”पिछले कुछ दिनोँ में घटी कुछ घटनाओँ ने आज ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिर हमारा समाज किस ओर जा रहा है? महिलाओँ के साथ अभद्र और शर्मनाक व्यवहार सदियोँ से होता चला आ रहा है।लेकिन अपनी अभद्रता और मानसिक बिमारी को महिलाओँ के खिलाफ बोलकर छिपाना और महिलाओँ में ही ग़लतियाँ निकालने का हाल फिलहाल जो चलन चल पड़ा है वो यक़िनन नया है।जिस तरह के बयान और टिप्पणीयाँ इन दिनोँ महिलाओँ के विरूद्ध बोली जा रही हैं उसे सुनकर लगता है कि जैसे पुरूष और स्त्री के समान प्रयासोँ से बने इस समाज में नारी सिर्फ आलोचना और छद्म सहानुभूति की वस्तु ही बन कर रह गई है।
समाज के हर तबके के पुरूष ने सिर्फ महिलाओँ के विरूद्ध बोलकर अपनी भड़ास ही निकाली है। आज का ही वाक़्या लेते हैं जिसमेँ केंद्रीय मंत्री फारूख अब्दुल्ला की ये टिप्पणी कि अब तो किसी महिला को पीए रखने से भी डर लगने लगा है और ये कि किसी महिला से बात करने से पहले सोचना पड़ता है, इसी ओर इंगित करता है कि आज का पुरूष अब अपने हर कृत्य को महिलाओँ द्वारा प्रताड़ित किये जाने की श्रेणी में रखना चाहता है।मानती हूँ कि महिला क़ानून की आड़ में बहुत सारे झूठे केस और मामले दर्ज होते हैं लेकिन क्या इन सबसे ये मान लिया जाये कि हर महिला या लड़की एक ही तरह की होती है?कहीँ पर पत्नि के बारे में अभद्रता से बोला जाता है (श्री प्रकाश जयसवाल) कि जब बीवी पुरानी हो जाती है तो उसका मज़ा खत्म हो जाता है। वहीँ मध्य प्रदेश के बीजेपी नेता कैलाश विजयवर्गीय कहते हैं कि यदी महिलाएँ चाहती हैं कि उनके साथ कोई यौन दुर्व्यवहार ना हो तो लड़की और महिलाओँ को अपनी वेश भूषा में शालीनता बरतना चाहिये। आखिर इन सभी से कोई ये पूछे कि कोई इन पुरूषोँ से अपनी सोच और व्यवहार बदलने को क्यूँ नहीं कहता है?राजनीति हो मीडिया हो या फिर न्यायप्रणाली हो,आज हर तबके से सिर्फ इसी तरह के महिलाजनित शिकायतोँ से अखबार और न्यूज़ चैनल पटे हुए हैं। लेकिन सवाल ये है कि आज तक कोई भी गंभीर और मज़बूत क़दम इस दिशा में क्यूँ नहीं उठाया जा सका है।‘दामिनी केस’ के बाद पुलिस रिफ़ॉर्म्स की बात होने लगी है,लेकिन इन हालात को देखकर लगता है कि अब ज़रूरत किसी वर्ग विशेष के रिफ़ॉर्म की नहीं है बल्कि आज ज़रूरत है सोशल रिफ़ॉर्म की। और ये सोशल रिफ़ॉर्म शुरू होगा हमसे और आपसे।सिर्फ न्यूज़ चैनल्स में गर्मागर्म बहस करवाने और अखबारोँ में लिख कर अपने फर्ज़ की खानापूर्ती करके कुछ नहीं होगा।अब ज़रुरत है अपनी मानसिकता में क्रांतिकारी बदलाव लाने की।क्यूँ ये बोला जाता है कि बेटीयोँ को अपनी मर्ज़ी के कपड़े नहीं पहनने चाहिये या एक निश्चित समय सीमा के बाद घर की महिलाओँ और बेटियोँ को घर लौट आना चाहिये? क्या आज शिक्षित और कॉन्फिडेंट महिला होना अभिशाप बनता जा रहा है?आज के तरूण तेजपाल और जस्टिस गांगूली अपनी हरकतोँ को सही दर्शाने के लिये ये कहते क्यूँ नज़र आते हैं कि उस ‘घटना’ के बाद भी पीड़िता ‘नॉर्मल’ थी और अपने काम में व्यस्त थी। तो क्या आप ये कहना चाहते हैं कि ऐसी किसी भी ‘घटना’ के बाद पीड़िता को रोते बिसूरते हुए खुद को कमरे में क़ैद कर लेना चाहिये और खुद को दोषी मानते हुए अपना जीवन काट लेना चाहिये ताकि उन पर ज़्यादती करने वाले पर कोई आंच ना आये? क्यूँ आज एक ‘नाबालिग’ सिर्फ सज़ा पाते वक़्त ‘नाबालिग’ रहता है लेकिन बलात्कार करते समय उससे ज़्यादा परिपक्व और कोई नहीं होता है?आखिर में बस यही कहना चाहुंगी कि सिर्फ कागज़ी खानापूर्ती और‘विशाखा गाईडलाइंस’ का हवाला देने और बहस करने का समय गुज़र चुका है।आज की ज़रूरत है अपने घर और समाज में बदलाव लाने की। हमेँ अपने संस्कारोँ और परवरिश पर ध्यान देना होगा। परिवार और समाज से बेहतर स्कूल और कोई नहीं है।हमारे घरोँ के बच्चोँ की शिक्षा और संस्कार को एक बार फिर नये सिरे से रिफॉर्म की ज़रूरत है।”
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*सोनाली बोस
लेखिका सोनाली बोस वरिष्ठ पत्रकार है , ” अंतराष्ट्रीय समाचार एवं विचार निगम ” में उप सम्पादक पद पर कार्यरत है ।