भ्रष्टाचार की गंगा को प्रवाह देने वालों से सावधान

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curropt1-निर्मल रानी-
सांप्रदायिकता तथा जातिवाद की ही तरह भ्रष्टाचार भी देश के विकास में एक बड़ा रोड़ा साबित होता आ रहा है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विधायिका से लेकर कार्यपालिका तक भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार दिखाई देता है। परंतु इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेता व अधिकारीगण ही स्वयं को भ्रष्टाचार से लडऩे वाले तथा भ्रष्टाचार विरोधी एक महान नायक के रूप में पेश करने की कोशिश करते रहते हैं। ज़ाहिर है धन-दौलत व संपत्ति आदि कौन अर्जित नहीं करना चाहता। परंतु भ्रष्टाचारियों को चूंकि समय से पहले अधिक से अधिक धन कमाने तथा हरामखोरी के द्वारा धनार्जन करने की लत लग चुकी होती है लिहाज़ा इन्हें मेहनत की कमाई या इनकी आय के रूप में मिलने वाला सीमित धन नहीं सुहाता। ऐसे में देश की जनता का ही यह दायित्व है कि चाहे वे नेता हों या अधिकारी इन सब की भ्रष्टाचार संबंधी करतूतों पर पूरी नज़र रखे तथा इन्हेें बेनकाब करने की पूरी कोशिश किया करे। जहां ऐसे लोगों की हकीकत को जनता के समक्ष लाना राष्ट्रसेवा के समान है वहीं इनके भ्रष्टाचार पर पर्दा डालना अथवा इसे सहन करना देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के सिवा और कुछ नहीं।
जहां तक राजनैतिक हल्क़ों में भ्रष्टाचार का प्रश्र है तो प्राय: ऐसी खबर आती है कि अमुक पार्टी नेताओं द्वारा लोकसभा अथवा विधानसभा का टिकट देने हेतु टिकटार्थियों से करोड़ों रुपये लिए जा रहे हैं। उधर आर्थिक रूप से संपन्न टिकटार्थी भी एक करोड़,दो करोड़ या तीन-चार करोड़ रुपये देकर पार्टी टिकट लेने से गुरेज़ नहीं करता। और कई टिकटार्थी ऐसे भी होते हैं जो पार्टी प्रमुख द्वारा मांगे गए पैसे न दे पाने की स्थिति में दूसरी पार्टी का दामन थाम लेते हैं। अब यह सोचने का विषय है कि जो व्यक्ति करोड़ों रुपये खर्च कर पार्टी का टिकट हासिल करेगा और टिकट प्राप्त करने के बाद वही व्यक्ति करोड़ों रुपये अपने चुनाव प्रचार व चुनाव संचालन पर भी खर्च करेगा। और यदि इतनी लंबी-चौड़ी आर्थिक कवायद के बाद वह उम्मीदवार चुनाव जीत भी गया तो मात्र पांच वर्षों की समयावधि में वह व्यक्ति पहले अपने पैसों की भरपाई करेगा या देश या जनता के हित के विषय में सोचेगा? ज़ाहिर है ऐसा व्यक्ति सबसे पहले अपने चुनाव पूर्व तथा चुनाव के दौरान किए गए खर्चों को ही पूरा करेगा। अब यहां यह सोचने की तो ज़रूरत ही नहीं कि इतनी भारी-भरकम रकम ऐसा व्यक्ति किस प्रकार जुटा पाएगा? और इस कशमकश में ऐसा व्यक्ति अपने क्षेत्र,मतदाताओं तथा देश के हित में कार्य करने हेतु कितना समय निकाल सकेगा?
