प्रवृति: सरकारी संसाधनों से भीड़ जुटाने की

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nirma2{ निर्मल रानी }
विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारतवर्ष वैसे तो अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए पूरे विश्व के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करता है। परंतु वास्तव में इस भारतीय लोकतंत्र के ठेकेदार तथा स्वयंभू पहरेदार अपनी ओर से इसे भीड़तंत्र में परिवर्तित किए जाने की कोई कसर बा$की नहीं उठा रखते। प्राय: यही देखा जाता है कि विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा अपने किसी आयोजन विशेषकर रैली,सार्वजनिक सभा,जनसभा तथा जनशक्ति का प्रदर्शन करने वाले अन्य आयोजनों में स्वेच्छा से लोगों के आने की प्रतीक्षा करने के बजाए अपने निजी व सरकारी संसाधनों का प्रयोग कर भारी भीड़ इक_ी होने का ढोंगपूर्ण प्रदर्शन किया जाता है। यह त्रासदी देश के किसी एक राजनैतिक दल अथवा संगठन की नहीं है बल्कि आमतौर पर देश की लगभग सभी पार्टियां अपने पक्ष में वातावरण तैयार करने के लिए यह रास्ता अ$िख्तयार करती हैं। अक्सर ऐसा भी देखा जाता है कि राज्य सरकारें अथवा राज्य प्रशासन अपने आ$काओं को $खुश करने के लिए या केंद्रीय हाईकमान को अपनी शक्ति दिखाने के लिए यह रास्ता अपनाती हैं। इन सब के पीछे प्राय: नेताओं,पार्टियों व आयोजकों का यही म$कसद होता है कि वे भारी जनसमूह का दृश्य समाचार पत्रों व टेलीविज़न के माध्यम से लोगों तक पहुंचाकर यह जताने की कोशिश करें कि चूंकि जनता मेेरे साथ है इसलिए बाज़ी भी मेरे हाथ है। सवाल यह है कि क्या सरकारी तंत्रों का उपयोग कर अपनी-अपनी पार्टी की तथा संगठन की स्थिति को मज़बूत करके दर्शाना उचित है? $कानूनी तौर पर क्या इसे जायज़ कहा जा सकता है?
इन दिनों देश में एक नया वातावरण नरेंद्र मोदी के पक्ष में बनाए जाने की कोशिश की जा रही है। इसमें भाजपा शासित राज्यों विशेषकर गुजरात राज्य द्वारा नरेंद्र मोदी की सभाओं में भीड़ जुटाने हेतु बड़े पैमाने पर न केवल सरकारी संसाधनों का उपयोग किया जा रहा है बल्कि इस काम के लिए भारी-भरकम धनराशी भी $खर्च की जा रही है। इस का म$कसद केवल और केवल एक ही है कि किसी प्रकार भाजपा देश के लोगों को यह दिखला व समझा सके कि पूरा देश इस समय केवल नरेंद्र मोदी के ही साथ है। परंतु दरअसल इस प्रकार से जुटाई गई भीड़ तथा ऐसे आयोजनों की सफलता के पीछे का वास्तविक रहस्य तो कुछ और ही होता है। उदाहरण के तौर पर गत् 15 दिसंबर को भाजपा ने पूरे देश में ‘रन $फार यूनिटी’ के नाम से एक नागरिक दौड़ का कार्यक्रम आयोजित किया। देश में जहां-जहां भी भाजपा संगठन सक्रिय हैं प्राय: सभी जगहों पर इस दौड़ में स्थानीय भाजपा समर्थक कहीं कम तो कहीं ज़्यादा शामिल हुए। पंरतु चंूकि यह दौड़ लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम समर्पित की गई थी तथा इसका संबंध सरदार पटेल की 182 $फुट ऊंची नर्मदा नदी के मध्य बनने वाली उस विशाल प्रतिमा से था जिसे बनाए जाने की नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी,इसलिए इस मैराथन दौड़ में गुजरात राज्य प्रशासन तथा राज्य के लगभग सभी सरकारी विभाग बेहद सक्रिय दिखाई दिए। पूरे राज्य में सरकारी कार्यालयों के साथ-साथ शिक्षण संस्थाओं को भी इस मैराथन में भाग लेने के निर्देश जारी किए गए। और जिस किसी ने इस निर्देश की अवहेलना की उसे इसकी सज़ा भी भुगतनी पड़ी। क्या इसे सच्चा व स्वतंत्र विचारधारा रखने वाला लोकतंत्र कहा जा सकता है।
