बेल पका, कौए के बाप का क्या

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अन्ना हजारे{ इमरान नियाज़ी ** }
पेड़ पर बेल का फल पक भी जाये तो कौए बेचारे को क्या फर्क पड़ता है क्या करेगा कौआ खुश होकर, कौए बेचारे को तो कुछ मिलना है ही नहीं। बेकार ही उझले खुशी में। जी हां आप ठीक समझे हमारा मतलब है लोकपाल पास हो गया इससे गुलाम जनता को क्या फायदा? क्यों उछल  रहे हैं गुलाम जनता के लोग। जी हां जरा नजर उठाकर देखिये तो सही कितने बिल इन्हीं तरह के बहानों के साथ पास  किये गये, अहसान गुलामों पर बेहिसाब लादा गया लेकिन कया आजतक किसी भी कानून में गुलाम जनता को इज्जत मिली राहत मिली या इंसाफ मिला? शायद किसी के पास ऐसा कोई सबूत हो कि जिससे यह साबित हो सके कि फलां  बिल ने फलां गुलाम को इंसाफ दिया या राहत दी या फिर इज्जत सम्मान दिया। पहली बात तो यह कि भारत का पूरा  का पूरा संविधान और खासतौर पर फौजदारी से सम्बन्धित सभी प्रावधान ब्रिटिश रूल ही हैं कोई बदलाव नहीं आया 15 अगस्त 1947 से पहले और बाद के नियमों में सुरक्षा बलों को अनावश्यक अधिकार और छूट दिया जाना यह बताता है कि देश वासी आज भी ज्यों के त्यों गुलाम ही हैं। कानून की सभी सख्तियां सिर्फ गुलामों पर ही लागू होती है वर्दी पर  कोई कानून नहीं लागू नहीं होता। अगर बात करें लोकपाल जैसे बिल की तो देखिये लोकायुक्त बैठाया गया, बड़ी वावैला  की गयी गुलामों को यह राहत मिलेगी वो इंसाफ मिलेगा……., मिला क्या ? लोकायुक्त से किसी भी मामले की शिकायत करने का रास्ता ही इतना कठिन और टेढ़ा मेढ़ा बनाया गया कि गुलाम की कराहट लोकायुक्त नामक चीज के  पास पहुंचती ही नहीं। सब ही जानते हैं कि देश की गुलाम जनता ज्यादा तर पुलिसिया जुल्म की शिकार बनाई जाती है  ओर लोकायुक्त पुलिसिया जुल्म के खिलाफ शिकायतें सुनना पसन्द नहीं करते या यह कहिये कि लोकायुक्त को पुलिस के खिलाफ शिकायत सुनने का अधिकार नहीं हैं। दूसरी बात लोकायुक्त को शिकायत देने की प्रक्रिया इतनी कठिन है कि गुलाम जनता का कोई भी भुक्तभोगी अपना दर्द लोकायुक्त को बता ही नहीं सकता। 2005 में बेशुमार ढोल ताशों के साथ जन सूचना अधिकार अधिनियम लाया गया। गुलाम जनता पर एहसानों के पहाड़  लादे गये हर खददरधारी के मुंह पर एक ही नारा सुनाई पड़ रहा था जनता को अधिकार दिया गया अब जनता कोई भी  जानकारी हासिल कर सकेगी वगैरा वगैरा……. जनता (गुलामों) को वास्तविक अधिकार मिला क्या? 2005 से  आजतक एक भी मामला ऐसा नहीं सुनने में आया जिसमें किसी गुलाम द्वारा चाही गयी जानकारी दी गयी हो, अगर  दी गयी तो सही ओर पूरी नहीं दी गयी। इस अधिनियम के अनुपालन की निगरानी करने के लिए राज्य स्तर पर  आयोगों के गठन किये गये, क्या इन आयोगों ने पूरी तरह से गुलामों की मदद की? गुलाम जनता को जानकारी  दिलाना तो दूर की बात है यहां तो आयोग खुद ही सूचनाये नहीं देते मिसाल के तोर पर तीन साल पहले उत्तर प्रदेश  राज्य सूचना आयोग से अपनी ही एक अपील की बाबत सूचनाये मांगी गयी जोकि आजतक नहीं दी गयी। आयोग को  जो अपील दी जाती है तो आयोग सूचनायें ने देने वाले अधिकारी, कार्यालय को बचाने के लिए अपील सुनवाई की  तिथि के दिन ही वह भी कार्य समय बीतने के बाद (दोपहर बाद) अपील कर्ता को सूचित करते हैं जाहिर है कि  सुनवाई के समय आयेग में पहुंच ही नहीं सकता और आयोग को अपील खारिज करने का बहाना हाथ लग जाता है  (ऐसा मेरी दर्जनों अपीलों पर किया जाता रहा है) जन सूचना अधिकार अधिनियम 2005 का लगभग इसी तरह से पूरे देश में दीवाला निकाला जा रहा है। लेकिन खददरधारियों खासतौर पर कांग्रेसी इस अधिनियम को लेकर अपनी पीठ  थपथपाते नहीं थक रहे, राहुल को कोई दूसरी बात ही नहीं होती बस गुलामों पर सूचना अधिकार को एहसान लादने के  अलावा। इसी तरह देश के मुख्य मार्गो को सुधारने का ड्रामा हुआ, सुधरने लगे रोड लेकिन इन सुधारों से जयादा  कीमत पर गुलामों को लूटा