curroptपरंतु उपरोक्त विषय महज़ एक कथा या कहानी ही नहीं बल्कि भारतीय राजनीति की एक बदनुमा हकीकत बन चुका है। अभी पिछले ही दिनों उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के दो प्रमुख नेताओं व पदाधिकारियों स्वामी प्रसाद मौर्य तथा राष्ट्रीय महासचिव एवं पूर्व मंत्री आर के चौधरी ने यही आरोप लगाते हुए बसपा का दामन छोड़ दिया कि पार्टी प्रमुख द्वारा पार्टी कार्यकर्ताओं व नेताओं को चुनावी टिकट देने हेतु पैसे वसूल किए जा रहे हैं। उत्तरप्रदेश में ही कई और उम्मीदवार ऐसे हैं जो मायावती द्वारा तलब किए गए पैसे एकमुश्त या फिर किश्तों में सिर्फ इसलिए पहुंचा रहे हैं ताकि चुनाव की घोषणा होने पर पार्टी केवल उन्हीं को उनके चुनाव क्षेत्र से पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार बना सके। मायावती पर विभिन्न राज्यों के उनकी पार्टी से जुड़े कई नेता पहले भी यह आरोप लगाते रहे हैं कि वे पार्टी की उम्मीवारी से लेकर अपना जन्मदिन मनाने तक को धनसंग्रह के अवसर के रूप में इस्तेमाल करती हैं। दूसरी पार्टियों के कई क़द्दावर नेताओं पर भी इस प्रकार के आरोप लगते रहे हैं। हालांकि इस प्रकार के आरोप लगाए जाने वाले नेताओं की ओर से इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी दूसरी पार्टी की ओर से पार्टी टिकट का प्रस्ताव मिलने पर ऐसे लोग पार्टी छोडऩे का बहाना मात्र बनाने के लिए टिकट बेचने जैसे आरोप लगा बैठते हों। परंतु इस प्रकार के आरोपों की हकीकत को पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता।
ठीक इसी प्रकार कई सरकारी विभागों में भर्ती करने हेतु अधिकारियों द्वारा अथवा चयनकर्ताओं द्वारा उम्मीदवारों से मोटी रकम ऐंठने की खबरें आती रहती हैं। इस प्रकार के आरोपों में लिप्त देश के कुछ प्रमुख नेता अब भी जेल की सलाखों के पीछे हैं। यहां भी यह एक विचारणीय विषय है कि उदाहरण के तौर पर यदि किसी पुलिस विभाग के सिपाही अथवा सब इंस्पेक्टर जैसे पदों की भर्ती हेतु कोई व्यक्ति लाखों रुपये की रिश्वत किसी भी नेता अथवा अधिकारी को देता है तो पैसे देकर भर्ती होने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से सबसे पहले अपने उस आर्थिक बोझ को हल्का करेगा जो उसपर इस नौकरी में आने तक के सफर में उसके सिर पर सवार है। और ऐसा करते-करते ज़ाहिर है वह मुफ्तखोरी तथा रिश्वतखोरी का आदी हो चुका होगा। अब यदि ऐसे छोटे पदों पर बैठा कोई कर्मचारी अथवा अधिकारी जनता से रिश्वत खाने का आदी बन जाता है तो इसमें अधिक दोष किसका है? परंतु हमारे देश की कार्यपालिका की स्थिति भी विधायिका से जुड़े रिश्वत संबंधी बदनुमा चेहरे से काफी मेल खाती है। और यही हालात हमारे देश में घुन लगने जैसी भूमिका अदा कर रहे हैं।
सरकारी ठेकों के हालात भी बिल्कुल इसी तरह हैं। आमतौर पर सरकारी ठेकों के लिए भी ठेकेदारों को लिपिकों से लेकर बड़े अधिकारियों तक को निर्धारित प्रतिशत की दर से रिश्वत बांटनी पड़ती है। उसके बाद ही उसका कोई टेंडर पारित हो पाता है। अब जिस ठेकेदार ने रिश्वत देकर किसी गली,सडक़ अथवा भवन के निर्माण का टेंडर पारित कराया है उस ठेकेदार से उसके द्वारा किए जा रहे निर्माण कार्य में उच्च गुण्वत्ता की उम्मीद आिखर कैसे की जा सकती है? दो ही तरीके हैं। या तो वह अपनी जेब से पैसे खर्च कर उच्च् गुणवत्ता तथा टेंडर में तय किए गए मापदंड के अनुसार निर्माण कार्य को भी पूरा करे और अधिकारियों की रिश्वत की निर्धारित रकम भी बांटे। गोया ठेकेदारी के धंधे को अपने शौक़ तथा ‘घर फूंक तमाशा देखÓ की नीति पर चलते हुए संचालित करे। ज़ाहिर है ऐसी प्रवृति रखने वाला ठेकेदार चिराग लेकर ढंूढने से भी कहीं नहीं मिल सकेगा। और ऐसा ठेकेदार होना भी नहीं चाहिए क्योंकि इस प्रकार का