गुजरात के जामनगर जि़ले के एक कॉलेज के छात्र पर वहां के प्रधानाचार्य द्वारा केवल इसलिए सौ रुपये का जुर्माना लगा दिया गया क्योंकि उसने राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित रन $फार यूनिटी नामक मैराथन रेस में 15 दिसंबर को भाग नहीं लिया था। स्थानीय मीडिया द्वारा इस घटना के लिए कॉलेज प्रशासन के साथ-साथ राज्य सरकार की भी बहुत आलोचना की गई। इस आशय की नोटिस भी सभी स्कूलों व कॉलेजों में चिपकाई गई थी जिसमें यह भी लिखा गया था कि यदि बच्चे इस मैराथन में भाग नहीं लेते तो उन्हें जुर्माना भी भरना पड़ेगा तथा परीक्षा में भी प्रवेश नहीं मिलेगा। इतना ही नहीं राज्य सरकार के सभी विभाग नगरपालिका, स्वास्थय,शिक्षा, सिंचाई तथा पुलिस आदि सभी विभागों के अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक भारतीय जनता पार्टी द्वारा आयोजित इस मैराथन दौड़ में शामिल होते दिखाई दिए। ज़ाहिर है इस प्रकार के नोटिस जारी होने के पश्चात तथा यह जानने के बाद कि इस दौड़ के जनक स्वयं नरेंद्र मोदी ही हैं तथा यह दौड़ उन्हीें को राष्ट्रीय स्तर पर ‘प्रोजेक्ट’ किए जाने व उनके पक्ष में जनसमर्थन जुटाए जाने का ही एक फंडा मात्र है, आ$िखर कौन सरकारी कर्मचारी अथवा छात्र इस में भाग न लेने का साहस कर सकता है? परंतु ऐसे आयोजन की सफलता व इनमें हथकंडे अपनाकर भारी भीड़ का जुटाना कम से कम स्वैच्छिक तरी$के से जुटी भीड़ तो नहीं कहा जा सकता।
कुछ ऐसा ही नज़ारा पिछले दिनों मुंबई में नरेंद्र मोदी की रैली में भी देखा गया। चंूकि नरेंद्र मोदी के जीवन की शुरुआत एक चाय की दुकान पर चाय बेचने वाले के रूप में हुई है लिहाज़ा इन दिनों नरेंद्र मोदी यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि यह भारतीय लोकतंत्र की सफलता की पराकाष्ठा है कि यहां एक चाय बेचने वाला भी प्रधानमंत्री पद के लिए अपना दावा पेश कर सकता है। अपनी मुंबई की महागर्जना रैली में नरेंद्र मोदी ने यही दर्शाने के लिए दस हज़ार चाय बेचने वाले लोगों को अपने सरकारी संसाधनों का प्रयोग कर आमंत्रित किया। इसमें अधिकांश लोग गुजरात राज्य से लाए गए। इस रैली की सफलता हेतु सौ से अधिक रेलगाडिय़ां बुक की गई थीं। केवल गुजरात राज्य से पांच हज़ार बसों का प्रबंध कर मुंबई में रैली को सफल बनाने का ढोंग रचा गया था। ज़ाहिर है पांच हज़ार बसें बिना राज्य सरकार के निर्देशों के कहीं नहीं जा सकतीं। इतने यत्न किए जाने के बाद रैली की सफलता का ढिंढोरा पीटा गया, उसमें लाखों लोगों की उपस्थिति बताई गई तथा नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पूरा देश देखना चाहता है इस आशय का संदेश मुंबई रैली के माध्यम से देने की कोशिश की गई।
भीड़ जुटाने की यह कला तथा इसके लिए सरकारी संसाधनों का उपयोग करना अथवा परिवहन तथा यातायात विभाग के अधिकारियों व कर्मचारियों की सहायता से  निजी वाहनों को धक्के व ज़ोर-ज़बरदस्ती से पकडक़र अपने आयोजन के लिए प्रयोग करना केवल भारतीय जनता पार्टी को ही नहीं आता बल्कि वास्तव में कांग्रेस पार्टी को यदि ऐसे बुरे,$गैर$कानूनी व अनैतिक तरी$के से भीड़ जुटाने की कला का जनक कहा जाए तो यह $गलत नहीं होगा। कांग्रेस पार्टी ने भी हमेशा ही भीड़ जुटाने के लिए इसी प्रकार से अपने शासन व सरकारी