सत्ता का विभाजनकारी एजेण्डा अर्थात आग से खेलने का प्रयास
निर्मल रानी
इस घटनाक्रम में एक बात तो साफ़ नज़र आई कि भाजपा के रणनीतिकारों ने जाट नेताओं को सरकार का पक्ष रखने की ज़िम्मेदारी देकर एक बार फिर किसान आंदोलन को जातीय रंग देने की कोशिश की जबकि ठीक इसके विपरीत किसानों का यह कहना था कि वे पहले किसान हैं उसके बाद जाट,दलित या हिन्दू अथवा मुसलमान। किसानों के इस विरोध तथा सरकार की असफल कोशिशों से स्पष्ट हो गया कि जहां इस आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए सरकार की विभाजनकारी नीतियां अभी भी जारी हैं वहीँ ऐसी हर कोशिशों के बाद किसान आंदोलन बार बार और अधिक मज़बूत होता जा रहा है। सिख आंदोलन,पंजाब के किसानों का आंदोलन,बड़े किसानों का आंदोलन,आढ़तियों व दलालों का आंदोलन,विदेशी फ़ंडिंग से चलने वाला,नक्सली,अर्बन नक्सली आंदोलन,राजनैतिक दलों के बहकावे जाने वाला आंदोलन आदि सत्ता द्वारा आंदोलन पर लगाए जाने वाले टैग जब कामयाब नहीं हुए तो 26 जनवरी की लाल क़िले की दुर्भाग्यपूर्ण घटना की आड़ में इसे राष्ट्रविरोधी आंदोलन बताने व उसके बहाने सिख समुदाय के विरुद्ध लोगों में क्रोध पैदा करने की भी मीडिया के सहयोग से साज़िश गयी मगर सत्ता प्रतिष्ठान को इसमें भी कोई सफलता नहीं मिली।
हां किसान आंदोलन में जाट समुदाय के लोगों को समझाने की सरकार की कोशिश के जवाब में किसानों ने भी 1907 में ब्रिटिश सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में शहीद भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह के नेतृत्व में 'पगड़ी संभाल जट्टां ' नामक चलाई गई उस मुहिम को एक बार फिर से ज़रूर याद किया जिसने अंग्रेज़ हुकूमत को उस समय भारतीय किसानों पर थोपे जा रहे क़ानूनों को वापस लेने मजबूर कर दिया था। जहां तक जाट नेताओं को मैदान में उतार कर जाट समुदाय के किसानों को समझने का प्रश्न है तो भाजपा में ही हरियाणा के सबसे प्रमुख जाट नेता तथा सर छोटू राम के परिवार के सदस्य चौधरी वीरेंद्र सिंह को सरकार क्यों नहीं समझा सकी ? क्या वजह है कि भाजपा में होते हुए भी चौधरी वीरेंद्र सिंह किसानों के पक्ष में आ खड़े हुए। इसी तरह हरसिमरत कौर न केवल किसानों के आंदोलन का समर्थन कर रही हैं बल्कि केंद्रीय मंत्रिमंडल से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। इस तरह भाजपा के ही कई नेता किसानों के पक्ष में अपनी आवाज़ कहीं खुलकर तो कहीं दबे स्वर में उठाते रहे हैं। परन्तु सरकार को किसानों के हितों के बजाय शायद उनका हित सर्वोपरि नज़र आ रहा है जिन्हें इन क़ानूनों का वास्तव में लाभ पहुंचना है।
मोदी सरकार भले ही बहुमत में ज़रूर है परन्तु किसान आंदोलन से निपटने के जो तरीक़े सरकार ने अपनाये हैं वह सभी दांव सरकार पर उलटे पड़ते जा रहे हैं।सरकार किसानों को जितना ही विभाजित करना चाहती है किसानों की एकता उतनी ही सुदृढ़ होती जा रही है।यहाँ तक कि किसान सत्ता की ओर से की जा रही ऐसी सभी कोशिशों को अब अपने विरुद्ध अपनाए जा रहे 'हथकंडों' के रूप में देखने लगे हैं। यहां तक कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक उन्माद फैला कर वोट बटोरने और दंगे में अग्रणी रहे लोगों को चुनाव मैदान में उतरने व उन्हें मंत्री बनाकर 'सम्मानित' करने जैसे सभी हथकंडे अब किसानों के समक्ष बेनक़ाब हो चुके हैं। किसानों की विभिन्न पंचायतों में भी इस विषय पर किसानों का दर्द छलक चुका है और उन्हें अपनी ग़लतियों का एहसास भी हो रहा है। परन्तु सरकार जिसे देश में आपसी एकता व सद्भाव को बढ़ावा देना चाहिए वह किसान आंदोलन को तोड़ने के लिए बार बार विभाजनकारी एजेंडा चला रही है। इसी तरह पिछले दिनों 21 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्त्ता दिशा रवि को एक टूल किट मामले में यह कहकर गिरफ़्तार किया गया कि वह किसान आंदोलन में चल रही विदेशी साज़िश की हिस्सेदार है। मगर दिल्ली की एक अदालत ने दिशा रवि को ज़मानत देते हुए साफ़ कहा कि 'टूल किट में कहीं भी हिंसा का आवाह्न नहीं किया गया और इसमें देशद्रोह जैसी कोई बात सामने नहीं आई'।अदालत ने यह भी कहा कि 'दिशा के अलगाववादी विचारों से जुड़ने के भी कोई सुबूत नहीं'। बल्कि अदालत ने अपनी इस टिपण्णी से सत्ता को भी आईना दिखाया कि 'एक उदासीन और बेहद विनम्र जनता के मुक़ाबले जागरूक और मुखर जनता एक स्वस्थ और मज़बूत लोकतंत्र का संकेत है। और भारतीय सभ्यता अलग अलग विचारों की कभी विरोधी नहीं रही'। ऐसे में सरकार को अब भी अपनी ऑंखें खोलनी चाहिये और यह समझना चाहिये कि किसान आंदोलन के विरुद्ध चलाया जाने वाला इस तरह का विभाजनकारी एजेण्डा समाधान का नहीं बल्कि सत्ता का आग से खेलने का प्रयास ही कहा जा सकता है।
परिचय –:
निर्मल रानीलेखिका व् सामाजिक चिन्तिका
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !
संपर्क -: E-mail : nirmalrani@gmail.com
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