व्यापार अर्थशास्त्र की नीतियों के भी विरुद्ध है। इसके बाद दूसरी सूरत यही बचती है कि वह निर्धारित निर्माण कार्य की निर्धारित गुणवत्ता के मापदंड को पूरी तरह से नज़र अंदाज़ करते हुए ठेके हेतु निर्धारित की गई रकम में से ही निर्माण कार्य को भी जैसे-तैसे पूरा करे,उसी रकम में से अपने बाल-बच्चों की परवरिश हेतु अपना मुनाफा भी कमाए और उसे ठेका आबंटित किए जाने की ‘कृपाÓ करने वाले अधिकारियों व लिपिकों को उसी रकम में से उनका प्रतिशत भी पहुंचाए।
अब ऐसे निर्माण कार्य के बाद यदि भवन,सडक़ें, गलियां अथवा दूसरे कोई सरकारी निर्माण समय से पूर्व क्षतिग्रस्त अथवा ध्वस्त हो जाते हैं तो इसमें अधिक जि़म्मेदारी किसकी है? ज़ाहिर है ठेकेदार से अधिक जि़म्मेदार वे अधिकारी ही हैं जो कमज़ोर निर्माण करने हेतु किसी ठेकेदार को बाध्य करते हैं। ऐसे पूरे नेटवर्क को न तो जनता के दु:ख-दर्द का एहसास होता है न ही इन्हें इस बात की कोई िफक्र रहती है कि देश की जनता के टैक्स का पैसा नाजायज़ तरीके से रिश्वत के रूप में खाकर यह सरकारी नौकर होने के बावजूद देश की आर्थिक प्रगति की राह में कितना बड़ा रोड़ा बने बैठे हैं। परंतु यदि आप किसी ऐसे रिश्वतखोर अधिकारी से निजी स्तर पर इस विषय पर वार्ता करें और उन्हें उनकी गलतियों या कमियों का एहसास दिलाने की कोशिश करें तो यह भ्रष्ट अधिकारी भ्रष्ट राजनैतिक व्यवस्था पर उंगली उठाकर अपने बचाव की कोशिश करते देखे जाते हैं। इसी प्रकार यदि किसी सिपाही को उसकी रिश्वतखोरी के लिए टोकने की कोशिश करिए तो वह अपने उच्चाधिकारियों की ओर इशारा कर स्वयं को बचाने की कोशिश करते दिखाई देगा। किसी विधायक से पूछिए कि तुमने इतने कम समय में इतनी संपत्ति कैसे बनाई तो वह अपने बचाव में किसी मंत्री अथवा मुख्यमंत्री का उदाहरण पेश करते हुए यह कहेगा कि यह सवाल उनसे भी जाकर पूछिए।
गोया हमारे देश की लगभग पूरी की पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार में पूरी तरह डूबी हुई है। और ऐसे हालात देश की प्रगति तथा विकास के लिए एक बहुत बड़ी बाधा हैं। अब यह देश की जनता का फजऱ् है कि वह भ्रष्टाचार की गंगा को प्रवाह देने वालों से न केवल सावधान रहे बल्कि ऐसे लोगों के भ्रष्ट व काले कारनामों को उजागर करने का साहस भी करे। यदि देश की जनता राष्ट्रहित में ऐसे भ्रष्ट नेताओं तथा भ्रष्ट अधिकारियों को समय-समय पर बेनकाब नहीं करती तो जिस प्रकार सांप्रदायिकता तथा जातिवाद जैसे घुन हमारे देश के विकास में एक बड़ी बाधा साबित हो रहे हैं ठीक उसी प्रकार आर्थिक भ्रष्टाचार भी देश के आर्थिक विकास में एक बड़ी बाधा साबित होगा। और ऐसे लोगों की अनदेखी करने की स्थिति में हम भी देश के बिगड़ते हालात के लिए बराबर के जि़म्मेदार होंगे।

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???????????????????????????????परिचय – :
निर्मल रानी
लेखिका व्  सामाजिक चिन्तिका 

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं !

संपर्क -:
Nirmal Rani  : 1622/11 Mahavir Nagar Ambala City13 4002 Haryana ,
Email : nirmalrani@gmail.com –  phone : 09729229728

* Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC NEWS

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