिफाज़त के लिये एड़ी चोटी का बल लगा दिया था। अपनी विदेशी उच्चायुक्त के असम्मान और बदनामी को दूर करने के लिये हर संभव कोशिश की गई थी और जब तक उसे स सम्मान वतन वापस नहीँ लाया गया तब तक ना तो मीडिया और ना ही सरकार शांत हुए थे।
लेकिन इन दोनोँ ही मामलोँ को आज यहाँ क्योँ प्रकाश मेँ लाया गया है इसके पीछे भी एक कारण है। और वो है क़ानूनी और सामाजिक तौर पर असमानता। जहाँ एक् ओर तो देश की सरकार अगर चाहे तो बेहद फूर्ती से काम करती है जैसा कि भारतीय राजनयिक के मामले मेँ साफ नज़र आता है लेकिन वही कार्यकुशलता और तेज़ी हर मामले मेँ क्यूँ नज़र नहीँ आती है? शायद इसे ही विधी की विडंबना कहेंगे कि जहाँ भारतीय समाज मेँ स्त्री के सम्मान के लिये बड़ी बड़ी बांते की जाती है उसे ‘पूजा’ जाता है लेकिन वहीँ दूसरी ओर हर भारतीय स्त्री को ये सम्मान ‘समान’ तौर पर हासिल क्यूँ नहीँ है? इसकी जवाबदेही किसकी है? शायद इसीलिये हर बार एक ही सवाल दिमाग मेँ कौन्धता है कि आखिर इस तरह का असमान बर्ताव एक ही देश की दो तरह की महिलाओँ के साथ क्यूँ किया जाता है?क्यूँ सभी महिलाओँ को एक ही तराज़ू मेँ नहीँ तौला जाता है? अगर आपके पास रसूख, पैसा और रूतबा नही है तो क्या आप अपनी इज़्ज़त की रक्षा नही कर पायेंगी? क्या आज हमारे देश मेँ न्याय, क़ानूनी सहायता सिर्फ उच्च पदोँ पे आसीन और पैसे वालोँ की ही बपौती बन के रह गई है?
अगर आज हमेँ हमारे देश की पहचान एक सच्चे लोकतंत्र के रूप मेँ क़ायम रखनी है तो हमेँ ये सुनिश्चित करना होगा कि इस देश की हर लड़की फिर चाहे वो किसी भी तबके की हो, को एक ही दृष्टी से देखा जाये।हर महिला के अधिकार और सुरक्षा का पैमाना एक ही हो। जो इज़्ज़त और रूतबा किसी शहरी स्त्री को हासिल है वही ओहदा भारत के सूदूर हिस्से मेँ रहने वाली किसी जनजाती महिला को भी हासिल हो। इज़्ज़त पाने का हक़ सभी भारतीय महिलाओँ का एक समान है और उनके हक़ और सम्मान के लिये हर संभव प्रयास किया जाना उनका अधिकार भी है।
8 मार्च एक महत्तवपूर्ण दिन है लेकिन हमारे देश मेँ ये दिन महज़ एक खानापूर्ती की तारिख ही बन कर ना रह जाये वरन इस दिन को मनाने के पीछे के मक़सद को भी पूरा करना हमारा मिशन होना चाहिये। बेहद निराशा से इस बात को स्वीकार करना पड़्ता है कि आज भी हमारे देश मेँ करोड़ोँ महिलायेँ ऐसी हैँ जो आज भी अपने सामान्य से हक़ भी नहीँ जानती हैँ, शिक्षा की कमी और लिंग भेद के चलते भारतीय सामाजिक ढांचा पूरी तरह से जर्जर हो चुका है।जब तक इस कमी को पूरा नही किया जाता है तब तक ‘महिला दिवस’ मनाना बेमानी होगा।
आखिर मेँ स्वामी विवेकानन्द के इस विचार के साथ अपनी बात खत्म करना चाहुंगी कि ”विश्व के कल्याण की कोई संभावना नहीँ है, जब तक महिलाओँ की हालत मेँ सुधार नही होगा। एक पक्षी के लिये महज़ एक पंख के सहारे उड़ान भरना संभव नहीँ है।”
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लेखिका सोनाली बोस वरिष्ठ पत्रकार है , उप सम्पादक – अंतराष्ट्रीय समाचार एवम विचार निगम –