संसाधनों का उपयोग किया है। और आज उसका नतीजा सामने नज़र भी आ रहा है। ज़ोर-ज़बरदस्ती,लालचवश, भयवश अथवा स्वार्थवश जुटाई जाने वाली कांग्रेस पार्टी के समर्थन में खड़ी नज़र आने वाली वह भीड़ अब धीरे-धीरे खिसकती जा रही है। तमाशाई कही जाने वाली यह भीड़ आ$िखकार मतदान के समय कहां $गायब हो रही है? राहुल गांधी के उत्तर प्रदेश में हुए रोड शो में भी भारी भीड़ नज़र आती थी। परंतु गत् वर्ष उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के परिणाम ने भी साबित कर दिया कि जुटाई गई भीड़ तथा स्वैच्छिक रूप से मतदान करने वालों में कितना अंतर होता है। भीड़ जुटाने के ऐसे ही हथकंडे लगभग सभी क्षेत्रीय दलों द्वारा भी अपनाए जाते हैं। गोया भारतीय लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने की इन नेताओं द्वारा पुरज़ोर कोशिश की जाती रही है।
इस भीड़ अथवा भारी जनसमूह से जुड़ा एक सवाल यह भी है कि क्या आम लोगों की भारी भीड़ हमेशा सकारात्मक अथवा रचनात्मक सोच का प्रतिनिधित्व करती है? कभी-कभार किसी भीड़ को तबाही,बर्बादी तथा आतंक का पर्याय बनते भी देखा जा सकता है। आज पूरे विश्व में हिटलर का नाम एक ऐसे क्रूर तानाशाह के रूप में लिया जाता है जिसने कि केवल ज़ोर-ज़बरदस्ती,तानाशाही तथा अमानवीयता के रास्ते पर चलते हुए लाखों लोगों का $खून बहाकर सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत रखने में सफलता हासिल की। उसके शासन काल में ऐसा प्रतीत होता था गोया केवल जर्मन ही नहीं बल्कि आधी दुनिया उसके साथ है। उसकी क्रूरता के कारण ऐसा वातावरण बन चुका था कि आधे लोग यदि उसके समर्थक होने के नाते उसके साथ खड़े दिखाई देते थे तो शेष आधे लोग उसके भयवश उसके पक्ष में खड़े हो जाते थे। लिहाज़ा यह कहना कि जिसके साथ अधिक भीड़ है या जो नेता भीड़ को आकर्षित करने की क्षमता रखता है वह सर्वमान्य व सर्वस्वीकार्य है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। हमारे देश ने तमाम ऐसे अवसरों पर भीड़ को ऐसा तांडव करते देखा है जो देश के माथे पर कलंक के सिवा कुछ भी नहीं। इनमें 1947 की विभाजन त्रासदी, 1984 के सिख विरोधी दंगे, 1992 का अयोध्या विध्वंस कांड,2002 के गुजरात दंगे तथा उसके बाद कंधमाल,आसाम व मुज़्ज़$फरनगर जैसी जगहों पर होने वाली हिंसा इस बात का प्रमाण है कि भीड़ हमेशा सकारात्मक व रचनात्मक ही नहीं होती बल्कि कभी-कभी यह विध्वंस का भी प्रतीक बन जाती है। लिहाज़ा न तो सरकारी संसाधनों से जुटाई गई भीड़ को सही ठहराया जा सकता है न ही उन्मादी भीड़ को। वास्तव में जनसमूह का समर्थन  तो उसी को कहा जा सकता है जो स्वयं, स्वेच्छा से तथा किसी नेक म$कसद को लेकर इक_ा हो। जैसाकि इन दिनों राजनीति के बदलते परिवेश में देखा भी जा रहा है।

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unnamed**निर्मल रानी कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर निर्मल रानी गत 15 वर्षों से देश के विभिन्न समाचारपत्रों, पत्रिकाओं व न्यूज़ वेबसाइट्स में सक्रिय रूप से स्तंभकार के रूप में लेखन कर रही हैं.

Nirmal Rani (Writer )
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*Disclaimer : The views expressed by the author in this feature are entirely her own and do not necessarily reflect the views of INVC

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