जाने लगा, हर 30-40 किलोमीटर के फासले पर रंगदारी वसूली सैन्टर खोल दिये गये,  यानी अब गुलामों को अपने ही देश में आने जाने पर भी सरकार के पालतुओं को रंग दारी देना पड़ती है। हाईवे पर  सरकारी रंगदारी वसूलने की हद तो यह है कि गुलामों को अपने ही जिले में आने जाने पर रंगदारी देनी पड़ रही है। लोकायुक्त, सूचना अधिकार अधिनियम के हश्र को देखने के बाद यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि  लोकपाल का हश्र इससे भी कहीं ज्यादा गया गुजरा होगा। अभी तो लोग ऐसे कूद रहे हैं कि मानों गुलामों को ही सारी  पावर मिल गयी हो। खददरधारी खासकर कांग्रेसी तो गुलामों पर एहसानों के पहाड़ लादते नहीं थक रहे, लोकपाल नामक  लालीपाप को कुछ इस तरह से बताया प्रचारित किया जा रहा है मानों गुलामों को ही कुर्सी देदी। लोकपाल किसी गुलाम  की सुनने के लिए नहीं है साथ ही भ्रष्टाचार की फैक्ट्रियां यानी राजनैतिक दलों को लोकपाल के दायरे से बाहर भी रखने  का इन्तेजाम कर लिया गया। फिर कया करेगा लोकपाल? लोकपाल को शिकायत देने की प्रक्रिया इतनी टेढ़ी खीर है जो  कि बड़े बड़े नहीं कर सकते तो गुलाम जनता की ओकात ही क्या है। दूसरी बात यह भी है कि लोकपाल सिर्फ उन्हीं मामलों में दखल देगा जिनका गुलाम जनता का कम ही वास्ता पड़ता है। लेकिन एहसान तो गुलामों पर ही है।  खददरधारियों को खुश होना तो ठीक है क्योंकि खददरधारी लोकपाल के दायरे से बाहर रहेंगे। रही अन्ना हजारे की बात  तो अन्ना का मकसद हल हो गया फिलहाल वीवीआईपी तो बना ही दिया गया ओर जल्दी ही कोई अच्छी मलाईदार  कुर्सी भी मिल ही जायेगी, मिलना भी चाहिये उनका हक बनता है देश के संवैधानिक पदों पर जमने का, आखिर  (मीडिया के अनुसार) युद्ध के मैदान से भागना सबके बसकी बात तो है नहीं सच्चा देश भक्त ही ऐसा बड़ा कदम उठा  सकता है, अब्दुल हमीद जैसे नासमझ होते है जो मरना पसन्द करते हैं देश की रक्षा से भागते नहीं, तो उन्हें कोई  हक नहीं पहुंचता किसी सुरक्षा या संवैधानिक पद पर बैठने का। लोकपाल की बात है। बड़ी बड़ी ढींगे मारी जा रही है   कि लोकपाल ये करेगा लोकपाल वो करेगा, कुछेक का कहना है कि लोकपाल बैठने के बाद भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा वगैरा वगैरा…….. सवाल यह पैदा होता है कि लोकपाल भ्रष्टाचार खत्म कर देगा या फिर खुद लोकपाल ही भ्रष्ट  होकर रह जायेगा? जहां तक सवाल भ्रष्टाचार खत्म होने का है तो हम दावे के साथ कह सकते है कि कम से कम  भारत जैसे देश जहां हजारों बेगुनाहों का कत्लेआम करने वाले को सम्मान व चुरूस्कार दिये जाने की प्रथा हो जहां इतने बड़े पैमाने पर आतंक मचाने वाले को अदालते निर्दोष घोषित करती हो, जहां की अदालतें यह कहते हुए किसी को भी  मौत के घाट उतारती हों कि “इसके आतंक से जुड़े होने का कोई सबूत नहीं है”। ऐसे महान देश में लोकपाल दूध का  धुला बना रहे, ऐसी उम्मीद करना भी पागल पन के सिवा कुछ नहीं। लोपाल का ही छोटा रूप है लोकायुक्त, क्या हश्र  बनाया गया है लोकायुक्त का सभी जानते हैं। भ्रष्टाचार खात्में की ढीगों के साथ “सूचना अधिकार अधिनियम” लाया  गया…………, किस तरह से बेड़ा गर्क किया गया इस कानून का यह किसी से छिपा नहीं है। इन हालात में  लोकपाल नामक लालीपाप से कोई उम्मीद कैसे की जा सकती है। कम से कम गुलाम जनता को लोपाल की खुशी में कूदने की जरूरत ही नहीं हां खददरधारियों और अन्ना हजारे का उछलना जायज है कयोंकि खददरधारियों को एक ओर  कठपुत्ली मिल गयी और अन्ना को लोकपाल नामक ब्लैंक चैक।
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IMRAN_NIAZI
*लेखक : इमरान नियाजी वरिष्ठ पत्रकार एंव “अन्याय विवेचक” के सम्पादक हैं।
*लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और आई.एन.वी.सी का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं।

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